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दिल घूम-घूम करे तो याद रखें ये बातें...

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जब मन किया चल दिए, जहां मन किया रुक गए। कोई खूबसूरत लोकेशन दिखी तो रुककर सेल्फी ले ली। छोटा-सा ढाबा दिखा तो चाय की चुस्कियों के साथ लोकल लोगों के संग बतिया लिए। न बस पकड़ने की आपाधापी, न ट्रेन छूटने का डर। अलमस्त आवारा बादलों की तरह ऐसी घुमक्कड़ी किसी बंधन में मुमकिन नहीं। इसके लिए चाहिए अपनी बाइक या कार और आजाद ख्याल। बस चाबी घुमाइए और चल पड़िए। अगर आप भी अपनी कार या बाइक से देश-दुनिया के चक्कर लगाना चाहते हैं तो वरुण वागीश की ये जानकारियां आपके काम आएंगी:

हिमालय के सुदूर इलाकों में जहां बस नहीं पहुंच पाती, मेरी बाइक ने पहुंचा दिया। पूर्वोत्तर भारत के जिन इलाकों में ट्रेन अब भी सपना है, वहां अपनी कार ने हमें चलते-फिरते घर जैसा आराम दिया। नेपाल और भूटान जाने से पहले ट्रांसपोर्ट संबंधी कई बुनियादी जानकारी नहीं मिल पाई थी तो अपनी गाड़ी से चले गए। एडवेंचर के साथ-साथ एक सुरक्षा की भावना भी अपनी गाड़ी से घूमते हुए रहती है। मिसाल के तौर पर अरुणाचल प्रदेश के सुदूर उत्तर में मेंचुका जाते हुए रास्ता बेहद खराब था। अंधेरा हो गया था, लेकिन मन में डर नहीं था। तय कर रखा था होटल मिला तो ठीक, वरना कार में ही सो जाऊंगा। इसी उम्मीद ने हौसला पस्त नहीं होने दिया और एक गांव में पनाह मिल ही गई। जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह इलाके से उस रास्ते लौटने का मन नहीं था, जिससे गए थे। एक और रास्ते का पता चला, जो जंगलों से होता हुआ सीधे हिमाचल प्रदेश के चंबा निकल जाता है, लेकिन उधर से दिन में इक्का-दुक्का कोई जीप ही गुजरती है। उस वक्त बाइक थी तो सोचा क्यों न नया रास्ता देखा जाए! जब सफर शुरू किया तो कुदरत के ऐसे नजारे देखने को मिल रहे थे, जो कल्पना से ज्यादा सुंदर थे। सारथल होते हुए सीधे चंबा निकले। वहां से डलहौजी और पठानकोट होते हुए दिल्ली। वाकई अपनी गाड़ी से घूमने में होने वाली सुविधा का कोई जवाब नहीं। हालांकि इससे पहले कि आप सफर पर निकलें, अपनी और गाड़ी की जरूरत को ध्यान में रखते हुए कुछ बुनियादी तैयारी कर लें। ऐसे किसी ट्रिप पर निकलने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है। रास्ते की जानकारी: मैप की मदद लें।


मोबाइल में गूगल मैप्स का सहारा लें। ऑफलाइन मैप्स भी डाउनलोड कर लें। इंटरनेट न होने पर गूगल मैप्स काम नहीं कर पाता। गूगल मैप्स ऑफलाइन इस्तेमाल के लिए डाउनलोड हो सकते हैं। ऐप स्टोर से आप ऐसे दूसरे मैप्स भी डाउनलोड कर उसे यूज करने का तरीका इंटरनेट से सीख सकते हैं। जेब इजाजत दे तो गार्मिन के जीपीएस बेस्ड नैविगेटर डिवाइस भी खरीदे जा सकते हैं, जोकि 6000 रुपये से शुरू होते हैं। मौसम की जानकारी: जहां जा रहे हैं इंटरनेट के जरिए उस इलाके के मौसम की जानकारी लें और कपड़े उसी हिसाब से रखें। जींस के अलावा सिंथेटिक कपड़े रखना ज्यादा बेहतर है क्योंकि इनकी देखभाल की कम जरूरत पड़ती है। रुकने की जगह: एडवांस में होटल बुक करवाना जरूरी नहीं। इससे यात्रा के दौरान फिजूल दबाव रहता है, जो आपको ड्राइव का मजा पूरी तरह नहीं लेने देता। फिर भी यह जानकारी जरूर रखें कि रास्ते में पड़ने वाले शहर कितनी दूरी पर हैं ताकि जरूरत पड़ने पर आप वहां पहुंचने के समय का सही अंदाजा लगा सकें। वैसे, गांव-देहात में आज भी लोग टूरिस्टों को आसानी से अपने घर में पनाह दे देते हैं। इससे आपको लोकल चीजों को पास से जानने का मौका मिलता है। गुरुद्वारे में भी मुफ्त में रात गुजार सकते हैं। वैसे , ऑनलाइन होटल बुकिंग साइट्स से आप लगातार अच्छी डील की जानकारी ले सकते हैं।


इमर्जेंसी नंबरों की जानकारी: किसी भी इमर्जेंसी में मदद हासिल कर सकें, इसके लिए इमर्जेंसी नंबरों की जानकारी पहले से लेकर चलें। सबसे काम का नंबर है 100। आप जहां से भी गुज़रेंगे, वहीं के लोकल पुलिस कंट्रोल रूम से यह नंबर कनेक्ट हो जाएगा। अगर मामला पुलिस से जुड़ा नहीं है तो भी मामले की गंभीरता को देखते हुए वे आपको स्थानीय नंबरों की जानकारी दे देंगे। इसके अलावा आमतौर पर हर हाइवे पर इमर्जेंसी नंबर लिखे रहते हैं, जिनसे दुर्घटना जैसे हालात में तुरंत मदद ली जा सकती है। अपने डॉक्टर और गाड़ी मैकेनिक या वर्कशॉप का नंबर भी साथ रखें। गाड़ी की सर्विस बुक में देशभर के सर्विस सेंटरों के एड्रेस और फोन नंबर की लिस्ट होती है, उसे भी संभालकर रखें।

􀀀अपनों के टच में रहें: स्मार्ट फोन की मदद से अपनी लोकेशन रियल टाइम में घर बैठे शुभचिंतकों के साथ शेयर की जा सकती है। उनके स्मार्ट फोन में family Locator ऐप डाल दें। आप सफर में जहां कहीं भी होंगे, उन्हें इसकी जानकारी रियल टाइम में मिलती रहेगी। अपने ऐप स्टोर में फैमिली लोकेटर सर्च करें। ऐसे दर्जनों ऐप मिल जाएंगे। अहम जानकारी नोट करें: अपना नाम, ब्लड ग्रुप और एक इमरजेंसी नंबर एक कार्ड पर लिखकर हमेशा अपनी जेब या पर्स में रखें। गाड़ी के विंडशील्ड या दरवाजे पर भी यह जानकारी लिख सकते हैं। इमर्जेंसी में कोई अनजान व्यक्ति भी ये नंबर देखकर आपके घर पर सूचना भेज सकेगा।

परेशानी का सबब न बन जाए अपनी गाड़ी

टायर पंक्चर, ब्रेकडाउन, लॉन्ग ड्राइव की थकान और ट्रैफिक जाम - ये ऐसी वजहें हैं, जो सफर का मजा किरकिरा कर सकती हैं। हालांकि पहले से तैयारी कर लें तो परेशानियों से बचा जा सकता है। पंक्चर: घिसे हुए और पुराने टायर न सिर्फ पंक्चर का, बल्कि टायर फटने जैसे हादसों का सबसे बड़ा कारण होते हैं इसलिए टायर अच्छी हालत में हों। टायरों में हवा का प्रेशर सही हो। गाड़ी की सर्विस बुक में सही प्रेशर की जानकारी होती है। ब्रेकडाउन: इलाज से बेहतर है बचाव इसलिए गाड़ी को हमेशा दुरुस्त रखें। लंबे सफर से पहले सर्विस करा लें, जिसमें सभी स्टैंडर्ड चेकअप हों। ब्रेक, हेडलाइट, टेललाइट, इंडिकेटर बल्ब, रियर व्यू मिरर, एयर बैग सेंसर आदि सही हों। सुरक्षा सेंसर, इंजन और ब्रेक ऑयल लेवल, एसी कूलेंट आदि सभी अच्छी तरह से चेक करवा लें। सफर के बीच में ब्रेकडाउन हो भी जाए तो कार कंपनी की हेल्पलाइन का सहारा लें, जिसका नंबर सर्विस बुक में होगा। थकान: ड्राइवर को नींद आ जाना अपने देश में सड़क हादसों के प्रमुख कारणों में से एक है। दिमाग थका हो तो फैसला लेने में वक्त लगता है जबकि हाइवे पर तेज रफ्तार के साथ जरूरी है फौरन फैसला लेने की क्षमता। यह तभी मुमकिन है, जब आपका तन और मन फ्रेश होगा। इसलिए सफर से पहले और बीच-बीच में ब्रेक लेते रहें। यह आदत आपकी और गाड़ी की सेहत को बनाए रखेगी। ट्रैफिक जाम: सफर का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं जाम। लेकिन आपका स्मार्ट फोन आपको इससे बचा सकता है। मोबाइल में इंटरनेट ऑन कीजिए और जहां जाना है, वहां का एड्रेस डाल दीजिए। फिर वॉइस नैविगेशन के भरोसे सफर तय करें। अगर रास्ते में कहीं जाम होगा, तो 'गूगल बाबा' आपको दूसरे रास्ते से जाने की सलाह दे देंगे। आपके जीपीएस बेस्ड स्मार्टफोन की बदौलत यह सब मुमकिन है। वैसे अनुभव यह भी बताता है कि सड़क की क्वॉलिटी और जाम की जानकारी के लिए रोजाना हाइवे पर चलने वाले ट्रक ड्राइवरों की सलाह पर भी विचार किया जा सकता है।


पहले से करें ये तैयारियां

पंक्चर रिपेयर किट: अचानक होने वाले पंक्चरों से निबटने के लिए पंक्चर रिपेयर किट साथ रखें। 100-150 रुपये में यह बाजार में आसानी से उपलब्ध है। पंक्चर सील करने का तरीका सीखने के लिए किसी पंक्चर रिपेयर करने वाले या यूट्यूब विडियोज़ की मदद ले सकते हैं। ट्यूबलेस टायर: वैसे तो आजकल बाइक और कार में ट्यूबलेस टायर ही लगकर आने लगे हैं। फिर भी अगर आपकी गाड़ी में ट्यूब वाले टायर हैं तो लंबे सफर पर जाने से पहले इन्हें बदलकर ट्यूबलेस टायर लगवा लें। ये बाइक के लिए 1200 और कार के लिए 2500 रुपये से शुरू होते हैं। इनमें होने वाले पंक्चर आसानी से और कम समय में रिपेयर हो जाते हैं। तरीका इतना आसान है कि कोई भी इन्हें रिपेयर कर सकता है। इस बात का ख्याल जरूर रखें कि रॉयल इनफील्ड जैसी कई बाइक कंपनी अभी भी स्पोक वाले पहिए देती हैं, जिनमें ट्यूबलेस टायर लगवाना खतरनाक हो सकता है। ऐसे मामलों में स्पेयर ट्यूब रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

एयर पंप: इमरजेंसी में टायरों में हवा भरने या प्रेशर सही बनाए रखने के लिए इलेक्ट्रिक एयर पंप काफी काम आते हैं। सिगरेट लाइटर या मोबाइल चार्जर वाले सॉकेट से इन्हें चलाया जाता है। वैसे कई लोग अपने साथ पांव से चलने वाले पंप भी रखते हैं। यहां तक कि साइकल की ट्यूब में हवा भरने वाले पारंपरिक पंप से भी लोग काम चला लेते हैं। 100 रुपये से 500 रुपये तक ऐसे पंप बाजार में मिल जाते हैं। पंक्चर सीलेंट: आज ऐसे लिक्विड सीलेंट (300 रुपये से शुरू) भी आसानी से उपलब्ध हैं, जो पंक्चर होते ही टायर के उस हिस्से को सील कर देते हैं, जहां से हवा लीक हो रही होती है। बाजार और ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टल्स पर कई ब्रैंड के सीलेंट उपलब्ध हैं। इनको इस्तेमाल करने का तरीका ऑनलाइन विडियो से सीख सकते हैं। वैसे इन पर पूरी तरह निर्भरता भी ठीक नहीं है इसलिए समय-समय पर टायर चेक करते रहें। जहां भी पंक्चर की दुकान नजर आए पंक्चर रिपेयर कराते चलें।

पेट्रोल कैन: लद्दाख, लाहौल-स्पीती, उत्तराखंड, नेपाल, भूटान और अरुणाचल प्रदेश के कई सुदूर हिस्सों में यात्रा करते वक्त अलग-से पेट्रोल-डीजल रखना चाहिए। इन इलाकों में पेट्रोल पंप नहीं हैं। हालांकि पेट्रोल को कैरी करने में सावधानी बरतने की जरूरत होती है वरना यह जानलेवा भी साबित हो सकता है। इन्हें अच्छी क्वॉलिटी की बोतल में अच्छी तरह टाइट बंद करके रखें। इसके लिए बाजार में कई तरह की प्लास्टिक या मेटल की बोतल और कैन उपलब्ध हैं। सैनिक छावनियों के आसपास के बाजारों में ये आसानी से मिल जाती हैं। वैसे कोल्ड ड्रिंक की डेढ़-दो लीटर की खाली बोतलों में भी पेट्रोल-डीजल रख सकते हैं।

बाकी स्पयेर पार्ट्स
कार के लिए जंप स्टार्ट केबल (कार स्टार्ट न होने पर), टो रोप (किसी और गाड़ी से अपनी कार खिंचवाने के लिए), क्लच वायर, हेडलाइट बल्ब, ब्रेक वायर, इंजन ऑयल, डिस्क ब्रेक ऑयल, प्लायर, स्क्रू ड्राइवर, रेंच

बाइक के लिए
सैडल बैग, बंजी रोप (सामान बांधने के लिए), हेड लाइट बल्ब, क्लच वायर, ब्रेक वायर, इंजन ऑयल, डिस्क ब्रेक ऑयल, प्लायर, स्क्रू ड्राइवर, रेंच



गैजेट्स
- स्मार्ट फोन, चार्जर और बैटरी बैंक। जीपीएस बेस्ड नेविगेटर जोकि बिना इंटरनेट के मैप यूज करने और डायरेक्शन आदि बताने में मददगार होता है। कार के मोबाइल चार्जिंग सॉकेट से चलने वाले एडॉप्टर जिनसे कैमरा बैटरी, टैबलेट या लैपटॉप भी चार्ज किए जा सकते हैं। इलेक्ट्रिक कैटल जो कॉफी, चाय, नूडल्स वगैरह बनाने के लिए पानी उबाल सकती है। मल्टिप्लग सॉकेट ताकि होटल के इकलौते पावर सॉकेट से एकसाथ कई डिवाइस चार्ज कर सकें।

कहां जा सकती है आपकी गाड़ी

भारतीय संविधान अपने हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का अधिकार देता है। हां, इंटरनैशनल बॉर्डर के आसपास, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में जाने के लिए स्थानीय प्रशासन या सुरक्षा एजेंसियों से इजाजत लेनी पड़ती है। इसे ILP (इनल लाइन परमिट) कहते हैं। लद्दाख के लिए एसडीएम लेह यह परमिशन देते हैं तो लक्षद्वीप के लिए दिल्ली स्थित लक्षद्वीप भवन, अरुणाचल प्रदेश जाने के लिए अरुणाचल भवन से परमिशन लेनी होती है।

क्या कहते हैं नियम-कानून

अपनी गाड़ी से घूमते वक्त बस आपको उस देश के मोटर वीकल ऐक्ट के नियमों का ख्याल रखना होगा। अमूमन आपको अपने साथ ये ओरिजिनल डॉक्युमेंट्स रखने होंगे। आरसी यानी गाड़ी का रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट, इंश्योरेंस सर्टिफिकेट, पल्यूशन अंडर कंट्रोल सर्टिफिकेट, ड्राइविंग लाइसेंस

घुमक्कड़ी का लाइसेंस: दूसरे देशों में अपनी गाड़ी से घूमने जाना अब भी हम भारतीयों के लिए उतना आसान नहीं, जितना कई यूरोपीय देशों के नागरिकों के लिए है। दरअसल यह सब हमारे देश के दूसरे देशों के साथ संबंधों और समझौतों पर निर्भर करता है। मिसाल के तौर पर यूरोप के नागरिक बेरोकटोक यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में आ-जा सकते हैं। विदेशी टूरिस्ट भी सिर्फ एक शेनगेन वीजा लेकर यूरोपीय संघ के देशों में घूम सकते हैं। भारतीय नागरिकों के लिए यह सुविधा सिर्फ नेपाल और भूटान में हैं। ऐसे में विदेश जाने के लिए कुछ ज्यादा औपचारिकताएं करनी पड़ती हैं। आइए डालते हैं उन पर एक नजर:

वीजा: किसी भी दूसरे देश में एंट्री के लिए इजाजत वीजा के रूप में मिलती है। आपके पासपोर्ट पर वीजा लगने का मतलब है कि अब आप उस देश में जा सकते हैं। हर देश की वीजा फीस अलग-अलग होती है। इसकी जानकारी उनकी ऐंबेसी या उनकी आधिकारिक वेबसाइट से ली जा सकती है।

कारने द पैसाज (CDP): यह एक फ्रेंच शब्द है। वीजा से सिर्फ आपको उस देश में जाने के इजाजत मिलती है, आपकी गाड़ी को नहीं। अपनी गाड़ी को उस देश में ले जाने के लिए 'कारने द पैसाज' की जरूरत पड़ती है। यह इंटरनैशन लेवल पर स्वीकृत ऐसा दस्तावेज है जिसके जरिए टूरिस्ट बिना कस्टम ड्यूटी चुकाए पर्सनल गाड़ी को विदेश में कुछ समय के लिए इस्तेमाल कर सकता है। इस दस्तावेज में गाड़ी के उस देश में अंदर और बाहर जाने की तारीख रिकॉर्ड की जाती है। भारत में कुछ अधिकृत ऑटोमोबाइल असोसिएशन से यह दस्तावेज लिया जा सकता है। ये असोसिएशन हैं The Automobile Association of Eastern India, The Automobile Association of Southern India, Automobile Association of Upper India, The Western India Automobile Association। कारने द पैसाज हासिल करने के लिए 75,000 रुपये फीस चुकानी होती है, फिर चाहे बाइक हो या कार। इसके साथ आपकी गाड़ी की मौजूदा कीमत का दोगुना असोसिएशन के पास बतौर सिक्योरिटी जमा करना होगा, जो लौटने के बाद वापस लिया जा सकता है।

इंटरनैशनल ड्राइविंग लाइसेंस: विदेश जाना चाहते हैं तो इंटरनैशनल लाइसेंस बनवाना बेहतर है। इससे किसी भी देश में परेशानी नहीं होगी। देश के हर राज्य के सरकारी ट्रांसपोर्ट ऑफिस से यह लाइसेंस जारी किया जाता है। दिल्ली में अपना वैध ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, वीजा, अड्रेस प्रूफ दिखाकर इसे 500 रुपये में बनवाया जा सकता है।

नेपाल

बिना गाड़ी के नेपाल ठीक वैसे ही जा सकते हैं जैसे दिल्ली से गाजियाबाद। लेकिन गाड़ी से जाने के लिए गाड़ी के तमाम वे कागजात चाहिए, जो भारत में जरूरी हैं। नेपाल में एंट्री के लिए भारत की तरफ से कई बॉर्डर पोस्ट हैं। वहां पहुंचते ही अपनी गाड़ी को नेपाल में ले जाने के लिए नेपाली प्रशासन से इजाजत लेनी पड़ती है। ये ऑफिस बॉर्डर पर ही होते हैं। लोगों से पूछताछ कर इनकी जानकारी मिल जाती है। दिनों के हिसाब से एक तय फीस देकर आसानी से इसकी इजाजत मिल जाती है। नेपाल में फीस दिनों के हिसाब से देनी होती है। डेढ़-दो साल पहले मैंने बाइक के लिए 50 रुपये दिए थे, जबकि कार के लिए करीब 300 रुपये रोजाना लिए जा रहे थे।

भूटान

भारत से सड़क से भूटान जाने का एक ही रास्ता है - फुंतशोलिंग होकर। फुंतशोलिंग में आपको अपनी पहचान साबित करनी पड़ती है। वोटर आईकार्ड, पासपोर्ट या आधार कार्ड इसके लिए मान्य हैं। फुंतशोलिंग बस अड्डे पर ट्रांसपोर्ट विभाग से आपको अपनी गाड़ी की अनुमति भी लेनी होगी। इसके लिए दिनों के हिसाब से निर्धारित फीस चुकानी होगी। करीब 3 साल पहले बाइक से भूटान गया था, तो 7 दिनों के लिए 62 रुपये लगे थे। ध्यान रहे कि फीस की रसीद हमेशा संभाल कर रखें। विदेशी नंबर होने की वजह से जगह-जगह पर आपको रोककर रसीद दिखाने को कहा जा सकता है।

बाइक और कार के ट्रैवल में फर्क

बाइक और कार की सामान ढोने की क्षमता अलग-अलग है, इसलिए उसी हिसाब से सामान रखें। मौसम खराब हो या सड़क, बाइक सवार को कार चालक से ज्यादा खतरा रहता है इसलिए एंकल लेंथ शूज, नी गार्ड, सेफ्टी जैकेट, हेल्मेट, ग्लव्स बेहद जरूरी हैं। आजकल सिक्योरिटी की ये तमाम चीजें आसानी से ऑनलाइन मिल जाती हैं, लेकिन याद रखें कि कीमत के चक्कर में क्वॉलिटी से कभी समझौता न करें। वैसे तो कार में एक स्टेपनी कार के साथ ही आती है, लेकिन एहतियात के तौर पर एक और रख लें। कच्ची सड़कों या उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरने की नौबत हो तो कम ग्राउंड क्लीयरेंस वाली कार न ले जाएं। बेशक ऐसे मामलों में बाइक बाजी मार ले जाती है।

बाइकर्स ग्रुप से जुड़ने के लिए bcmtouring.com, youngindians.in, xbhp.com और facebook पर कई बाइकर्स ग्रुप हैं। हालांकि ये सभी अनौपचारिक ग्रुप हैं, यानी कानूनी रूप से इनकी कोई मान्यता नहीं है। वैसे भी बाइकर्स ग्रुप के लिए कोई कानूनी गाइडलाइंस नहीं हैं इसलिए अपने विवेक का इस्तेमाल कर ही इनसे जुड़ें।

ट्रिप कितनी लंबी दिल्ली से लद्दाख: 15 दिन दिल्ली से सांग्ला घाटी (हिमाचल): 6 दिन दिल्ली से सरिस्का नैशनल पार्क: 2 दिन दिल्ली से दमदमा झील: 1 दिन दिल्ली से डोटी-सिलगढ़ी (नेपाल): 4 से 6 दिन तक दिल्ली से पोखरा और काठमांडू (नेपाल): 6 से 14 दिन तक सिलीगुड़ी से थिंपू (भूटान): 6 दिन जयगांव (पश्चिम बंगाल) से पारो (भूटान): 4 दिन इम्फाल (मांडले) से म्यांमार - बैंकॉक, थाइलैंड: 12 दिन

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जल का हल

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हमने कभी पानी के मोल को नहीं समझा और देखते ही देखते पानी अनमोल हो गया। हालात ऐसे आ गए हैं कि देश भर में कई जगह लोग बूंद-बूंद पानी को तरसने लगे हैं। ऐसे में पानी की बचत ही भविष्य को संजो कर रखने का एक साधन बचता है। हम और आप कैसे कर सकते हैं पानी की बचत, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अमित मिश्रा:



किसी ने सही कहा है कि हर बदलाव की शुरुआत खुद से होती है। ऐसे में पानी को बचाने की मुहिम में सबकी बराबर की भागीदारी ही संकट से उबरने का एक उपाय है।
घर पर ऐसे बचेगा पानी
जब करें ब्रश या शेव
अक्सर लोग टूथब्रश या शेव करते वक्त वॉश बेसिन में पानी के टैप को खुला छोड़ देते हैं। ऐसे न करें। इससे पानी की काफी बर्बादी होती है। मग में पानी भर कर शेविंग कर सकते हैं। इसी तरह हाथ धोते वक्त भी सोप लगाने के लिए हाथ को गीला करने के बाद टैप बंद कर दें। हाथों पर साबुन अच्छी तरह लगाने और मलने के बाद फिर से टैप चालू करें।
जब नहाने जाएं
नहाने में काफी पानी बर्बाद होता है। खासतौर पर शावर से नहाने में। बाल्टी में पानी लेकर नहाएं। बच्चे भी नहाते वक्त काफी पानी बर्बाद करते हैं। नहाने के लिए 5 मिनट का वक्त तय करें। बालों में शैंपू लगाते वक्त शावर को बंद कर दें। इस तरह से आप रोज तकरीबन 100 लीटर पानी बचा सकते हैं।
टपकने पर नजर
टपकता पानी देखने में कम नजर आता है लेकिन पूरे दिन में इस तरह से कई लीटर पानी बह जाता है। हो सके तो हर साल मेटैलिक टैप के वाशर बदलवा लें। लोग मेन टैप पर तो नजर रखते हैं लेकिन टॉयलेट और सिस्टर्न से टपकते पानी पर ध्यान नहीं देते। इस बात का भी पता करें कि कहीं सिस्टर्न से टॉयलेट सीट के भीतर पानी लीक तो नहीं हो रहा। यह भी देखें कि जहां पर सिस्टर्न टॉयलेट सीट से जुड़ा होता है, वह जोड़ सही है।
जब करें कार-बाइक की धुलाई
कार या बाइक की धुलाई रनिंग वॉटर से करने के बजाय बाल्टी से करें। ऐसा करने से तकरीबन 350 लीटर पानी हर महीने बचा सकते हैं।
कपड़ों की धुलाई
हो सके तो छोटे कपड़ों की रेग्युलर धुलाई हाथों से ही करें। रोज वॉशिंग मशीन लगाने से बेहतर है, हफ्ते में 2 दिन ही लगाएं। अब मार्केट में कम पानी की खपत में कपड़े धोने वाली फ्रंट लोड मशीनें आ गई हैं, इन्हें ही खरीदें। ये मशीनें कुछ महंगी जरूर हैं। रनिंग वॉटर पर चलने वाली ऑटोमैटिक वॉशिंग मशीनें अमूमन पानी की खपत ज्यादा करती हैं। कपड़ों की धुलाई के बाद निकले पानी को टब में जमा कर लें। फिर इसे पोंछा लगाने और फर्श की धुलाई करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
सिस्टर्न फिट तो वॉशरूम हिट
टॉयलेट में नए जमाने के सिस्टर्न (फ्लश) 2 पुश बटनों के साथ आते हैं। एक छोटा और एक बड़ा। छोटे बटन से ही फ्लैश करें। इससे कम पानी में सफाई हो जाएगी। हो सके तो सिस्टर्न में रेत से भरी हुई 1 लीटर की बोतल रख दें। इससे सिस्टर्न की कैपेसिटी घट जाएगी और पानी की बचत होगी। ऐसा करके घर का हर मेंबर रोज तकरीबन 50 लीटर पानी बचा सकता है।
जब सब्जी-बर्तन धोएं
किचन में सब्जियां या बर्तनों को रनिंग वॉटर में न धो कर, बर्तन में पानी भर कर धोएं। सब्जियां और बर्तनों को धोने में इस्तेमाल होने वाले पानी को नाली में बहने के बजाय पौधों में डालने के लिए यूज करें। पौधों को सुबह या शाम को धूप कम होने पर ही पानी दें।
जब पेट्स को नहलाएं
अपने पेट्स को लॉन में नहलाएं ताकि पानी घास और पौधों को मिल सके। बर्फ न करें बर्बाद
अगर ड्रिंक्स पीने के बाद गिलास में आइस क्यूब्स बच जाएं तो उन्हें सिंक में फेंकने के बजाय पौधों के गमले में डाल दें। ऐसे ही जमीन पर गिरी बर्फ के साथ भी कर सकते हैं।
वॉटर मीटर पर रखें नजर
घर पर लगा वॉटर मीटर आपको पानी की खपत पर नजर रखने में मदद करेगा। एक दिन रात में मीटर की रीडिंग लें और अगले दिन फिर उसी वक्त पर रीडिंग लें। इससे खपत पर नजर रख कर बचत की जा सकती है।
घर में मददगारों को सिखाएं
घर पर काम करने वाली मेड और माली आदि को देश में पानी को लेकर पैदा हुए बुरे हालात को लेकर एजुकेट करें। उन्हें टीवी और अखबारों में इस तरह की खबरों से वाकिफ करवाने से वे भी पानी की बचत को गंभीरता से लेना शुरू करेंगे।
जब पार्टी में जाएं
अक्सर देखने को मिलता है कि लोग पार्टियों में पानी की पूरी बोतल लेकर कुछ पानी पीने के बाद बोतल फेंक देते हैं। अगर पानी की पूरी बोतल एक बार में नहीं पी जा सकती तो उसे साथ ले जाकर बाद में इस्तेमाल करें। अगर पार्टी आप आयोजित करें तो पानी की बचत को ध्यान में रखते हुए गिलास में पानी सर्व करें।

करें वॉटर हार्वेस्टिंग
वैसे तो तकरीबन हर राज्य सरकार पानी को बचाने से लेकर जमा करने तक योजनाएं बना रही लेकिन इसमें लोगों की भागीदारी के बिना मुहिम का परवान चढ़ना मुमकिन नहीं है। दिल्ली में घरों की छत पर बारिश के पानी को जमा करने के लिए दिल्ली जल बोर्ड खास तौर पर वित्तीय मदद भी देता है। इस तरह की मदद के लिए लोकल बॉडीज (रजिस्टर्ड आरडब्ल्यूए आदि) छतों पर लगाए गए वाटर हार्वेटिंग प्लांट की कुल कीमत का 50 फीसदी और अधिकतम 50 हजार रुपये तक सहायता ले सकती हैं। इसके लिए हर जोनल ऑफिस में मौजूद इंजीनियर से मदद ली जा सकती है। वित्तीय सहायता के लिए इन डॉक्युमेंट्स की जरूरत होगी:
- आरडब्ल्यूए या जो भी रजिस्टर्ड संस्था लोन ले रही है, उसके रजिस्ट्रेशन की सेल्फ अटेस्टेड कॉपी।
- वॉटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर की डिटेल्ड जानकारी।
- पूरे प्लान के ले-आउट और सिस्टम कैसे काम करेगा, यह जानकारी।
- कॉन्ट्रैक्टर को पेमेंट किस तरह से किया जाना है, उसके बारे में जानकारी। मिसाल के तौर पर चेक से या डायरेक्ट अकाउंट में ट्रांसफर आदि।
- वॉटर हार्वेटिंग प्लांट के रखरखाव के लिए एक नॉन जुडिशल स्टांप पर अथॉरिटी के साथ एग्रीमेंट पर साइन।

RO को NO-NO
हर घर की जरूरत बन चुका आरओ 1 लीटर पानी को साफ करने के लिए तकरीबन 3 लीटर पानी को बहा देता है। आरओ वॉटर फिल्टर का इस्तेमाल पानी में पाए जाने वाले मिनरल (टीडीएस) को घटाने में किया जाता है। इन मिनरल की वजह से ही पानी का स्वाद कुछ कसैला लगता है। 1000 टीडीएस या उससे कम का पानी पीने लायक होता है और दिल्ली में अमूमन लेवल इससे कम ही होता है। लोग स्वाद को सुधारने के चक्कर में आरओ लगवा कर पानी की बर्बादी करते हैं। अगर आरओ लगवाना ही है तो उससे बूंद-बूंद टपकने वाले पानी को किसी बर्तन या बाल्टी में जमा कर लें।
क्या है टीडीएस की सही मात्रा
अधिकतम सीमा: 1000 एमजी/ लीटर तक (इससे ज्यादा टीडीएस पर आरओ ठीक)
कम से कम: 80 एमजी/ लीटर तक (इससे कम टीडीएस भी नुकसानदेह)
सही मात्रा: 400-500 एमजी/ लीटर (WHO के मुताबिक)

आरओ के ऑप्शन
- पानी को उबाल कर भी टीडीएस कम होता है।
- क्लोरीन की एक टैब्लेट 20 लीटर पानी को साफ करती है।
- सेरामिक फिल्टर बैक्टीरियल प्रदूषण दूर कर सकता है।
- यूवी (अल्ट्रावॉयलेट) फिल्टर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ....................................................................................................... लें तकनीकी पहरेदार की मदद
शहरों में पानी की काफी ज्यादा बर्बादी ओवर फ्लो हो रही टंकियों से होता है। ऐसे में इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि वॉटर टैंकों में ओवरफ्लो अलार्म सिस्टम को लगवाया जाए। मार्केट में मूल रूप से दो तरह के अलार्म सिस्टम आ रहे हैं:
सर्किट बेस्ड अलार्म
इस तरह के सिस्टम में काफी आसान तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इसके दो हिस्से होते हैं। एक अलार्म जो पावर लाइन से जुड़ा रहता है और घर के भीतर होता है और दूसरा टैंक में फिक्स मेटैलिक पिन।
कैसे करता है काम
टैंक के अंदर ऊपर वाले हिस्से में पॉजिटिव और निगेटिव पिन पड़े रहते हैं। जैसे ही पानी भर कर ऊपर के लेवल पर पहुंचता है, सर्किट जुड़ जाता है और अलार्म बजने लगता है। ऐसे में यूजर मोटर बंद कर देता है जिससे पानी और अलार्म से आ रही आवाज दोनों बंद हो जाती हैं।
खूबी - इसकी कीमत काफी कम होती है। 200 से 500 रुपये तक में मिल जाता है।
- इसे इंस्टॉल करना आसान है और कोई भी आम इलेक्ट्रिशन इसे फिक्स कर सकता है।
खामी
- टैंक में पड़े मेटैलिक पिन पर या तो जंग जम जाती है या फिर पानी के खारेपन से सॉल्ट जमा होने की वजह से यह काम करना बंद कर देता है।
- छत पर लगे तारों का सेटअप आंधी-तूफान या बंदर आदि खराब कर देते हैं।
कहां मिलेगा: इन्हें किसी भी ई-कॉमर्स साइट्स या मार्केट में हार्डवेयर शॉप से आसानी से खरीद कर प्लंबर से फिक्स करवाया जा सकता है।

चंद ऑप्शन
iota Water tank Overflow Alarm - 200 रुपये
Veettex Tank Overflow Alarm - 250 रुपये
Aqua Guru Water Tank Overflow Alarm - 390 रुपये
नोट: इनके अलावा भी मार्केट में अच्छे सर्किट बेस्ड अलार्म सिस्टम उपलब्ध हैं।

सेंसर वाले अलार्म सिस्टम
परंपरागत ओवरफ्लो अलार्म के बजाय इसमें हाई क्वॉलिटी सेंसर का उपयोग किया जाता है। इससे टैंक में कई लेवल पर पानी की मॉनिटरिंग, अलार्म, वॉटर फ्लो अलर्ट जैसे एडवांस काम भी किए जा सकते हैं।
कैसे करता है काम
इसमें हाई क्वॉलिटी सेंसर लगे होते हैं। इसे टैंक के बाहर कहीं फिट कर दिया जाता है। इसके सेंसर पानी की पोजिशन भांप कर एसएमएस या एक ऐप के जरिए पूरी जानकारी दे देते हैं। इसमें सिर्फ एक डिब्बा होता है और किसी भी तरह का वायर नहीं होता।
खूबी
- इससे न सिर्फ वॉटर लेवल बल्कि लाइन में पानी आने का अलर्ट भी पाया जा सकता है।
- पानी भरते ही अपने आप मोटर बंद होने से लेकर पानी आने पर फिर से चालू हो जाने जैसे ऑटोमैटिक ऑप्शन उपलब्ध।
- इसे एक ऐप के जरिए कंट्रोल भी किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर इंटरनेट मौजूद होने पर कहीं से भी बैठ कर मोटर को स्विच ऑन और ऑफ किया जा सकता है।
- ऐप में यह भी देखा जा सकता है कि कितना पानी भरा है। इससे एक ही छत पर रखे कई टैंकों का एक साथ अलर्ट लिया जा सकता है।
- इन्हें बैटरी या सोलर सेल के जरिए चलाया जा सकता है।
- पानी के कॉन्टैक्ट में न होने की वजह से खराब नहीं होते।
खामी
- इनकी कीमत परंपरागत अलार्म सिस्टम के मुकाबले काफी ज्यादा होती है।
- इंस्टॉल करने के लिए कंपनी के एक्सपर्ट की जरूरत होती है।
- ऐसे अलार्म सिस्टम मार्केट में कम मौजूद होने की वजह से सर्विस की दिक्कत आ सकती है।
- छोटे शहरों में उपलब्धता काफी कम है।
कीमत
इसमें एक ही कंपनी के 3 मॉडल मार्केट में आसानी से मिल सकते हैं।
Aquabrim SENSE, ACE और PRIME - कीमत 6500 से 10 हजार रुपये तक

कहां से खरीदें
फिलहाल मार्केट में Aquabrim नाम का सेंसर बेस्ड अलार्म सिस्टम उपलब्ध है। इसे स्नैपडील और अमेजॉन जैसी ऑनलाइन साइट्स से खरीदा जा सकता है। कंपनी की वेबसाइट aquabrim.com पर जाकर दिए गए नंबरों पर कॉल करके खरीदा जा सकता है। यहां पर फोन करने के बाद एक्सपर्ट बताई गई जगह पर इंस्टॉल कर देता है।

कब तक रहेगा पानी सही

अक्सर सुबह पानी भरते वक्त पिछले दिन का बचा पानी फेंक दिया जाता है। इसकी जरूरत नहीं है। यह पानी इस्तेमाल के लिए बिल्कुल ठीक है। एक तरफ पानी बचाने की मुहिम तो दूसरी तरफ पानी को सहेजने की चुनौती। हम यह तो जानते हैं कि पानी को कैसे बचाना है लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि पानी कितने दिनों तक पीने या इस्तेमाल करने लायक बना रहता है। आइए जानते हैं कि पानी कितने दिनों तक रहता है एक दम फिट:
पीने का पानी
- पानी वैसे तो अपने आप में तो कभी खराब नहीं होता लेकिन जिस बर्तन और जिस जगह उसे स्टोर किया जाता है, उसकी वजह से वह खराब हो सकता है।
- पैक किया गया पानी मैन्युफेक्चरिंग डेट से 2 साल तक पीने लायक होता है। भले ही उसमें मौजूद मिनरल्स की वजह से उसका स्वाद कुछ बदल जाए लेकिन सेहत पर इसका कोई बुरा असर नहीं पड़ता।
- एक बार पैकिंग खुलने के बाद पानी 2-3 दिनों तक पीने लायक बना रहता है। बस ध्यान इस बात का रखना है कि उसे धूप, गर्मी और केमिकल जैसे कि थिनर, पेंट या पेट्रोल-डीजल से दूर रखा जाए।
- अगर पैक्ड पानी को फ्रिज में रखा जाए तो 5-6 दिनों तक आराम से पिया जा सकता है।
- वॉटर प्यूरिफायर से निकले हुए पानी को 2-3 दिन तक फ्रिज में रख कर पिया जा सकता है।
- प्लास्टिक के बर्तन में रखा पानी कॉपर या तांबे के बर्तन में रखे पानी के मुकाबले जल्दी खराब हो जाता है। कांच की बोतल या गिलास में भी पानी ज्यादा दिन तक अच्छा बना रहता है।
नहाने का पानी
- नहाने के लिए बाल्टी में रखा पानी 7-10 दिनों तक आराम से इस्तेमाल किया जा सकता है। बस उसमें मिट्टी या किसी भी तरह का कूड़ा-करकट न पड़ा हो।
- यहां भी स्टील की बाल्टी में रखे पानी की उम्र प्लास्टिक की बाल्टी या टब में रखे पानी से ज्यादा होती है।

टेक्नो ट्रिक्स
वेबसाइट
saveourwater.com/what-you-can-do/tips पर पानी को बचाने के लिए बेहतरीन टिप्स मिल सकते हैं।
जल है तो जीवन है
अगर पानी को बचाने की जरूरत अब भी समझ में न आई हो तो इन विडियोज को देख लें
nbt.in/savewater
अवधि: 1 मिनट लगभग
nbt.in/water
अवधि: 1:45 मिनट

फेसबुक पेज
Neeranjali
इस पेज पर पानी को बचाने के टिप्स के साथ ही बढ़ती जा रही परेशानी के हालात के बारे में जानने को बहुत कुछ मिलता है।

वॉटर एक्सपर्ट्स
​ -राजेंद्र सिंह
-आबिद सूरती
-एस. ए. नकवी
-आलोक कुमार

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फॉरन जाएं, 1 लाख में 2

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दुनिया भर में ऐसी कई जगहें हैं, जहां आप कम बजट में विदेश यात्रा का अपना शौक पूरा सकते हैं। महज 1 लाख रुपये में कोई कपल 5 दिन और 4 रातों के लिए विदेश घूमकर आ सकता है...दुनिया भर में ऐसी कई जगहें हैं, जहां आप कम बजट में विदेश यात्रा का अपना शौक पूरा सकते हैं। महज 1 लाख रुपये में कोई कपल 5 दिन और 4 रातों के लिए विदेश घूमकर आ सकता है...

जस्ट जिंदगी: आग लग जाए तो कैसे बचें, बता रहे हैं एक्सपर्ट्स

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गर्मियों में आग लगने के मामले काफी बढ़ जाते हैं। इससे निपटने के लिए ऑफिस, मॉल, सिनेमा हॉल, बस, ट्रेन आदि में पूरे इंतजाम किए जाते हैं, लेकिन घर को हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। घर में आग न लगे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए और अगर आग लग जाए तो उससे कैसे निपटें, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं अनुज जोशी:

गर्मियों में नमी कम होती है और तामपान बढ़ जाता है इसलिए कोई भी चीज आसानी से आग पकड़ लेती है। इस मौसम में इलेक्ट्रिक वायर भी जल्दी गर्म हो जाते हैं और जरा-सा ज्यादा लोड पड़ने पर स्पार्क होने से आग लग जाती है। वैसे, घर में ऐसी कई चीजें होती हैं, जो आग लगने की वजह बन सकती हैं। इनका ध्यान रखना जरूरी है:

एसी:

एसी की ठीक से देखभाल न की जाए तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। एसी आमतौर पर 15 एंपियर तक करंट झेल सकता है। अच्छी तरह रखरखाव वाला एसी 12 एंपियर का करंट लेता है, जबकि अगर एसी को बिना सालाना सर्विसिंग किए चलाया जाए तो वह 18 एंपियर तक करंट लेता है।

इससे न सिर्फ वायर पर लोड बढ़ता है, बल्कि एसी जल भी सकता है। शॉर्ट सर्किट से घर में आग भी लग सकती है। जब न्यूट्रल, फेज और अर्थ, तीनों वायर या कोई दो वायर आपस में टच हो जाती हैं तो शार्ट सर्किट होता है।

क्या करें: एसी के लिए हमेशा एमसीबी (MCB) स्विच लगवाएं। नॉर्मल या पावर स्विच में एसी का प्लग न लगाएं। सीजन शुरू होने से पहले एसी की सर्विस जरूर कराएं। हो सके तो सीजन के बीच में भी एक बार सर्विस कराएं। जब भी सर्विस कराएं, ट्रांसफॉर्मर आदि का प्लग खुलवा कर चेक कराएं कि कहीं कोई तार ढीली तो नहीं। एसी से आग की एक बड़ी वजह तारों के ढीला होने से स्पार्क होना है। एसी या इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट के पास पर्दा न रखें क्योंकि स्पार्क होने पर पर्दा आग पकड़ सकता है। एसी को रिमोट से बंद करने के बाद उसकी MCB को भी बंद करना चाहिए। एसी को लगातार 12 घंटे से ज्यादा न चलाएं। खिड़की-दरवाजे खोलकर एसी न चलाएं।

वायर और सर्किट: घर में वायरिंग कराते हुए हम पैसे बचाने के चक्कर में अक्सर सस्ती वायर डलवा देते हैं। इसके अलावा, एक बार वायरिंग कराकर हम निश्चिंत हो जाते हैं और उसे अपग्रेड नहीं कराते, जबकि वक्त के साथ घर में इलेक्ट्रिक गैजेट्स बढ़ाते जाते हैं। बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, ज्यादा टन का एसी, माइक्रोवेव आदि। घर में लगी पुरानी वायर इतना लोड सहन नहीं कर पाती और शॉर्ट सर्किट हो जाता है। घरों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही होता है।

क्या करें: घर में हमेशा ब्रैंडेड वायर इस्तेमाल करें। सस्ती वायर खरीदने से बचें। वायर हमेशा आईएसआई मार्क वाली खरीदें और जितने एमएम की वायर की इलेक्ट्रिशियन ने सलाह दी है, उतने की ही खरीदें। घर के लिए वायर 1, 1.5, 2.5, 4, 6 और 10 एमएम की होती हैं। मीटर और सर्किट के बीच 10 एमएम की वायर, बाकी घर में पावर प्लग के लिए 4 एमएम और बाकी के लिए 2.5 एमएम की वायर लगती है। घर में पीवीसी वायर लगानी चाहिए, जो 1 लेयर की होती है। यह आसानी से गरम नहीं होती।

वायर में टॉप ब्रैंड हैं: फिनॉलेक्स, प्लाजा, आरआर आदि। अगर आप किराये पर किसी घर में आएं हैं और घर का लोड जानना चाहते हैं तो बिजली बिल से जान सकते हैं। उस पर घर का लोड दर्ज होता है। हर 5 साल में इलेक्ट्रिशन बुलाकर वायर चेक जरूर करानी चाहिए। साथ ही मेन सर्किट बोर्ड पर पूरा लोड डालने से अच्छा है कि दो बोर्ड बनाकर लोड को बांट दें। मीटर-बॉक्स भी लकड़ी के बजाय मेटल का लगवाएं। इससे आग लगने का खतरा कम हो जाता है।

दीया और अगरबत्ती: सुबह-शाम घर में पूजा करते हुए दीया और अगरबत्ती जलती छोड़ दें और उन पर ध्यान न दें तो भी आग लग सकती है।

क्या करें: दीया जलाकर उसके ऊपर शीशे की चिमनी रख सकते हैं, जैसी पहले लैंपों में होती थी। इससे आग लगने के चांस कम होंगे।

कम जगह, ज्यादा सामान: आजकल घर के साइज छोटे हो रहे हैं और सामान काफी ज्यादा। फर्नीचर, पर्दे और घर के दूसरे साजो-सामान भी ऐसे चलन में हैं जो जल्दी आग पकड़ते हैं। मसलन पॉलिस्टर के पर्दे, सिंथेटिक कपड़े, फोम के सोफे और गद्दे आदि।

क्या करें: घर में जरूरत का सामान ही रखें और फालतू चीजों को निकालते रहें। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स अच्छी कंपनी और बढ़िया क्वॉलिटी के होने चाहिए।

लापरवाही से बचें, रखें ध्यान
- हर रात गैस सिलेंडर की नॉब को बंद करके ही सोना चाहिए। साथ ही गैस के पाइप को हर 6 महीने में बदलते रहना चाहिए।
- ओवरलोडिंग से बचें। अक्सर हम एक ही इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट में टू-पिन या थ्री-पिन वाला प्लग लगा देते हैं। इससे लोड बढ़ जाता है और स्पार्किंग होने लगती है।
- रसोई में चूल्हे पर दूध का पतीला या तेल की कड़ाही चढ़ाकर निश्चिंत होना भी सही नहीं। ऐसा कर हम अक्सर दूसरे कामों में बिजी हो जाते हैं और तेल बेहद गर्म होकर आग पकड़ लेता है या फिर दूध उबल कर चूल्हे पर गिर जाता है। इससे चूल्हे की आग बुझ जाती है और गैस लीक होती रहती है, जो आग पकड़ लेती है।
- खराब रबड़ या खराब सीटी वाला प्रेशर कुकर यूज करना भी खतरनाक है। ऐसा होने पर कुकर ब्लास्ट कर सकता है।
- किचन में खाना बनाते समय ढीले-ढाले और सिंथेटिक कपड़े न पहनें। ये आग जल्दी पकड़ते हैं।
- इनवर्टर में पानी सही रखें। कम पानी होने, इनवर्टर की तार को अच्छी तरह कवर नहीं करने या फिर तार को ढीला छोड़ देने से स्पार्किंग हो सकती है।
- बच्चे के हाथ में माचिस न दें। यह आग लगने की वजह बन सकता है।
- फ्रिज के दरवाजे पर लगी रबड़ को अच्छी तरह साफ करें, वरना दरवाजा सही से बंद नहीं होगा। इससे कम्प्रेसर गर्म होकर आग लगने की वजह बन सकता है।
- कपड़े प्रेस करने के बाद गर्म आयरन को किसी कपड़े, पर्दे या इलेक्ट्रॉनिक प्लग के पास न रखें। गर्म आयरन की गर्मी से ये सभी चीजें आग पकड़ सकती हैं।
- बाथरूम के अंदर स्विच न लगवाएं, वरना नहाते समय या कपड़े धोते समय पानी उस पर गिर सकता है, जिससे स्पार्क हो सकता है। अंदर लगना ही है तो ऊंचाई ज्यादा हो, जहां तक पानी की छीटें न जा सकें।
- हर इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम को एक दिन में लगातार चलाने की तय सीमा होती है। फिर चाहे वह एसी हो, पंखा हो, टीवी या फिर मिक्सी ही क्यों न हो। हर प्रॉडक्ट की पैकिंग पर यह जानकारी होती है। जरूरत से ज्यादा चलाने पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम गर्म हो जाते हैं और आग लगने का कारण बन सकते हैं।
- जब भी घर से बाहर जाएं तो सभी स्विच और इनवर्टर जरूर बंद करें।


करके रखें तैयारी -
आग शुरू में हमेशा हल्की होती है। उसे उसी समय रोक देना बेहतर है, लेकिन अक्सर उस वक्त हम घबरा जाते हैं और कोई कदम नहीं उठा पाते। यह भी कह सकते हैं कि हम इसलिए कदम उठा नहीं पाते क्योंकि हमने पहले से तैयारी नहीं की होती है। मसलन घर में फायर एक्सटिंगविशर रखा है, लेकिन हमें उसे चलाना नहीं आता। ऐसे में जरूरी है कि हम आग से निपटने के लिए पहले से तैयार रहें। एक्सपर्ट मानते हैं कि आग कैसे बुझानी है, एक-दूसरे को कैसे बचाना है, इन सबके लिए सभी को हर दो-तीन महीने में प्रैक्टिस जरूर करनी चाहिए। मेन गेट के अलावा, आग लगने पर और कहां से सुरक्षित निकल सकते हैं, यह भी पहले से सोच कर रखें और इसकी प्रैक्टिस भी करते रहें।

आग लग जाए तो...
- घबराएं नहीं और जिस चीज में आग लगी है, उसके आसपास रखी सभी चीजों को हटाने की कोशिश करें, ताकि आग को फैलने का मौका न मिले।
- अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगती है तो मेन सर्किट को बंद कर दें और फायर एक्सटिंगविशर का प्रयोग करें। अगर यह नहीं है तो आग पर मिट्टी या रेत डालें। पानी न डालें। इलेक्ट्रिकल फायर में पानी का इस्तेमाल इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे करंट लग सकता है।
- आग ज्यादा है तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठे कर सुरक्षित जगह पर जाने की कोशिश करें। अगर बिल्डिंग में रहते हैं तो लिफ्ट की जगह सीढ़ियों के जरिए नीचे उतरें।
- आग लग जाने पर धुआं फैलता है इसलिए मुंह को ढककर निकलें।
- खाना बनाते समय अगर कढ़ाई में आग लग जाए तो उसे किसी बड़े बर्तन से ढक देना चाहिए। इससे आग बुझ जाएगी।
- अगर सिलिंडर में आग लग जाती है तो सबसे पहले उसकी नॉब को बंद करने की कोशिश करें। फिर गीला कपड़ा या बोरी डालकर उसे ठंडा करने की कोशिश करें। साथ ही सिलिंडर को खींचकर खुली जगह पर ले जाएं।

...गर कोई जल जाए
- कपड़ों या शरीर में आग लग जाए तो खड़े न रहें और न ही भागें। मुंह को ढककर जमीन पर लेट जाएं और रेंगकर चलें। इससे आग बुझ जाएगी। किसी और शख्स में आग लगी हो तो कंबल या मोटा कपड़ा डालकर आग बुझाएं। आग बुझाने के बाद उस शख्स पर पानी डालें।
- खिड़कियां खोल दें ताकि धुएं से दम न घुटे। धुएं में दम घुटने से अगर कोई बेहोश हो गया है तो सबसे पहले उसे खुली हवा में ले जाएं ताकि ऑक्सिजन मिल सके। आमतौर पर घर में ऑक्सिजन नहीं होती इसलिए मरीज को तुरंत हॉस्पिटल ले जाएं। मुंह से हवा देने की कोशिश न करें क्योंकि इससे मरीज को कोई फायदा नहीं होगा।
- जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।
- जख्म मामूली है तो उस पर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं। यह मार्केट में एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), बर्नएड (Burn Aid), हील (Heal) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर नॉर्मल पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए। ये उपकरण हैं कारगर
आग कैसे और कहां लगी है, इसके आधार पर फायर एक्स्टिंगग्विशर को 5 कैटिगरी में बांटा गया है। हर फायर एक्स्टिंगग्विशर पर कैटिगरी लिखी होती है। आग लगने की वजह के मुताबिक उन्हें यूज करें:

Class A: सॉलिड यानी कागज, लकड़ी, कपड़ा, प्लास्टिक आदि से लगने वाली आग
Class B: लिक्विड यानी पेट्रोल, पेंट, स्प्रिट या तेल से लगने वाली आग
Class C: गैस यानी एलपीजी, वेल्डिंग गैस और बिजली के उपकरण से लगने वाली आग
Class D: मेटल यानी मैग्नीशियम, सोडियम या पोटैशियम से लगने वाली आग
Class K: कुकिंग ऑयल से लगने वाली आग


आग के क्लासिफिकेशन के अनुसार ही फायर एक्स्टिंगग्विशर का भी क्लासिफिकेशन किया गया है:
वॉटर एंड फोम : क्लास A की आग के लिए
कार्बनडाईऑक्साइड : क्लास B और C की आग के लिए
ड्राई केमिकल : क्लास A, B और C की आग के लिए
वेट केमिकल : क्लास K की आग के लिए
क्लीन एजेंट : क्लास B और C की आग के लिए
ड्राई पाउडर : क्लास B की आग के लिए
वॉटर मिस्ट : क्लास A और C की आग के लिए


आमतौर पर घर में ड्राई केमिकल वाला फायर एक्स्टिंगग्विशर ही रखा जाता है। इस तरह के एक्स्टिंगग्विशर के सिलिंडर पर ABC लिखा होता है। मार्केट में इसके रेट वेट के हिसाब से हैं।

1 किलो : 740 रुपये
2 किलो : 900 रुपये
4 किलो : 1400 रुपये
6 किलो : 1740 रुपये


आप इन्हें ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं। इनमें टॉप ब्रैंड हैं: सीजफायर (Ceasefire), फायरफॉक्स (Firefox), अतासी (Atasi), अग्नि (Agni) आदि। इन कंपनियों के कार के भी फायर एक्स्टिंगग्विशर आते हैं। सिलिंडरों के अलावा मॉड्यूलर एक्स्टिंगग्विशर भी बहुत काम की चीज है। अभी तक यह ऑफिस या इंडस्ट्रियल एरिया में ही लगाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल रेजिडेंशल एरिया में भी होने लगा है। इसे घर में कहीं भी लगा सकते हैं, लेकिन किचन में लगाना सबसे बेहतर है।

यह सीलिंग में फिट होता है। इसके अंदर एक छोटा-सा बल्ब लगा होता है, जो 65 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंचते ही फट जाता है और उसमें से पाउडर निकलने लगता है, जो आग बुझा देता है। छोटा 1800 रुपये में और बड़ा 2400 रुपये में आता है। आपने घर में जो भी फायर एक्स्टिंगग्विशर रखा है, उसे साल में एक बार चेक जरूर करें। उसकी नोब ग्रीन एरिया में होनी चाहिए।
फायर एक्स्टिंगग्विशर चलाना सीखें: nbt.in/eyOxEZ



कार में लग जाए आग तो...
कहा जाता है कि जिस कार में सेंट्रल लॉक लगा होता है, आग लगने पर उस कार के दरवाजे नहीं खुलते, लेकिन ऐसा नहीं है। आग लगने पर भी दरवाजे खुल जाते हैं। अगर दरवाजे नहीं खुलें तो अगली सीट के हेड रेस्ट को निकालकर शीशे को तोड़ सकते हैं। कुछ कारों में गियर लॉक लगा होता है। उस गियर लॉक से भी शीशा तोड़ा जा सकता है। साथ ही कार में हमेशा छोटी हथौड़ी, हॉकी स्टिक या फिर रॉड रखनी चाहिए ताकि आग लगने पर शीशा तोड़ा जा सके। इसके अलावा, कार में फायर एक्सटिंगविशर जरूर रखें।

घर बनाते हुए रखें ध्यान

- घर, कोठी, रेजिडेंशल बिल्डिंग आदि बनाते वक्त बिल्डिंग बायलॉज को फॉलो करना चाहिए। लेकिन 15 मीटर से ऊंची बिल्डिंग बनाते वक्त इसे फॉलो करना अनिवार्य है, वरना फायर डिपार्टमेंट से एनओसी नहीं मिलेगी।
- अमूमन सभी मल्टिस्टोरी बिल्डिंगों में लिफ्ट जरूर होती है। लेकिन इसके साथ ही सीढ़ियां भी जरूर होनी चाहिए ताकि आग लगने पर सीढ़ियों के जरिए आराम से बाहर निकला जा सके। सीढ़ियों की चौड़ाई कम-से-कम 1 मीटर होनी चाहिए।
- रेजिडेंशल बिल्डिंग्स में हर दो फ्लोर छोड़कर एक रेस्क्यू बालकनी होना जरूरी है। यह इसलिए होती है ताकि आग लगने पर सभी यहां जमा हो सकें और फायर ब्रिगेड वाले उन्हें आसानी से निकाल सकें। इन बालकनी को बनाने का फायदा तभी है, जब बिल्डिंग में रहने वाले हर तीसरे-चौथे महीने छोटी-सी मॉक ड्रिल करें। किसी भी तरह की आपदा से निपटने के लिए यह जरूरी है।
- पानी की एक टंकी बिल्डिंग के ऊपर और एक अंडरग्राउंड होनी चाहिए ताकि आग लगने पर वहां से पानी निकालकर आग बुझाई जा सके।
- 15 से 40 मीटर ऊंची बिल्डिंग के चारों ओर 6 मीटर और 40 मीटर से ऊंची बिल्डिंग के लिए 9 मीटर तक की सड़क होनी चाहिए ताकि फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को वहां तक पहुंचने और चारों तरफ घूमने में परेशानी न हो और वे आग को बुझा सकें।
- आपका घर फायर-प्रूफ है या नहीं, इसकी जांच प्राइवेट फायर अडवाइजर से करा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च करने पर ये आपको मिल जाएंगे। दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली फायर सर्विस के डायरेक्टर के नाम लेटर लिख पास के फायर स्टेशन में दे सकते हैं। दिल्ली फायर सर्विस का कर्मचारी घर आएगा और चेक करेगा कि घर फायर-प्रूफ है या नहीं। यह सर्विस फ्री है।


फायर इंश्योरेंस भी जरूरी-
घर का फायर इंश्योरेंस जरूर कराना चाहिए। जानते हैं फायर इंश्योरेंस से जुड़े चंद अहम सवालों के जवाब:

कौन ले सकता है फायर इंश्योरेंस?
जिस किसी ने भी लीगल तरीके से प्रॉपर्टी या घर खरीदा है, वह फायर इंश्योरेंस ले सकता है।

इसकी क्या जरूरत है?
फायर इंश्योरेंस घर में आग लगने और उससे नुकसान होने पर उसे कवर करने का गारंटी देता है। नियमानुसार रेजिडेंशल एरिया के लिए फायर इंश्योरेंस जरूरी नहीं है, लेकिन इसे लेना फायदेमंद रहता है और किसी हादसे की सूरत में हमारी मदद करता है। प्रॉपर्टी की मौजूदा मार्केट वैल्यू के मुताबिक इंश्योरेंस का अमाउंट तय होता है।

किस रेजिडेंशल प्रॉपर्टी के लिए इंश्योरेंस ले सकते हैं?
जो भी प्रॉपर्टी आपने खरीदी है, मसलन अपार्टमेंट, फ्लैट्स, कोठी आदि, उसका इंश्योरेंस करा सकते हैं। यहां तक कि रेंट पर ली गई रेजिडेंशल प्रॉपर्टी का भी फायर इंश्योरेंस करवा सकते हैं। टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, फर्नीचर, सभी तरह के गैजेट्स यानी घर में इस्तेमाल होने वाला एक-एक सामान इस इंश्योरेंस में कवर होता है।

फायर इंश्योरेंस में कैसे हादसे कवर होते हैं?
किसी भी तरह की आगजनी, एयरक्राफ्ट क्रैश, प्राकृतिक आपदा (बाढ़, आंधी, भूकंप, लैंडस्लाइड आदि) जैसी स्थिति में घर को होने वाला नुकसान फायर इंश्योरेंस में कवर होता है।

इंश्योरेंस का प्रीमियम और अवधि कितनी होती है?
इंश्योरेंस कंपनियां प्रॉपर्टी की कीमत और इंश्योरेंस की कीमत के आधार पर प्रीमियम ऑफर करती हैं, जोकि आमतौर पर कम ही होता है। आप एड-ऑन कवर भी ले सकते हैं जिसमें आर्किटेक्चर की फीस आदि कवर हो जाती है। इसके लिए एक्स्ट्रा प्रीमियम देना पड़ सकता है। इंश्योरेंस की अवधि अमूमन एक साल की होती है, लेकिन कुछ केस में यह 10 साल तक भी हो सकती है।

एक्सपर्ट्स पैनल
- जी. सी. मिश्रा, डायरेक्टर, दिल्ली फायर सर्विस
- रवि गोस्वामी, ब्रांच मैनेजर, नैशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड
- पी. एस. एन. राव, एचओडी, डिपार्टमेंट ऑफ हाउसिंग, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर
- डॉ. नवीन राणा, सीनियर फिजिशन

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जानें, स्पा से कैसे करें तन और मन को तरोताजा

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गर्मियां जोरों पर हैं। ऐसे में स्पा के जरिए तन और मन को तरोताजा कर सकते हैं। स्पा न सिर्फ आपको फ्रेश महसूस कराएगा, बल्कि कई लाइफस्टाइल बीमारियों में भी यह आपको राहत दिला सकता है। एक्सपर्ट्स की मदद से स्पा के बारे में तमाम जानकारियां दे रही हैं प्रियंका सिंह:

गर्मियों में स्पा की डिमांड काफी ज्यादा होती है। आयुर्वेदिक सेंटरों से लेकर बड़े होटलों, रिजॉर्ट्स, जिम तक में स्पा का इंतजाम होता है।

क्या है स्पा
स्पा शब्द लैटिन लैंग्वेज से आया है, जिसका मतलब है मिनरल्स से भरपूर पानी में स्नान। स्पा थेरपी यूरोपीय देशों से शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गई। बॉडी मसाज, बॉडी रैप, सोना बाथ, स्टीम बाथ आदि को मिलाकर स्पा कहते हैं। मोटे तौर पर 3 R यानी Relax, Rejuvinate और Regain Health स्पा से जुड़े हैं। अगर रिलैक्स कराने के लिए स्पा लेना चाहते हैं तो खुद चुन सकते हैं। इसमें आपकी सेहत और खूबसूरती को बेहतर करने और रिलैक्सेशन के लिए दी जानेवाली थेरपी शामिल होती है। लेकिन अगर किसी बीमारी के इलाज के तौर पर कराना चाहते हैं तो आयुर्वेदिक डॉक्टर (वैद्य) से पूछ कर कराएं। लाइफस्टाइल प्रॉब्लम जैसे कि नींद न आना, मोटापा, जोड़ों में दर्द, बाल झड़ना, डिप्रेशन, मुंहासे आदि का इलाज स्पा थेरपी से किया जाता है।

फायदे हैं तमाम
- तनाव कम कर मन को रिलैक्स करता है। - तन और मन को तरोताजा करता है। - ब्लड सर्कुलेशन ठीक करता है। - शरीर के जहरीले तत्वों को बाहर निकालने में मदद करता है। - शरीर में कसावट लाकर बुढ़ापे की रफ्तार धीमी करता है। - जोड़ों में लचीलापन लाता है।

किस उम्र में कराएं
आमतौर पर 12 साल से पहले स्पा कराने की सलाह नहीं दी जाती। दरअसल, इस उम्र में बच्चे का शरीर काफी नाजुक होता है। तेज मालिश आदि से उसे नुकसान हो सकता है। 12 से 18 साल के बीच भी कुछ ही तरह की थेरपी दी जाती हैं जैसे कि मसाज, शिरोधारा, सॉना बाथ आदि। हालांकि अगर सिर्फ मसाज करानी है तो 5 साल की उम्र के बच्चों की भी करा सकते हैं। 18 साल या इससे ज्यादा कोई भी स्पा थेरपी करा सकते हैं।

कितनी तरह का
स्पा 2 तरह का होता हैः वेट और ड्राई
वेट में स्टीम, सॉना और जूकॉजी आते हैं, जबकि ड्राई में मसाज, फेशियल, पेडिक्योर, मेनिक्योर, सैलून सुविधाएं आदि आती हैं।



स्पेशल थेरपी
स्पा में मसाज सबसे खास है। इसके अलावा शिरोधारा, सॉना, स्टीम, जकूजी आदि भी होते हैं।

मसाज
मसाज या मालिश करीब 45 मिनट से घंटा भर की जाती है। यह कई तरह की होती है:
आयुर्वेदिक मसाज: इसके जरिए आमतौर पर लाइफस्टाइल बीमारियों का इलाज किया जाता है। इस ट्रीटमेंट के दौरान आयु‌र्वेदिक डॉक्टर का वहां मौजूद होना बहुत जरूरी है। इस इलाज के दौरान आमतौर पर मेडिकेटिड ऑयल (जड़ी-बूटियों आदि मिलाकर तैयार किया गया) से मसाज की जाती है, जिसे अभ्यंगम कहा जाता है। इसमें 1 या 2 लोग मिलकर फुल बॉडी मसाज करते हैं।
स्वीडिश मसाजः शरीर पर गोल-गोल मूवमेंट के साथ आराम से मसाज की जाती है। यह काफी सॉफ्ट होती है इसलिए आमतौर पर महिलाएं इसे कराना पसंद करती हैं।
बेलिनिस मसाजः इसमें काफी प्रेशर लगाकर मसाज की जाती है। ज्यादा जोर एक्यूप्रेशर पॉइंट्स पर होता है।
इंडोनेशियन मसाजः इसमें इंडोनेशियन ऑयल यूज होते हैं। प्रेशर मीडियम होता है।
थाई मसाजः यह मसाज के सबसे पुराने तरीकों में से है। इसे ड्राई मसाज भी कहा जाता है क्योंकि तेल के बजाय पाउडर का यूज होता है।
डीप टिश्यू मसाजः इसमें प्रेशर काफी ज्यादा होता है। आमतौर पर स्पोट्र्सपर्सन और जिम जानेवाले लोग इसे कराना पसंद करते हैं। इसमें जोड़ों का लचीलापन बढ़ता है।
फेशियल मर्मा: इसके लिए ट्रेनिंग जरूरी है। ट्रेंड एक्सपर्ट शरीर के अलग-अलग हिस्सों को अलग-अलग प्रेशर के साथ दबाकर मसाज करते हैं।
ध्यान रखें
खाली पेट कराएं। बेकफास्ट के कम-से-कम डेढ़ घंटे बाद और लंच के ढाई घंटे बाद कराएं।



शिरोधारा
कई तेलों को मिलाकर तेल तैयार किया जाता है, जिसे सिर पर एक धारा के रूप में करीब 45 से 60 मिनट तक गिराया जाता है। इसमें महानारायण तेल, नीलभृंगादि, तिल का तेल आदि यूज करते हैं, जिन्हें अलग-अलग तेल मिलाकर तैयार किया जाता है। इससे मन रिलैक्स होता है और कंसंट्रेशन बढ़ता है। वैसे, स्पा में मसाज के लिए गुलाब, चमेली, लैवेंडर, लोटस, नीम आदि के तेल का भी खूब यूज होता है।
ध्यान रखें
इस दौरान आंखें न खोलें।

स्टीम बाथ
इसमें एक चैंबर या कमरा होता है, जिसमें पानी को उबालकर स्टीम पैदा की जाती है। कस्टमर को इसमें बिठा दिया जाता है। इसमें बैठने के बाद मूवमेंट मुमकिन नहीं है। आमतौर पर 25-30 मिनट स्टीम दी जाती है। स्टीम चैंबर ऑनलाइन भी मिलते हैं। ये करीब 2000 रुपये से शुरू होते हैं। इनसे घर में ही स्टीम ले सकते हैं।
ध्यान रखें
स्टीम लेने से पहले 1 गिलास नॉर्मल पानी पिएं। अंदर भी पानी की बॉटल ले जाएं और बीच-बीच में भी पानी पीते रहें। स्टीम लेने के दौरान सिर के ऊपर या गर्दन के पीछे एक गीला टॉवल रखना चाहिए। इसे कोल्ड कंप्रेसर कहते हैं। यह बेचैनी, चक्कर आदि से राहत दिलाएगा।



इसमें ड्राई हीट होती है। इसमें एक बंद कमरा होता है। कोयले से पत्थरों को गर्म किया जाता है। इसमें बड़ा कमरा होता है इसलिए घूमने-फिरने या बैठने-लेटने आदि का ऑप्शन होता है। सॉना भी आमतौर पर 25-30 मिनट किया जाता है।
ध्यान रखें
यहां भी स्टीम वाली ही सावधानियां बरतें। इसमें ज्यादा गर्मी के कारण बेचैनी और घबराहट महसूस हो सकती है। शुरुआत में कम देर से करें।

जकूजी
इसमें एक बड़े बाथ टब में बिठाया जाता है, जिसमें चारों तरफ से जगह-जगह लगे जेट में से गुनगुने पानी की तेज धाराएं आकर शरीर पर पड़ती हैं। यह करीब 20-30 मिनट कराया जाता है।



पंचकर्मा
आयुर्वेद में इलाज के लिए पंचकर्म विधि का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें अलग-अलग क्रियाओं से शरीर को शुद्ध और दुरुस्त किया जाता है। पंचकर्म के 2 हिस्से होते हैं:
पूर्वकर्म: इसमें स्नेहन और स्वेदन आते हैं।
प्रधानकर्मः इसके 5 हिस्से होते हैं: वमन, विरेचन, आस्थापन बस्ति, अनुवासन-बस्ति और शिरो-विरेचन या शिरोधारा।

स्नेहनः इसमें घी या तेल पिलाकर और मालिश करके शरीर के दोषों को दूर किया जाता है।
स्वेदनः इसमें अलग-अलग तरीकों से शरीर से पसीना निकाल कर बीमारियों से निपटा जाता है।

आगे की क्रिया करने से पहले ये पूर्वकर्म के ये दोनों कर्म करने जरूरी हैं। इसके बाद प्रधानकर्म किया जाता है। इसके तहत ये क्रियाएं होती हैं:

वमनः इस कर्म के जरिए कफ से पैदा होनेवाली बीमारियों (खांस, बुखार, सांस की बीमारी आदि) का इलाज किया जाता है। इसमें दवा या काढ़ा पिलाकर उलटी (वमन) कराई जाती है। इससे कफ और पित्त बाहर आ जाते हैं।

विरेचनः पित्त वाली बीमारियों के लिए विरेचन किया जाता है। इससे पेट की बीमारियों में राहत मिलती है। इसके लिए अलग-अलग दवाएं और काढ़े पिलाए जाते हैं।

आस्थापन बस्तिः इसका दूसरा नाम मेडिसिनल एनिमा भी है। इसमें खुश्क चीजों का क्वाथ बनाकर एनिमा दिया जाता है। इससे पेट एवं बड़ी आंत के वायु संबधी सभी रोगों में लाभ मिलता है।

अनुवासन बस्तिः इस प्रक्रिया में स्निग्ध (चिकने) पदार्थ जैसे कि दूध, घी, तेल आदि के मिश्रण का एनिमा लगाया जाता है। इससे भी पेट एवं बड़ी आंत की बीमारियों में राहत मिलती है।

शिरोविरेचन या शिरोधारा: इसमें नाक से अलग-अलग तेलों को सुंघाया जाता है और सिर पर तेल की धारा डाली जाती है। इससे सिर के अंदर की खुश्की दूर होती है। यह आंखों की बामारियों, ईएनटी प्रॉब्लम, नींद न आना और तनाव जैसी बीमारियों में राहत मिलती है।



कुछ और थेरपी
हॉट स्टोन थेरपीः इसमें करीब 30 मिनट की मसाज के बाद तेल में डूबे गर्म पत्थर बॉडी पर करीब 15-20 मिनट के लिए रखे जाते हैं। इससे प्रेशर पॉइंट बेहतर काम करने लगते हैं।
बैंबू थेरपीः यह करीब-करीब हॉट स्टोन थेरपी जैसा ही है। स्टोन रखने के बजाय बैंबू से मालिश की जाती है।
हॉट टब थेरपी: इसमें एक टब में गर्म पत्थर रखे जाते हैं और मिनरल वॉटर से इसे भर कर कस्टमर को इसमें लिटा दिया जाता है। जब यह वॉटर गर्म पत्थरों के ऊपर से गुजरता है तो हीट बनती है जो कस्टमर को काफी रिलैक्स करती है।
इससे आनंद भी खूब आता है।
अरोमा थेरपी: इसमें तिल के तेल में अरोमा यानी खुशबू (यूकेलिप्टस, गुलाब, लैवेंडर, चमेली आदि) डालकर मालिश करते हैं। साथ ही, कमरे में भी टी-लाइट या दूसरे तरीकों से उसी खुशबू का संचार किया जाता है। खुशबू काफी रिलैक्स करती है। लेवेंडर का इस्तेमाल शांति के लिए, लेमन ग्रास का रिलैक्स के लिए, पिपरमेंट का रिफ्रेंशमेंट के लिए।
बॉडी रैप/पैक: इसमें बॉडी पर अलग-अलग तरह के पैक लगाए जाते हैं जैसे कि मड पैक। इसमें शरीर पर मिट्टी का लेप किया जाता है। इसके अलावा दूध में फलों का गूदा और जड़ी-बूटियां मिलाकर गाढ़ा पैक बनाना या उबले चावलों में अदरक, इलायची आदि मिलाकर पैक बनाना आदि। इन्हें बॉडी पर लगाकर बॉडी को सूती कपड़े की पट्टियों से लपेट दिया जाता है।
मड पैक थेरपी: मिट्टी में नीम की पत्तियां या जड़ी-बूटियां पीसकर मिलाते हैं। इससे शरीर को कूलिंग इफेक्ट मिलता है और दर्द भी कम हो जाता है।
पोटली थेरपी: नीम, चंदन आदि बूटियां को सूती कपड़े की पोटली में बांधकर हल्का गर्म करके सिकाई की जाती है।
ब्यूटी ट्रीटमेंट: इसमें फेस के लिए फेशियल, पैरों के लिए पेडिक्योर, हाथों के लिए मैनिक्योर और बालों के लिए हेयर स्पा आदि आते हैं। इन सभी में क्लीनिंग, स्क्रबिंग, मसाज, पैक आदि यूज करते हैं। आमतौर पर पहले क्लिंजिंग, फिर स्क्रबिंग, फिर मसाज और आखिर में पैक लगाया जाता है।

स्पा और आयुर्वेदिक इलाज में फर्क
स्पा बॉडी और मन को रिलैक्स करने के लिए होता है, जबकि आयुर्वेदिक उपचार में किसी बीमारी का इलाज किया जाता है। मसलन जोड़ों के दर्द के इलाज के लिए कटि बस्ती करते हैं। इसमें घुटने पर आटे की टोकरी-सी बनाकर लगाते हैं और उसमें गर्म तेल डालते हैं। करीब 20-25 मिनट घुटना इसमें रखकर फिर उस तेल से घुटने की मालिश करते हैं। शुगर के मरीजों को पोटली ट्रीटमेंट देते हैं। स्पा कोई भी करा सकता है, जबकि आयुर्वेदिक इलाज बीमारों का किया जाता है।

स्पा और मसाज में फर्क
मसाज स्पा का एक हिस्सा है। किसी भी तरह की मसाज स्पा में ही आती है। लेकिन स्पा में मसाज के अलावा स्टीम, सॉना, पैक और रैप आदि भी आते हैं।

कहां-कहां होते हैं स्पा
स्पा कई जगहों पर होते हैं। उसके आधार पर भी स्पा की कैटिगरी बांटी गई है:
अर्बन स्पा: यह शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मॉल, हेल्थ क्लब, एयरपोर्ट आदि पर होता है। यहां आप मसाज, हेयरकेयर, फेशियल आदि करा सकते हैं।
मेडिकल स्पा: मेडिकल स्पा में स्किन में दाग-धब्बे और कालापन, झुर्रियां आदि के अलावा मोटापे के लिए भी लेजर या बॉटोक्स आदि यूज किया जाता है। यह आपकी स्किन को ध्यान में रखकर किया जाता है।
डेस्टिनेशन स्पा: इसमें आमतौर पर वहीं रहना (2-5 दिन) होता है और वॉटर थेरपी ज्यादा यूज होती है। साथ ही, फिजिकल एक्टिविटी भी कराई जाती है।
होटल/रिजॉर्ट स्पा: बड़े-बड़े होटल और रिजॉर्ट में स्पा का इंतजाम होता है। यह आमतौर पर रिलैक्सेशन के लिए होता है। इसमें भी मसाज, सोनाबाथ आदि का इंतजाम होता है।
क्रूज/शिप स्पा: शिप या क्रूज में भी स्पा का इंतजाम होता है। दूसरे स्पा की तरह की यहां भी लोगों को रिलैक्सेशन कराया जाता है।

कौन न कराए
- बुखार, इन्फेक्शन और चोट में न कराएं।
- सर्जरी के बाद भी 6 महीने तक परहेज करें।
- हाई बीपी के मरीज स्टीम या सॉना न कराएं।
- पैरालिसिस या कैंसर जैसी बीमारियों में भी ट्रीटमेंट के तौर पर स्पा नहीं कराना चाहिए। हां, रिलैक्शेन के लिए कुछ थेरपी करा सकते हैं।
- प्रेग्नेंसी में स्पा थेरपी नहीं करानी चाहिए। 3 से 6 महीने की प्रेग्नेंसी में फुट थेरपी आदि करा सकते हैं, लेकिन इसके पहले या बाद में वह भी नहीं। नॉर्मल डिलिवरी के बाद 3 महीने तक और सिजेरियन के बाद 6 महीने तक न कराएं।

कितना कराएं
ज्यादा-से-ज्यादा 15 दिन में एक बार या फिर 6-9 महीने में हफ्ते भर लगातार कराएं। बाकी आयुर्वेदिक डॉक्टर की सलाह से लेकर भी करा सकते हैं। ध्यान रखें कि यह आदत बेशक बन जाए, लेकिन लत नहीं।

क्या हैं रेट
यूं तो ब्रैंड नेम, सुविधा और बीमारी आदि के अनुसार रेट तय होते हैं लेकिन फिर भी मोटे तौर पर एक थेरपी के लिए 1000 से 3000 रुपये तक खर्च होते हैं।

और कुछ सावधानियां
- अच्छे स्पा में ही कराएं, वरना इन्फेक्शन के अलावा आपके गलत इस्तेमाल के चांस भी बन जाते हैं।
- मसाज और स्टीम के दौरान बॉडी का टेंपरेचर बढ़ जाता है। ब्लड सर्कुलेशन भी सिर की तरफ जाता है। इससे चक्कर या उलटी आदि महसूस हो सकती है। परेशान न हों। यह जल्द ही ठीक हो जाता है।
- अगर ज्यादा दिक्कत लगे तो केबिन से बाहर निकल आएं और आराम से लेट जाएं। थोड़ी देर में नॉर्मल महसूस करने लगेंगे।
- कोई हेल्थ इश्यू है तो स्पा करने वाले को पहले से बताएं।
- स्किन सेंसेटिव है तो भी जानकारी दें।

कैसे पहचानें कि कौन बेहतर
स्पा कैसा है, यह आप अपनी 5 सेंस से पहचान सकते हैः
- आंखों से देखकर कि माहौल कैसा है। साफ-सुथरा और अच्छा है या नहीं।
- नाक से सूंघकर देखें कि खुशबू अच्छी है या नहीं।
- स्किन से पता लगता है कि टेंपरेचर सही है या नहीं। कम टेंपरेचर में बॉडी रिलैक्स रहती है।
- अच्छे स्पा में जूस आदि पीने को देते हैं। इसके टेस्ट (जीभ से) से लेवल का अनुमान लगा सकते हैं।
- कान को पसंद आनेवाला सॉफ्ट म्यूजिक भी अहम है।

स्पा का सही तरीका
- सबसे पहले 1 गिलास पानी पीने को दें।
- फिर 5 मिनट सोना कराएं।
- इसके बाद 45 से 60 मिनट मसाज करें।
- फिर एक गिलास पानी पीने को दें।
- 5-10 मिनट स्टीम दिलाएं।
- फिर नहाने को बोलें।
- आखिर में एक गिलास जूस पीने को दें।


क्या लेकर जाएं
- एक जोड़ी अंडरगारमेंट्स
- एक टॉवल

एक्सपर्ट्स पैनल डॉ. वी. आर. दिलीप, आयुर्वेदिक एक्सपर्ट, बापू नेचर केयर हॉस्पिटल डॉ. विकास विनीत, आयुर्वेदिक एक्सपर्ट, आर्ट ऑफ लिविंग डॉ. राहुल डोगरा, एक्सपर्ट, कैराली आयुर्वेदिक ग्रुप डॉ. अमित बांगिया, डर्मटॉलजिस्ट, एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज

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ऐसे होगा आपका घर गार्डन-गार्डन

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घर में गार्डन बनाने का सपना तो सभी का होता है, लेकिन कभी जगह तो कभी जानकारी की कमी से यह सपना पूरा नहीं हो पाता। बेशक थोड़ी-सी कोशिश से आप कम जगह में भी बढ़िया गार्डन तैयार कर सकते हैं, जिसमें सजावटी फूलों से लेकर तमाम फल और सब्जियां भी उगा सकते हैं। अपनी सेहत के साथ-साथ इससे आप इन्वाइरनमेंट की हिफाजत में भी योगदान दे सकते हैं। जानते हैं, घर पर गार्डनिंग के टिप्स:

अगर आपको हरियाली से प्यार है और आप छोटा-सा ही सही, लेकिन अपना गार्डन चाहते हैं तो यह बेशक मुमकिन है। जगह की कमी के बावजूद आप बेहतर टेरस या किचन गार्डन बना सकते हैं। यहां गार्डनिंग कर आप सजावटी पौधों और फूलों के अलावा फल-सब्जियां भी लगा सकते हैं। आप टेरस, बालकनी, खिड़कियां या लिविंग रूम या फिर छोटे से लॉन में भी हरियाली बिखेर सकते हैं। आप कोई भी पौधा लगाएं, उससे पहले कुछ चीजों के बारे में जानना जरूरी है।

मिट्टी की तैयारी
पौधे लगाने से पहले गमलों में से मिट्टी निकाल दें। हो सके तो इसे 2-3 दिनों तक धूप में खुला छोड़ दें। इससे मिट्टी में मौजूद कीड़े-मकोड़े और फफूंद खत्म हो जाएंगे। फिर मिट्टी में कंपोस्ट खाद या गोबर की खाद अच्छी तरह मिलाकर गमलों में भर दें। गमलों को ऊपर से करीब एक-तिहाई खाली रखें ताकि पानी डालने पर मिट्टी और खाद बहकर बाहर न निकले।

गमले कौन-से लें
मिट्टी के गमले सबसे अच्छे होते हैं। आप इन्हें प्लास्टिक की ट्रे पर रख सकते हैं ताकि गंदगी न फैले। मजबूती के लिए सीमेंट के गमलों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। प्लास्टिक के गमले उतने सही नहीं होते, क्योंकि इनमें पौधों का विकास रुक जाता है। मिट्टी के गमलों पर पेंट की जगह गेरू का इस्तेमाल करें। साइज के हिसाब से मिट्टी के गमले 80 रुपये से 500 रुपये तक में मिल जाएंगे। वैसे, आप पौधे लगाने के लिए पुरानी बाल्टी, टब और यहां तक कि बोतलों तक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

बीज बोने की तैयारी
तैयार मिट्टी को गमलों में भरने से पहले गमले के बॉटम में (जहां पानी निकलने की जगह बनी होती है) पॉट के टूटे हुए टुकड़े या छोटे पत्थर रखें, ताकि पानी के साथ मिट्टी का पोषण बाहर न निकले। फिर मिट्टी में बीज लगाएं। जब भी कोई बीज रोपें, उसे उसके आकार से दोगुना मोटी मिट्टी की परत के नीचे तक ही अंदर डालें, वरना अंकुर फूटने में लंबा वक्त लगेगा। मिट्टी डालने के बाद हल्का पानी डाल दें। इस समय इन्हें धूप लगना जरूरी है। ऐसा न होने पर ये आकार में छोटे और कमजोर रह जाएंगे। अगर पौधों को दूसरे गमले में लगाना है तो शाम या रात को यानी ठंडे वक्त पर ट्रांसफर करें और तब करें, जब पौधों में 4-6 पत्तियां आ चुकी हों। ट्रांसफर करने के बाद थोड़ा पानी जरूर डालें।

खाद की जरूरत
पौधों को खाद जरूर चाहिए। यह खाद गोबर की या मार्केट में मिलनेवाले केमिकल फर्टिलाइजर्स हो सकते हैं। नीम, सरसों या मूंगफली की खली भी खाद के रूप में इस्तेमाल की जाती है। इनमें प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है। खाद मोटे तौर पर 2 तरह की होती है:

1. जैविक खाद (ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर): यह खाद जीवों से बनती है, जैसे गोबर की खाद, पशुओं-मनुष्यों के मल-मूत्र से बनने वाली खाद। इनमें हानिकारक केमिकल्स नहीं होते।

2. रासायनिक खाद (केमिकल फर्टिलाइजर): यह खाद नाइट्रोजन, पोटाश और फॉस्फोरस के कंपाउंड वाली होती है। इसके इस्तेमाल से मिट्टी कम समय में ज्यादा उपजाऊ हो जाती है। इसका ज्यादा इस्तेमाल करने से जमीन में पोषक तत्वों का असंतुलन हो जाता है, जिससे आगे चलकर जमीन बंजर भी हो सकती है। जहां तक हो सके, घरेलू बगीचे में रासायनिक खाद के इस्तेमाल से बचना चाहिए।

कितनी खाद: आमतौर पर किसी अच्छी नर्सरी से ऑर्गेनिक खाद के पैकेट मिल जाते हैं। इनमें नीमखली, बोनमील, सरसों खली, कंपोस्ट वगैरह शामिल हैं। ये आमतौर पर 40 से 80 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलती हैं। आमतौर पर पौधों को लगाते समय और दोबारा उनके फूल आते समय खाद दी जाती है। वैसे, महीने में एक बार खाद डाल सकते हैं। छोटे पौधों में मुट्ठी भर और बड़े पौधों में दो मुट्ठी खाद आमतौर पर काफी रहती है। गर्मियों में कम खाद देनी चाहिए। नोट: खाद तभी दें, जब गमलों की मिट्टी सूखी हो। खाद देने के बाद मिट्टी की गुड़ाई कर दें। इसके बाद ही पानी दें।

खुद तैयार करें खाद: कंपोस्ट यानी कूड़े से बना खाद (आप इसे नर्सरी से खरीद सकते हैं या खुद भी बना सकते हैं), लाल मिट्टी, रेत और गोबर का खाद बराबर मात्रा में मिलाएं। अगर जगह हो तो कच्ची जमीन में एक गहरा गड्ढा खोदें, वरना एक बड़ा मिट्टी का गमला लें। इसके तले में मिट्टी की मोटी परत डालें। इसके ऊपर किचन से निकलने वाले सब्जियों और फलों के मुलायम छिलके और पल्प डालें। अगर यह कचरा काफी गीला है तो इसके ऊपर सूखे पत्ते या न्यूज पेपर डालें। इसके ऊपर मिट्टी की मोटी परत डालकर ढक दें। इस प्रॉसेस को गड्ढा या गमला भरने तक दोहराते रहें। इस मिक्सचर के गलकर एक-तिहाई कम होने तक इंतजार करें। इस प्रोसेस में तकरीबन 3 महीने का वक्त लगता है। अब पोषण से भरपूर इस खाद को निकालकर किसी दूसरे गमले में मिट्टी की परतों के बीच दबाकर सूखे पत्तों से ढककर रख दें। 15-20 दिन में यह खाद इस्तेमाल के लिए पूरी तरह तैयार हो जाएगी। मिट्टी के साथ मिलाकर सब्जियां और फल उगाने के लिए इसका इस्तेमाल करें। खाली हुए गड्ढे या गमले में खाद बनाने की प्रक्रिया दोहराते रहें। इसी तरह, बाजार से सरसों की खली खरीदकर लाएं। खली को पौधों में डालने के लिए इस तरह पानी में भिगोकर रात भर रखें कि अगले दिन वह एक गाढ़े पेस्ट में तब्दील हो जाए। इस पेस्ट को मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाकर इसे अपने गमलों में डालें। मिट्टी और खली का अनुपात 10:1 होना चाहिए यानी 10 किलो मिट्टी में 1 किलो खली मिलाएं। इसे गमलों में डालने के बाद मिट्टी की गुड़ाई कर दें ताकि खली वाली मिट्टी गमले की मिट्टी के साथ मिक्स हो जाए।

ऐसे करें देखभाल

पानी का पैमाना
ज्यादा पानी देने से मिट्टी के कणों के बीच मौजूद ऑक्सिजन पौधों की जड़ों में नहीं पहुंच पाती इसलिए आपको जब गमले सूखे लगें, तभी पानी डालें। मौसम का भी ध्यान रखें। सर्दियों में हर तीसरे-चौथे दिन और गर्मियों में रोजाना (हो सके तो दिन में 2 बार भी) पानी डालना चाहिए। पानी सुबह या शाम के वक्त ही देना चाहिए। भूलकर भी तेज धूप में पौधों में पानी न डालें। इससे पौधों के झुलसने का खतरा रहता है। अगर किसी वजह से कुछ दिनों के लिए घर से दूर रहने की नौबत आए तो गमलों में पानी ऊपर तक भर दें। इसके अलावा इनडोर पौधों को कमरे से निकालकर खुले बरामदों में रख दें ताकि उन्हें खुली हवा लग सके। बारिश के मौसम में खुले में रखे पौधे एक हफ्ते तक बिना सिचाई के भी हरे-भरे रह सकते हैं।
नोट: अगर 10-15 दिनों के लिए घर से बाहर जा रहे हैं तो जाने से पहले गमले या पॉट में लीचन/मॉस (तालाब में उगने वाले कुछ खास पौधे जो नर्सरी से मिल जाएंगे) को अच्छी तरह बिछाकर पानी डालें। इससे लंबे समय तक पौधों में नमी बनी रहेगी।

धूप है बेहद जरूरी
पौधों के लिए धूप जरूरी होती है, लेकिन दोपहर की कड़ी धूप से पौधों को बचाएं। इनडोर पौधों को भी थोड़ी देर के लिए धूप दिखानी चाहिए। इन्हें हफ्ते में कम-से-कम 3 दिन सुबह के वक्त डेढ़-दो घंटे के लिए धूप में रखें। फिर अंदर रख दें। गर्मियों में पौधों को कड़क धूप से बचाएं। इसके लिए इनके ऊपर नेट लगा सकते हैं, जोकि नर्सरी या गार्डनिंग के सामान वाली दुकान से आसानी से मिल जाता है।

नियमित करें गुड़ाई
गमलों या क्यारियों की मिट्टी को हवा और पानी अच्छी तरह मिलता रहे इसके लिए पौधों की गुड़ाई करना जरूरी है। गमलों की मिट्टी में उंगली गाड़कर देखें। अगर मिट्टी बहुत सख्त है तो गुड़ाई करें। कम से कम महीने में एक बार मिट्टी की गुड़ाई करें। इससे मिट्टी ढीली रहेगी और अपने आप उग आई घासों की भी सफाई हो जाएगी।

ये टूल्स हैं यूजफुल
1. गार्डन ग्लव्ज
2. खुरपी या फावड़ा
3. बाल्टी
4. पौधों को सीधा करने के लिए पतली लकड़ियां और सुतली
5. पौधों की कटाई-छंटाई के लिए कैंची जिसे सिकेटियर्स (secateurs) भी कहते हैं।

अलग-अलग किस्म के पौधे

फूल और सजावटी पौधे
इनमें पाम, साइकस पाम, अडिका पाम, मनीप्लांट, जैट्रोपा, बॉटल ब्रश आदि के अलावा फूलों की ढेर सारी वैरायटी के पौधे आते हैं। इन पौधों को मौसम के हिसाब से कैटिगरी में बांट सकते हैं:

बारहमासा पौधे : बोगनवेलिया, हैबिस्कस, रात की रानी, चमेली, मोतिया, मोगरा, मोरपंख, फाइकस, गेंदा आदि।

गर्मी के पौधे : कॉसमॉस (पीला), जीनिया, सूरजमुखी, टिथोनिया, गेलार्डिया आदि। इनके लिए बीज फरवरी के आखिरी दिनों में लगाएं ताकि करीब 2 महीने में, यानी अप्रैल के महीने तक फूल निकल आएं।

मॉनसून के पौधे : ऐजेरेंटम, बालसम, एमरेंथस, टोरिनिया, गामफेरिना, कनेर आदि। इन्हें मॉनसून के दिनों में 15 जून के बाद लगाना जाना चाहिए। इसमें करीब दो-ढाई महीने में फूल आ जाते हैं।

सर्दी के पौधे: गुलाब, कॉर्न फ्लॉवर, कारनेशन, डेजी, डहेलिया, गुलदाउदी, हॉलीहॉक, गेंदा, कॉसमॉस (पिंक और वाइट) आदि। इनके बीज अक्टूबर में बोए जाते हैं और दिसंबर-जनवरी में फूल आ जाते हैं।

सिर्फ पानी में उगाएं ये पौधे

कुछ पौधे ऐसे होते हैं, जिन्हें लगाने के लिए मिट्टी की जरूरत नहीं होती। ये खाली पानी में भी बढ़िया तरीके से बढ़ते हैं। इनमें खास है मनीप्लांट, वॉटर लैट्यूस, लिली, लोटस, सिंगोडियम आदि। इन्हें बोतल में लगाना बेहतर रहता है। हालांकि मेटल के पॉट में इसे लगाने से बचना चाहिए क्योंकि खाद से मेटल में रिएक्शन हो सकता है। बोतल में नॉर्मल पानी भरें। चाहें तो उसमें फ्लॉरिस्ट फोम, सजावटी पत्थर आदि डाल सकते हैं। एक छोटा टुकड़ा चारकोल भी डाल सकते हैं ताकि पानी साफ रहे और उसमें बदबू न हो। गर्मियों में 3-4 दिन और सर्दियों में हफ्ते भर में पानी बदलते रहें। पानी डालते वक्त इंडोर पौधों के पत्तों पर भी पानी छिड़कना चाहिए क्योंकि धूल से पत्ते खराब हो सकते हैं।

मनीप्लांट: लोग घरों में मनीप्लांट सबसे ज्यादा लगाना पसंद करते हैं। इसे मिट्टी या पानी, दोनों में लगा सकते हैं। मनीप्लांट लगाने के लिए सर्दियों का सीजन बेस्ट रहता है। इसे ज्यादा धूप की जरूरत नहीं होती, लेकिन हफ्ते में कम-से-कम एक बार कुछ घंटों के लिए सुबह की धूप में निकालकर रखें। अगर मनीप्लांट पानी में लगा है तो उसका पानी 15 दिन में एक बार जरूर बदलें और पानी साफ रखें। अगर प्लांट की ग्रोथ रुक गई हो तो इस पानी में दो-तीन दाने यूरिया खाद के डाल दें।

मच्छर भगानेवाले पौधे
कई पौधे ऐसे होते हैं जो मच्छर भगाने में मदद करते हैं और हवा को भी साफ करते हैं। ऐसे पौधों में खास हैं गेंदा, लेमन बाम, तुलसी, नीम, लैवेंडर, रोजमेरी, हार्समिंट, सिट्रोनेला आदि।

गेंदा: इसकी गंध बहुत तीखी होती है और मच्छरों को पसंद नहीं आती। ये कीड़ों को भी दूर रखते हैं।

रोजमेरी: 4-5 फुट लंबे ये पौधे और इसके नीले फूल गर्मी के मौसम में तेजी से बढ़ते हैं। सर्दी में इसके गमले को घर के अंदर रखना चाहिए। इनसे मच्छर दूर रहते हैं।

लेमन बाम: यह दिखने में पुदीने के पौधे की तरह लगता है, लेकिन इसमें नींबू की महक आती है। इस पौधे को लगाने से मच्छर दूर रहते हैं।

हार्समिंट: यह एक तरह का मिंट है जिससे कसैली गंध आती है।

लैवेंडर: इस पौधे की खुशबू बड़ी तेज होती है और मच्छर इससे दूर रहते हैं।

इनके अलावा तुलसी, लौंग, नीम, पुदीना आदि से भी मच्छर दूर रहते हैं और ये हवा को भी तरोताजा बनाए रखने में मदद करते हैं।

फल और सब्जियां
हमेशा नैचरल ब्रीडिंग वाले बीजों का इस्तेमाल करें, न कि हाइब्रिड का। नैचरल ब्रीडिंग वाले पौधों में फल और सब्जियां ज्यादा स्वादिष्ट होती हैं।

सब्जियों में शुरू में आप पुदीना, धनिया, करी पत्ता, हरी मिर्च, लेमन ग्रास या अलग-अलग तरह के साग उगा सकते हैं। इन्हें फलने-फूलने के लिए ज्यादा धूप की जरूरत नहीं होती। इन्हें लिविंग-रूम या खिड़की के पास भी रखा जा सकता है। आसान सब्जियों और फलों को उगाकर धीरे-धीरे आप गार्डनिंग की तकनीक सीख जाएंगे। फिर टमाटर, भिंडी, बींस, गांठ गोभी, बैगन, शिमला मिर्च जैसी तमाम सब्जियां आसानी से उगा सकेंगे। करेला और खीरा जैसी सब्जियों की बेलें न सिर्फ आपको फल देंगी बल्कि आपकी छोटी-सी बालकनी की खूबसूरती भी बढ़ा सकती हैं। वैसे, सबसे आसानी से उगने वाली सब्जियां हैं: मिर्च, भिंडी और बैंगन। ये करीब 45 दिनों में तैयार हो जाती हैं।

फलदार पौधों के लिए आपको इसके कलम (बडिंग) किए हुए पौधे की जरूरत होगी। अगर आपके पास टेरेस या लॉन में ज्यादा खुली जगह है तो आप अमरूद, अनार और अनन्नास भी उगा सकते हैं। अमरूद और आम की ऐसी किस्में भी मार्केट में मिल जाएंगी, जो साइज में छोटी होती हैं, लेकिन फल भरपूर देती हैं।

कब लगाएं, कौन-सी सब्जियां

गर्मियों की सब्जियां: बेल वाली सब्जियां जैसे कि घिया, तोरी, करेला, टिंडा, खीरा, ककड़ी आदि। इसके अलावा बैंगन, भिंड़ी, टमाटर आदि भी घर में लगा सकते हैं। इनके बीज फरवरी या मार्च के शुरू में लगाएं ताकि करीब 2 महीने बाद अप्रैल-मई में सब्जियां मिल सकें।

सर्दियों की सब्जियां: पालक, मेथी, गाजर, फूलगोभी, बंदगोभी, मूली, ब्रोकली, चुकंदर आदि लगा सकते हैं। इनके बीज मई-जून में लगाएं ताकि सितंबर-अक्टूबर से सब्जियां मिलने लगें।

नोट: टमाटर साल में 2 बार लगाया जा सकता है, अक्टूबर और मार्च में। अगर पौधों की पत्तियां सिकुड़ रही हों या भूरे चकत्ते दिख रहे हों या पौधे का तना गल रहा हो तो समझ जाएं कि उनमें आयरन की कमी हो गई है। ऐसे में 1 लीटर पानी में 1 आयरन कैप्सूल घोलें और टमाटर के हर पौधे में आधा-आधा कप पानी डालें। अगले दिन पान में इस्तेमाल होने वाले चूने की 3 चुटकी 1 लीटर पानी में मिला लें और टमाटर के पौधों में आधा-आधा कप डालें। इससे पौधों में न्यूट्रिशन की कमी दूर हो जाएगी।

मेडिसिनल पौधे
नीम, तुलसी, एलोवेरा, गिलोय, लौंग, पुदीना आदि ऐसे पौधे हैं, जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं और इन्हें छोटी-मोटी बीमारियों में यूज कर सकते हैं।
तुलसी तो प्राय: सबके घर में होती ही है। यह एक नाजुक पौधा है। सर्दियों में यह मुरझा जाती है, इसलिए इसे टेंपरेचर के तेज उतार-चढ़ाव से बचाना चाहिए। तेज सर्दी के दिनों में इसे घर के अंदर रखें। अगर तेज कोहरा पड़ रहा है तो तुलसी के पौधे को हल्के कपड़े से ढका भी जा सकता है। पौधे को सर्दी के मौसम में धूप दिखाना भी बेहद जरूरी है। इसके अलावा, समय-समय पर गुड़ाई भी करते रहना चाहिए। गर्मियों में इसे तेज धूप से बचाना चाहिए।

एक्सपर्ट पैनल
मदन कोहली, बागवानी एक्सपर्ट
अशोक पाहूजा, सीड एक्सपर्ट

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घी-तेल न बिगाड़ दे सेहत का खेल

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कॉलेस्ट्रॉल दिल की बीमारी की बड़ी वजह है। ऐसे में एक्सपर्ट कम फैट वाले खाने को तरजीह देते रहे हैं ताकि कॉलेस्ट्रॉल न बढ़े लेकिन लेटेस्ट रिसर्च कहती हैं कि कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने में खाने का ज्यादा रोल नहीं है। साथ ही, दिल की बीमारी के लिए तेल से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट। कॉलेस्ट्रॉल को दूर करने में सही खानपान की जानकारी एक्सपर्ट्स की मदद से दे रही हैं प्रियंका सिंह:

अमेरिकी सरकार ने हाल में अपने सिटिजंस के लिए डाइटरी गाइडलाइंस जारी की हैं। 572 पेज की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खाने से मिलनेवाला कॉलेस्ट्रॉल यानी डाइटरी कॉलेस्ट्रॉल दिल के लिए नुकसानदेह नहीं है। पहले कहा जाता था, किसी भी शख्स को अपनी डाइट में रोजाना 300 मिलीग्राम से ज्यादा कॉलेस्ट्रॉल (अंडे का पीला हिस्सा, मक्खन, घी, क्रीम, चीज़, रेड मीड आदि) नहीं खाना चाहिए, वरना दिल की बीमारी हो सकती है। लेकिन नई गाइडलाइंस में इससे उलट कहा गया है कि डाइटरी कॉलेस्ट्रॉल और ब्लड कॉलेस्ट्रॉल के बीच कोई कनेक्शन नहीं है।

इस रिसर्च की अहम बातें हैं:
- कॉलेस्ट्रॉल दिल की बीमारी की बड़ी वजह है, यह सही है लेकिन हम खाने में जो कॉलेस्ट्रॉल ले रहे हैं, उसका कोई खास खतरा नहीं है।

- ट्रांस फैट्स सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह हैं। ट्रांस फैट्स तेल को बार-बार गर्म करने या बहुत तेज गर्म करने पर पैदा होते हैं। ये वनस्पति घी में ज्यादा पाए जाते हैं।

- LDL (बैड कॉलेस्ट्रॉल) भी खतरनाक हो सकता है। यह बेशक आर्टरीज को ब्लॉक न करे, लेकिन इसके छोटे पार्टिकल्स आर्टरीज में सूजन पैदा कर सकते हैं।

- सैचुरेटिड फैट्स (घी, बटर, चीज, रेड मीट आदि) से दिल की बीमारी का सीधा कनेक्शन नहीं है।

- रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट (सफेद चीनी, सफेद चावल और सफेद मैदा) फैट से कहीं ज्यादा नुकसानदेह हैं।

बेशक इन तमाम बातों से हमारे मन में कुछ सवाल उठते हैं और यहां हमने उन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की है।

क्या ये गाइडलाइंस भारतीयों के लिए भी लागू होती हैं?
बहुत हद तक। हालांकि हमें और भी ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि हम भारतीयों को जापानियों के मुकाबले 20 गुना, चीनियों के मुकाबले 6 गुना ज्यादा और अमेरिकियों के मुकाबले 3 गुना ज्यादा दिल की बीमारियों का खतरा होता है। इसके अलावा, हम एक्सर्साइज़ करने में पीछे और खाने में भी आगे रहते हैं। ऐसे में हमें ज्यादा सावधान रहने और अपने खानपान को बेहतर करने की जरूरत है।

कॉलेस्ट्रॉल क्या है और इसके क्या नुकसान हैं?
कॉलेस्ट्रॉल वैक्स जैसी चिपचिपी चीज है जो शरीर की सभी कोशिकाओं में पाई जाती है। हमारे नर्वस सिस्टम से लेकर डाइजेशन तक में यह मदद करता है। कई हॉर्मोंस भी इससे बनते हैं। लेकिन अगर यह बढ़ जाए तो आर्टरीज में जमा होने लगता है। तब यह दिल की बीमारी की वजह बनता है। कई बार इस जमा कॉलेस्ट्रॉल में से कोई हिस्सा टूटकर आर्टरीज को ब्लॉक कर देता है, जिससे हार्ट अटैक या स्ट्रोक हो सकता है। हमारे शरीर में कॉलेस्ट्रॉल तब जमा होता है, जब हमारी आर्टरीज़ में सूजन हो या वे पूरी तरह स्वस्थ न हों। CRP (सी-रिएक्टिव प्रोटीन) ब्लड टेस्ट मार्कर से आर्टरीज की सूजन का पता लगाया जाता है।

क्या खाने से जुड़ा कॉलेस्ट्रॉल खतरनाक है?
नहीं, अगर आप स्वस्थ हैं तो खाने में कॉलेस्ट्रॉल वाली चीजों का ब्लड कॉलेस्ट्रॉल पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। इसकी वजह है कि हमारे शरीर में मौजूद 85 से 88 फीसदी ब्लड कॉलेस्ट्रॉल लिवर बनाता है। सिर्फ 12 से 15 फीसदी कॉलेस्ट्रॉल ही हमें डाइट से मिलता है। लेकिन अगर पहले से ही कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है या रिस्क फैक्टर हैं (फैमिली हिस्ट्री, स्मोकिंग, मोटापा आदि) तो खाने के कॉलेस्ट्रॉल पर कंट्रोल रखना भी बहुत जरूरी है यानी आपको कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाने वाली चीजें नहीं खानी चाहिए। कॉलेस्ट्रॉल को कंट्रोल रखने के लिए जरूरी है कि हम ट्रांस फैट और रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट न खाएं। हां, फैट को पूरी तरह डाइट से निकालने की जरूरत नहीं है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि गुलाबजामुन खाने से बेहतर है घर पर बनाए पकौड़े खाना।

क्या अब कॉलेस्ट्रॉल जांच की जरूरत नहीं रही?
कॉलेस्ट्रॉल जांच की जरूरत तो अब भी है क्योंकि हार्ट अटैक और स्ट्रोक की सबसे बड़ी वजहों में से एक कॉलेस्ट्रॉल का बढ़ा होना है। कॉलेस्ट्रॉल की जांच के लिए लिपिड प्रोफाइल टेस्ट होता है। इसमें एचडीएल (गुड कॉलेस्ट्रॉल), एलडीएल (बैड कॉलेस्ट्रॉल) और ट्राइग्लिसरॉइड और इनकी रेश्यो की जांच होती है। यह टेस्ट करीब 8-12 घंटे की फास्टिंग के बाद होता है। इस दौरान कोई दवा लेने से बचें। कुल कॉलेस्ट्रॉल 200 एमजी/डीएल या इससे कम होना चाहिए। अगर रिस्क फैक्टर नहीं है तो 30 साल की उम्र के बाद कॉलेस्ट्रॉल टेस्ट कराएं। अगर सब कुछ नॉर्मल निकलता है तो भी हर 3 साल में एक बार टेस्ट कराएं। 45 साल के बाद हर साल टेस्ट कराएं।

क्या अब घी, मक्खन, चीज से परहेज की जरूरत है?
पहले देसी घी, मक्खन, चीज आदि को सेहत के लिए काफी खतरनाक माना जा रहा था, जोकि पूरी तरह सही नहीं है। आप स्वस्थ हैं तो खाने में रिफाइंड ऑयल के साथ-साथ देसी घी, मक्खन, चीज आदि फैट ले सकते हैं, लेकिन ज्यादा नहीं। आप हफ्ते में 3-4 अंडे का पीला हिस्सा भी ले सकते हैं, लेकिन वनस्पति घी से दूर रहें और एक बार से ज्यादा गर्म किया तेल यूज न करें। ध्यान रखें कि घी और तेल बहुत पुराना न हो। एक साल से पुराना तेल और 6 महीने से ज्यादा पुराना देसी घी यूज न करें। जिनका कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है, वे किसी भी तरह के सैचुरेटिड फैट से दूर ही रहें तो अच्छा है।

जितना चाहें, घी या मक्खन खा सकते हैं?
नहीं, फैट लिमिट में ही खाना चाहिए। स्वस्थ हैं तो भी रोजाना 3-4 चम्मच से ज्यादा फैट न लें। इसमें देसी घी, मक्खन और रिफाइंड ऑयल सभी कुछ शामिल है।

तो कौन-सा कुकिंग ऑयल अच्छा है? किसी एक तेल के बजाय बदल-बदल कर और कॉम्बिनेशन में तेल यूज करें, मसलन एक महीने सरसों और मूंगफली का तेल यूज करें तो दूसरे महीने रिफाइंड और कनोला का। आप अपनी पसंद से कॉम्बिनेशन बना सकते हैं। इससे शरीर को सभी जरूरी फैट्स मिल जाते हैं। खाने के तेल में मोनो-अनसैचुरेटिड (मूफा) और पॉली-अनसैचुरेटिड (पूफा) फैट मिक्स होना चाहिए। पूफा में दो हिस्से होते हैं ओमेगा-3 और ओमेगा-6। दोनों ही हार्ट के लिए बेहद जरूरी हैं। मूफा ऑलिव ऑयल, राइस ब्रैन, सरसों, मूंगफली आदि में ज्यादा होता है तो पूफा सफोला या सैफ्लार, कनोला, सनफ्लार आदि में। कोकोनट ऑयल भी सैचुरेटिड होने के बावजूद कॉलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ाता। उत्तर भारत में रहनेवालों को इसे यूज नहीं करना चाहिए लेकिन तटीय इलाकों में रहनेवाले इसे खा सकते हैं क्योंकि वे आमतौर पर घी-मक्खन कम खाते हैं। मोटे तौर पर ऑलिव ऑयल, कनोला ऑयल, सोयाबीन, सनफ्लार, सैफ्लार, राइस ब्रैन और सरसों के तेल को अच्छा मान सकते हैं। वैसे, सबसे अच्छा है कि एक-तिहाई सैटचुरेटिड (देसी घी), एक-तिहाई ओमेगा-3 (सरसों का तेल) और एक-तिहाई ओमेगा-6 (सनफ्लार) ले लें। तीनों को रोजाना एक-एक चम्मच खा सकते हैं। आजकल मार्केट में ब्लेंड ऑयल (मिले-जुले तेल) भी मिलते हैं। इन्हें भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
तेल खरीदते हुए क्या देखें? केमिकली एब्स्ट्रैक्ट ऑयल के बजाय प्रेस्ड ऑयल लें। तेल की बॉटल पर लिखा होता है कि तेल प्रेस्ड ऑयल है या केमिकली एब्स्ट्रैक्ट। कच्ची घानी का तेल (सरसों का तेल) प्रेस्ड ऑयल की कैटिगरी में आता है। अच्छे तेल में ओमेगा-3, 6 और 9 होने चाहिए। तेल में ओमेगा-3 और 6 के बीच 1: 5-10 का रेश्यो होना चाहिए। मसलन अगर 1 ग्राम ओमेगा 3 ले रहे हैं तो 5-10 ग्राम ओमेगा-6 लेना चाहिए। ओमेगा-3 के सोर्स काफी कम हैं, मसलन फिश, राजमा, अलसी व अखरोट आदि, जबकि ओमेगा-6 हर अनाज, हर दाल और हर तेल में होता है। तेल खरीदते हुए देखें कि ओमेगा-3 ऊपर लिखा हो और ओमेगा-6 नीचे यानी ओमेगा-3 ज्यादा और ओमेगा-6 कम। साथ ही, ट्रांस फैट जीरो होना चाहिए। यह सारी जानकारी तेल की बॉटल के लेबल पर लिखी होती है।

कौन-से तेल या घी अच्छे नहीं हैं?
खाने के तेल को अगर बहुत तेज गर्म किया जाता है या बार-बार गर्म किया जाता है तो उसकी केमिकल बॉन्डिंग चेंज हो जाती है। इन्हें ट्रांस सैचुरेटिड फैट कहा जाता है। ये सेहत के लिए अच्छे नहीं होते। कई बार वेजिटेबल ऑयल में हाइड्रोजन मिलाकर वनस्पति घी तैयार किया जाता है। ऐसा ऑयल की लाइफ और स्वाद बढ़ाने के लिए किया जाता है ताकि यह देसी घी जैसा लगे। लेकिन हाइड्रोजिनेशन की प्रक्रिया में इनमें भारी मात्रा में ट्रांस फैट आ जाते हैं। ये शरीर को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। ट्रांस फैट्स बैड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाते हैं और गुड कॉलेस्ट्रॉल को कम करते हैं। ये शरीर में सूजन भी बढ़ाते हैं। सैचुरेटिड और ट्रांस सैचुरेटिड फैट सर्दियों में जम जाते हैं। चिप्स, नमकीन, बेकरी प्रोडक्ट्स, जंक फूड आदि के अलावा बाहर के खाने (रेस्तरां से लेकर स्ट्रीट फूड तक) में ट्रांस फैट काफी होते हैं क्योंकि एक ही तेल को बार-बार यूज किया जाता है।

क्या फैट से ज्यादा रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट नुकसान देता है?
आमतौर पर तेल कम खाने पर जोर हम सभी देते रहे हैं इसलिए हाल के बरसों में लोगों ने घी-तेल खाना कम भी किया है, लेकिन रिफाइंड कार्बोहाइड्रेड तेल से भी ज्यादा नुकसानदेह हैं। न सिर्फ दिल के मरीज, बल्कि स्वस्थ लोग भी रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट कम खाएं। यह शुगर और स्टार्च की वह फॉर्म होती है, जो नैचरल नहीं है। ये खाने की नैचरल चीजों से ही बनते हैं लेकिन इन्हें प्रोसेस करके रिफाइन कर दिया जाता है। बारीक होने की वजह से ये जल्दी पचते हैं और फटाफट ग्लूकोज में बदल जाते हैं। इससे जल्दी भूख लगती है और हम मोटापे का शिकार हो जाते हैं। फिर इन्हें तेज तापमान पर ट्रीट किया जाता है और पॉलिश आदि भी किया जाता है। मसलन चोकर समेत आटा खाना फायदेमंद है, सूजी कम फायदेमंद है और मैदा नुकसानदेह। इसी तरह ब्राउन राइस खाने का कोई नुकसान नहीं है, जबकि वाइट राइस फायदेमंद नहीं हैं। तमाम मिठाइयां, फास्ट फूड, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम, बेकरी प्रॉडक्ट्क्स, नूडल्स, बर्गर, पित्जा आदि रिफाइंड कार्ब की कैटिगरी में आते हैं। इन्हें खाने से कॉलेस्ट्रॉल डिपॉजिट बढ़ता है और डायबीटीज के चांस बढ़ जाते हैं। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि चाशनीवाली मिठाई में 50 फीसदी और ड्राई मिठाई में 30 फीसदी शुगर होती है। इसमें एक ग्राम मिठाई में 4 कैलरी होती हैं। एक चम्मच तेल में 9 कैलरी जबकि एक चम्मच मिठाई में करीब 45 कैलरी होती हैं। जाहिर है, रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट फैट से ज्यादा नुकसानदेह हैं।


लिवर को फिट रखने के लिए क्या करें?
लिवर और कॉलेस्ट्रॉल के बीच सीधा संबंध है। लिवर को ठीक रखना जरूरी है क्योंकि लिवर ठीक है तो कॉलेस्ट्रॉल बढ़ेगा ही नहीं। दूसरी ओर, कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा है तो फैटी लिवर हो सकता है। शराब पीना लिवर के लिए बेहद नुकसानदेह है। जो लोग शराब पीते हैं, वे हफ्ते में 2-3 बार 1 छोटे पैग से ज्यादा शराब न पिएं। ज्यादा तला-भुना खासकर ट्रांस फैट या रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट खाने से लिवर पर जोर पड़ता है। सभी तरह के प्रोसेस्ड और जंक फूड (बिस्किट, कुकीज, मट्ठी, पेस्ट्री, केक, आइसक्रीम, भुजिया, पित्जा, चिप्स आदि) में काफी ट्रांस फैट होता है, जो सीधा लिवर पर असर करता है। इसके अलावा पेनकिलर, एंटीबायोटिक या स्टेरॉइड क्रीम/इंजेक्शन का इस्तेमाल डॉक्टर की सलाह पर ही करें, क्योंकि इनका लिवर पर सीधा बुरा असर हो सकता है। स्टेरॉइड हॉर्मोंस होते हैं और इनका इस्तेमाल इनफर्टिलिटी, सर्जरी, साइनस आदि में परेशानी बढ़ने पर होता है। ज्यादा पेनकिलर और एंटीबायोटिक लेने से किडनी, लिवर और हार्ट पर बुरा असर पड़ता है। जरूरत लगे तो पेनकिलर के तौर पर क्रोसिन या पैरासिटामोल लें। ये एक दिन में 4 बार तक लेने पर भी खतरनाक नहीं हैं, लेकिन कॉम्बिफ्लेम, ब्रूफेन, वॉवरेन आदि से बचें। लिवर को फिट रखने के लिए सेब, ओट्स, जूस, सलाद, चोकर मिला आटा खाएं। इसके अलावा लिवर को डिटॉक्सिफाइ करने के लिए अलोवेरा जूस, आंवला जूस और वेजिटेबल जूस लें। इन तीनों को मिलाकर रोजाना एक गिलास जूस लें।

कैसी हो सही डाइट?
दिल और लिवर को फिट रखने के लिए बैलेंस्ड डाइट लेनी चाहिए। ऐसी चीजें खाएं, जिनमें फाइबर खूब हो, जैसे कि गेहूं, ज्वार, बाजरा, जई आदि। दलिया, स्प्राउट्स, ओट्स और दालों के फाइबर से कॉलेस्ट्रॉल कम होता है। आटे में चोकर मिलाकर इस्तेमाल करें। हरी सब्जियां, साग, शलजम, बीन्स, मटर, ओट्स, सनफ्लावर सीड्स, अलसी आदि खाएं। इनमें फॉलिक एसिड होता है, जो कॉलेस्ट्रॉल लेवल को मेंटेन करने में मदद करता है। अलसी, बादाम, बीन्स, फिश और सरसों तेल में काफी ओमेगा-थ्री होता है, जो दिल के लिए अच्छा है। मेथी, लहसुन, प्याज, हल्दी, बादाम, सोयाबीन आदि खाएं। इनसे कॉलेस्ट्रॉल कम होता है। एचडीएल यानी गुड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाने के लिए रोजाना 5-6 बादाम खाएं। इसके अलावा ओमेगा-थ्री वाली चीजें अखरोट, फिश लिवर ऑयल, सामन मछली, फ्लैक्स सीड्स (अलसी के बीज) खाने चाहिए। कॉलेस्ट्रॉल लिवर के डिस्ऑर्डर से बढ़ता है। चीनी के बजाय गुड़, शहद या खांड खाएं। मिठाई कम खाना कॉलेस्ट्रॉल कम करने का अच्छा तरीका है।

कौन-सी एक्सर्साइज़ करें?
कॉलेस्ट्रॉल को ठीक रखने और दिल को दुरुस्त रखने के लिए रोजाना 10 हजार कदम चलना चाहिए जो कि मोटे तौर पर करीब 6 किमी होता है। रोजाना इतना चलना मुमकिन नहीं हो पाता इसलिए चलने का कोटा पूरा करने के लिए हफ्ते में 80 मिनट की ब्रिस्क वॉक जरूर करें। रोजाना कम-से-कम आधा घंटा कार्डियो एक्सर्साइज़ (तेज वॉक, जॉगिंग, साइकलिंग, स्विमिंग, एरोबिक्स, डांस आदि) करें। अगर तरीके से करें तो ब्रिस्क यानी तेज वॉक जॉगिंग यानी हल्की दौड़ से भी बेहतर साबित होती है, क्योंकि जॉगिंग में जल्दी थक जाते हैं और घुटनों की समस्या होने का खतरा होता है। वॉक और ब्रिस्क वॉक में फर्क यह है कि वॉक में हम 1 मिनट में आमतौर पर 40-50 कदम चलते हैं जबकि ब्रिस्क वॉक में 1 मिनट में लगभग 80 कदम चलते हैं। जॉगिंग में 160 कदम चलते हैं। एक्सर्साइज़ शुरू करने से पहले 5 मिनट वॉर्म-अप यानी हाथ-पांव हिलाएं, हल्की जंपिंग आदि करें और खत्म करने के बाद 5 मिनट कूल डाउन यानी आराम से बैठ कर लंबी सांसें लें और छोड़ें। साथ ही योग और प्राणायाम करें। रोजाना आधा घंटा योगासन करें। इसमें आसन, ध्यान, गहरी सांस और अनुलोम-विलोम को शामिल करें। सुबह-शाम 10-10 मिनट मेडिटेशन करें। शांत जगह पर बैठकर आती-जाती सांसों पर ध्यान दें। इससे शरीर में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ती है। साथ ही, बीपी कंट्रोल होता है।

दिल के लिए और क्या खतरनाक है?
स्ट्रेस, स्मोकिंग और सेडेंटरी लाइफस्टाइल यानी एक्सर्साइज़ न करना दिल के लिए खतरनाक साबित होता है। ट्रांस फैट या लगातार ज्यादा कार्ब वाली डाइट लेना भी दिल के लिए घातक साबित होता है। इसके अलावा पलूशन दिल की बीमारियों की बड़ी वजह बन रहा है। मोटापा भी दिल के लिए घातक है। पुरुषों की कमर का घेरा 36 सेमी. से ज्यादा और महिलाओं की कमर की घेरा 32 इंच से ज्यादा हो तो खतरे की घंटी है।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अशोक सेठ, चेयरमैन, फॉर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. के. के. अग्रवाल, सेक्रेटरी जनरल, आईएमए
डॉ. अश्विनी मेहता, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट, गंगाराम हॉस्पिटल
डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-डाइट एक्सपर्ट
डॉ. अंजुल जैन, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट

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क्या आप जानते हैं कि यू-ट्यूब के लिए विडियो बनाकर आप नेम-फेम पाने के साथ-साथ कमाई भी कर सकते हैं? जी हां, यह संभव है। जरूरत है बस एक यू-ट्यूब चैनल बनाने और उस पर अपने विडियो अपलोड करते रहने की। कैसे बनाएं यू-ट्यूब चैनल और कैसे पाएं उसके जरिए कामयाबी, अपने अनुभव और एक्सपर्ट्स से बातचीत के आधार पर बता रहे हैं रजत त्रिपाठी:

यू-ट्यूब पर एक से बढ़कर एक दिलचस्प चैनल्स हैं। वे पॉपुलैरिटी बटोरने के साथ-साथ अच्छी-खासी कमाई भी कर रहे हैं। आप भी इस प्लैटफॉर्म पर अपना विडियो चैनल लॉन्च कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले आपको एक गूगल अकाउंट की जरूरत होगी। अपने चैनल के नाम का gmail अकाउंट बनाएं। इसके बाद उस अकाउंट में लॉग-इन कर दूसरे टैब में youtube.com ओपन करें। यहां आप अपनी प्रोफाइल पिक्चर पर क्लिक करेंगे तो आपको Creator studio नजर आएगा। इसे क्लिक करें और आप पहुंच जाएंगे अपने चैनल के डैशबोर्ड पर।

चैनल को सजाएं : डैशबोर्ड पर आप सबसे पहले चैनल को सजाने का काम करें। चैनल के लिए एक अच्छा बैनर बनाएं। यू-ट्यूब के बैनर का साइज 2560X1440 पिक्सल रखें। यह फाइल 4 एमबी से कम ही रहे। इस साइज का बैनर कंप्यूटर, मोबाइल और टीवी पर सही से डिस्प्ले होगा। ध्यान रखें, आप जिस इमेज को अपने गूगल प्लस अकाउंट के लिए यूज करेंगे, वही यू-ट्यूब चैनल के आइकन की तरह भी डिस्प्ले होगी। यह इमेज ही आपके चैनल की पहचान होगी इसलिए इसे खुद डिजाइन करें, कहीं से कॉपी न करें।

डिटेल्स: बैनर और लोगो के बाद बारी आती है डिसक्रिप्शन यानी कंटेंट की जानकारी और डिटेल्स देने की। डैशबोर्ड पर जाकर अपने चैनल के बारे में लिखें। लोगों को बताएं कि आपके चैनल पर कैसा कंटेंट है, कब उसे अपलोड किया जाता है और आपसे कोई कैसे कॉन्टैक्ट कर सकता है आदि।

नाम हो यूनिक: यू-ट्यूब चैनल बनाने के लिए आपके पास एक अच्छा नाम होना बहुत जरूरी है। नाम थोड़ा अलग होना चाहिए और आपके चैनल के कंटेंट को बताने वाला होना चाहिए। नाम चुनने से पहले रिसर्च जरूर करें। चेक करें कि कहीं आपके चुने हुए नाम से कोई और चैनल तो नहीं है!

प्रॉडक्शन का खेल
एक अच्छा यू-ट्यूब चैनल बनाने के लिए आपके पास अच्छा कंटेंट होना चाहिए। आपके कंटेंट के कारण ही लोग आपके चैनल पर बार-बार आएंगे। यू-ट्यूब विडियो के लिए आपके पास अच्छा आइडिया, कैमरा, विडियो एडिटर और स्क्रिप्ट होनी चाहिए। प्रॉडक्शन का काम 3 फेज में बंटा होता है: प्री-प्रॉडक्शन, प्रॉडक्शन और पोस्ट प्रॉडक्शन।

प्री-प्रॉडक्शन
रिसर्चः विडियो बनाने के लिए सबसे पहले रिसर्च जरूर करें। रिसर्च से पता चलता है कि किस आइडिया या टॉपिक पर विडियो पहले से ही अपोलेड हैं। अगर आप किसी ऐसे टॉपिक पर विडियो बना रहे हैं जो पहले से ही यू-ट्यूब पर मौजूद है तो आपके विडियो को कम ही लोग देखेंगे। ऑडियंस नए कंटेंट को काफी पसंद करती है। उदाहरण के तौर पर नजर बट्टू चैनल को देखिए। वह सोशल मुद्दों पर देसी अंदाज में कॉमेडी कंटेंट बनाते हैं। ऐसा कंटेंट लोगों को काफी पसंद आता है।
स्क्रिप्टः विडियो के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होती है अच्छी स्क्रिप्ट। आप पहले विडियो स्टोरी को लिखिए।
स्क्रिनप्लेः स्क्रिनप्ले में आप एक-एक सीन को लिखते हैं। एक सीट कई सारे शॉट्स को मिलाकर बनता है। जैसे स्क्रिप्ट के अनुसार एक्टर को कार से उतरकर घर में जाना है। तो आप पहले कार का शॉट लेंगे, फिर कार के रूकने का और फिर कार के गेट ओपन होने और एक्टर के उतरने के। यहा पूरा एक सीन होगा। स्क्रिनप्ले में आप एक एक शॉट के बारे में लिखते हैं।
लोकेशनः विडियो इनडोर शूट होगा या आउटडोर शूट होगा, यह क्लियर रखें। आप अपने घर में विडियो शूट कर सकते हैं। अगर आप बाहर शूट कर रहे हैं तो अपने साथ अपना आई-डी प्रूफ जरूर रखें और कोशिश करें कि आपके शूट के कारण किसी को कोई दिक्कत न हो। अगर आप पब्लिक को अपने शूट में शामिल कर रहे हैं तो इसके लिए उनकी परमिशन जरूर लें। अगर आप को स्ट्रीट इंट्रव्यू कर रहे हैं तो लोगों से पहले ही पूछ लें कि क्या वह विडियो शूट के लिए तैयार हैं? उनके साथ जबरदस्ती न करें और आपकी टीम में जिसकी कम्यूनिकेशन स्किल्स अच्छी हैं उसे ही लोगों को अप्रोच करने के लिए कहें।

प्रॉडक्शन
विडियो बनाना प्रॉडक्शन में आता है। विडियो अच्छा बनना चाहिए, फिर चाहे वक्त ज्यादा ही क्यों न लगे। कई बार घंटों के शूट के बाद भी सिर्फ कुछ मिनट का ही विडियो निकलकर आता है। एक विडियो बनाने में कई बार घंटों लगते हैं तो 2 से 3 दिन भी लग जाते हैं। विडियो बनाने के लिए आपको कुछ टूल्स चाहिए:

1. कैमरा : अगर आपके पास डीएसएलआर कैमरा है तो अच्छी बात है। इस कैमरे से अच्छी क्वॉलिटी आती है। डीएसएलआर कैमरे 20 हजार रुपये से शुरू होते हैं। कैमरा नहीं है तो आप शुरुआत अपने फोन से भी कर सकते हैं। आई-फोन है तो बेस्ट है, वरना 8 मेगापिक्सल से ज्यादा वाले फोन ठीक हैं। आप 1500 रुपये रोजाना पर कैमरापर्सन भी हायर कर सकते हैं।

2. ट्राइपोड : शूट करते वक्त कैमरा हिले नहीं, इसके लिए ट्राइपोड यूज करें। मिनी ट्राइपोड की कीमत 300 रुपये है। आप ज्यादा हाइट के लिए दूसरे ट्राइपोड यूज कर सकते हैं। इनकी रेंज 800 रुपये से शुरू होती है। आप चाहें तो सेल्फी स्टिक को भी यूज कर सकते हैं।

3. रिफ्लेक्टर: ज्यादा लाइट होने पर एक्टर्स के फेस पर शैडो बनेगी और विडियो में यह खराब लगता है। ऐसे में आपको रिफ्लेक्टर की जरूरत होती है। इसके लिए आप थर्माकोल यूज कर सकते हैं। जिस डायरेक्शन से लाइट आ रही है, इसे उसके अपोजिट दिशा में रखें।

4. माइक: इसके लिए आप अपने घर में रखे किसी पुराने फोन को यूज कर सकते हैं, लेकिन एक बार चेक जरूर कर लें। इसके अलावा आप कॉलर माइक से भी शुरुआत कर सकते हैं। यह 1500 रुपये तक में मिल जाएगा या फिर 1000 रुपये रोजाना किराये पर भी ले सकते हैं।

5. मेकअप: एक्टर्स का मेकअप जरूरी है। हल्का मेकअप खुद भी कर सकते हैं।

6. बैकअप: शूट के दौरान बैकअप जरूर रखें। कैमरे की एक्स्ट्रा बैटरी, सप्लीमेंट माइक (मोबाइल फोन) और रिफ्लेक्टर अपने साथ लेकर चलें। कई बार ऐसा होता है कि अच्छा कंटेंट शूट करने का मौका आपको एक बार ही मिलता है, लेकिन इक्विपमेंट के काम न करने से यह मौका हाथ से निकल जाता है।

पोस्ट प्रॉडक्शन
पोस्ट प्रॉडक्शन में रॉ विडियो में काट-छांट कर काम की क्लिप निकाली जाती है और उसे एडिट किया जाता है। विडियो एडिटिंग के लिए कई सॉफ्टवेयर यूज किए जाते हैं। एडोब प्रीमियर (Adobe Premiere), फाइनल कट प्रो (Final Cut Pro) और सोनी वेगस प्रो (Sony Vegas Pro) जैसे सॉफ्टवेयर से आप अपने विडियो को अच्छे तरीके से एडिट कर सकते हैं। इनकी रेंज 18 हजार से शुरू होकर एक लाख रुपये तक होती है। आप शुरुआत इनके ट्रायल वर्जन से कीजिए। अगर आप विडियो एडिट करना नहीं जानते हैं तो यू-ट्यूब की मदद से एडिटिंग सीख सकते हैं। एडिटिंग की शुरुआत Windows Movie Maker से भी कर सकते हैं।

ध्यान से अपलोड करें विडियो
विडियो एडिट करने के बाद बारी आती है उसे यू-ट्यूब पर अपलोड करने की। विडियो का टाइटल ऐसा रखें जो बताए कि विडियो में क्या है? टाइटल के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करें जो आप खुद किसी विडियो को सर्च करने के लिए यू-ट्यूब पर डालते हैं। इसके बाद विडियो डिस्क्रिप्शन में विडियो के बारे में डिटेल्स दें। बताएं कि ऑडियंस को विडियो में क्या देखने को मिलेगा। की-वर्ड्स में ऐसे शब्दों को यूज करें जो आपके विडियो से मैच होते हैं।

प्रमोशन से मिलेगी पहचान
विडियो अपलोड करने के बाद इसका प्रमोशन जरूर करें। शुरुआत में आप अपने परिवार, दोस्त, साथियों और जाननेवालों को अपना विडियो देखने के लिए कहें। वट्सऐप ग्रुप, फेसबुक, ट्विटर और हाइक जैसे तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर अपने विडियो को शेयर करें और लोगों को उसे देखने के लिए रिक्वेस्ट करें। अपने विडियो को शेयर कराने के लिए आप फेसबुक पर लाखों लाइक्स वाले पेज को कॉन्टेक्ट करें और उन्हें अपने विडियो शेयर करने की रिक्वेस्ट करें। आप वेबसाइट एडिटर्स से भी विडियो को शेयर करने की रिक्वेस्ट कर सकते हैं।

ऐसे होगी कमाई
यू-ट्यूब से धन विडियो मोनेटाइजेशन के जरिए कमाए जाते हैं। चैनल के विडियो को मोनेटाइज करने के लिए आप क्रिएटर स्टूडियो पर क्लिक कर अपने चैनल पर आइए। यहां आपको लेफ्ट हैंड पर चैनल लिखा दिखेगा, इसमें स्टेटस और फीचर पर क्लिक करें, वहां मोनेटाइजेशन का ऑप्शन मिलेगा। इसे आपक एनएबल कर दीजिए। एनएबल बटन को क्लिक करने के बाद यू-ट्यूब आपसे मोनेटाइजेशन चालू करने के लिए पूछता है। इसे क्लिक करते ही यू-ट्यूब पार्टनरशिप का फॉर्म आपके सामने ओपन हो जाता है। फॉर्म भरें और अपने गूगल ऐड सेंस अकाउंट को इससे लिंक करें। गूगल एक हफ्ते के अंदर आपको मोनेटाइजेशन रिव्यू भेजता है। अगर आपके चैनल पर ऑरिजिनल कंटेंट है तो आपका चैनल मोनेटाइज हो जाता है।
विडियो मोनेटाइज होने से आपका विडियो शुरू होने से पहले यू-ट्यूब ऐड चलाता है। यू-ट्यूब विडियो के नीचे भी प्रॉडक्ट ऐड डिसप्ले करता है। इस ऐड के जरिए ही आपकी कमाई होती है। अगर कोई यूजर इस ऐड पर क्लिक करता है तो आपको और ज्यादा फायदा होगा। अक्सर सुनने को मिलता है कि इंडिया में हर 1000 व्यू पर यू-ट्यूब कंटेंट क्रिएटर को एक डॉलर देता है, लेकिन यू-ट्य़ूब से कमाई किसी एक फैक्टर पर डिपेंड नहीं करती। आपके चैनल पर व्यू किन देशों से आ रहे हैं और कौन कितने देर तक विडियो देखा रहा है, इन बातों पर रेवेन्यू निर्भर होता है। रेवेन्यू के लिए सिर्फ यू-ट्यूब के व्यू पर निर्भर न रहें। इन ऑप्शंस पर भी जोर दें:

ब्रैंड इंडॉर्समेंट : यू-ट्यूब पर ब्रैंड इंडॉर्समेंट से काफी रेवेन्यू आता है। आप अपने चैनल के हिसाब से किसी ब्रैंड को अप्रोच कर सकते हैं। कई ब्रैंड खुद भी उभरते यू-ट्यूब चैनल को कॉन्टैक्ट करते हैं। ब्रैंड इंडॉर्समेंट के लिए जरूरी है कि आपके चैनल की कोई फिक्स्ड थीम हो और आपकी ऑडियंस वहां दिखाए जा रहे प्रॉडक्ट को कंयूज्म कर सके। आप चाहें तो विडियो में किसी वेबसाइट का केवल लिंक देकर भी ब्रैंड इंडॉर्समेंट कर सकते हैं। व्यूज और सब्सक्राइबर्स के हिसाब से आप डील कर सकते हैं। कंपनियां एक विडियो के लिए 40 हजार से 15 लाख रुपये तक देने के लिए तैयार हो जाती हैं।

मर्चेंडाइज़: जैसे-जैसे आपका चैनल लोगों के बीच पॉपुलर होता है, वैसे-वैसे आप खुद एक ब्रैंड बन जाते हैं। आप अपने ब्रैंड की टी-शर्ट, घड़ी, ब्रैसलेट, कप जैसी चीजें बेच सकते हैं। अगर आपकी फैन फॉलोइंग अच्छी है तो लोग आपके मर्चेंडाइज़ प्रॉडक्ट को खरीदेंगे। इसके लिए जरूरी है कि आप हर विडियो में अपने प्रॉडक्ट को खुद ही इंडॉर्स करें और जरूरत पड़ने पर शुरू में फ्री या डिस्काउंट पर भी प्रॉडक्ट को सेल करें।

कब और कैसे आएंगे पैसे: विडियो अपलोड करने के 1 महीने और 25 दिन बाद आपके अकाउंट में पैसा आना शुरू होता है। इसके लिए आपको सबसे पहले गूगल ऐडसेंस (Google Adsense) अकाउंट बनाना होगा। इसके लिए आप अपना जीमेल अकाउंट ओपन करें और दूसरे टैब में गूगल ऐडसेंस ओपन करके अपनी सारी डिटेल्स डाल दें। इसके बाद आपको अपने गूगल ऐडसेंस अकाउंट को यू-ट्यूब चैनल से लिंक करना होता है। यू-ट्यूब से होने वाली सारी कमाई इस ऐडसेंस के जरिए ही आपके अकाउंट में आती है।

कामयाबी के लिए

डिमांड को समझें: सबसे जरूरी है कि आप लोगों की पसंद को समझें। आपको समझ डिवलेप करनी होगी कि लोग क्या देखना चाहते हैं। इसके लिए ट्विटर ट्रेंड, फेसबुक ट्रेंड, टॉप स्टोरीज़ और वायरल कंटेंट पर नजर रखें। आजकल लोग अपनी जॉब और लाइफ में काफी उलझे हुए हैं। ऐसे में ह्यूमन टच और ह्यूमर वाले विडियो लोगों को काफी पसंद आते हैं। विडियो का टॉपिक चुनते वक्त या स्क्रिप्ट लिखते हुए कोशिश करें कि आप ह्यूमन इमोशंस को जरूर टच करें। मोटिवेट करनेवाले, प्रेरणा देनेवाले और कॉमिडी वाले विडियो लोगों को ज्यादा पसंद आते हैं।

ऑडियंस से करें बातः आप विडियो के जरिए अपनी ऑडियंस से बात करने की कोशिश करें। उन्हें विडियो पर कमेंट करने के लिए कहें और उनसे सवाल पूछें। उन्हें अपने साथ कनेक्ट होने का मौका दें। इससे वह आप पर भरोसा करेंगे और आपके अगले विडियो का बेसब्री से इंतजार करेंगे।

टारगेट ऑडियंस: आप अपने टारगेट ऑडियंस के बारे में क्लियर रहें। आपको पता होना चाहिए कि आप किस कैटिगरी के लिए कंटेंट बना रहे हैं। चैनल डैशबोर्ड पर भी डेटा चेक करते रहें और पता करें कि आपके ऑडियंस कौन हैं?

निरंतरता: अपने चैनल पर लगातार विडियो अपलोड करते रहें। एक तय वक्त पर विडियो अपलोड करने से ऑडियंस आपको सीरियली लेती हैं। इससे आपके चैनल पर ढेर सारा कंटेंट भी जमा हो जाता है। जब कोई नया यूजर आपके चैनल पर आता है तो उसे देखने के लिए काफी विडियो मिलते हैं। लगातार विडिय़ो अपलोड करने से आप मार्केट में अपनी पहचान दर्ज करते हैं।

सब्सक्राइब करवाएं: अपने विडियो लोगों को सबस्क्राइब करने के लिए बोलें। आपके पास जितने ज्यादा सब्सक्राइबर्स होंगे, आपका विडियो उतना ज्यादा वायरल होगा। शुरुआत अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों से करें। लोगों को बताएं कि चैनल सब्सक्राइब करने के लिए कोई फीस नहीं देनी होती। इंडिया में काफी लोग विडियो देखते हैं, लेकिन चैनल को सबस्क्राइब नहीं करते। जब भी आप नया कंटेंट यू-ट्यूब पर अपलोड करेंगे, आपके सब्सक्राइबर्स को इसके बारे में मेल मिल जाएगा और वे आसानी से विडियो देख सकेंगे।

यू-ट्यूब करेगा मदद
अगर आपका मन भी यू-ट्यूब विडियो बनाने का है, लेकिन आपके पास सुविधाएं नहीं हैं तो परेशान होने की जरूरत नहीं है। आपको बस शुरुआत करनी है। यू-ट्यूब खुद ही आपकी मदद करेगा:

यू-ट्यूब स्पेसः यू-ट्य़ूब खुद चाहता है कि आप कंटेंट प्रोड्यूस करें। इंडिया में मुंबई में यू-ट्यूब स्पेस मौजूद है। यहां जाकर आप फ्री में यू-ट्यूब का स्टूडियो, कैमरा, माइक, लाइट और प्रॉडक्शन की तमाम चीजें यूज कर सकते हैं। यू-ट्यूब स्पेस को यूज करने के लिए आपको 4 शर्तों पर खरा उतरना पड़ता है:
1. आपकी उम्र 18 साल से ज्यादा हो
2. आपके पास 1000 से ज्यादा सबस्क्राइबर्स हों
3. आपके चैनल पर कॉपीराइट का कोई क्लेम न हो
4. आपने एक बार यू-ट्य़ूब का अनलॉक स्पेस सेशन अटेंड किया हो

वर्कशॉप और हैपी आवर्सः यू-ट्यूब स्पेस मुंबई में वर्कशॉप और हैपी आवर्स भी करवाता है। आप इसमें भी हिस्सा ले सकते हैं। यहां आपको दूसरे यू-ट्यूबर्स से मिलने का मौका मिलेगा। उनके काम के तरीके को आप समझ पाएंगे और अपने चैनल को भी प्रमोट कर पाएंगे। यू-ट्यूब समय-समय पर वर्कशॉप भी करवाता है, जहां प्रॉडक्शन के बारे में काफी कुछ सीखने को मिलेगा।
यहां रखें नजरः यू-ट्यूब ढेरों इवेंट करवाता है। जहां जाकर आप ब्रैंड मैनेजमेंट, ऑडियंस ग्रोथ और कंटेंट प्रॉडक्शन के बारे में प्रफेशनल लोगों से जान सकते हैं। यू-ट्यूब वर्कशॉप और ट्रेनिंग से जुड़ी सारी जानकारी यू-ट्यूब क्रिएटर पर मिल जाएगी। आप यू-ट्यूब क्रिएटर ट्विटर हैंडल (@YTCreatorsIndia) को फॉलो करें और वेबसाइट (youtube.com/yt/creators/ ) पर नजर रखें। आप @YouTubeSpaceMum को भी जरूर फॉलो करें। ट्रेनिंग और प्रॉडक्शनः आप यू-ट्यूब स्पेस को अनलॉक करने के लिए ऑनलाइन अप्लाई कर सकते हैं। इसकी जानकारी आपको गूगल पर मिल जाएगी। मुंबई में लाइव सेशन हर महीने के पहले गुरुवार को होता है। इस दौरान यू-ट्यूब स्पेस बुक करने की जानकारी, कॉपीराइट क्लेम और यू-ट्यूब के दूसरे प्रोग्राम के बारे में जानकारी दी जाती है। इस सेशन में एक यू-ट्यूब चैनल से 3 लोग भाग ले सकते हैं।

इन बातों से बचें
यू-ट्यूब चैनल बनाने के बाद आपको आपको कुछ चीजों का खास ख्याल रखना पड़ता है। ऐसा न करने पर आपके चैनल को खमियाजा भुगतना पड़ सकता है। चैनल पर कंटेंट अपलोड करते वक्त ये सावधानियां बरतें:

गलत जानकारीः यू-ट्यूब सिस्टम आसानी से आपके कंटेंट को पहचान लेता है। ऐसे में आपके विडियो में जो कंटेंट है, वही विडियो के टाइटल और डिस्क्रिप्शन में लिखें। अगर यूजर्स को गलत इंफर्मेशन देकर अपने चैनल तक लाते हैं तो आपका चैनल ब्लॉक कर दिया जाएगा। अगर आप कहते हैं कि आपकी विडियो में फूड रेसिपी है तो विडियो रेसिपी का ही होना चाहिए, डांस या सॉन्ग का नहीं।

कॉपीराइटः ऐसा कोई भी कंटेंट अपने चैनल पर अपलोड न करें, जो आपका ऑरिजिनल कंटेंट नहीं है। किसी और के बनाए कंटेंट को अपलोड करने से रेवन्यू नहीं मिलेगा। विडियो में बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए भी कॉपीराइट वाले म्यूजिक न यूज करें। ऐसा करने पर यू-ट्यूब आपको कॉपीराइट संबंधी नोटिस दे सकता है। अगर आपने कोई कॉपीराइट कंटेंट यूज किया तो आप अपने चैनल के विडियो मैनेजर सेक्शन में जाकर चेक कर सकते हैं कि क्या यू-ट्यूब ने आपको कॉपीराइट नोटिस इशू किया है? ऐसा होने पर आपके विडियो का रेवेन्यू आपको न मिलकर, कॉपीराइट यूजर को जाएगा। अगर आप बैकग्राउंड म्यूजिक यूज करना चाहते हैं तो आपको यू-ट्यूब से ऑडियो मिल जाएगा। इसके लिए चैनल में क्रिएट पर जाइए, यहां आपको ऑडियो लाइब्रेरी मिलेगी। यहां से जिस म्यूजिक को आप यूज करना चाहते हैं वह आपको मिल जाएगा।

अडल्ट कंटेंट से बचें: गूगल अडल्ट कंटेंट को प्रमोट नहीं करता। अगर आप विडियो में अडल्ट कंटेंट डालते हैं तो भी आप मुसीबत में पड़ सकते हैं। अगर आपके विडियो पर व्यू आते भी हैं तो आपको इस कंटेंट के लिए रेवन्यू नहीं मिलेगा।

एक्सपर्ट्स पैनल
-भुवन बाम, फाउंडर, बीबी की वाइन्स
- राहुल भट्टाचार्य, फाउंडर, क्विक रिएक्शन टीम
- करन चावला, फाउंडर, द टीन ट्रोल्स
- लव रुद्राक्ष, फाउंडर, लव रुद्राक्ष

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बरकरार रहेगी जान-ए-जिगर

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वैसे तो ज्यादा फैट शरीर के हर हिस्से के लिए मुश्किलें खड़ी करता है, लेकिन अगर इसकी पैठ लिवर तक हो गई तो मुश्किलें काफी बढ़ जाती हैं। हालांकि थोड़ा-सा ख्याल रख कर लिवर को सेफ रखा जा सकता है। फैटी लिवर, इससे जुड़ी दिक्कतों और उसके समाधान के बारे में एक्सपर्ट्स की मदद से बता रही हैं पूजा मेहरोत्रा:

लिवर हमारे शरीर का जादुई पिटारा है। यह शरीर के 500 से ज्यादा गतिविधियों में शामिल रहता है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और फैट को पचाने का काम भी लिवर ही करता है। बड़ी बात यह है कि लिवर तभी हार मानता है जब इसकी 75 फीसदी कोशिकाएं डैमेज हो जाती हैं।

लिवर के काम
- नुकसानदायक चीजों को शरीर में पहुंच कर नुकसान पहुंचाने से रोकता है और उसे शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है। - लिवर आपके शरीर में ग्लूकोज को भी कंट्रोल करता है। ऐसे में यह इंसानों के लिए बेहद महत्वपूर्ण ऑर्गन है।

मोटापा और फैटी लिवर
-हर मोटा इंसान फैटी लिवर की परेशानी की चपेट में आ सकता है। डायबीटीज के 70 से 80 फीसदी मरीजों को फैटी लिवर का खतरा बना रहता है। मोटापा खतरनाक है या नहीं इसे बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) से नापा जा सकता है। पहले यह 50 से 60 साल के आयु वर्ग के लोगों में ज्यादा पाई जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे इस बीमारी ने युवाओं को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है।
-लगभग 32 फीसदी भारतीयों को फैटी लिवर की शिकायत है।
-मोटापे और डायबीटीज के शिकार 70-80 फीसदी लोग फैटी लिवर के मरीज हैं।
-फैटी लिवर से पीड़ित 20 फीसदी लोग आगे चलकर लिवर की गंभीर बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।
-भारत में लिवर की गंभीर बीमारी में फैटी लिवर तीसरा सबसे बड़ा कारण है।
- लिवर ट्रांसप्लांट के लिए अपने सगे संबंधियों को लिवर दान करने के लिए आगे आने वालों में से 80 फीसदी लोग खुद फैटी लिवर के मरीज होते हैं। इसकी वजह से ट्रांसप्लांट में काफी परेशानी होती है।

जब फैटी लिवर दे दस्तक
फैटी लिवर होने पर शरीर में कई तरह के बदलाव होते हैं:
-पेट अपने आकार से काफी बड़ा हो जाता है।
-शरीर लगातार ओवरवेट रहता है।
-लंबे वक्त तक फैट जमा रहने की वजह से लिवर का आकार बढ़ जाता है और इसमें सूजन आ जाती है।
-मितली आना
-चिड़चिड़ाहट होना
-भूख न लगना
-आलस आना
-शरीर का रंग बदलने लगना (पैरों में ब्राउन पैच, आंखों में पीलापन बना रहना)
-पैरों में लगातार सूजन का रहना, पैरों की स्किन के कलर में बदलने के साथ कमजोरी
-हमेशा थकान महसूस करना
-वजन का अचानक कम हो जाना
-चक्कर आना
-पेट में राइट साइड ऊपर की ओर लगातार दर्द रहने जैसे लक्षण लिवर में हो रही गड़बड़ियों के संकेत हैं।

फैटी लिवर और ऐल्कॉहॉल
ऐल्कॉहॉल फैटी लिवर के लिए जिम्मेदार हो सकता है। फैटी लिवर दो तरह के हो सकते हैं: ऐल्कॉहॉलिक और नॉन-ऐल्कॉहॉलिक इसका सबसे बड़ा कारण एल्कॉहॉल है, लेकिन दूसरे कारण भी हो सकते हैं।

कितना ऐल्कॉहॉल सेफ?
सबसे पहले इस बात को समझना जरूरी है कि ऐल्कॉहॉल न लेना लिमिटेड ऐल्कॉहॉल लेने से बेहतर ऑप्शन है। फिर भी अगर कोई ऐल्कॉहॉल लेता है तो मात्रा का ख्याल रखना चाहिए। इंटरनैशनल रिसर्च के अनुसार यदि कोई रोज लगभग 30 एमएल ऐल्कॉहॉल (3 स्टैंडर्ड पैग) लेता है तो यह सेफ है। यानी एक हफ्ते में यदि कोई पुरुष लगभग 200 एमएल और महिला करीब 130 एमएल ऐल्कॉहॉल ले तो इसे लिवर झेल लेता है। इससे ज्यादा ऐल्कॉहॉल लेने से फैटी लिवर होने की आशंका बनी रहती है। लिमिट से ज्यादा शराब पीने की आदत से लिवर के सेल्स में बैड फैट जमा होता जाता है उन्हें डैमेज करता जाता है। फैटी लिवर के पेशंट्स ज्यादातर वही लोग होते हैं जो रेग्युलर शराब पीते हैं। शराब पीने वाले 80-90 फीसदी लोगों को फैटी लिवर की शिकायत देखने को मिलती है।
नॉन ऐल्कॉहॉलिक फैटी लिवर: यह टर्म उन लोगों में इस्तेमाल किया जाता है जो बहुत कम या बिल्कुल ऐल्कॉहॉल नहीं लेते। कई बार कमर की ज्यादा चौड़ाई (40 इंच से ज्यादा), जॉन्डिस का ठीक से इलाज न कराना और हाई कॉलेस्ट्रॉल की डायट की वजह से यह फैटी लिवर डिवेलप होता है।

क्या है जांच
-ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड
-निडल बायप्सी
खर्च: अलग-अलग पैथॉलजी अपने हिसाब से रेट तय करते हैं लेकिन अमूमन 7-8 हजार रुपये में सारे टेस्ट हो जाते हैं।

बचाव और इलाज
फैटी लिवर का तब तक कोई खास इलाज नहीं है, जब तक कि हालात बढ़ कर फाइब्रोसिस या सिरोसिस तक न पहुंच जाएं और लिवर ट्रांसप्लांट की नौबत न आ जाए।

फैटी लिवर का हार्ट कनेक्शन
लिवर में फैट जमा होने के कारण हार्ट तक जाने वाली खून की धमनियों में फैट जमा हो जाता है और इसकी वजह से हार्ट अटैक हो सकता है। जब यही ब्लॉकेज ब्रेन में जाने वाली नसों में होने लगे तो ब्रेन हैमरेज का खतरा रहता है।

बचाव
-मोटापे को कंट्रोल करें।
-ब्लड शुगर कंट्रोल में रखें।
-यदि मोटे हैं तो एकदम से वजन कम न करें। हर साल अपने कुल वजन के 10 फीसदी के बराबर वजन कम करने का टारगेट रखें। मिसाल के तौर पर अगर वजन 100 किलो है तो पहले साल 10 किलो वजन कम करने और उसके अगले साल 9 किलो कम करने का टारगेट रखें।
-शराब और सिगरेट पीना फौरन बंद कर दें।
-कॉलेस्ट्रॉल और बीपी को कंट्रोल में रखें।
-हेल्दी और संतुलित खाना खाएं।
-रेग्युलर एक्सरसाइज करें।
-फाइबर युक्त चीजें जैसे फल, सब्जियां, बींस और साबुत अनाज आदि को अपनी डायट में ज्यादा मात्रा में शामिल करें।
-तला-भुना और जंक फूड खाने से बचें।
-किसी डायटिशन की मदद से फूड चार्ट बनवाएं और उसके हिसाब से खाना खाएं।
-डॉक्टर से पूछे बिना पेन किलर्स या और कोई दवा न लें।

योग रखेगा लिवर फिट
लिवर की परेशानियों से बचने के लिए अतिरिक्त पवनमुक्तासन, वज्रासन, मर्करासन आदि का अभ्यास करना चाहिए। ये बेहद फायदेमंद होते हैं।

ऐसे करें पवनमुक्तासन
पीठ के बल जमीन पर लेट जाएं। दाएं पैर को घुटने से मोड़कर इसके घुटने को हाथों से पकड़कर घुटने को सीने के पास लाएं। इसके बाद सिर को जमीन से ऊपर उठाएं। उस स्थिति में आरामदायक समय तक रुककर वापस पहले की स्थिति में आएं। इसके बाद यही क्रिया बाएं पैर और फिर दोनों पैरों से एक साथ करें। यह पवनमुक्तासन का एक चक्र है। एक या दो चक्रों से शुरू करके धीरे-धीरे इसकी संख्या बढ़ाकर 10-15 बार कर सकते हैं।

ऐसे करें शीतली प्राणायाम
लिवर बढ़ने की समस्या से ग्रस्त लोगों को शीतकारी या शीतली प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन या कुर्सी पर रीढ़, गला और सिर को सीधा कर बैठें। दोनों हाथों को घुटनों पर आराम से रखें। आंखों को ढीली बंद कर चेहरे को शांत रखें। अब जीभ को बाहर निकालकर दोनों किनारों से मोड़ लें। इसके बाद मुंह से गहरी और धीमी सांस बाहर निकालें। शुरुआत में इसे 12 बार करें। धीरे-धीरे बढ़ाकर 24 से 30 तक ले जाएं।

फायदेमंद है शशांकासन
खरगोश की तरह बैठ कर दोनों पैर घुटने से मोड़ कर बैठें या वज्रआसन में भी बैठते हुए लंबी गहरी सांस छोड़ते हुए अपने हाथों और माथे को जमीन पर टच कराएं। कुछ देर इसी अवस्था में रुकें। ऐसे में सांस की स्थिति सामान्य रखें। इस आसन को पांच बार करना चाहिए।

होम्योपैथी का भी लें सहारा
होम्योपैथी में भी कुछ दवाएं हैं जो लिवर के खासकर फैटी लिवर के मरीजों को दी जाती हैं। ये दवाएं असरदार करने में वक्त लगाती हैं लेकिन इनका कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं। दवाएं लेने के साथ ही एक्सरसाइज भी करनी होगी।
- फॉस्फोरस-5-5 गोलियां दिन में तीन बार दो हफ्ते तक।
- लाइकोपोडियम 30- 5-5 गोलियां दिन में तीन बार दो हफ्ते तक।
- चेलिडोनियम मेगस मदर टिंचर- 10 बूंदे आधा कप पानी के साथ लेने से लिवर पर जमी की चर्बी में कमी आती है।

आजमाएं आयुर्वेदिक नुस्खे
फैटी लिवर का इलाज आयुर्वेद में भी मुमकिन है:
-आयुर्वेद में गर्म छाछ बहुत उपयोगी मानी गई है। छाछ को हल्का गुनगुना कर उसमें हल्दी और जीरे का छौंक लगा कर पीने से काफी मदद मिलती है।
-हल्दी में पाए जाने वाले एंटी-ऑक्सीडेंट लिवर सेल्स को मजबूत बनाता है। इसलिए खाने में हल्दी का उपयोग करें।
- संतरे का रस, जौ का पानी और नारियल पानी रेग्युलर पीने से लिवर की सेहत बनी रहती है।
- गाजर और टमाटर खाने से भी फैटी लिवर के मरीजों को फायदा होता है।
- फैटी लीवर से छुटकारा पाने में ग्रीन टी बड़े पैमाने पर असर करती है। बेहतर परिणाम के लिए ग्रीन टी को रोजमर्रा के आहार में शामिल करें और इसके एंटी-ऑक्सिडेंट गुणों की वजह से यह फैटी लिवर की समस्या से छुटकारा दिलाता है।

मिथ मंथन
शराब की बजाय बियर पीना सेफ
रोजाना 300 एमएल यानी एक केन से ज्यादा बियर पीना भी फैटी लिवर का कारण हो सकता है। लंबे वक्त तक यह आदत घातक साबित हो सकती है। तकरीबन 3 स्टैंडर्ड पैग से ज्यादा शराब भी घातक सिद्ध हो सकती है।

शराब पीने वालों को होता है फैटी लिवर
यह मान्यता गलत है कि फैटी लिवर की शिकायत सिर्फ शराब पीने वालों को ही होता है। शराब फैटी लिवर की बड़ी वजह जरूर है, लेकिन अकेली वजह नहीं। शराब पीने और न पीने वाले फैटी लिवर के पेशंट्स की संख्या लगभग बराबर है।

मोटे लोगों को होता है फैटी लिवर
अक्सर मान लिया जाता है कि फैटी लिवर सिर्फ मोटे लोगों को ही होता है। सचाई यह है कि दुबले लोग भी अपनी खान-पान की आदतों जैसी दूसरी वजहों से बड़ी संख्या में फैटी लिवर की समस्या के शिकार पाए जाते हैं।

जब आए नौबत ट्रांसप्लांट की
लिवर ट्रांसप्लांट लिवर की बीमारी की वह आखिरी स्टेज है, जहां मरीज के शरीर में नया लिवर लगाकर जीवन दिया जाता है। इस ऑपरेशन की सफलता का दर तकरीबन 94 फीसदी है। लिवर ट्रांसप्लांट से लेकर डोनर तक को ढूंढने तक में आने वाला खर्च मरीज-मरीज पर निर्भर करता है। यह 15 से 40 लाख तक हो सकता है।

ट्रांसप्लांट की जरुरत कब
- जब मरीज का लिवर बहुत ज्यादा डैमेज हो चुका होता है और ठीक से काम नहीं कर रहा होता।
- यदि लिवर हेपैटिक कोमा हो या फिर गैसट्रोइटोंटेसटाइनल ब्लीडिंग हो रही हो। लिवर कैंसर में या फिर सिरोटिक लिवर में बदल चुका हो, तब ट्रांसप्लांट ही आखिरी रास्ता बचता है।
-अर्जेंट लिवर ट्रांसप्लांट उन मरीजों का होता है जिनका लिवर काम करना पूरी तरह से बंद कर चुका होता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। मुख्य कारण हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस ए, हेपेटाइटिस ई आदि।

डोनर क्या और कब
-ट्रांसप्लांट में मरीज और डोनर का ब्लड ग्रुप एक होना चाहिए।
-डोनर को फैटी लिवर के साथ कोई और बीमारी नहीं होनी चाहिए।
-लिवर जादूई अंग है। यह खुद अपना इलाज कर लेता है। डोनर का लिवर 6-9 सप्ताह में फिर से आ जाता है।
-डोनर की उम्र 50 साल से कम होनी चाहिए।
-बॉडी मास इंडेक्स 25 से कम होना चाहिए।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. अनूप मिश्रा, सी-डॉक, फोर्टिस, दिल्ली
डॉ. अनूप सराया, एम्स, दिल्ली
डॉ. नवल विक्रम, एम्स, दिल्ली
डॉ. गीता रमेश, कैराली आयुर्वेदिक हीलिंग सेंटर
सुनील सिंह, योग गुरु
डॉ. सुचीन्द्र सचदेव, होम्योपैथी एक्सपर्ट
डॉ. नीलम मोहन, मेदांता, गुड़गांव







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दांतों को रखना हो दुरुस्त तो इन पर दें ध्यान

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हमारी सेहत, स्वाद और सुंदरता, इन तीनों के लिए दांतों का सही-सलामत रहना बेहद जरूरी है। दांतों की बीमारियों के लिए तमाम इलाज मौजूद हैं। वक्त के साथ कई नई तकनीक भी शामिल हो रही हैं, जो दांतों के इलाज को आसान और बेहतर बना रही हैं। दांतों की हिफाजत और बेहतर इलाज पर एक्सपर्ट्स से बात करके जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह:

सुंदर दांत हमारी शख्सियत को निखारते हैं। अगर दांतों की कोई समस्या हो तो न सिर्फ दिखने में खराब लगते हैं, बल्कि खाना-पीना भी मुश्किल हो जाता है। आमतौर पर दांतों से जुड़ीं 2 तरह की समस्याएं होती हैं: 1. मसूढ़ों से जुड़ीं, 2. दूसरी दांतों संबंधी।

मसूढ़ों की बीमारियां

पायरिया


पायरिया मसूढ़ों और हड्डी की बीमारी होती है। इसमें सांसों से बदबू और दांतों से खून आता है। शुरुआत में दर्द नहीं होता इसलिए बीमारी बढ़ती जाती है। वक्त पर इलाज न हो तो आगे जाकर दांत हिलने लगते हैं और निकल भी जाते हैं। इसकी मुख्य वजह ढंग से सफाई न करना है। हालांकि डायबीटीज या पैरंट्स में किसी को पायरिया होना भी वजह हो सकती है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

स्केलिंग यानी मसूढ़ों की सफाई की जाती है। एक सिटिंग के लिए 900 से 3500 रुपये खर्च आता है। फिर मसूढ़ों और हड्डी के संक्रमित टिशूज को हटा दिया जाता है। इससे बीमारी वहीं थम जाती है और आगे नहीं बढ़ती। एक दांत के लिए करीब 600-1200 रुपये चार्ज किए जाते हैं। फिर दांतों को पॉलिश भी किया जाता है ताकि उन पर सफाई से बनने वाली बारीक लाइनों पर प्लाक जमा न हो और दांत स्मूद बने रहें। इस पूरे प्रोसेस में 3-4 सिटिंग्स तक लग जाती हैं।

लेटेस्ट तकनीक

मोटे तौर पर ऊपर लिखा प्रोसेस ही किया जाता है, लेकिन नॉर्मल क्लीनिंग के बजाय लेजर क्लीनिंग की जाती है। इसमें ब्लीडिंग नहीं होती और दर्द भी नहीं होता। 2 सिटिंग्स में ट्रीटमेंट पूरा कर दिया जाता है। पूरे इलाज का खर्च आता है करीब 5000 रुपये। पायरिया से बचने के लिए बेहतर है कि हर 6 महीने में डेंटिस्ट को दिखाकर दांतों की क्लीनिंग करा लें।

बदरंग और धब्बेदार मसूढ़े

मसूढ़े अगर नॉर्मल पिंक कलर के न होकर नीले-जामनी जैसे या दाग-धब्बेदार होते हैं तो देखने में काफी खराब लगते हैं और खूबसूरती को कम करते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

स्कैल्पिंग यानी मसूढ़ों के ऊपर की एक लेयर को हटा दिया जाता है, जिससे नीचे की साफ लेयर ऊपर आ जाती है। आमतौर पर 2-3 सिटिंग्स में इलाज होता है और हर सिटिंग के लिए 8-12 हजार रुपये तक चार्ज किए जाते हैं। कई बार दोबारा कराना पड़ सकता है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल इसके लिए लेजर की मदद ली जाने लगी है। लेजर की मदद से डॉक्टर ऊपरी लेयर हटा देते हैं। इस प्रोसेस में दर्द बिल्कुल नहीं होता और रिजल्ट भी बेहतर है। अक्सर एक सिटिंग में ही काम पूरा हो जाता है। 10 से 15 हजार रुपये चार्ज किए जाते हैं। हालांकि इसका एक नुकसान यह है कि कई बार 2-3 साल में इस प्रोसेस को दोबारा कराना पड़ सकता है।

उठे हुए मसूढ़े

कई बार पैदाइशी तो कभी-कभार किसी बीमारी (मिर्गी आदि) या दवाओं (बीपी, इम्युनिटी की दवा आदि) के सेवन से मसूढ़े सूजे और उठे हुए नजर आते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

कंटूरिंग यानी मसूढ़ों की ऊपरी परत को छीलकर मसूढ़ों को एक लेवल में लाया जाता है। इसके लिए 2-3 सिटिंग्स लगती हैं और कुल 3-5 हजार रुपये खर्च आता है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल लेजर से कंटूरिंग की जाती है। इसमें एक ही सिटिंग में इलाज हो जाता है। हालांकि यह थोड़ा महंगा पड़ता है। मुंह के एक हिस्से के लिए 5-7 हजार रुपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

दांतों की समस्या

दांतों की समस्याओं में प्रमुख हैं:

सेंसिटिविटी


दांतों में ठंडा-गर्म महसूस करने की समस्या काफी कॉमन है। इसकी वजह आमतौर पर दांतों की ऊपरी परत का हटना होता है जोकि बेहद हार्ड ब्रश यूज करने, बार-बार और ज्यादा देर तक ब्रश करने, दांतों का सही अलाइनमेंट में न होने, कार्बोनेटिड ड्रिंक्स (कोल्ड ड्रिंक्स आदि) ज्यादा पीने आदि से हो सकती है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

सेंसिटिव टूथपेस्ट यूज करने की सलाह दी जाती है। इसमें फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा होती है। यह 200-250 रुपये में मिल जाता है।

लेटेस्ट तकनीक

डी-सेंसिटाइजेशन तकनीक से दांतों पर ऐंटि-सेंसिटिविटी मटीरियल (डेंटीन बॉन्डिंग एजेंट) लगाते हैं। इससे दांतों की सेंसिटिविटी कम हो जाती है। 1-2 सिटिंग में काम पूरा हो जाता है और हर दांत के लिए 600-700 रुपये चार्ज किए जाते हैं। इस प्रोसेस को साल-दो साल में रिपीट कराना पड़ता है। इसके अलावा, लेजर से भी सेंसिटिविटी हटाते हैं। 800 से 1200 एक दांत का चार्ज किया जाता है।

केरीज या कैविटी (कीड़ा लगना)

ज्यादा मीठा खाने, सही से दांत साफ न करने, दांत कुरेदते रहने या फिर स्लाइवा के केरीज प्रोन होने पर दांतों में बैक्टीरिया लग जाता है जो केरीज या कैविटी (छेद) की वजह बनता है।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

कैरीज होने पर पहले अमल्गम (सिल्वर/गोल्डन) फिलिंग की जाती थी, लेकिन बाद में कंपोजिट फिलिंग की जाने लगी। इसमें अल्ट्रावॉयलेट रेज की मदद से सेटिंग की जाती है। अगर कैविटी बहुत गहरी है तो रूट-कनाल किया जाता है। मैनुअली रूट-कनाल कराने पर 3-4 सिटिंग्स की जरूर पड़ती है, जिसमें 10-15 दिन लगते हैं। इसके लिए 2500 से 4000 रुपये तक चार्ज किए जाते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

अगर केरीज की वजह से सिर्फ वाइट दाग दिखने शुरू हुए हैं तो दांत में मिनरल कंटेंट बढ़ा देते हैं, ताकि कैविटी हो ही नहीं। इसके लिए री-मिनरलाइजिंग टूथपेस्ट (फ्लोराइड आदि) यूज करने की सलाह ही जाती है। यह करीब 1000-1500 रुपये का आता है। तकनीकी लिहाज से सबसे ज्यादा काम रूट-कनाल के फील्ड में हुआ है। यह अब पहले के मुकाबले काफी आसान और कम समय में होने लगी है। इसमें दर्द भी नहीं होता। नई तकनीक की रूट कनाल को सिंगल सिटिंग रूट कनाल कहा जाता है और इसे रोटरी मशीन से किया जाता है। शेप बेहतर आती है और एक ही सिटिंग में प्रोसेस पूरा हो जाता है। लेकिन सिंगल सिटिंग रूट कनाल तभी की जाती है, अगर दांत में ज्यादा इन्फेक्शन न हो। इसके लिए 4-8 हजार रुपये चार्ज किए जाते हैं। रूट कनाल के बाद कैप लगवाना जरूरी होता है। कैप में 5-15 हजार रुपये खर्च आता है।

दागदार दांत

दांतों पर दाग 2 तरह के होते हैं


अंदरूनी और बाहरी। बाहरी दाग आमतौर पर खाने की आदतों से पड़ते हैं, मसलन चाय-कॉफी, पान, तंबाकू, हल्दी, मसाले आदि ज्यादा मात्रा में खाने से। अच्छी तरह ब्रश करने और फ्लॉस से सफाई करने से बाहरी दाग साफ हो जाते हैं। इन्हें ब्लीचिंग से भी खत्म किया जा सकता है, लेकिन अंदरूनी दागों को विनियर (लेमिनेशन) की मदद से छुपाया जा सकता है।

बाहरी दागों के लिए

दांतों की बाहरी परत पर मौजूद दागों को हटाने के लिए ब्लीचिंग यूज कर सकते हैं। ब्लीचिंग सिर्फ नेचरल दांतों पर ही काम करती है, क्राउन, वेनर या फिलिंग वाले दांतों पर नहीं। ब्लीचिंग 2 तरह से होती है: ऑफिस ब्लीचिंग औप होम ब्लीचिंग। पहली बार ब्लीचिंग क्लिनिक से ही करानी चाहिए। फिर चाहें तो घर पर कर सकते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

क्लिनिकल ब्लीचिंग 1-2 सिटिंग्स में होती है और इसके लिए 10-15 हजार रुपये खर्च होते हैं। होम ब्लीचिंग किट की मदद से घर पर भी ब्लीचिंग की जा सकती है। इस किट में ब्लीचिंग ट्रे और जेल होता है। यह किट कोलगेट और ओपेलसेंस आदि ब्रैंड्स की आती है। इसे डॉक्टर की सिफारिश पर ही लेना चाहिए। यह 5-7 हजार रुपये में मिल जाती है।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल लेजर ब्लीच यूज की जाती है। इसमें करीब 45 मिनट का टाइम लगता है और ज्यादा वाइटनिंग होती है। इससे सेंसिटिविटी नहीं होती, जबकि नॉर्मल ब्लीचिंग से यह हो सकती है। हालांकि वह भी 2-3 दिन में खत्म हो जाती है। इसके लिए 15-25 हजार रुपये खर्च आता है।

अंदरुनी दागों के लिए

ये दाग दांत के अंदर होते हैं और इन्हें निकालना काफी मुश्किल होता है। इसके लिए ये तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं:

नॉर्मल ट्रीटमेंट

दांतों के अंदर दागों को हटाने के लिए विनियर (veneer) यानी लेमिनेशन तकनीक यूज की जाती है। दांत अगर थोड़े-बहुत आगे-पीछे हैं या फिर हल्की टूट-फूट है तो भी इस तकनीक को यूज किया जाता है। विनियर पोर्सलिन की पानी जैसी पतली परत होती है, जोकि दांतों के ऊपर लगा दी जाती है। दांतों का नाप लेकर सिरेमिक या पोर्सलिन की परत लैब में तैयार की जाती है। इस लेयर को सामने दिखनेवाले दांतों के ऊपर लगा दिया जाता है। इसे फिट करने के लिए इनेमल की एक हल्की परत हटाई जाती है। विनियर 5-7 साल तक चल जाते हैं। कंपोजिट के मुकाबले सिरेमिक या पोर्सलिन विनियर बेहतर होते हैं, लेकिन एक बार लगवाने के बाद विनियर हमेशा लगवाने पड़ते हैं क्योंकि ऑरिजिनल दांत की ऊपरी परत हटा दी जाती है। कंपोजिट विनियर 4-5 हजार और सिरेमिक विनियर 15-20 हजार रुपये में लगते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल विनियर्स के अलावा ल्यूमिनियर भी लगाए जाते हैं। ये करीब-करीब विनियर्स जैसे ही होते हैं, लेकिन ज्यादा पतले होते हैं। विनियर्स जहां 1 एमएम की मोटाई तक बनते हैं, वहीं ल्यूमिनियर्स और भी बारीक बनते हैं। ल्यूमिनियर्स के लिए दांतों की परत काटनी नहीं पड़ती है। ये भी सामने की तरफ लगाए जाते हैं और कीमत करीब 25-35 हजार रुपये होती है।

गैप वाले या टेढ़े-मेढ़े दांत

कई बार दांतों के बीच गैप होता है या दांत एक-दूसरे के ऊपर चढ़े होते हैं। इन तरह की समस्याओं के लिए कई तरह के इलाज मौजूद हैं:

नॉर्मल ट्रीटमेंट

इसके लिए बॉन्डिंग या क्राउन/कैप करा सकते हैं। बॉन्डिंग में कंपोजिट फिलिंग के मटीरियल को सीधे दांत के ऊपर लगाया जाता है, जो पॉलिश और फिनिशिंग के बाद ऑरिजिनल दांत का हिस्सा लगने लगता है। एक दांत के लिए 1500 से 3500 रुपये खर्च आता है।

रूट कनाल वाले दांतों के अलावा ब्रिजेस को सपोर्ट करने और बदरंग व टेढ़े-मेढ़े दांतों पर क्राउन या कैप लगाए जाते हैं। क्राउन मेटल के अलावा नैचरल दिखनेवाले पोर्सलिन, सिरेमिक, अक्रेलिक या कंपोजिट मटीरियल से बनाए जाते हैं। अगर रखरखाव ठीक से किया जाए और फ्लॉस से रोजाना साफ किया जाए तो क्राउन आमतौर पर 5-7 साल चल जाते हैं। दो सिटिंग्स में काम हो जाता है और 12 से 15 हजार रुपये प्रति दांत खर्च आता है। लेकिन इन सबसे बेहतर है कि ब्रेसेस। इसमें नेचरल दांतों को कोई नुकसान नहीं होता। ब्रेसेस की मदद से टेढ़े-मेढ़े दांतों को लेवल में लाया जाता है। मेटेलिक के अलावा सिरेमिक, कलर्ड और लिंगुअल ब्रेसेस आते हैं। लिंगुअल ब्रेसेस दांतों के अंदर की तरफ से लगाए जाते हैं और बाहर से नजर नहीं आते। ब्रेसेस हटाए जाने के बाद रिटेनर्स लगाए जाते हैं। ये अक्रेलिक से बने इम्प्लांट्स होते हैं जो तारों की मदद से दांतों के पीछे लगाए जाते हैं। इस पूरे प्रोसेस को पूरा होने में करीब डेढ़-दो साल लगते हैं। मेटल ब्रेसेस 30-40 हजार रुपये, सिरेमिक ब्रेसेस 40-70 हजार रुपये और अलाइनर्स 1 से 2 लाख में लगते हैं।

लेटेस्ट तकनीक

आजकल दांत के ही रंग के ब्रेसेस लगाए जाते हैं। साथ ही, ट्रांसपैरंट अलाइनर्स भी लगाए जाते हैं। हालांकि मेटल, सिरेमिक, अलाइनर्स आदि के रिजल्ट अमूमन एक जैसे ही होते हैं। लेकिन मेटेलिक ब्रेसेस देखने में खराब लगते हैं, जबकि अलाइनर्स यानी इनविजिबल ब्रेसेस अलग से नजर नहीं आते और देखने में खराब नहीं लगते। इन पर 1.5 से 2.5 लाख खर्च आता है।

जब लगवाना हो दांत

अगर दांत निकल जाए तो नया दांत लगाने के लिए ब्रिजेस, इम्प्लांट्स, डेंचर यूज किए जाते हैं।

नॉर्मल ट्रीटमेंट

जो दांत निकल गया है, उसके आसपास के दांतों पर कैप/क्राउन फिक्स्ड कर दी जाती हैं और उनकी मदद से मिसिंग दांत लगा दिया जाता है। इसे ब्रिजेस कहा जाता है। इसमें आसपास के दांतों को काटा जाता है। यह परमानेंट तकनीक है और मसूढ़ों, हड्डियों और आसपास के दांतों की स्थिति को देखकर इसे लगाने का फैसला किया जाता है। एक ब्रिज के लिए 18-30 हजार रुपये खर्च आता है। इसके अलावा एक-दो दांत या पूरे दांतों का डेंचर भी लगवा सकते हैं। डेंचर अक्सर हिलते रहते हैं और बाहर भी निकल आते हैं। इस वजह से ये सुविधाजनक नहीं होते। इम्प्लांट डेंचर और ब्रिजेस, दोनों से बेहतर है क्योंकि इसमें आसपास के दांतों के सपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ती। इम्प्लांट लगाने के लिए टाइटेनियम से बनी स्क्रू शेप की डिवाइस मसूढ़े में फिट कर दी जाती है, जिस पर नया दांत लगाया जाता है। गाजर-नारियल जैसी मजबूत चीजों को भी काटा जा सकता है। ये ज्यादा स्थायी और सुरक्षित होते हैं। अगर एक दांत लगाना है तो इंप्लांट और एक कैप से काम चल जाता है। अगर एक से ज्यादा दांत लगाने होते हैं तो इम्प्लांट और ब्रिजेस की मदद से लगाए जा सकते हैं। इसके लिए 2 सिटिंग्स लगती हैं और पूरे ट्रीटमेंट में तीन से छह महीने लगते हैं। एक दांत के लिए 15-30 हजार रुपये खर्च आता है।

लेटेस्ट तकनीक

अब एक ही दिन में नया दांत लगाया जा सकता है। पहले इसके लिए कई महीने इंतजार करना पड़ता था। यहां तक कि जिस दिन दांत निकला है, उसी दिन नया दांत लगाया जा सकता है। इसे इमिडिएट लोडिंग इम्प्लांट कहा जाता है। ऐसा सिर्फ सामने वाले दांतों के लिए मुमकिन है। लेकिन ये परमानेंट नहीं होते और इनसे हार्ड चीजें नहीं खा सकती। 6 महीने बाद परमानेंट दांत लगवाना होता है। एक दांत के लिए 40-60हजार रुपये खर्च आता है। इसी तरह हाइब्रिड डेंचर भी आ गए हैं। इन्हें भी दांत निकलवाने के साथ ही लगवा सकते हैं। 6 महीने बाद परमानेंट डेंचर बनवाना होता है। ये फिक्स रहते हैं और इनसे आराम से कोई भी चीज खा सकते हैं। कुल 2-2.5 लाख रुपये खर्च होते हैं।

5 टिप्स दांतों के लिए

1. दांतों को हेल्थी बनाए रखने के लिए जरूरी है कि दांतों को 2 बार कायदे से साफ किया जाए। हर बार 2-3 मिनट ब्रश करें। मुलायम ब्रश से दांतों की ऊपरी और भीतरी, दोनों तरफ सफाई करें। 3-4 महीने में ब्रश जरूर बदल दें। रोजाना फ्लॉस यूज करें। ​उंगलियों से मसूढ़ों की मालिश करें। कुछ भी खाने-पीने के बाद कुल्ला करें। 2. तेज-तेज ब्रश करने से बचें। इससे दांत घिस जाते हैं। दांतों में धागे आदि न फंसाएं। न ही कोई नुकीली चीज दांतों के बीच डालें। 3. चूइंग-गम, टॉफी, दांतों में चिपकनेवाली और खट्टी चीजें ज्यादा न खाएं। पान-तंबाकू, गुटका आदि के सेवन से बचें। चाय-कॉफी भी कम पिएं। 4. अगर रात में सोते हुए दांत चबाने की आदत है तो नाइट गार्ड्स पहनें। इससे दांत घिसेंगे नहीं। 5. साल में 2 बार डेंटिस्ट से अपने दांतों का चेकअप जरूर कराएं। दांतों में दर्द, सड़न, सेंसिटिविटी होने तक का इंतजार करें। जो भी इलाज कराएं, पूरा कराएं।

बच्चों के दांतों का रखें ख्याल

6 महीने से एक साल की उम्र में एक बार बच्चे को डेंटिस्ट के पास जरूर ले जाना चाहिए। फिर 7-8 साल की उम्र में भी डेंटिस्ट को जरूर दिखाएं। इससे दूध के और परमानेंट दांतों में किसी भी बीमारी की शुरुआत में ही पता लग सकता है और बीमारी को बढ़ने से रोका जा सकता है।

बच्चे का जब पहला दांत निकले, तभी से ब्रशिंग शुरू कर देनी चाहिए। छोटे बच्चों के लिए बेहद सॉफ्ट ब्रश आते हैं। ब्रश साइज में छोटा और आगे से पतला होना चाहिए। 6-7 साल की उम्र तक पैरंट्स को खुद बच्चे के दांत ब्रश करने चाहिए क्योंकि इस उम्र तक वह खुद ढंग से ब्रश नहीं कर पाता। मसूढ़ों की मालिश उंगली से करें।


उसे शुरू से ही सुबह और रात यानी 2 बार ब्रश करने की आदत डालें। 6 साल की उम्र से पहले बच्चे को फ्लोराइड वाला टूथपेस्ट न दें। मटर के दाने के बराबर टूथपेस्ट ब्रश करने के लिए काफी होता है।

बच्चों को दांतों पर फ्लोराइड ऐप्लिकेशन करा सकते हैं। डॉक्टर बच्चे का दांतों पर फ्लोराइड वार्निश कर देते हैं, जिससे कैविटी की आशंका काफी कम हो जाती है। पहली बार वार्निश 3 साल की उम्र में और इसके बाद 7 साल, 10 साल और 13 साल की उम्र में कराएं। यानी जब-जब नए दांत आते हैं, तब-तब वार्निश करा लेनी चाहिए।

बच्चों के दांतों में पिट ऐंड फिशर सीलेंट करा सकते हैं। दरअसल, हमारी दाढ़ों में कई ऐसी जगहें होती हैं, जहां खाना फंस सकता है। इन जगहों को सील कर देते हैं तो कीड़ा लगने की आशंका काफी कम हो जाती है।

अगर दूध के दांतों में कीड़ा लग गया है तो इंतजार करने के बजाय फिलिंग कराएं। कोई दांत निकल गया है तो स्पेस मेंटेनर लगवा दें, ताकि उस दांत की जगह बनी रहे।

खाने के बीच में शुगर, टॉफी-चॉकलेट आदि न दें। इससे कैविटी होने के चांस बढ़ जाते हैं। मीठा देना ही है तो प्रॉपर खाने के साथ खिलाएं और इसके बाद कुल्ला करा दें।

ज्यादा जानकारी के लिए

ऐप्स Brush DJ
: यह दिन में 2 बार ब्रश करने, 3 महीने में ब्रश बदलने, 6 महीने में डेंटिस्ट से चेकअप कराने जैसे तमाम अपडेट आपको देता है। इसे डेंटिस्ट ने बनाया है। यह ऐप आईफोन और एंड्रॉयड दोनों के लिए है। Aquafresh Brush Time: यह ऐप बच्चों को सही तरीके से ब्रश करना सिखाता है। साथ ही, इस पर चलनेवाले मजेदार गानों पर नाचते-गाते बच्चे 2 मिनट अच्छी तरह से ब्रशिंग कर सकते हैं। यह ऐप आईफोन और ऐंड्रॉयड दोनों के लिए है।

फेसबुक पेज Smith Dental Care, Danny O'Keefe | Family Dental Care, Logan Dental Care जैसे कई पेज फेसबुक पर हैं, जिन पर दांतों की देखभाल और इलाज से जुड़ी बहुत सारी इर्न्फेशन मिल सकती है।

वेबसाइट knowyourteeth.com: इस वेबसाइट पर जाकर आप अपने दांतों के बारे में A से Z तक सारी जानकारी हासिल कर सकते हैं। webmd.com/oral-health: इस साइट से आप अपने दांतों को सेहतमंद बनाने की तमाम जानकारी पा सकते हैं। kidshealth.org: बच्चों के दांतों की हिफाजत के लिए आपको जरूरी टिप्स मिल सकते हैं इस वेबसाइट से।

विडियो nbt.in/F8Pb9a: सही से ब्रश करना दांतों की बीमारियों को दूर रखने के लिए बेहद जरूरी है। ब्रश करने का सही तरीका जानने के लिए देखें यह विडियो।

एक्सपर्ट्स पैनल - डॉ. महेश वर्मा, डायरेक्टर-प्रिंसिपल, मौलाना आजाद डेंटल कॉलेज - डॉ. प्रवीन कुमार, हेड, डेंटिस्ट्री डिपार्टमेंट, मैक्स हॉस्पिटल - डॉ. गगन सबरवाल, सर्जन, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट - डॉ. मीरा सिंह, सीनियर डेंटिस्ट, जे.पी. हॉस्पिटल

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जानें, सेहत के लिए बेहतर हैं ये ब्रेड और बटर

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ब्रेड्स के बिना हमारा खाना पूरा नहीं होता। इन ब्रेड्स के बिना न सिर्फ हमारा ब्रेकफास्ट अधूरा है, बल्कि कई तरह की डिशेज का स्वाद भी नहीं लिया जा सकता। ब्रेड्स पर बटर के अलावा भी दूसरे कई स्प्रेड्स लगाए जाते हैं। सेहत के लिहाज से कौन-सी ब्रेड्स और स्प्रेड्स बेहतर हैं, एक्सपर्ट्स से बात करके बता रही हैं प्रियंका सिंह:-

ब्रेड्स में आमतौर पर आटा, शुगर (थोड़ी-सी), नकम (जरा-सा), ओट्स, दूध, ऑइल, प्रिजर्वेटिव्स आदि डाले जाते हैं। इसके अलावा टेस्ट के अनुसार अलग-अलग चीजें भी डाली जाती हैं। ब्रेड्स को यीस्ट की मदद से खमीर उठाकर बनाया जाता है। ब्रेड्स की कई वरायटी मार्केट में मौजूद है। इनमें खास हैं:-

वाइट ब्रेड: सबसे कॉमन है वाइट ब्रेड। वाइट ब्रेड को मैदा से तैयार किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया में इसकी न्यूट्रिशन वैल्यू काफी कम हो जाती है क्योंकि गेहूं का छिलका (ब्रैन) और ऊपरी कोने वाला हिस्सा (जर्म) आदि निकल जाते हैं। इससे फाइबर और दूसरे पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। ऐसे में सिर्फ स्टार्च से भरपूर हिस्सा बचता है यानी इसे खाने से पोषण नहीं मिलता। वाइट ब्रेड खाना चाहते हैं तो इसके साथ अंडा, पनीर, हरी सब्जियां (टमाटर, प्याज, खीरा आदि) या आवोकाडो (नाशपाती जैसा फल) आदि खाएं। इससे आपके ब्रेकफास्ट की न्यूट्रिशनल वैल्यू बढ़ जाती है।

ब्राउन ब्रेड: ब्राउन ब्रेड को आमतौर पर लोग आटा ब्रेड समझकर खरीदते हैं। लेकिन यह भी ज्यादातर मैदा की ही बनती है। कई कंपनियां आर्टिफिशल कलर या केरेमल (शुगर को जलाकर बनाया जानेवाला प्रोडक्ट) डालती हैं, जिससे ब्रेड का कलर ब्राउन हो जाता है। आमतौर पर न्यूट्रिशन के लिहाज से यह वाइट ब्रेड से खास बेहतर नहीं होती। हालांकि ब्रिटैनिया का दावा है कि ब्राउन ब्रेड में गेहूं का आटा और फाइबर ज्यादा मात्रा में होता है और कई तरह के मिनरल व विटमिन भी मिलाए जाते हैं, जो इसे वाइट ब्रेड से बेहतर बनाते हैं। वैसे, एक्सपर्ट्स के मुताबिक खरीदने से ब्राउन ब्रेड के कवर पर लिखी सामग्री अच्छी तरह पढ़ें और देखें कि उसमें होल वीट फ्लार लिखा हो।

होल वीट ब्रेड: यह ब्रेड गेहूं के आटे से बनती है। पैकेट के ऊपर होल वीट या होल ग्रेन लिखा देखकर ही खरीदें। इसमें फाइबर ज्यादा मात्रा में होता है। एक स्लाइस में 2-3 ग्राम तक फाइबर होता है। यह पाचन और पोषण, दोनों लिहाज से बेहतर है। हालांकि अगर ब्राउन या होलवीट ब्रेड सॉफ्ट और लाइट है तो इसमें होलवीट आटा ज्यादा होने के चांस कम हैं। बेहतर है कि पैकेट के ऊपर लिखी सामग्री देख लें। अक्सर उसमें गेहूं का आटा (40-45 फीसदी), होल वीट आटा (20-25 फीसदी),वीट फाइबर (4-5 फीसदी) आदि होते हैं। आप अलग-अलग ब्रैंड की ब्रेड लेकर तुलना कर सकते हैं। जिस ब्रेड में होल वीट आटा ज्यादा हो, वही खरीदें क्योंकि उसमें रिफाइंड आटा (मैदा) कम होगा।

मल्टिग्रेन ब्रेड: इसमें आटे के अलावा ओट्स (जौ), फ्लैक्स-सीड्स (अलसी), सनफ्लार सीड्स (सूरजमुखी के बीज), बाजरा, रागी आदि भी होते हैं। लेकिन आपको पैकेट को गौर से पढ़ना होगा कि उसमें क्या-क्या चीजें हैं और कितनी मात्रा में हैं। जो चीज पहले होगी, वह ज्यादा मात्रा में होगी और जो बाद में लिखी होगी, वह कम होगी। आमतौर पर मल्टिग्रेन ब्रेड में भी आटा या मैदा 50-60 फीसदी तक होता है, लेकिन इससे ज्यादा हो तो सही नहीं है।

सैंडविच ब्रेड: यह साइज में बड़ी और मोटी होती है ताकि स्टफिंग को अच्छी तरह होल्ड कर सके। इसे जंबो ब्रेड भी कहा जाता है। यह मैदा, आटा और मल्टिग्रेन, तीनों ही तरह की मिलती है। आमतौर पर होटल, रेस्ट्रॉन्ट, ऑफिस आदि में बिकती है।

फ्रूट ब्रेड: टेस्ट बढ़ाने के लिए इसमें वनीला, पाइनएपल आदि फ्रूट एसेंस और टूटी-फ्रूटी आदि मिलाए जाते हैं, लेकिन इनमें फ्रूट नहीं होते। हां, यह हल्की मीठी होती है और टेस्ट बढ़ाने के लिए इस पर स्प्रेड आदि लगाने की जरूरत नहीं होती। वैसे असली फ्रूट वाली ब्रेड भी मिलती है, जिसमें खास है बनाना ब्रेड। असली फ्रूट ब्रेड बड़ी बेकरी पर ही मिलती हैं।

फ्लेवर्ड ब्रेड: इसमें अलग-अलग टेस्ट की ब्रेड मिलती है। सबसे कॉमन है गार्लिक ब्रेड यानी लहसुन वाली ब्रेड। इसके अलावा मशरूम, चीज आदि फ्लेवर भी मिलते हैं।

पाव/बन: ये भी ब्रेड की ही फॉर्म हैं। बर्गर बन जैसे होते हैं पाव। इन्हें पाव भाजी, वड़ा पाव, दाबेली आदि में यूज किया जाता है।

खास ब्रेड: आजकल बड़ी बेकरीज़ में एग्जॉटिक ब्रेड भी मिलती हैं। इनमें फोकाशियास (Foccaccias), फ्रेंच ब्रेड (French bread), चियाबाता (Ciabatta), पेनिनिस (Paninis) खास हैं।

1. फोकाशियास इटैलियन स्टाइल की ब्रेड है, जिसमें ऑलिव ऑयल काफी ज्यादा होता है। यह बाहर से क्रिस्पी और अंदर से बेहद सॉफ्ट होती है।

2. फ्रेंच ब्रेड फ्रांस में उतनी ही कॉमन है, जितनी हमारे यहां रोटी। इंडिया में गार्लिक ब्रेड इसी से बनाते हैं।

3. चियाबाता फ्लैट ब्रेड होती है और इसकी मोटाई ज्यादा नहीं होती। यह ज्यादातर सेंडविच में यूज होती है।

4. पेनिनिस ग्रिल्ड ब्रेड होती है। यह देखने में काफी अच्छी और टेस्टी होती है।

5. पीता (peeta) ब्रेड राउंड होती है, जिसे बीच से काटकर स्टफिंग करते हैं। इसे पॉकेट ब्रेड भी कहा जाता है क्योंकि इसमें अंदर की तरफ स्टफिंग की जाती है।

पोटैशियम ब्रोमेट का रोल

आमतौर पर बड़े लेवल पर जब ब्रेड बनाई जाती है तो उसमें इम्प्रूवर मिलाए जाते हैं। ये केमिकल भी हो सकते हैं और नैचरल भी। इनका काम ब्रेड को ज्यादा सॉफ्ट और फूला हुआ बनाना है। इन केमिकल्स में प्रमुख हैं: पोटैशियम ब्रोमेट और पोटैशियम आयोडेट। बहुत सारे देशों ने इन्हें बैन किया हुआ है क्योंकि लिमिट से ज्यादा यूज करने पर ये कैंसर पैदा कर सकते हैं। WHO/FAO के मुताबिक पोटैशियम ब्रोमेट बहुत ज्यादा मात्रा में यूज करने से कैंसर की वजह बन सकता है। पोटैशियम आयोडेट भी ज्यादा मात्रा में यूज किया जाए तो थायरॉयड ग्लैंड इन्फेक्शन की वजह बन सकता है। हमारे देश में फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) ने ब्रेड में इन दोनों केमिकल्स के यूज की इजाजत दी हुई थी। हाल में सेंटर ऑफ साइंस ऐंड इन्वायरनमेंट की रिपोर्ट आई। इसके मुताबिक ज्यादातर ब्रेड्स में ये तय मात्रा से ज्यादा मात्रा में पाए गए। हालांकि ब्रिटैनिया का दावा है कि दूसरी लैब में चेक कराने पर ब्रिटैनिया और एक दूसरे सैंपल में ये केमिकल ज्यादा मात्रा में नहीं मिले। वैसे इंटरनैशनल एजेंसी ऑफ रिसर्च ऑन कैंसर ने ब्रोमेट को प्रोसेस्ड रेड मीट से कम खतरनाक करार दिया है। बहरहाल, FSSAI ने ब्रेड में इनका यूज बैन कर दिया गया। अब ज्यादातर कंपनियां इन केमिकल्स का यूज नहीं कर रहीं और ज्यादातर ब्रेड्स पर लिखा भी होता है, 'नो पोटैशियम ब्रोमेट, नो पोटैशियम आयोडेट'।

नुकसानदेह नहीं है ब्रेड

मल्टिग्रेन और होल वीट ब्रेड कॉम्प्लेक्स कार्ब का अच्छा सोर्स है। अगर ब्रेड को लो-ग्लाइसिमिक इंडेक्स (जो चीजें धीरे-धीरे ग्लूकोज में बदलती हैं) वाली चीजें जैसे कि ओट्स, नट्स, छिलका, सोया, दालों आदि से बनाया जाए तो मेटाबॉलिज्म बढ़ता है। जिसका सीधा असर ब्लड शुगर और वजन पर होता है। ऐसी ब्रेड धीरे-धीरे डाइजेस्ट होकर ग्लूकोज में बदलती हैं। अगर ब्लड शुगर धीरे-धीरे बढ़ती है तो ब्लड शुगर और फैट लेवल को रेग्युलेट करने के लिए कम मात्रा में इंसुलिन की जरूरत होती है। साथ ही, इससे लंबे समय तक पेट भरा होने का भी अहसास होता है। हमें अपने खाने की कुल कैलरी में से 45 से 50 फीसदी तक कॉम्प्लेक्स कार्बोहाइड्रेट से लेनी चाहिए। इस लिहाज से ब्रेड खाना भी बुरा नहीं है। ब्रेड में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर और कैल्शियम अच्छी मात्रा में होता है। थोड़ा फैट और आयरन भी होता है लेकिन ट्रांस-फैट और कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता। हालांकि कोई भी ब्रेड जिसमें ज्यादा मैदा (वाइट और ब्राउन ब्रेड) है, उसे कम ही खाना चाहिए क्योंकि मैदा रिफाइंड कार्ब है और यह सेहत के लिए अच्छी नहीं होती। जिन लोगों को ग्लूटन इनटॉलरेंस (ग्लूटन से दिक्कत) या गेहूं से एलर्जी हो, उन्हें ब्रेड नहीं खानी चाहिए। ग्लूटन वह केमिकल होता है, जो किसी खाने की चीज को चिपचिपा बनाता है।

कौन-सी ब्रेड बेस्ट

टेस्ट के लिहाज से तो आप कोई भी ब्रेड खा सकते हैं लेकिन पोषण की बात करें तो मल्टिग्रेन ब्रेड दूसरी ब्रेड से बेहतर हैं। इनमें पोषण ज्यादा होता है और ये पचती भी जल्दी हैं। इनसे लंबे समय तक पेट भरा रहता है। मोटे तौर पर ऐसे रेटिंग कर सकते हैं:

1. मल्टिग्रेन ब्रेड

2. होलवीट ब्रेड

3. ब्राउन ब्रेड

4. वाइट ब्रेड

चेक करें एक्सपायरी डेट

हर ब्रेड पर एक्सपायरी डेट या बेस्ट बिफोर डेट लिखी होती है। उसी तारीख से पहले ब्रेड खत्म कर लें। हालांकि स्टोरेज ठीक है तो 1-2 दिन ज्यादा भी यूज कर सकते हैं। फिर भी एक्सपायरी डेट तक यूज कर लेना बेहतर है। जब ब्रेड बच रही है तो एक्सपायरी डेट के एक दिन पहले उसके ब्रेड क्रम्प्स बना लें। इसके लिए ब्रेड को आंच पर हल्का-हल्का सेक लें। माइक्रोवेव में भी सेक सकते हैं। फिर इसका चूरा बनाकर एयर टाइट डिब्बे में रख लें। कटलेट, रोल्स आदि में इनका यूज करें। एयर टाइट डिब्बे में रखने पर ये 2-3 महीने आराम से चल जाते हैं।

कुछ दूसरे यूज भी

ब्रेड को टोस्ट, सैंडविच, रोल्स, ब्रेड पकौड़ा, कटलेट, फ्रेंच टोस्ट, ब्रेड उत्पम, ब्रेड पित्जा आदि बनाने के लिए तो यूज किया ही जाता है, इसके कुछ दूसरे भी यूज हैं। अगर कुल्फी बना रहे हैं और दूध को गाढ़ा करने का टाइम नहीं है तो दूध में 2-3 ब्रेड्स डाल दें। इससे दूध फटाफट गाढ़ा हो जाएगा और कुल्फी गाढ़ी और स्वादिष्ट बनेगी। इसी तरह कोफ्ते या मंचूरियन बॉल्स बनाते समय ब्रेड मिलाने से घोल अच्छी तरह बंध जाता है और गिरता नहीं है।

खुद बनाएं ब्रेड

आप घर पर खुद ही ब्रेड बना सकते हैं। एक कटोरी में थोड़ा पानी ले लें। अंदाज से जितना ब्रेड बनाना चाहते हैं, उसके मुताबिक पानी लें। इसमें थोड़ा यीस्ट डालकर गर्म जगह पर रख दें। यीस्ट ग्रॉसरी शॉप से मिल जाता है। 30-45 मिनट में इसमें झाग उठने लगेंगे। फिर इसमें मैदा या आटा, एक चुटकी नमक, एक चम्मच चीनी डाल लें। अगर फ्लैक्स-सीड्स, गार्लिक आदि डालना चाहते हैं, तो वे सब चीजें डालकर गूंथ लें। करीब 30 मिनट के लिए छोड़ दें। फिर से गूंथें। इसके बाद इसे शेप दें या मोल्ड में डालें। 180 डिग्री पर 20-25 मिनट के लिए माइक्रोवेव में बेक करें। बाहर निकाल कर ठंडा होने दें और पीस काट लें।

टेस्ट कम, पर सेहतमंद अगर सेहत के लिहाज से खाना है तो हमें टेस्ट को बदलना होगा। मल्टिग्रेन या चोकर के साथ बनाने पर रोटियां थोड़ी सख्त हो जाती हैं। अगर कुटू में कुछ मिलाया नहीं जाएगा तो उसकी पूरियां फूलेंगी नहीं क्योंकि कुटू में ग्लूटन नहीं होता, इससे वह चिपचिपा नहीं होता। इसी तरह अगर मोटे आटे से ब्रेड बनाई जाएगी तो वह भी थोड़ी सख्त होगी। मैदा से बनी ब्रेड जैसी सॉफ्ट नहीं होगी। ऐसी ब्रेड टेस्ट में भुरभुरी लगे लेकिन सेहत के लिए बेहतर होती है।

मिथ मंथन

1. कच्ची ब्रेड नहीं खाना चाहिए

कोई ब्रेड कच्ची नहीं होती। ब्रेड को बेक करके बनाया जाता है इसलिए उसे बिना सेके खा सकते हैं।

2. ब्रेड को फ्रिज में न रखें

अगर ब्रेड को खोला नहीं है तो नॉर्मल टेंपरेचर पर रख सकते हैं लेकिन एक बार खोलने के बाद उसे अच्छी तरह कवर करके फ्रिज में रखें। बाहर रखेंगे तो वह ड्राई हो जाएगी और जल्दी खराब भी हो जाएगी।

3. पेट को नुकसान करती है ब्रेड

ब्रेड पेट को नुकसान नहीं करती। उलटे कहा जाता है कि पेट खराब हो तो थोड़ा दही और केला के साथ ब्रेड खानी चाहिए। हालांकि कुछ लोगों को ब्रेड से गैस की हल्की-फुल्की दिक्कत हो सकती है लेकिन ज्यादा पानी पीने और फिजिकल एक्सरसाइज करने से यह दिक्कत दूर हो जाती है।

4. गेहूं से होता है ब्राउन कलर कोई भी ब्रेड, जिसका कलर रोटी से ज्यादा गहरा है, उसमें रंग मिलाए जाने की संभावना है। जैसे कि ब्राउन ब्रेड भी ज्यादातर नॉर्मल मैदा वाली ब्रेड ही होती है। उसका ब्राउन कलर अक्सर केरेमल या कलर की वजह से नजर आता है।

5. पैरों से गूंथा जाता है ब्रेड का आटा

बड़े लेवल पर ब्रेड फैक्टरियों में बनाई जाती है। वहां आटा गूंथने से लेकर शेप देने और ब्रेड को काटने तक का काम मशीनों के जरिए होता है। लेकिन आप घर पर भी ब्रेड बना सकते हैं। फैक्टियों में ब्रेड कैसे बनाई जाती है, यह आप इस विडियो से देख सकते हैं: nbt.in/Bread

मस्का का चस्का

ब्रेड पर लगाने के लिए जैम से लेकर बटर और सैंडविच स्पेड तक तमाम ऑप्शन हैं। डालते हैं मुख्य स्प्रेड्स की खासियतों के बारे में:-

बटर

बटर मुख्य तौर पर 2 तरह का मिलता है: नमक वाला और बिना नमक वाला। बिना नमक वाला सफेद होता है और नमक वाला पीला। इसके अलावा आजकल फ्लेवर्ड बटर भी मिलता है, जिसमें गार्लिक या हर्ब्स आदि मिली होती हैं। बटर टेस्ट में काफी अच्छा लगता है। इनमें हमारी हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए जरूरी नैचरल फैट्स होते हैं। दिन में आधे से 1 छोटा चम्मच तक बटर काफी है। इससे ज्यादा न खाएं। हालांकि अगर जमकर एक्सरसाइज या भाग-दौड़ वाला काम करते हैं तो ज्यादा भी खा सकते हैं।

पीनट बटर

यह मूंगफली से बनाया जाता है। मूंगफली को भूनकर उसमें ऑइल मिलाते हैं। इसमें डेयरी बटर नहीं होता इसलिए यह कॉलेस्ट्रॉल फ्री होता है। हालांकि अगर पाम ऑइल आदि मिलाया गया है तो सेहत के लिए नुकसानदेह है। इसे खरीदते हुए देख लें कि कौन-कौन सी चीजें मिलाई गई हैं। वह पीनट बटर अच्छा होता है, जिस पर 100 फीसदी पीनट बटर लिखा होता है। यह टेस्ट में हल्का मीठा लगता है और बहुतों को पसंद नहीं आता।

नो-कॉलेस्ट्रॉल स्प्रेड्स

आजकल मार्केट में नो-कॉलेस्ट्रॉल स्प्रेड्स भी मिलते हैं। इन्हें मार्गेरिन (margarine) कहा जाता है। इंडिया में ये न्यूट्रालाइट (Nutralite), डिलिशस (Delicious), लाइट (Lite) आदि ब्रैंड नेम से मिलते हैं। इनमें कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता क्योंकि ये वेजिटेबल ऑइल से बनते हैं। लेकिन गाढ़ा करने के लिए ऑइल को हाइड्रोजिनेट किया जाता है। इसके लिए इनमें निकल और कैडमियम जैसे मेटल मिलाए जाते हैं जो ब्लड प्रेशर से लेकर कैंसर और लंग्स व किडनी की बीमारियों तक की वजह बन सकते हैं। इनमें ट्रांस-फैट्स भी होते हैं।

मियोनिज

यह एक फ्रेंच सॉस है लेकिन अब दुनिया भर में यूज होती है। खासकर बर्गर, सैंडविच, सलाद आदि में। इसे तेल, अंडे, विनेगर, नीबू रस और हर्ब्स आदि से तैयार किया जाता है। इंडियन टेस्ट को ध्यान में रखते हुए एगलेस मियोनिज भी मिलती है, जिसमें अंडा नहीं होता। इनमें सैचुरेटिड और ट्रांस-फैट नहीं होते। इस तरह ये सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं हैं। हां, कैलरी काफी ज्यादा होती है, इसलिए कम मात्रा में खाना चाहिए।

सैंडविच स्प्रेड

ये काफी चिकने और गाढ़े होते हैं और टेस्ट में काफी अच्छे लगते हैं। ज्यादातर सैंडविच स्प्रेड मियोनिज या वेजिटेबल ऑइल (सोयाबीन, कनोला, कॉर्न, ऑलिव, सनफ्लार आदि) से तैयार किए जाते हैं। इनमें सब्जियों या फलों के छोटे पीस मिलाए जाते हैं। इनमें कई तरह के फ्लेवर (गार्लिक, चिली, मशरूम आदि) भी मिलते हैं। इनमें सैचुरेटिड फैट और ट्रांसफैट आमतौर पर नहीं होते। इन्हें सैंडविच, पित्जा या परांठों में यूज कर सकते हैं। इनमें नुकसानदेह चीजें नहीं होतीं लेकिन ज्यादा कैलरी होने की वजह से कभी-कभार ही खाना चाहिए।

चीज स्प्रेड

चीज स्प्रेड या चीज स्लाइस मुख्य रूप से चीज से बनाई जाती हैं और चीज दूध से। इस तरह चीज स्प्रेड या स्लाइस में दूध तो होता ही है, साथ ही विनेगर, लेमन जूस, शुगर आदि मिलाया जाता है। इनमें सैचुरेटिड फैट होते हैं लेकिन ये नुकसानदेह नहीं हैं। हां, हाई कैलरी की वजह से ज्यादा खाने से बचना चाहिए। वैसे, चीज स्प्रीड के मुकाबले डायरेक्ट चीज खाना बेहतर है।

जैम या जेली

जैम या जेली ब्रेड पर लगाकर खा सकते हैं। इनमें फलों के गूदों के अलावा ऐंटि-ऑक्सिडेंट, अमीनो-ऐसिड्स, मिनरल्स, विटमिन आदि भी कुछ मात्रा में होते हैं। शुगर काफी ज्यादा होती है और कई बार फल भी अच्छी क्वॉलिटी के यूज नहीं किए जाते इसलिए इन्हें भी हेल्थी नहीं माना जा सकता।

मोटे तौर पर न्यूट्रिशन के लिहाज से स्प्रेड्स को ऐसे रेट कर सकते हैं:

1. पीनट बटर

2. बटर

3. चीज स्प्रेड

4. मियोनिज/सैंडविच स्प्रेड

5. जैम

खुद बनाएं हेल्थी स्प्रेड एक कटोरी दही लें। उसे किसी कपड़े में बांधकर 1-2 घंटे के लिए टांग दें। जब वह गाढ़ा हो जाए तो उसमें लहसुन, हरी मिर्च, ऑरिगैनो आदि मिला लें। इसे ब्रेड पर लगाकर खाएं।

एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-डाइट एक्सपर्ट कुणाल कपूर, सिलेब्रिटी शेफ इशी खोसला, न्यूट्रिशन-डाइट एक्सपर्ट सुधीर नेमा, वीपी, रिसर्च, डिलेवपमेंट ऐंड क्वॉलिटी, ब्रिटैनिया

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मॉनसून: बीमारियां, परहेज और उनका इलाज

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मॉनसून झमाझम बारिश और गर्मागर्म चाय-पकौड़ों का मौसम है। अपनी सेहत को लेकर हम जरा लापरवाह हो जाएं तो यह मौसम परेशानी का सबब भी बन जाता है। बरसात के दिनों में होने वालीं आम बीमारियों और उनकी रोकथाम पर डालते हैं एक नजर:

नजर न लग जाए...

बरसात के दिनों में आंखों की बीमारियां होना आम है। आंखों की बीमारियों में सबसे कॉमन कंजंक्टिवाइटिस है:

कंजंक्टिवाइटिस

आंख के ग्लोब पर (बीच के कॉर्निया एरिया को छोड़कर) एक महीन झिल्ली चढ़ी होती है, जिसे कंजंक्टाइवा कहते हैं। कंजंक्टाइवा में किसी भी तरह के इंफेक्शन या एलर्जी होने पर सूजन आ जाती है, जिसे कंजंक्टिवाइटिस कहा जाता है। इसे आई फ्लू या पिंक आई नाम से भी जाना जाता है। यह बीमारी आम वायरल की तरह है। जब भी मौसम बदलता है, इसका असर देखा जाता है। कंजंक्टिवाइटिस 3 तरह का होता है: वायरल, एलर्जिक और बैक्टीरियल।

कैसे पहचानें?

कंजंक्टिवाइटिस का पता आमतौर पर लक्षणों से ही लग जाता है। फिर भी यह किस टाइप का है, इसकी जांच के लिए स्लिट लैंप माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है और बैक्टीरियल इंफेक्शन के कई मामलों में कल्चर टेस्ट भी किया जाता है।

क्या है बचाव?

बचाव के लिए साफ-सफाई रखना सबसे जरूरी है। इस सीजन में किसी से भी (खासकर जिसे कंजंक्टिवाइटिस हो) हाथ मिलाने से भी बचें क्योंकि हाथों के जरिए इंफेक्शन फैल सकता है। दूसरों की चीजों का भी इस्तेमाल न करें। आंखों को दिन में 5-6 बार ताजे पानी से धोएं। बरसात के मौसम में स्विमिंग पूल में जाने से बचें। गर्मी के मौसम में अच्छी क्वॉलिटी का धूप का चश्मा पहनना चाहिए। चश्मा आंख को तेज धूप, धूल और गंदगी से बचाता है, जो एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस के कारण होते हैं।

इलाज

सुबह के वक्त आंख चिपकी मिलती है और कीचड़ आने लगता है, तो यह बैक्टिरियल कंजंक्टिवाइटिस का लक्षण हो सकता है। इसमें ब्रॉड स्पेक्ट्रम ऐंटिबायॉटिक आई-ड्रॉप्स जैसे सिप्रोफ्लॉक्सोसिन (Ciprofloxacin), ऑफ्लोक्सेसिन (Ofloxacin), स्पारफ्लोक्सेसिन (Sparfloxacin) यूज कर सकते हैं। एक-एक बूंद दिन में तीन से चार बार डाल सकते हैं। दो से तीन दिन में अगर ठीक नहीं होते तो किसी आंखों के डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

अगर आंख लाल हो जाती है और उससे पानी गिरने लगता है, तो यह वायरल और एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस हो सकता है। वायरल कंजंक्टिवाइटिस अपने आप 5-7 दिन में ठीक हो जाता है लेकिन इसमें बैक्टीरियल इंफेक्शन न हो, इसलिए ब्रॉड स्पेक्ट्रम (Spectrum) ​ ऐंटिबायॉटिक आई-ड्रॉप का इस्तेमाल करते रहना चाहिए। आराम न मिले तो डॉक्टर से सलाह लें।

आंख में चुभन महसूस होती है, तेज रोशनी में चौंध लगती है, आंख में तेज खुजली होती है, तो यह एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस हो सकती है। क्लोरफेनेरामिन (Chlorphenaramine) और सोडियम क्रोमोग्लाइकेट (Sodium Cromoglycate) जैसी ऐंटिएलर्जिक आई-ड्रॉप्स दिन में तीन बार एक-एक बूंद डाल सकते हैं। 2-3 दिन में आराम न मिले तो डॉक्टर की सलाह लें।

ध्यान रखें

आंखों को दिन में 5-6 बार साफ पानी से धोएं। आंखों को मसलें नहीं, क्योंकि इससे रेटिना में जख्म हो सकता है। ज्यादा समस्या होने पर खुद इलाज करने के बजाय डॉक्टर की सलाह लें।

कंजंक्टिवाइटिस में स्टेरॉयड वाली दवा जैसे डेक्सामिथासोन (Dexamethasone), बीटामिथासोन (Betamethasone) आदि का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। अगर जरूरी है, तो सिर्फ डॉक्टर की सलाह से ही आई-ड्रॉप्स डालें और उतने ही दिन, जितने दिन आपके डॉक्टर कहें। स्टेरॉयड वाली दवा के ज्यादा इस्तेमाल से काफी नुकसान हो सकता है।

ये सभी दवाएं जेनरिक हैं। दवाएं बाजार में अलग-अलग ब्रैंड नामों से उपलब्ध हैं।

स्किन की समस्या

बारिश के दिनों में स्किन से जुड़ी कई समस्याएं बढ़ जाती हैं। इनमें खास हैं:

फंगल इन्फेक्शन

बारिश में रिंगवॉर्म यानी दाद-खाज की समस्या बढ़ जाती है। पसीना ज्यादा आने, नमी रहने या कपड़ों में साबुन रह जाने से ऐसा हो सकता है। इसमें रिंग की तरह रैशेज़ जैसे नजर आते हैं। ये अंदर से साफ होते जाते हैं और बाहर की तरफ फैलते जाते हैं। इनमें खुजली होती है और एक से दूसरे शख्स में फैलते हैं।

इलाज

ऐंटिफंगल क्रीम क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) लगाएं। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर की सलाह से ग्राइसोफुलविन (Griseofulvin) या टर्बिनाफिन (Terbinafine) टैबलट ले सकते हैं। ये जेनेरिक नेम हैं। फंगल इन्फेक्शन बालों या नाखूनों में है तो खाने के लिए भी दवा दी जाती है। फ्लूकोनाजोल (Fluconazole) ऐसी ही एक दवा है।

फोड़े-फुंसी/दाने

इन दिनों फोड़े-फुंसी, बाल तोड़ के अलावा पस वाले दाने भी हो सकते हैं। आमतौर पर माना जाता है कि ऐसा आम खाने से होता है, लेकिन यह सही नहीं है। असल में यह नमी में पनपने वाले बैक्टीरिया से होता है।

इलाज

दानों पर ऐंटिबायॉटिक क्रीम लगाएं, जिनके जेनेरिक नाम फ्यूसिडिक एसिड (Fusidic Acid) और म्यूपिरोसिन (Mupirocin) हैं। परेशानी बढ़ने पर क्लाइंडेमाइसिन (Clindamycin) लोशन लगा सकते हैं। यह लोशन मार्केट में कई ब्रैंड नेम से मिलता है। ऐंटिऐक्ने साबुन एक्नेएड (Acne-Aid), एक्नेक्स (Acnex), मेडसोप (Medsop) आदि भी यूज कर सकते हैं। ये ब्रैंड नेम हैं। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर ऐंटिबायॉटिक टैबलट देते हैं।

घमौरियां/रैशेज़

स्किन में ज्यादा मॉइस्चर रहने से कीटाणु आसानी से पनपते हैं। इससे रैशेज और घमौरियां हो जाती हैं। ये ज्यादातर उन जगहों पर होती हैं, जहां स्किन फोल्ड होती है, जैसे जांघ या बगल में। पेट और कमर पर भी हो जाती हैं।

इलाज

ठंडे वातावरण, यानी एसी और कूलर में रहें। दिन में एकाध बार बर्फ से प्रॉबल्म एरिया की सिकाई कर सकते हैं और घमौरियों और रैशेज पर कैलेमाइन (Calamine) लोशन लगाएं। खुजली ज्यादा है तो डॉक्टर की सलाह पर खुजली की दवा ले सकते हैं।

ऐथलीट्स फुट

जो लोग लगातार जूते पहने रहते हैं, उनके पैरों की उंगलियों के बीच की स्किन गल जाती है। समस्या बढ़ जाए तो इन्फेक्शन नाखून तक फैल जाता है और वह मोटा और भद्दा हो जाता है।

इलाज

हवादार जूते-चप्पल पहनें। जूते पहनना जरूरी हो तो पहले पैरों पर पाउडर डाल लें। बीच-बीच में जूते उतार कर पैरों को हवा लगाएं। जहां इन्फेक्शन हो, वहां क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) क्रीम या पाउडर लगाएं। इलाज खुद करना सही नहीं है। फौरन डॉक्टर को दिखाएं। वह जरूरत पड़ने पर ऐंटिबायॉटिक या ऐंटिफंगल मेडिसिन देगा।

बाल न बनें बवाल

मौसम बदलने पर बाल थोड़ा ज्यादा झड़ते हैं। बारिश के मौसम में अगर बालों को साफ और सूखा रखें तो झड़ने की शिकायत नहीं होगी:

फंगल इंफेक्शन

बारिश में बालों में पानी रहने से फंगल इन्फेक्शन हो सकता है। बच्चों के बालों में फंगल इन्फेक्शन ज्यादा होता है। डैंड्रफ भी एक किस्म का फंगल इन्फेक्शन ही है। हालांकि थोड़ी-बहुत डैंड्रफ होना सामान्य है लेकिन ज्यादा होने पर यह बालों की जड़ों को कमजोर कर देती है।

कैसे करें बचाव

बाल कटवाते वक्त हाइजीन का खास ख्याल रखें। देखें कि कंघी साफ हो। हो सके तो अपनी कंघी साथ लेकर जाएं।

इलाज

डैंड्रफ से छुटकारे के लिए इटोकोनाजोल (Etoconazole), जिंक पायरिथिओनाइन (Zinc Pyrithionine यानी ZPTO) या सिक्लोपिरॉक्स ऑलोमाइन (Ciclopirox Olamine) शैंपू का इस्तेमाल करें। बालों के बीच में फंगल इन्फेक्शन हो तो क्लोट्रिमाजोल (Clotrimazole) लगा सकते हैं। यह जेनरिक नेम है। तेल न लगाएं वरना इन्फेक्शन फैल सकता है। फौरन डॉक्टर को दिखाएं।

ध्यान दें

बाल प्रोटीन से बनते हैं, इसलिए हाई प्रोटीन डाइट जैसे कि दूध, दही, पनीर, दालें, अंडा (सफेद हिस्सा), फिश, चिकन आदि खूब खाएं।

विटामिन-सी (मौसमी, संतरा, आंवला आदि), ऐंटिऑक्सिडेंट (सेब, नट्स, ड्राइ-फ्रूट्स) के अलावा सी फूड और हरी सब्जियां खूब खाएं।

बाल ज्यादा देर गीले न रहें। ऐसा होने पर बाल गिर सकते हैं।

बालों को साफ रखें और हफ्ते में दो बार जरूर धोएं। जरूरत पड़ने पर ज्यादा बार भी धो सकते हैं।

बाल नहीं धोने हैं तो नहाते हुए शॉवर कैप से बालों को अच्छी तरह ढक लें।

बाल धोने के बाद अच्छी तरह सुखाएं। पंखे या ड्रायर को थोड़ा दूर रखकर बाल सुखा लें।

मॉनसून के दिनों में बालों में तेल कम लगाएं क्योंकि मौसम में पहले ही नमी काफी होती है।

पेट की गड़बड़ी

बरसात में दूषित खाने और पानी के इस्तेमाल से पेट में इन्फेक्शन यानी गैस्ट्रोइंटराइटिस हो जाता है। ऐसा होने पर मरीज को बार-बार उलटी, दस्त, पेट दर्द, शरीर में दर्द या बुखार हो सकता है।

डायरिया

डायरिया गैस्ट्रोइंटराइटिस का ही रूप है। इसमें अक्सर उलटी और दस्त दोनों होते हैं, लेकिन ऐसा भी मुमकिन है कि उलटियां न हों, पर दस्त खूब हो रहे हों। यह स्थिति खतरनाक है। डायरिया आमतौर पर 3 तरह का होता है :

वायरल

वायरस के जरिए ज्यादातर छोटे बच्चों में होता है। यह सबसे कम खतरनाक होता है। इसमें पेट में मरोड़ के साथ लूज मोशंस और उलटी आती है। काफी कमजोरी भी महसूस होती है।

इलाज

वायरल डायरिया में मरीज को ओआरएस का घोल या नमक और चीनी की शिकंजी लगातार देते रहें। उलटी रोकने के लिए डॉमपेरिडॉन (Domperidone) और लूज मोशंस रोकने के लिए रेसेसाडोट्रिल (Racecadotrill) ले सकते हैं। पेट में मरोड़ हैं तो मैफटल स्पास (Maflal spas) ले सकते हैं। 4 घंटे से पहले दोबारा टैबलट न लें। एक दिन में उलटी या दस्त न रुकें तो डॉक्टर के पास ले जाएं।

बैक्टीरियल

इस तरह के डायरिया में तेज बुखार के अलावा पॉटी में पस या खून आता है।

इलाज

इसमें ऐंटिबायॉटिक दवाएं दी जाती हैं। अगर किसी ने बहुत ज्यादा ऐंटिबायॉटिक खाई हैं, तो उसे साथ में प्रोबायॉटिक्स भी देते हैं। दही प्रोबायॉटिक्स का बेहतरीन नेचरल सोर्स है।

प्रोटोजोअल

इसमें भी बैक्टीरियल डायरिया जैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं।

इलाज

प्रोटोजोअल इन्फेक्शन में ऐंटि-अमेबिक दवा दी जाती है।

ध्यान रखें

यह गलत धारणा है कि डायरिया के मरीज को खाना-पानी नहीं देना चाहिए। मरीज को लगातार पतली और हल्की चीजें देते रहें, जैसे कि नारियल पानी, नींबू पानी (हल्का नमक और चीनी मिला), छाछ, लस्सी, दाल का पानी, ओआरएस का घोल, पतली खिचड़ी, दलिया आदि। सिर्फ तली-भुनी चीजों से मरीज को परहेज करना चाहिए।

मॉनसून में रखें ख्याल

1. हवादार कपड़े पहनें


मॉनसून में ढीले, हल्के और हवादार कपड़े पहनें। टाइट और ऐसे कपड़े न पहनें, जिनका रंग निकलता हो। ध्यान रखें कि कपड़े धोते हुए उनमें साबुन न रहने पाए, वरना स्किन इन्फेक्शन हो सकता है। अगर बारिश में कपड़े भीग गए हैं तो फौरन बदल लें ताकि सर्दी-जुकाम न हो।

2. शरीर को साफ रखें

इन दिनों शरीर की साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान रखें। जितना मुमकिन हो, शरीर को सूखा और फ्रेश रखें। बारिश में बार-बार भीगने से बचें। ऐंटिबैक्टीरियल साबुन जैसे मेडसोप (Medsoap), सेट्रिलैक (Cetrilak) आदि से दिन में दो बार नहाएं। बरसात में नहाने के बाद साफ पानी में डिसइन्फेक्टेंट (डिटॉल, सेवलॉन आदि) मिलाकर अच्छी तरह नहाएं। दूसरे का टॉवल या साबुन शेयर न करें। बाहर से आकर हैंड सैनिटाइजर का इस्तेमाल जरूर करें। खाना खाने से पहले हाथ जरूर धोएं।

3. बाहर न खाएं

इस मौसम में खाने में बैक्टीरिया जल्दी पनपता है। बाहर जाकर पानी पूरी, भेल पूरी, चाट, सैंडविच आदि खाने से बचें। कटे फल और सब्जियां खाने से भी इन्फेक्शन का खतरा रहता है। इनसे बचें। बाहर का जूस या पानी ना पिएं। बोतलबंद पानी या उबले हुए पानी को ही पीने की आदत डालें। इस दौरान तेल-भुने के बजाय हल्का खाना खाने की आदत डालें, जो आसानी से पच सके क्योंकि बरसात में गैस, अपच जैसी पेट की समस्याएं ज्यादा होती हैं। अपने पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के लिए लहसुन, काली मिर्च, अदरक, हल्दी और धनिया का सेवन करें। बासी खाना खाने से भी बचें।

4. सब्जियों को अच्छी तरह धोएं

फल और सब्जियों को अच्छी तरह धोएं, खासकर पत्तेदार सब्जियों को क्योंकि इस मौसम में उनमें कई तरह के लारवा और कीड़े आदि होते हैं। हल्के गर्म पानी से धोएं। फिर उन्हें आधे घंटे तक नमक मिले पानी में भिगोकर रखें। सब्जियों को पकाने से पहले 5 मिनट उबाल लें तो और भी अच्छा है। इससे कीटाणु तो खत्म होंगे ही, फल-सब्जियों पर लगे आर्टिफिशल कलर और केमिकल भी हट जाएंगे। इसके अलावा सब्जियों को अच्छी तरह पकाएं। कच्चा या अधपका खाने का मतलब है कि आप बीमारियों को दावत दे रहे हैं।

5. पानी उबाल कर पिएं

मानसून में सिर्फ फिल्टर्ड और उबला हुआ पानी ही पिएं। ध्यान रहे कि पानी को उबाले हुए 24 घंटे से ज्यादा न हुए हों। अपने फ्रिज की बोतलों को बदलने और हर तीसरे-चौथे दिन साफ करने की आदत डालें। इस मौसम में कई बार प्यास नहीं लगती फिर भी दिन में 8-10 गिलास पानी जरूर पिएं, वरना शरीर में पानी की कमी हो सकती है।

6. घर को साफ-सुथरा रखें

बारिश के दिनों में मक्खी-मच्छर आदि पनपने लगते हैं। ऐसे में घर को पेस्ट फ्री बनाना जरूरी है। कॉकरोच, मक्खी-मच्छर आदि को दूर रखने के लिए पेस्ट कंट्रोल वाला स्प्रे कराएं। खिड़कियों पर जाली लगवाएं ताकि बाहर से कीट अंदर न आ सकें। बालकनी या छत आदि पर पानी जमा न होने दें, वरना मच्छर पैदा हो सकते हैं और मलेरिया या डेंगू फैला सकते हैं। घर में कपूर जलाएं। इससे मक्खियां दूर भागती हैं।

7. एक्सर्साइज जरूर करें

बारिश की वजह से इन दिनों कई बार मॉर्निंग वॉक पर नहीं जा पाते इसलिए घर पर ही एक्सरसाइज जरूर करें। एक्सरसाइज करने से इम्युनिटी बढ़ती है इसलिए बीमारी आसानी से अटैक नहीं कर पाती। साथ ही, पसीना निकलने से शरीर की सफाई हो जाती है।

8. बच्चों का रखें ख्याल

बच्चों को बारिश में ज्यादा न भीगने दें। उन्हें इस मौसम में इनडोर गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। घर से बाहर भेजें तो पूरे कपड़े (पूरी बाजू की शर्ट और फुल पैंट) पहना कर भेजें। इससे मच्छर के काटने से बच जाएंगे। बच्चों को स्विमिंग पूल न ले जाएं क्योंकि उसके पानी के जरिए एक से दूसरे को इन्फेक्शन होने का खतरा होता है।

9. ​पहनें खुले फुटवेयर

बरसात के दिनों में अपने जूतों का खास ख्याल रखें। इन दिनों बंद जूते न पहनें क्योंकि ऐसा करने से पैरों में ज्यादा मॉइस्चर जमा हो सकता है, जो यह इन्फेक्शन की वजह बन सकता है। इन दिनों लेदर के शूज पहनने से भी बचें। खुले फुटवियर पहनें लेकिन बारिश या कीचड़ में गंदा होने पर पैरों को फौरन धो लें, वरना गंदगी से भी इन्फेक्शन हो सकता है। ध्यान रखें कि फुटवेयर फिसलने वाले न हों।

10. ​छाते से करें दोस्ती

हर घर में छाता होता है और अक्सर लोग तेज धूप में छाता लेकर चलते भी हैं लेकिन मॉनसून में अक्सर छाता घर भूल जाते हैं। जब भी घर से निकलें, छाता या रेनकोट साथ लेकर निकलें, फिर चाहे आसमान में बादल हों या न हों। दरअसल, इन दिनों अचानक बारिश हो जाती है इसलिए पहले से छाता अपने साथ रखना जरूरी है। बच्चों के स्कूल बैग में भी रेन कोट या छाता रखना न भूलें।

मॉनसून में पेट केयर

अगर आपके घर में कोई पालतू जानवर (पेट) है तो मॉनसून में उसकी देखभाल की खास जरूरत है:

1. साफ-सफाई

जब भी बाहर से घुमाकर लाएं, गुनगुने पानी में एंटी-सेप्टिक डालकर अपने डॉगी के पंजों को अच्छी तरह धोएं। फिर पंजों के बीच के स्पेस को टॉवल से अच्छी तरह पोंछें ताकि फंगल इन्फेक्शन न हो। मॉनसून में भीगने पर बालों से भी बदबू आने लगती है इसलिए उसे मेडिकेटिड पाउडर लगाएं। रोजाना कंघी भी करें ताकि फालतू बाल निकल जाएं।

2. कीड़ों की काट

अपने डॉगी को पेट में होनेवाले कीड़ों की दवा जरूर दिलाएं क्योंकि इन दिनों पेट में कीड़े होने की आशंका ज्यादा होती है। महीने में डी-वॉर्मिंग की एक गोली दें। बालों में जुएं न हों, इसके लिए एंटी-टिक्स पाउडर लगाएं।

3. पैक्ड फूड पर जोर

बेहतर है कि रेग्युलर मीट के बजाय इस सीजन में रेडी-टु-ईट खाना खिलाएं। हो सकता है कि आप जो मीट मार्केट से खरीद कर लाएं, वह दूषित हो। ऐसे में आपके डॉगी को डायरिया होने के चांस होते हैं। पानी भी साफ पिलाएं। उसके खाने और पानी का बाउल रोजाना कम-से-कम 2 बार साफ करें।

4. जादू की झप्पी

आंधी-तूफान और बिजली की गड़गड़ाहट से कई बार जानकर डर जाते हैं। अगर आपका डॉगी भी डरा दिखे, कांपने लगे, छुपने या काटने की कोशिश करे तो वह डरा हो सकता है। उसे प्यार से पुचकारें और गले लगाएं। देर तक उसकी कमर पर हाथ फेरें और उसे सहलाएं। इससे डर कम होगा और वह अच्छा महसूस करेगा।

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इनकम टैक्स रिटर्न से जुड़ी पूरी जानकारी

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फाइनैंशल इयर 2015-16 या असेसमेंट इयर 2016-17 के लिए इनकम टैक्स रिटर्न भरने की आखिरी तारीख 31 जुलाई है। अगर आपने अभी तक अपना रिटर्न नहीं भरा है, तो जल्दी से जल्दी भर दें। रिटर्न के बारे में जानकारी और ऑनलाइन रिटर्न भरने का तरीका एक्सपर्ट्स की मदद से बता रहे हैं प्रभात गौड़:

सबसे पहले जानें कुछ बेसिक टर्म्स

इनकम टैक्स रिटर्न
देश के हर टैक्सपेयर की यह ड्यूटी है कि वह इनकम टैक्स विभाग को हर फाइनैंशल इयर के अंत में उस फाइनैंशल इयर में हुई आमदनी का ब्योरा दे। यह ब्योरा उसे विभाग द्वारा तय फॉर्म में भरकर देना होता है। इस फॉर्म के जरिये दी गई पूरी जानकारी इनकम टैक्स रिटर्न कहलाती है।

फाइनैंशल इयर
1 अप्रैल से 31 मार्च तक के समय को फाइनैंशल इयर कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2016 तक के समय को फाइनैंशल इयर 2015-16 कहा जाएगा। अभी हम जो रिटर्न भर रहे हैं, वह फाइनैंशल इयर 2015-16 के लिए है।

असेसमेंट इयर
असेसमेंट इयर फाइनैंशल इयर से आगे वाला साल होता है यानी जिस साल उस फाइनैंशल इयर के टैक्स संबंधी मामलों का आकलन किया जाता है। मसलन फाइनैंशल इयर 2015-16 के लिए असेसमेंट इयर 2016-17 होगा क्योंकि फाइनैंशल इयर 2015-16 की जो आमदनी है, उस पर टैक्स भरा या नहीं जैसा आकलन इनकम टैक्स विभाग फाइनैंशल इयर 2016-17 में करेगा इसलिए फाइनैंशल इयर 2015-2016 के लिए असेसमेंट इयर 2016-17 होगा। अभी हम जो रिटर्न भर रहे हैं, वह फाइनैंशल इयर 2015-16 या असेसमेंट इयर 2016-17 का रिटर्न कहा जाएगा।

डिडक्शंस
विभिन्न तरह के इन्वेस्टमेंट पर इनकम टैक्स विभाग की ओर से आपको टैक्स में छूट मिलती है। ये कई तरह के आइटम होते हैं, जहां इन्वेस्टमेंट करके टैक्स में छूट हासिल की जा सकती है। मसलन सेक्शन 80सी से सेक्शन 80यू तक जो भी आइटम हैं, उन्हें डिडक्शन के तहत माना जाता है।

ग्रॉस इनकम
टैक्स फ्री आमदनी और भत्तों को छोड़कर आपकी साल की कुल आमदनी जो भी है, उसे ग्रॉस इनकम कहा जाता है। ग्रॉस इनकम हमेशा 80 सी से 80 यू तक मिलने वाले डिडक्शन से पहले वाली इनकम होती है।

टैक्सेबल इनकम
ग्रॉस इनकम में से 80 सी से 80 यू तक मिलने वाले डिडक्शन क्लेम कर लेने के बाद जो इनकम आती है, उसे टैक्सेबल इनकम कहते हैं। यानी डिडक्शन से पहले वाली इनकम ग्रॉस इनकम और डिडक्शन के बाद वाली इनकम को टैक्सेबल इनकम कहते हैं।

टीडीएस
आपकी जो भी आमदनी होती है, सरकार उस पर टैक्स काटती है। इसे टैक्स डिडक्टेड ऐट सोर्स कहा जाता है। जो संस्था आपको पेमेंट कर रही है, वही टैक्स की इस रकम को काटकर बाकी रकम आपको पे करती है। मसलन आपकी कंपनी आपको जो सैलरी देती है, वह उस पर बनने वाले टैक्स को काटकर बाकी रकम आपके खाते में ट्रांसफर करती है। टीडीएस काटने का काम एंम्प्लॉयर या पेमेंट करने वाली संस्था का है। इसे काटना या जमा करना लेने वाले की जिम्मेदारी नहीं है। आमतौर पर जब कोई संस्था किसी काम के बदले आपको पे करती है, तो वह 10 फीसदी की दर से टीडीएस काटती है।

सीनियर सिटिजन
जिन लोगों की उम्र 31 मार्च 2016 को 60 साल या उससे ज्यादा है, उन्हें सीनियर सिटिजन माना जाएगा।

सुपर सीनियर सिटिजन इसी तरह जिन लोगों की उम्र 31 मार्च 2016 को 80 साल से ज्यादा है, वे सुपर सीनियर सिटिजंस होंगे। आप जिस फाइनैंशल इयर का रिटर्न भर रहे हैं, उसके अंतिम दिन 31 मार्च को उम्र की गणना की जाती है।

इनकम टैक्स रिफंड
अगर किसी टैक्सपेयर ने सरकार को ज्यादा टैक्स दे दिया है, तो वह उस रकम को सरकार से वापस ले सकता है। इस वापस आई रकम को ही रिफंड कहा जाता है। टैक्स रिटर्न भरकर आप इस एक्स्ट्रा रकम को इनकम टैक्स विभाग से क्लेम करते हैं। इसके बाद रिफंड की यह रकम आपको इनकम टैक्स विभाग की ओर से आपके अकाउंट में भेज दी जाती है।

फॉर्म 26 AS
फॉर्म 26एएस एक कंसॉलिडेटेड टैक्स स्टेटमेंट है। इसमें खासतौर से तीन तरह के ब्योरे होते हैं। पहला टीडीएस का ब्योरा, दूसरा टैक्स कलेक्टेड ऐट सोर्स का ब्योरा और तीसरा टैक्सपेयर द्वारा बैंक में जमा कराया गया एडवांस टैक्स/सेल्फ असेसमेंट टैक्स का ब्योरा। फॉर्म 26 एएस से आप यह पता लगा सकते हैं कि कंपनी या बैंक ने आपका जो टीडीएस काटा है, उसे सरकार के पास जमा कराया भी है या नहीं। इस टीडीएस का ब्योरा आप दो तरह से देख सकते हैं। पहले incometaxindiaefiling.gov.in पर जाएं। अगर आप पिछले सालों में रिटर्न भर चुके हैं तो आपके पास यूजर नेम और पासवर्ड होगा। इसी से लॉग-इन करें। अगर पहली बार रिटर्न भर रहे हैं तो Register Yourself पर जाकर रजिस्टर करें। वैसे यूजर नेम आपका पैन नंबर होता है और पासवर्ड आप खुद जेनरेट करेंगे। लॉग-इन करने के बाद View Form 26 AS पर क्लिक करें। अगर आप नेट बैंकिंग इस्तेमाल करते हैं तो बैंक की वेबसाइट पर जाकर View Your Tax Credit पर क्लिक करके फॉर्म 26 एएस देख सकते हैं, लेकिन इससे केवल उस बैंक में चल रही आपकी एफडी, सेविंग्स अकाउंट पर ब्याज आदि का ही पता चलेगा।

फॉर्म 16 A
अगर सैलरी के साथ-साथ दूसरे जरियों से भी आपको आमदनी हुई हो और उस पर टीडीएस कट चुका हो तो उस संस्था से भी टीडीएस सर्टिफिकेट ले लें। इस सर्टिफिकेट को ही फॉर्म 16ए कहा जाता है। यहां हम रेंटल इनकम, शेयर, एफडी वगैरह से होने वाली इनकम की बात कर रहे हैं। एफडी के मामले में आपका बैंक आपको यह सर्टिफिकेट देगा।

फॉर्म 16
अगर आप कहीं नौकरी करते हैं तो आपका एम्प्लॉयर आपको एक फॉर्म 16 देता है। यह फॉर्म अब तक आपके एम्प्लॉयर ने आपको दे दिया होगा। यह इस बात को साबित करता है कि एम्प्लॉयर ने आपकी सैलरी से अगर टैक्स बनता है, तो टीडीएस काटा है। इनकम टैक्स के नियमों के मुताबिक हर एम्प्लॉयर के लिए जरूरी है कि वह फॉर्म 16 अपने कर्मचारियों को दे। अगर आपका एम्प्लॉयर आपको यह फॉर्म नहीं दे रहा है तो आप इसकी रिक्वेस्ट उसे रजिस्टर्ड डाक से भेजें और इसका सबूत अपने पास रखें। इनकम टैक्स विभाग के पूछताछ करने पर यह सबूत दिखाया जा सकता है।

कैसे भरें इनकम टैक्स रिटर्न: इनकम टैक्स रिटर्न: यहां है हर सवाल का जवाब

किसके लिए कौन सा फॉर्म

ITR 1 (Sahaj)
ऐसे इंडिविजुअल टैक्सपेयर्स के लिए, जिन्हें नीचे दिए तरीकों से आमदनी होती है: सैलरी या पेंशन एक मकान का किराया। कमर्शल प्रॉपर्टी से आ रहे किराये को भी इसी में माना जाएगा ब्याज

इस फॉर्म का इस्तेमाल न करें अगर...
आपको एक से ज्यादा हाउस प्रॉपर्टी से आमदनी होती हो।
कोई फॉरेन इनकम या असेट हो।
कैपिटल गेंस हुआ हो।
5000 रुपये से ज्यादा की आमदनी खेती से हो।
बिजनस या प्रफेशन से आमदनी होती हो।
इनकम फ्रॉम अदर सोर्सेज में लॉस दिखाया हो।
जिन लोगों को सैलरी या पेंशन से इनकम होती है और उनके पास एक घर है या कोई घर नहीं है, वे इसे भरेंगे।

ITR 2A
ऐसे टैक्सपेयर्स और एचयूएफ के लिए, जिन्हें नीचे दिए तरीकों से आमदनी होती है: सैलरी या पेंशन। एक से ज्यादा हाउस प्रॉपर्टी। दूसरे सोर्स से आमदनी, जिसमें लॉटरी भी शामिल है।

इस फॉर्म का इस्तेमाल न करें अगर...
कैपिटल गेंस हुआ हो।
बिजनस या प्रफेशन से आमदनी होती हो।
फॉरेन इनकम या असेट है या विदेशों में ब्याज से आमदनी हुई हो।

ITR 2
ऐसे टैक्सपेयर्स और एचयूएफ के लिए, जिन्हें इन तरीकों से आमदनी होती है :
सैलरी या पेंशन
एक से ज्यादा हाउस प्रॉपर्टी
कैपिटल गेंस हुआ हो।
दूसरे सोर्स से आमदनी, लॉटरी समेत

इस फॉर्म का इस्तेमाल न करें अगर...
बिजनस या प्रफेशन से आमदनी

ITR 3
फर्म में ऐसे पार्टनर्स के लिए, जिन्हें नीचे दिए तरीकों से आमदनी होती है:
सैलरी या पेंशन
एक से ज्यादा हाउस प्रॉपर्टी
कैपिटल गेंस
दूसरे सोर्स से, जिसमें लॉटरी भी शामिल है।
पार्टनरशिप फर्म का प्रॉफिट

इस फॉर्म का इस्तेमाल न करें अगर
आपके पास सोल प्रॉपराइटरशिप फर्म से इनकम है।

ITR 4
यह फॉर्म ऐसे टैक्सपेयर्स के लिए है, जिन्हें नीचे दिए तरीकों से आमदनी होती है:
प्रॉपराइटरशिप
प्रफेशन
कमिशन

ITR 4 s
ऐसे टैक्सपेयर्स के लिए, जिन्हें नीचे दिए तरीकों से आमदनी होती है:
प्रिजम्प्टिव टैक्स रूल के तहत आने वाले बिजनस से
एक से ज्यादा हाउस प्रॉपर्टी
5 हजार से ज्यादा की आमदनी खेती से
कमिशन
विदेशी स्रोतों से

ITR v
रिटर्न की ई-फाइलिंग करने वाले सभी टैक्सपेयर्स के लिए, जिन्होंने :
रिटर्न वेरिफाई करने के लिए डिजिटल सिग्नेचर का इस्तेमाल नहीं किया है।
रिटर्न को वेरिफाई करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वेरिफिकेशन कोड का इस्तेमाल नहीं किया है।

रिटर्न भरने की आखिरी तारीख
31 जुलाई 2015 - सैलरीड लोगों के लिए रिटर्न भरने की आखिरी तारीख। बिजनस वाले, प्रफेशनलों के लिए यही लास्ट डेट है, बशर्ते आमदनी की ऑडिटिंग न कराते हों। बिजनस में ऑडिटिंग की जरूरत उन्हें है, जिनकी टैक्सेबल इनकम 1 करोड़ से ज्यादा होती है।

30 सितंबर 2016 - असेसमेंट इयर 2016-17 के लिए इनकम टैक्स रिटर्न भरने की लास्ट डेट 30 सितंबर उन लोगों, फर्मों और कंपनियों के लिए है, जिनके लिए अपनी सालाना आमदनी की ऑडिटिंग कराना जरूरी होता है।

31 मार्च 2017 - अगर आपका टीडीएस आपकी कंपनी ने काट लिया है और आप पर टैक्स की कोई देनदारी नहीं बनती तो आप 31 मार्च 2017 तक भी बिना किसी पेनल्टी के टैक्स रिटर्न भर सकते हैं।


8 टॉप गलतियां जो हम कर जाते हैं...

1. रिटर्न फाइल न करना
चूंकि आप पर टैक्स की कोई देनदारी नहीं है, इसलिए आपको रिटर्न भरने की जरूरत नहीं है, अगर आपकी ऐसी सोच है तो आप गलत हैं। रिटर्न भरने से आजादी सिर्फ उन लोगों को है, जिनकी सालाना ग्रॉस इनकम बेसिक एग्जेंप्शन लेवल से कम है। 60 साल से कम उम्र के लोगों के लिए यह सीमा ढाई लाख रुपये है, 60 साल से ज्यादा और 80 साल से कम उम्र के बुजुर्गों के लिए 3 लाख रुपये है और 80 साल या उससे ज्यादा उम्र के लोगों के लिए 5 लाख रुपये है। जिस किसी की भी आमदनी इससे ज्यादा है, उसे रिटर्न भरना अनिवार्य है।

2. गलत फॉर्म चुनना
किसे कौन-सा फॉर्म भरना है, इसके लिए बाकायदा नियम हैं। कई बार लोग गलत फॉर्म का चुनाव कर लेते हैं। अपनी कैटिगरी के हिसाब से सही रिटर्न फॉर्म चुनें और उसे ही भरें।

3. खाली फॉर्म पर साइन
जो लोग किसी एजेंट के जरिए रिटर्न भरते हैं, वे अक्सर खाली रिटर्न फॉर्म पर दस्तखत करके एजेंट को दे देते हैं। एजेंट बाद में उस फॉर्म को भरकर जमा कर देता है। खाली फॉर्म पर दस्तखत न करें। फॉर्म भरने में एजेंट से गलती हो गई तो आपको दिक्कत होगी। भरे हुए रिटर्न फॉर्म पर एक नजर डाल लेने के बाद ही उस पर साइन करें।

4. नंबरों पर ध्यान
रिटर्न फॉर्म में पैन, आईएफएस कोड, अकाउंट नंबर, एम्प्लॉयर का टैन जैसी कुछ फिगर्स ऐसी होती है जिन्हें भरते वक्त गलती होने की आशंका रहती है। इन नंबरों को ध्यान से भरें। फर्ज करें अगर आपने अपने पैन की एक डिजिट भी गलत भर दी, तो इनकम टैक्स विभाग आपके ऊपर जुर्माना लगा सकता है।

5. अकनॉलिजमेंट न भेजना
जो लोग ई-फाइलिंग कर रहे हैं और डिजिटल साइन व ई-वेरिफिकेशन का यूज नहीं कर रहे हैं, उनके लिए आईटीआर v का प्रिंट लेकर बेंगलुरु भेजना जरूरी है। यह काम ऑनलाइन रिटर्न भरने के 120 दिन के भीतर किया जा सकता है, लेकिन कई बार लोग इस फॉर्म को भेजना भूल जाते हैं। नियम यह है कि इस फॉर्म को साधारण पोस्ट या स्पीड पोस्ट से ही भेजा जाना चाहिए।

6. फॉर्म 16 न लेना
अगर आपने फाइनैंशल इयर के दौरान नौकरी बदली है तो अपने दोनों एम्प्लॉयर से फॉर्म 16 जरूर ले लें। अपने पहले एम्प्लॉयर के साथ काम के दौरान की गई सेविंग्स और उससे हुई आमदनी अगर आपने अपने नए एम्प्लॉयर को नहीं बताई है तो हो सकता है, वह कम टैक्स काटे और बाद में आपको कम काटा गया टैक्स ब्याज सहित भरना पड़े।

7. ब्याज न बताना
कई बार लोग फिक्स्ड डिपॉजिट और सेविंग्स अकाउंट पर मिलने वाले ब्याज का जिक्र अपने इनकम टैक्स रिटर्न में नहीं करते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि बैंक ने टीडीएस तो काट ही लिया है इसलिए उस आमदनी को आईटीआर में दिखाने की अब उन्हें कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। यह धारणा पूरी तरह से गलत है।

8. इनकम की क्लबिंग को नजरंदाज करना
कई लोग पत्नी और बच्चों के नाम से भी इन्वेस्टमेंट करते हैं। आप पत्नी को कितनी भी रकम दे सकते हैं, लेकिन गिफ्ट की गई रकम को आप इन्वेस्ट करते हैं तो सेक्शन 64 सामने आ जाता है। इसके मुताबिक, गिफ्ट की गई रकम से कोई आमदनी होती है तो वह आपकी टैक्सेबल इनकम में जोड़ी जाएगी। इससे फर्क नहीं पड़ता कि पार्टनर को आमदनी होती है या नहीं।


किसे भरना है रिटर्न और किसे नहीं
फाइनैंशल इयर 2015-16 के स्लैब के हिसाब से छूट की सीमा 60 साल से कम के पुरुषों और महिलाओं के लिए ढाई लाख रुपये है। 60 साल या उससे ज्यादा उम्र के बुजुर्गों के लिए यह सीमा तीन लाख रुपये है और 80 साल या उससे ज्यादा उम्र के सुपर सीनियर सिटिजन के लिए 5 लाख तक आमदनी टैक्स-फ्री है।

अगर चैप्टर VI A के इनवेस्टमेंट और ब्याज की छूट लेने से पहले आपकी इनकम इस सीमा से ज्यादा है तो आपको रिटर्न भरना होगा यानी इनवेस्टमेंट पर मिलने वाली छूट के बाद अगर टैक्सेबल इनकम इस लिमिट से कम हो रही है, तो भी रिटर्न भरना होगा। मान लें, आपकी ग्रॉस इनकम 3 लाख रुपये है और उम्र 60 साल से कम है। आपने 80 सी में पीपीएफ और इंश्योरेंस पॉलिसी में 60 हजार रुपये इनवेस्ट कर दिए। इससे आपकी टैक्सेबल इनकम हो गई 2 लाख 40 हजार रुपये। अब यह ढाई लाख की एग्जेंप्शन लिमिट से कम है, लेकिन रिटर्न भरना होगा क्योंकि डिडक्शन से पहले की इनकम तीन लाख है।

ग्रॉस इनकम डिडक्शन से पहले एग्जेंप्शन लिमिट से कम, तो रिटर्न की जरूरत नहीं। मसलन अगर किसी 60 साल से कम उम्र के शख्स की ग्रॉस इनकम 2 लाख 30 हजार रुपये है तो उसे रिटर्न भरने की जरूरत नहीं है।


डिडक्शंस की लिस्ट
80 सी, 80 सीसीसी और 80 सीसीडी में इन आइटम में छूट मिलती है। इसकी सीमा फाइनैंशल इयर 2015-16 के लिए 1.5 लाख रुपये है।

पब्लिक प्रॉविडेंट फंड (PPF)
एंप्लॉयी प्रॉविडेंट फंड (EPF)
पांच साल की बैंक एफडी
दो बच्चों की ट्यूशन फीस
सीनियर सिटिजंस सेविंग्स स्कीम
होम लोन के रीपेमेंट में प्रिंसिपल अमाउंट के तौर पर दी जाने वाली रकम
लाइफ इंशूरंस पॉलिसी प्रीमियम जो आप चुकाते हैं।
NSC viii इश्यू
इक्विटी लिंक्ड सेविंग्स स्कीम यानी ELSS
सुकन्या समृद्धि योजना में किया गया इन्वेस्टमेंट

डेढ़ लाख के अलावा
इन आइटमों में भी छूट मिलती है, जो 1.5 लाख की सीमा से अलग है:
80 D : हेल्थ इंशूरंस पॉलिसी का प्रीमियम 15 हजार की सीमा तक।
24 b : होम लोन के रीपेमेंट में ब्याज की रकम पर। इसकी सीमा दो लाख रुपये है।
80 E : हायर स्टडीज के लिए लिए गए एजुकेशन लोन के रीपेमेंट में ब्याज की रकम पर। कोई सीमा नहीं।
80 G : किसी संस्था को दी जाने वाली डोनेशन।

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इनकम टैक्स रिटर्न भरने की पूरी प्रक्रिया

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अगर आपको इनकम टैक्स रिटर्न की पूरी जानकारी है तो उसके बाद असली मुद्दा है रिटर्न भरने का अगर आप इनकम टैक्स रिटर्न के बारे में सारी जानकारी चाहते हैं तो क्लिक करें। स्क्रीनशॉट्स के जरिये रिटर्न भरने का पूरा प्रॉसेस बता रही हैं सीए निशा :

रिटर्न भरने से पहले सुनिश्चित कर लें कि आप पास नीचे दिए गए कागजात तैयार हों:

फॉर्म 16
अगर आप कहीं नौकरी करते हैं तो यह फॉर्म अब तक आपके एम्प्लॉयर ने आपको दे दिया होगा। वैसे फॉर्म 16 न होने पर सैलरी से इनकम कैलकुलेट करने के लिए सबसे अच्छा जरिया आपकी पे-स्लिप है। उसमें हर महीने काटे टीडीएस की जानकारी होतीहै।

TDS सर्टिफिकेट
अगर सैलरी के साथ-साथ दूसरे जरियों से भी आपको आमदनी हुई हो और उस पर टीडीएस कट चुका हो तो उस संस्था से भी टीडीएस सर्टिफिकेट ले लें। यहां हम रेंटल इनकम, शेयर, एफडी वगैरह से होने वाली इनकम की बात कर रहे हैं। एफडी के मामले में आपका बैंक आपको यह सर्टिफिकेट देगा।

फॉर्म 26 AS
फॉर्म 26 एएस से आप यह पता लगा सकते हैं कि कंपनी या बैंक ने आपका जो टीडीएस काटा है, उसे सरकार के पास जमा कराया भी है या नहीं। इस टीडीएस का ब्योरा आप दो तरह से देख सकते हैं। पहले incometaxindiaefiling.gov.in पर जाएं। अगर आप पिछले सालों में रिटर्न भर चुके हैं तो आपके पास यूलर नेम और पासवर्ड होगा। इसी से लॉग इन करें। अगर पहली बार रिटर्न भर रहे हैं तो Register Yourself पर जाकर रजिस्टर करें।

वैसे यूजर नेम आपका पैन नंबर होता है और पासवर्ड आप खुद जेनरेट करेंगे। लॉग इन करने के बाद View Form 26 AS पर क्लिक करें। अगर आप नेट बैंकिंग इस्तेमाल करते हैं तो बैंक की वेबसाइट पर जाकर View Your Tax Credit पर क्लिक करके फॉर्म 26 एएस देख सकते हैं, लेकिन इससे केवल उस बैंक में चल रही आपकी एफडी, सेविंग्स अकाउंट पर ब्याज आदि का ही पता चलेगा।

बैंक स्टेटमेंट्स
सभी सेविंग्स अकाउंट्स की साल भर की स्टेटमेंट्स ले लें। इसकी मदद से आपको यह पता चलेगा कि बैंक ब्याज के तौर पर साल भर में आपको कितनी आमदनी हुई। ब्याज की इस आमदनी को आपको रिटर्न में दिखाना होगा। वैसे ब्याज साल में दो बार दिया जाता है : अप्रैल में और अक्टूबर में।

डिडक्शन के दस्तावेज
जो इन्वेस्टमेंट डिडक्शन के दायरे में आते हैं, उनके सभी दस्तावेज आपके पास होने चाहिए। वैसे फॉर्म 16 में ये सभी सूचनाएं दी गई होती हैं, लेकिन अगर डिडक्शन के दस्तावेज आपके पास होंगे तो क्रॉस चेक करने में आसानी होगी। इन दस्तावेजों में बच्चों की फीस, लाइफ इंशूरंस, पीपीएफ, मेडिकल इंशूरंस की रसीदें और लोन की स्टेटमेंट जैसी चीजें अहम हैं।

दूसरे दस्तावेज
पैन नंबर और आधार नंबर आपके पास होना ही चाहिए। इसके अलावा आपके जितने भी बैंक अकाउंट हैं, उन सभी की डिटेल्स आपके पास होनी चाहिए। डिटेल्स में बैंक का आईएफएससी नंबर, बैंक का नाम और अकाउंट नंबर रिटर्न में भरा जाता है। इसी से रिफंड का पैसा सीधे आपके अकाउंट में आता है।

रिटर्न भरने के दो तरीके - मैन्युअली और ऑनलाइन

मैन्युली भरने के लिए फॉर्म या तो किसी स्टेशनरी की दुकान से लें या फिर साइट www.incometaxindia.gov.in से डाउनलोड कर लें। एक ऑप्शन तो यह है कि आप किसी सीए, वकील या इनकम टैक्स विभाग के टीआरपी को फीस देकर अपना फॉर्म भरवा लें। दूसरा तरीका यह है कि इसे खुद भरकर जमा करें। अगर आप टीआरपी की मदद से या ऑनलाइन भरना चाहते हैं तो हम मदद कर देते हैं। हम मानकर चल रहे हैं कि जिस का रिटर्न भरा जा रहा है, वह सैलरीड है, उसे आईटीआर 1भरना है, टीडीएस काटा जा चुका है, कोई टैक्स जमा नहीं कराना है, उसके पास एक हाउस प्रॉपर्टी है जिसमें वह रहता है और होम लोन का रीपेमेंट करता है।

ऑनलाइन भरना आसान
जिन लोगों को रिफंड क्लेम करना है, उनके लिए रिटर्न की ई-फाइलिंग जरूरी है। अगर किसी की आमदनी 5 लाख रुपये से कम है तो भी उसे रिटर्न ऑनलाइन ही भरना होगा। 80 साल से ऊपर के सुपर सीनियर सिटिजंस पर यह नियम लागू नहीं होगा। ऐसे लोग अपना रिटर्न मैन्युअली भी भर सकते हैं। वैसे, रिटर्न ऑनलाइन भरने के अपने कई फायदे हैं। जिन रिटर्न को ऑनलाइन भरा जाता है, उनका रिफंड जल्दी आता है और उसे सीधे बैंक अकाउंट में जमा कर दिया जाता है। ऑनलाइन रिटर्न भरने के लिए कई पेड साइट्स भी हैं, लेकिन फ्री में ई-रिटर्न भरना चाहते हैं तो इनकम टैक्स विभाग की साइट से भर सकते हैं। कुछ प्राइवेट वेबसाइट भी रिटर्न भरने का ऑफर दे रही हैं।

सरकारी साइट www.incometaxindia.gov.in पर रिटर्न भरने के लिए नीचे दिए गए स्टेप्स को फॉलो करें-

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TRP की मदद से
सबसे पहले www.trpscheme.com पर जाएं।
Locate TRP पर क्लिक करें। आपको गूगल मैप दिखेगा और उसके नीचे कुछ सूचनाएं मांगी जाएंगी। Name में कुछ न भरें। State और District के ऑप्शन भरने से आपके क्षेत्र के टीआरपी के नाम, पते और फोन नंबर आपको मिल जाएंगे। इनसे संपर्क करें। समय-समय पर इनकम टैक्स विभाग टीआरपी के बारे में अखबारों में भी सूचना देता रहता है। टोल फ्री नंबर 1800-10-23738 पर कॉल करके भी आप टीआरपी से संबंधित सूचनाएं हासिल की जा सकती हैं। लाइन सोमवार से शनिवार तक सुबह 9 से शाम 6 बजे तक खुली रहती है।
कोई भी टीआरपी देश में कहीं भी मौजूद आदमी का रिटर्न भर सकता है। टीआरपी को पहचानने के लिए उनका आईडी कार्ड या सर्टिफिकेट देखें।
टीआरपी को अपने फॉर्म 16 की फोटोस्टैट दें, ऑरिजनल डॉक्यूमेंट उसे नहीं देने हैं। इसकी मदद से वह रिटर्न भरेगा और जमा करेगा। जमा करने के बाद टीआरपी आपको उसकी रसीद देगा। रिटर्न भरने में अगर कोई गड़बड़ी होती है तो इसके लिए टीआरपी ही जिम्मेदार होगा।

खर्च कितना
रिटर्न भरने के बदले टीआरपी आपसे 250 रुपये चार्ज कर सकते हैं।

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एलर्जी: कारण और दूर करने के कारगर उपाय

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एलर्जी बेहद कॉमन बीमारी है। किसी को खाने की चीज से, किसी को किसी खास महक से तो किसी को डॉग या कैट से एलर्जी हो सकती है। एलर्जी की कुछ और भी वजहें हैं। एक्सपर्ट्स से बात करके एलर्जी से बचने और इससे निपटने के तरीके बता रही हैं पूजा महरोत्रा:


मुक्ति जब भी दूध या दूध से बना कुछ खा लेती हैं, उनके शरीर में खुजली होने लग जाती है। रोशन जब कभी तरबूज खाते हैं तो पूरे शरीर में लाल चकत्ते निकल आते हैं या उलटियां होने लग जाती हैं। अमित को यूं तो कोई हेल्थ इश्यू नहीं है, लेकिन जब भी घर में साफ-सफाई होती है और धूल नाक में चली जाती है, तो उनकी सांसें तेज-तेज चलने लगती हैं और नाक और आंखों से पानी आने लगता है। नियति को हल्के धुएं में भी सांस लेने में दिक्कत होती है और खांसी होने लगती है। ये एलर्जी के लक्षण हैं यानी ये लोग किसी तरह की एलर्जी से पीड़ित हैं।

क्या होती है एलर्जी

जब हमारा शरीर किसी चीज को लेकर ओवर-रिऐक्ट करता है तो उसे एलर्जी कहते हैं। एलर्जी किसी खाने की चीज, पालतू जानवर, मौसम में बदलाव, कोई फूल-फल-सब्जी के सेवन, खुशबू, धूल, धुआं, दवा यानी किसी भी चीज से हो सकती है। इस स्थिति में हमारा इम्यून सिस्टम कुछ खास चीजों को स्वीकार नहीं कर पाता और नतीजा ऐसे रिऐक्शन के रूप में दिखता है। इस स्थिति में शरीर पर लाल-लाल चकत्ते निकलना, नाक और आंखों से पानी बहना, जी मितलाना, उलटी होना या फिर सांस तेज-तेज चलने से लेकर बुखार तक हो सकता है। ज्यादातर एलर्जी खतरनाक नहीं होतीं, लेकिन कभी-कभार समस्या गंभीर भी हो सकती है।

एलर्जी के कारण

खाने की चीजों से: कुछ लोगों को खाने की चीजों जैसे कि मूंगफली, दूध, अंडा आदि खाने से एलर्जी हो सकती है। जिस चीज से एलर्जी है, उसे खाने के बाद जी मिचलाना, शरीर में खुजली होना या पूरे शरीर पर दाने और चकत्ते निकलने जैसी समस्या हो सकती है। आमतौर पर कुछ खाने के बाद 10 मिनट से लेकर आधे घंटे के अंदर एलर्जी के लक्षण उभरने लगते हैं।

धूल: धूल के कणों में माइक्रोब्स होते हैं जो हमारे आसपास मौजूद रहते हैं। माइक्रोब्स ज्यादा ह्यूमिडिटी में पनपते हैं। इनसे होनेवाली एलर्जी में आमतौर पर छींकें, आंख और नाक से पानी बहना जैसी दिक्कत होती है।

कीट और मच्छर: ऐसे लोगों को किसी कीड़े के काटने पर स्किन एकदम लाल होकर फूल जाती है। कभी-कभार उलटी, चक्कर आना और बुखार भी हो सकता है।

रबड़: रबड़ से बनी किसी भी चीज (गलव्स, कॉन्डम, मेडिकल इक्विमेंट आदि) के इस्तेमाल से जलन, नाक बहना, छींकना, सांस की घबराहट और खुजली की समस्याएं हो सकती हैं।

खुशबू: खुशबू भी कई लोगों के लिए एलर्जी की वजह हो सकती है। परफ्यूम, खुशबू वाली मोमबत्तियां, कई तरह के ब्यूटी प्रॉडक्ट आदि की खुशबू से सिरदर्द, जी मिचलाने आदि की समस्या हो सकती है।

पालतू जानवर: पालतू जानवर भी कई लोगों की एलर्जी का कारण होते हैं। जानवरों के बाल, उनके मुंह से निकलने वाली लार, रूसी आदि से कई लोगों को गंभीर परेशानियां होती हैं।

घास: कई बार घास, पेड़ और फूल भी एलर्जी का कारण होते हैं। इनके संपर्क में आने पर खुजली, आंखों में जलन, लगातार छींक और खुजली आदि की समस्या हो सकती है।

मौसम: कई लोगों को किसी खास मौसम से भी एलर्जी होती है। जब मौसम बदलने लगता है तो इन लोगों को गले की खराश, बुखार, नाक बहना, आंखों में जलन जैसी समस्या होती है। ऐसे में कोशिश करें कि ज्यादा-से-ज्यादा घर के अंदर रहें। तापमान में तेज बदलाव से बचें। यानी एकदम ठंडे से गर्म में या गर्म से ठंडे में न जाएं।

पॉलेन: पॉलेन यानी फूलों के पराग कणों से भी लोगों को एलर्जी होती है। पेड़-पौधों और घास-फूस के संपर्क में आने पर ये बारीक कण नाक और गले में चले जाते हैं और दिक्कत की वजह बनते हैं। जिस मौसम में पॉलेन आते हैं, उस दौरान घर से बाहर कम निकलें। घर की खिड़कियां बंद करके रखें। एसी या पंखे में रहें और कूलर का इस्तेमाल न करें। घर में एयर प्यूरिफायर लगवाएं। घर से बाहर निकलना ही हो तो आंखों पर चश्मा और नाक पर मास्क लगाकर बाहर निकलें।

मेटल: कई लोगों को मेटल जैसे कि गोल्ड या सिल्वर ऑक्सिडाइज्ड जूलरी से एलर्जी होती है तो कुछ को लेदर या सिंथेटिक कपड़ों से। ऐसा होने पर इन चीजों के कॉन्टैक्ट में आने के बाद खुजली आदि हो सकती है। ऐसे लोग इन चीजों के इस्तेमाल से बचें। अगर कभी पहनना ही पड़े और खुजली होने लगे तो उस जगह पर स्टेरॉयड बेस्ड क्रीम लगाएं।

दवा: किसी खास दवा से एलर्जी भी काफी लोगों को होती है। अगर उस दवा को लेना जारी रखा जाए तो परेशानी बढ़ सकती है।

एलर्जी किसको ज्यादा

एक्सपर्ट मानते हैं कि गांवों में रहनेवालों के मुकाबले शहरों में रहने वालों में एलर्जी की समस्या ज्यादा पाई जाती है। जिन बच्चों को ज्यादा साफ-सफाई के साथ पाला जाता है, उनमें भी यह समस्या ज्यादा पाई जाती है क्योंकि उनके शरीर का इम्यून सिस्टम ज्यादा डिवेलप नहीं हो पाता।

बच्चों में एलर्जी होने की आशंका बड़ों से कहीं ज्यादा होती है। बच्चा अगर बहुत ज्यादा थकान का शिकार होता हो, उसे सर्दी-जुकाम बना रहता हो, नाक में खुजली होती हो तो इसे एलर्जी हो सकती है।

सावधानी के लिए जिन चीजों से हम बच्चों को परहेज करा रहे होते हैं, वही परहेज उन्हें और बीमार कर रहा होता है। हम हाइजीन के नाम पर बच्चों को धूल, मिट्टी, बारिश आदि में खेलने से रोकते रहते हैं। इसे हाइजीन हाइपोथीसिस कहते हैं।

जिन बच्चों का वैक्सिनेशन नहीं किया जाता, उनमें भी एलर्जी की समस्या कम देखी गई है। वैक्सिनेशन से बच्चों का शरीर बैक्टीरिया से तो बच जाता है लेकिन इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है। जो चीज शरीर के इम्यून सिस्टम को अपने मुताबिक नहीं लगतीं, वह उन्हें अपने तरीके से निकालने की कोशिश में लग जाता है। यह तरीका छींक, चकत्ते, बुखार आदि हो सकता है।

इसी तरह बुजुर्गों में भी एलर्जी की समस्या काफी कॉमन है क्योंकि उनका इम्यून सिस्टम भी कमजोर हो जाता है। बदलते मौसम आदि में उनका खास ख्याल रखना चाहिए।

कई बार एलर्जी खानदानी भी होती है। पैरंट्स को अगर धूल या किसी और चीज से एलर्जी हो तो बच्चों को एलर्जी होने के चांस बढ़ जाते हैं। हालांकि यह जरूरी नहीं है कि दोनों की एलर्जी का स्वरूप एक जैसा ही हो। मां को अगर धूल से एलर्जी की वजह से स्किन रैशेज पड़ते हों तो बच्चे को खुशबू से एलर्जी होने की वजह से छींकें आ सकती हैं।

देश में करीब 20 से 30 फीसदी लोग एलर्जी से पीड़ित हैं, जबकि अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों में एलर्जी के मरीजों की संख्या 40 फीसदी से भी ज्यादा है।

कैसे है बचाव संभव

हमारे देश में लोगों को एलर्जी के बारे में जानकारी कम है। अक्सर लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे बार-बार बीमार पड़ रहे हैं तो उसकी वजह खाना या मौसम भी हो सकता है। दरअसल, अगर किसी चीज को लेकर शरीर में रिएक्शन दिखे तो डॉक्टर को दिखाना चाहिए और दोबारा इस चीज के इस्तेमाल से बचना चाहिए।

बच्चों के इम्यून सिस्टम को मजबूत करने के लिए उन्हें जरूरी चीजें भी दी जानी चाहिए। बच्चों को चारदीवारी में बंद करके नहीं रखा जाना चाहिए।

बच्चों को धूल-मिट्टी और धूप में खेलने दें। ये बच्चों को बीमारियों से लड़ने में मदद करते हैं। उन्हें बारिश या दूसरे पानी से भी खेलने दें। हां, धूल-मिट्टी में खेलने के बाद उनके हाथ-पैर अच्छे से धुलवाना न भूलें।

अगर किसी को धूल और धुएं से एलर्जी है तो घर से बाहर निकलने से पहले नाक पर रुमाल रखना चाहिए। बचाव ही एलर्जी का इलाज है।

जिन लोगों को ठंड से एलर्जी है, वे ठंडी और खट्टी चीजों जैसे कि अचार, इमली, आइसक्रीम आदि के इस्तेमाल से बचें।

गंदगी से एलर्जी वाले लोगों को समय-समय पर चादर, तकिए के कवर और पर्दे भी बदलते रहना चाहिए। कारपेट यूज न करें या फिर उसे कम-से-कम 6 महीने में ड्राइक्लीन करवाते रहें।

जिस दवा से एलर्जी है, उसे खाने से बचें। डॉक्टर को दिखाएं तो इस एलर्जी के बारे में जरूर बताएं।

घर में केरोसिन वाले स्टोव की जगह एलपीजी या इलेक्ट्रिक स्टोव यूज करें। किचन में एग्जॉस्ट फैन जरूर लगवाएं और खाना पकाते समय उसे चलाएं।

घर को हमेशा बंद न रखें। घर को खुला और हवादार बनाए रखें ताकि साफ हवा आती रहे।

खिड़कियों में महीन जाली लगवाएं और जाली वाली खिड़कियों को हमेशा बंद रखें क्योंकि खुली खिड़की से कीड़े और मच्छर आपके घर में घुस सकते हैं।

दीवारों पर फफूंद और जाले हो गए हों, तो उन्हें साफ करते रहें क्योंकि फफूंद के कारण भी एलर्जी हो सकती है।

बारिश के मौसम में फूल वाले प्लांट्स को घर के अंदर न रखें।

अस्थमा और एलर्जी में फर्क

अस्थमा और एलर्जी में कई चीजें कॉमन हैं, लेकिन फिर भी दोनों अलग-अलग हैं। लगातार कई दिनों तक जुकाम, खांसी या सांस लेने में दिक्कत हो तो इन्फेक्शन इसकी वजह हो सकता है, जबकि अस्थमा में सांस लेने में परेशानी के अलावा रात में सोते वक्त खांसी आना, छाती में जकड़न महसूस होना, एक्सरसाइज करते हुए या सीढ़ियां चढ़ते वक्त सांस फूलना या खांसी आना, ज्यादा ठंड या गर्मी होने पर सांस लेने में दिक्कत होना जैसे लक्षण होते हैं। हालांकि एक्सपर्ट्स का कहना है कि अस्थमा भी एक तरह की एलर्जी ही है। जैसे ही शरीर एलर्जी वाली चीजों के संपर्क में आता है, अस्थमा का अटैक होता है। इसे एलर्जिक अस्थमा कहते हैं। हां, अस्थमा और एलर्जी में एक और कनेक्शन है। अगर किसी को एलर्जिक अस्थमा नहीं है, सिर्फ एलर्जी है तो अस्थमा होने का खतरा 40 फीसदी तक बढ़ जाता है।

एलर्जी के लिए टेस्ट

एलर्जी के लिए 2 टेस्ट होते हैं:

1. स्किन पैच टेस्ट: जिस भी चीज से एलर्जी का शक होता है, उसका कंसंट्रेशन स्किन पर पैच के जरिए लगाया जाता है। इसके रिजल्ट सटीक होते हैं।

2. ब्लड टेस्ट: ब्लड टेस्ट से भी एलर्जी की जांच होती है। हालांकि एक्सपर्ट इसे बहुत सटीक नहीं मानते।

स्किन पैच टेस्ट कराने का खर्च 8 से 10 हजार रुपये आता है। टेस्ट के जरिए 60 तरह की एलर्जी की जानकारी मिल जाती है।

एलर्जी का इलाज

ऐलोपथी

फूड एलर्जी खासकर गेहूं से होने वाली सिलियक (Celiac) डिजीज उत्तर भारत में ज्यादा देखी जाती है। अगर किसी युवा में खून की कमी, विटमिन डी या कैल्शियम की कमी पाई जाती है तो हो सकता है कि उसे गेहूं से होने वाली ग्लूटन एलर्जी हो। अगर स्किन टेस्ट पॉजिटिव आता है तो मरीज को गेहूं से बनी चीजें खाने से रोक दिया जाता है। गेहूं के बजाय मक्का, सिंघाड़ा, चने आदि का आटा खाने को दिया जाता है। शरीर में जिन तत्वों की कमी है, उन्हें बढ़ाने के लिए दवाएं भी दी जाती हैं।

वैसे हल्की-फुल्की एलर्जी यानी अगर छींकें आ रही हैं या खुजली हो रही है तो एविल (Avil) और सिट्रिजिन (Cetirizine) ले सकते हैं। ये दोनों जेनरिक नेम हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि ये दवाएं कुछ घंटों या फौरी राहत के लिए तो ठीक हैं, लेकिन लंबे समय चलनेवाली एलर्जी में बेअसर हैं। एलर्जी होने पर डॉक्टर को दिखाएं। दवा एलर्जी के प्रकार के अलावा मरीज की स्थिति और उम्र के मुताबिक भी तय की जाती है।

इम्यूनो थेरपी और एलर्जी शॉट्स से भी एलर्जी का इलाज किया जाता है। अगर मरीज की हालत ज्यादा खराब हो, तभी इम्यूनो थेरेपी का सहारा लिया जाता है। यह सेफ तरीका है लेकिन तभी कारगर है, जब किसी ऐसी चीज से ही एलर्जी हो, जिसे नजरअंदाज न किया जा सके। मसलन अगर किसी को प्रॉन खाने से एलर्जी है तो वह उसे नहीं खाएगा, लेकिन अगर पॉलेन से एलर्जी है तो वह हमेशा ही बीमार रहेगा। ऐसे मरीजों को यह थेरपी दी जाती है। इस थेरपी का असर लंबे समय तक रहता है। कई बार इसका असर 3-4 साल तक रहता है। हालांकि हर मरीज पर असर अलग-अलग हो सकता है। यह इलाज थोड़ा महंगा होता है।

होम्योपथी

होम्योपथी में दवा बीमारी के लक्षणों के आधार पर दी जाती है। होम्योपथी में सभी तरह की एलर्जी का इलाज मुमकिन है। हालांकि असर थोड़ा धीमा होता है लेकिन बीमारी पूरी तरह ठीक हो जाती है। खुद इलाज करने के बजाय किसी क्वॉलिफाइड होम्योपैथिक डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।

खाने-पीने की चीजों से एलर्जी हो रही है तो नैट्रम मुर (Natrum Mur) की 4 बूंदे सुबह-शाम थोड़े पानी में मिलाकर पीने की सलाह दी जाती है, लेकिन बच्चों के लिए डोज अलग होती है।

एस्प्रिन (Aspirin) दवा से एलर्जी होने पर कार्बो वेज (Carbo Veg) और ऐंटिबायॉटिक से एलर्जी होने पर सल्फर 200 (Sulphur 200) दी जाती है। कुछ एलर्जी में ब्रायोनिया (Bryonia), नक्स वॉम (Nux Vomica), आर्सेनिक एल्बम (Arsenicum Album) आदि दवाएं दी जाती हैं। दवा की डोज उम्र के मुताबिक तय होती है।

आयुर्वेद

रोज सुबह नीबू पानी पिएं।

खट्टी और ठंडी चीजों से परहेज करें।

कभी-कभी कोई दवा खाने से भी एलर्जी हो जाती है इसलिए हमेशा दवा डॉक्टर से पूछकर ही लें।

अगर स्किन एलर्जी है तो फिटकरी के पानी से प्रभावित हिस्से को धोएं। नारियल तेल में कपूर या जैतून तेल मिलाकर लगाएं। चंदन का लेप भी राहत देता है। इससे खुजली कम होती है और चकत्ते भी कम होते हैं।

पंचकर्म का हिस्सा नास्य शिरोधारा भी एलर्जी में भी बहुत मदद करता है। इसमें खास तरीके से तेल नाक में डाला जाता है, लेकिन यह प्रक्रिया घर में नहीं करनी चाहिए। एक्सपर्ट की देखरेख में इसे करें।

नेचुरोपथी और योग

योग और नेचुरोपथी एलर्जी से लड़ने में काफी कारगर हैं। नेचरोपथी एक्सपर्ट्स का कहना है कि एलर्जी से बचने के लिए पेट साफ रखना चाहिए। बहुत गर्म या बहुत ठंडा खाना नहीं खाना चाहिए। हमेशा साफ पानी पीना चाहिए। रोजाना करीब 15 मिनट अनुलोम-विलोम, कपालभाति, भस्त्रिका प्राणायाम करने से एलर्जी में फायदा होता है क्योंकि इनसे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है।

अगर जल्दी-जल्दी सर्दी और जुकाम की एलर्जी हो तो सुबह उठकर गुनगुने पानी में नींबू का रस मिलाकर पिएं।

पलूशन से होने वाली एलर्जी से बचने के लिए गुनगुने पानी में तुलसी, नीबू, काली मिर्च और शहद डालकर पिएं।

बदलते मौसम में होने वाली एलर्जी से बचने के लिए खट्टी चीजें जैसे कि अचार और तली-भुनी चीजें खाने से परहेज करें।

नोट: यहां दी गई कोई भी दवा बिना डॉक्टर की सलाह के न खाएं।

एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. विक्रम जग्गी, अस्थमा और एलर्जी एक्सपर्ट
डॉ. राजकुमार, हेड, डिपार्टमेंट ऑफ रेस्पिरेटरी, पटेल चेस्ट हॉस्पिटल
डॉ. राजेश उपाध्याय, हेड, गैस्ट्रोइंटेरॉलजी, मैक्स हॉस्पिटल
डॉ. सुचेंद्र सचदेव, सीनियर होम्योपैथ
आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेद एक्सपर्ट, पतंजलि योगपीठ
श्रवण, नेचुरोपथी एक्सपर्ट, कैरली ग्रुप

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माइग्रेन में ज्यादा न लें टेंशन, ऐसे पाएं छुटकारा

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बरसात के मौसम में गर्मी और उमस के साथ ही कई बार मौसम बेहद ठंडा हो जाता है। ऐसे में माइग्रेन के पेशेंट को बहुत प्रॉब्लम होती है। चूंकि यह प्रॉब्लम महिलाओं को ज्यादा होती है, इसलिए इस मौसम में उन्हें सावधानी रखने की ज्यादा जरूरत होती है। इस मौसम में माइग्रेन के कारण होने वाली परेशानी से कैसे बचें? एक्सपर्ट्स से बातचीत के आधार पर बता रही हैं आरती श्रीवास्तव :-

माइग्रेन सिरदर्द की बीमारी है। आमतौर पर यह दर्द आधे सिर में होता है और आता-जाता रहता है, लेकिन कई बार पूरे सिर में दर्द होता है। यह दर्द 2 घंटे से लेकर 72 घंटे तक बना रहा सकता है। कई बार दर्द शुरू होने से पहले मरीज को चेतावनी भरे संकेत भी मिलते हैं, जिससे उसे पता चल जाता है कि सिरदर्द होने वाला है। इन संकेतों को 'ऑरा' कहते हैं। माइग्रेन को 'थ्रॉबिंग पेन इन हेडक' भी कहा जाता है। इसमें ऐसा लगता है जैसे सिर पर हथौड़े पड़ रहे हैं। यह दर्द इतना तेज होता है कि कुछ वक्त के लिए मरीज ढंग से कामकाज भी नहीं कर पाता। ज्यादातर लोगों में माइग्रेन की बीमारी जीन से संबंधित होती है। यह बीमारी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को ज्यादा होती है। यह बच्चों को भी हो सकती है।



कैसे होता है माइग्रेन

माइग्रेन का वैज्ञानिक कारण मरीज के सिर की ब्लड वेसल्स यानी खून की नलियों का फैल जाना और उसके बाद उसमें कुछ खास तरह के केमिकल्स का स्राव होना है। ये केमिकल्स नर्व फाइबर्स यानी तंत्रिका रेशों द्वारा पड़ने वाले दबाव की वजह से निकलते हैं। दरअसल, जब सिरदर्द के दौरान कोई आर्टरी या ब्लड वेसल फैल जाती है तो वह नर्व फाइबर्स पर दबाव डालती है। इस दबाव की वजह से केमिकल रिलीज होते हैं, जिससे ब्लड वेसल्स में सूजन, दर्द और फैलाव होने लगता है। इस स्थिति में मरीज को बहुत तेज सिरदर्द होता है।

क्या हैं वजहें

एलर्जी, टेंशन, तेज रोशनी, तेज सुगंध, तेज आवाज, धुआं, सोने का तय वक्त न होना, व्रत, ऐल्कोहल, अनियमित पीरियड्स, बर्थ कंट्रोल पिल्स, हॉर्मोनल चेंज, इसके अलावा मछली, मूंगफली, खट्टे फल और अचार के सेवन से भी यह दर्द हो सकता है।

लक्षण

आमतौर पर हम सबको कभी-न-कभी सिरदर्द की शिकायत होती है। ऐसे में कैसे पहचाना जाए कि यह साधारण सिरदर्द है या माइग्रेन के कारण होने वाला सिरदर्द? माइग्रेन के कारण होने वाले सिरदर्द की पहचान 'ऑरा' से होती है। 'ऑरा' दृष्टि संबंधी परेशानी यानी विजुअल डिस्टर्बेंस हैं, जिसमें मरीज को रुक-रुककर चमकीली रोशनी, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं दिखाई देती हैं, आंखों के सामने काले धब्बे दिखाई देते हैं, स्किन में चुभन होती है और कमजोरी महसूस होती है। इसके अलावा, जी मिचलाना, उलटी होना, लो बीपी, रोशनी और आवाज से परेशानी होना आदि माइग्रेन के दूसरे लक्षण हैं। आंखों के नीचे काले घेरे होना, गुस्सा, चिड़चिड़ापन आदि भी माइग्रेन के लक्षण हो सकते हैं। इनमें से कोई एक या ज्यादा लक्षणों को पहचानकर माइग्रेन का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन ध्यान रखें कि यही लक्षण किसी दूसरी बीमारी के भी हो सकते हैं।

महिलाओं को ज्यादा परेशानी

यह सच है कि माइग्रेन के 10 मरीजों में से 7-8 महिलाएं होती हैं। महिलाओं को माइग्रेन का दर्द भी तेज होता है। इसकी कई वजहें हैं, जैसे कि हॉर्मोनल चेंज। पीरियड्स के दौरान होने वाले हॉर्मोनल चेंज के कारण प्रि-मेंस्ट्रुअल माइग्रेन यानी पीरियड्स से पहले होने वाला माइग्रेन काफी कॉमन है। इस दौरान 4-5 दिन तक तेज दर्द होता है। इसके अलावा, महिलाओं के ऊपर घर-बाहर की कई सारी जिम्मेदारियां होती हैं। इस वजह से वे काफी सोचती हैं और तनाव भी ज्यादा लेती हैं। महिलाएं व्रत ज्यादा रखती हैं और नींद कम लेती हैं। ये सभी बातें माइग्रेन को बढ़ावा देती हैं।

उम्र बढ़ने पर हो जाता है कम

माइग्रेन का इलाज नहीं है, लेकिन ज्यादातर मामलों में 30 से 40 साल की उम्र तक आते-आते यह कम हो जाता है। दर्द का लेवल और फ्रिक्वेंसी, दोनों घट जाते हैं। करीब 50-60 फीसदी मरीजों में माइग्रेन खत्म हो जाता है। लेकिन कुछ मरीज ऐसे भी होते हैं, जिनमें 30-40 की उम्र के बाद भी माइग्रेन की तीव्रता कम नहीं होती। अगर महीने में मरीज को एक या दो बार दर्द होता है और उससे उसके रुटीन पर असर नहीं होता तो माइग्रेन की स्पेशल दवा दी जाती है। 80-90 फीसदी तक मरीज इसी कैटिगरी में आते हैं। लेकिन 10 से 20 फीसदी मरीज ऐसे भी होते हैं, जिनको तेज माइग्रेन की शिकायत रहती है। इन्हें बार-बार सिरदर्द होता है। ऐसे मरीजों को प्रोफाइलैक्सिस मेडिसिन (एंटीबायोटिक) दी जाती है। मरीज को शुरुआत में कम डोज दी जाती है और एक लेवल पर लाकर उसे स्टेबलाइज किया जाता है। जब दर्द कम हो जाता है यानी महीने में एक बार होता है तो मरीज को 6-7 महीने तक उसी लेवल पर रखा जाता है। उसके बाद दवाओं का डोज कम करके धीरे-धीरे उसे बंद कर दिया जाता है। इस तरह माइग्रेन कंट्रोल हो जाता है।

बचाव

इस बीमारी में बचाव बहुत जरूरी है। इसके लिए ध्यान रखें:-

तापमान में तेज बदलाव से बचें। मसलन एसी से एकदम गर्मी में न निकलें या फिर तेज गर्मी से आकर बहुत ठंडा पानी न पिएं।

सूरज की सीधी रोशनी से बचें। अगर आप बाहर निकल रहे हैं तो छाता लेकर और सन ग्लासेज पहनकर निकलें।

गर्मी के मौसम में कम-से-कम ट्रैवलिंग करें।

गर्मी और उमस से बचने के लिए ठंडी जगह (एसी) में रहें।

दिन में 8-10 गिलास पानी जरूर पिएं, वरना डिहाइड्रेशन हो सकता है। डिहाइड्रेशन माइग्रेन का प्रमुख सामान्य कारक होता है। इसलिए डिहाइड्रेशन से बचें। शरीर में पानी रहेगा तो माइग्रेन के चांस कम होंगे।

बरसात के मौसम में जब उमस बहुत ज्यादा होती है, हमें वैसी चीजों को खाने-पीने से बचना चाहिए जिससे पसीना ज्यादा निकलता है, जैसे कि चाय-कॉफी आदि।

मिर्च न खाएं।

ब्लड प्रेशर मेंटेन रखें।

गर्भनिरोधक गोलियां लेने से बचें। अगर लेना ही है तो कम डोज लें। असल में, ऑरल पिल्स में प्रोजेस्टेरॉन (progesterone) की मात्रा ज्यादा होती है जो हॉर्मोन को असंतुलित कर देती है। इससे माइग्रेन होने के चांस बढ़ जाते हैं।

सुबह सूरज निकलने से पहले वॉक पर जाएं। नंगे पांव घास पर चलें। इससे तनाव कम होता है। तनाव कम होता है तो हॉर्मोंस भी बैलेंस हो जाते हैं। इन सब वजहों से माइग्रेन कम हो जाता है।

रोजाना 30 मिनट योगासन और प्राणायाम जरूर करें। इससे काफी फायदा होता है। मेटिडेशन भी कारगर है, चाहे रोज 10 मिनट ही करें।

इलाज

माइग्रेन का कोई परमानेंट इलाज नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि न यह जानलेवा है और न ही एक से दूसरे को फैलनेवाला। अगर सिरदर्द पैदा करने वाले कारकों की पहचान कर ली जाए और उनसे बचा जाए तो माइग्रेन को कंट्रोल किया जा सकता है। तेज दर्द होने पर मरीज को सुमाट्रिप्टन ( Sumatriptanum), रिजाट्रिप्टन (Rizatriptan), नैप्रोसीन (naproxen), पैरासिटामॉल (Paracetamol) आदि दवाएं दी जाती हैं, जबकि बार-बार अटैक होने पर प्रोपेनोलोल (Propranolol) या फ्लूनराजिन प्रोफाइलैक्सिस (Flunarizine Prophylaxis) आदि दवाएं दी जाती हैं। ये जेनरिक दवाएं और अलग-अलग ब्रैंड नेम से मार्केट में मिलती हैं। याद रखें कि बिना डॉक्टर से पूछे कोई भी दवा न लें।

ऐसी हो डाइट

माइग्रेन के मरीजों को खूब सारा लिक्विड यानी जैसे कि सूप, नीबू पानी, नारियल पानी, छाछ, लस्सी आदि पीना चाहिए।

फल और हरी सब्जियां खूब खाएं।

कम मात्रा में नमक लें। दिन भर में आधा छोटा चम्मच नमक काफी है क्योंकि ज्यादातर फूड आइटम्स में खुद ही नमक होता है।

चाय, कॉफी और कोल्ड ड्रिंक आदि लेने से बचें। इन्हें लेने से माइग्रेन बढ़ सकता है।

ऐल्कोहल और चॉकेलट के सेवन से भी बचें। इनसे भी सिरदर्द होता है।

बेहद तेल-मसाले वाला खाना और उपवास भी माइग्रेन की परेशानी बढ़ाते हैं इसलिए इससे बचें।

कुछ तरह के चीज, बहुत ज्यादा नमक वाला खाना और प्रोसेस्ड मीट खाने से भी माइग्रेन बढ़ सकता है।

प्रोसेस्ड, डिब्बाबंद और खमीर वाले (पित्जा, बर्गर, कुकीज, भटूरे आदि) फूड आइट्म्स से बचें।

माइग्रेन में इन्हें भी आजमाएं

1. आइस पैक

माइग्रेन की वजह बनने वाली फैली या सूजी मांसपेशियों को रिलैक्स करने के लिए आइस पैक काफी फायदेमंद है। एक साफ टॉवल में आइस के कुछ टुकड़े रखें और उससे सिर, माथे और गर्दन के पीछे 10-15 मिनट सिकाई करें। पिपरमिंट ऑइल की कुछ बूंदें आइस पर डालने से असर जल्दी होता है। जब भी जरूरत लगे, इस्तेमाल करें। आप हॉट और कोल्ड कंप्रेसर को अल्टरनेट भी यूज कर सकते हैं।

2. मसाज

सिर की मसाज करें। पहली 2 उंगलियों से हल्के हाथ से गोल-गोल घुमाकर सिर की मजा करें। सिर के बीच, दोनों भौंहों के बीच और आंखों के कोनों पर स्थित प्रेशर पॉइंट्स को भी दबाएं। तिल के तेल में एक टुकड़ा दालचीनी और 1-2 इलायची डालकर गर्म कर लें। इस तेल से मालिश करें। मालिश दर्द के सिग्नल दिमाग तक पहुंचने में रुकावट पैदा करती है। इससे सिरोटोनिन बढ़ता है, जो दर्द कम करने में मदद करता है।

3. पिपरमिंट

पिपरमिंट में सूजन को कम करने के गुण होते है। साथ ही, यह शांत और स्थिरता का भाव भी पैदा करता है। आप पिपरमिंट चाय पी सकते हैं या फिर पिपरमिंट ऑयल की कुछ बूंदें एक चम्मच शहद के साथ आधे गिलास पानी में मिलाकर भी पी सकते हैं। पिपरमिंट ऑयल से सिर और माथे पर 20-25 मिनट मालिश करने से भी फायदा होता है।

4. सेब का सिरका

ऐपल साइडर विनेगर यानी सेब का सिरका माइग्रेन में राहत दिलाता है। एक गिलास पानी में एक छोटा चम्मच सेब का सिरका और एक चम्मच शहद डालकर पिएं। करीब 30 दिन लगातार पीने से राहत मिलेगी। जब माइग्रेन हो या लगे कि होनेवाला है तो 2-3 चम्मच लें। यह शरीर को साफ करने, शुगर और ब्लड प्रेशर को कंट्रोल, वजन कम करने के अलावा हड्डियों और जोड़ों के दर्द में भी राहत दिलाता है। सेब का सिरका नहीं है तो आप सेब भी खा सकते हैं। ग्रीन ऐपल को सूंघना भी फायदेमंद हो सकता है।

5. अदरक

अदरक भी सिरदर्द में राहत दिलाता है। अदरक का आधा चम्मच रस एक चम्मच शहद तमें मिलाकर खाने से फायदा होता है। चाय में भी अदरक डालकर पी सकते हैं। अदरक का एक टुकड़ा मुंह में रखना भी फायदेमंद है। अदरक का किसी भी रूप में सेवन माइग्रेन में राहत दिलाता है।

नोट: यहां दी गई किसी भी दवा को बिना डॉक्टर की सलाह के न लें।

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इंटरनेट के इस जमाने में फ्रॉड के फंडे में न फंसें

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जमाना ऑनलाइन का है। ई-कॉमर्स भी तेजी से पांव पसार रहा है। ऐसे में ठगों ने भी ऑनलाइन शॉपिंग, बैंक ट्रांजेक्शन से लेकर सोशल मीडिया तक पर अड्डा जमा लिया है। थोड़ी-सी सूझ-बूझ से हम ऐसी किसी भी धोखाधड़ी से बच सकते हैं। जानते हैं, कैसे:

प्रीपेड मोबाइल सर्विस टेलिनोर की इस साल की रिपोर्ट में बताया गया है कि 36 फीसदी लोग कभी-न-कभी ऑनलाइन चीटिंग का शिकार होते हैं। ऑनलाइन बिल पेमेंट करने पर, किसी ई-कॉमर्स साइट से गैजेट खरीदने पर, एटीएम से कैश निकालने पर, यानी आप कभी भी और कहीं भी चीटिंग का शिकार हो सकते हैं। आरबीआई डेटा के मुताबिक, 2015-16 में बैंकों ने एटीएम, क्रेडिट और डेबिट कार्ड्स से संबंधित फ्रॉड के 11,997 मामले दर्ज कराए। ये उन 49,455 मामलों से अलग हैं, जो फिशिंग, स्कैनिंग, हैकिंग आदि से जुड़े हैं। यही नहीं, ऐसे मामलों की संख्या कई गुना ज्यादा है, जिन्हें रिपोर्ट ही नहीं किया जाता।

ऑनलाइन शॉपिंग
इसमें दो राय नहीं कि ऑनलाइन शॉपिंग बेहद सुविधाजनक है, फिर चाहे इलेक्ट्रॉनिक गुड्स खरीदने हों या फिर घर का कोई सामान। दुखद यह है कि ऑनलाइन शॉपिंग में कई तरह की चीटिंग शुरू हो गई हैं। हो सकता है कि आप कुछ ऑनलाइन ऑर्डर करें तो आपके पास प्रॉडक्ट पहुंचे ही नहीं या फिर कोई नकली या टूटा हुआ सामान मिले। आपको खाली पैकेट भी मिल सकता है या फिर पत्थरों से भरा हुआ भी। गाजियाबाद निवासी संतोष कुशवाहा ने 46 हजार रुपये कीमत का आईफोन 6 ऑर्डर किया था। बकौल कुशवाहा, 'पैकेट बिल्कुल सही था। कहीं से कोई टूट-फूट नहीं थी। वजन भी सही था, लेकिन जब मैंने खोला तो उसमें पत्थर भरे हुए थे।'


​दरअसल, यह प्रॉब्लम किसी भी स्टेज पर हो सकती है। इसके लिए आपको सेल और डिलिवरी के प्रोसेस को समझना होगा।फैब इंडिया जैसी कुछ साइट्स सिर्फ अपने प्रॉडक्ट बेचती हैं, वहीं ज्यादातर साइट्स ऐसी हैं जोकि बहुत सारे सेलर्स के लिए प्लैटफॉर्म मुहैया कराती हैं, जैसे कि फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, एमजॉन आदि। यहां पर आप जो ऑर्डर करते हैं, वह प्रॉडक्ट वेबसाइट खुद या फिर सेलर आप तक पहुंचाता है। कुछ साइट स्पेशल सर्विस भी देती हैं, जिसके तहत प्रीमियम प्रॉडक्ट की क्वॉलिटी और डिलिवरी की गारंटी होती है। ये साइट्स दूसरे सेलर से प्रॉडक्ट खरीदती हैं लेकिन क्वॉलिटी चेक करती हैं और खुद ही डिलिवरी कराती हैं। जैसे कि फ्लिपकार्ट जल्द ही एफ-एश्योर्ड लॉन्च करने वाली है, जिसके तहत बेहतर डिलिवरी और क्वॉलिटी सुनिश्चित की जाएगी। इसके अलावा एमजॉन प्राइम भी एक पेड सर्विस है, जोकि तकरीबन 500 रुपये साल भर के लिए देने पर अपने सदस्यों को इसी तरह की सुविधाएं मुहैया कराती है।

कैसे-कैसे धोखे

नकली वेबसाइट:
टेक्नॉलजी की अच्छी समझ रखने वाले ठग कई बार एक जैसे दिखने वाले लोगो और डोमेन नेम के साथ नकली साइट बना लेते हैं, जोकि बिल्कुल असली जैसी दिखती है। इनके जरिए कस्टमरों से पैसा वसूलकर वे गायब हो जाते हैं।
साइट सही, सेलर गलत: अगर आपको प्रोडक्ट नहीं मिला या टूटा-फूटा मिला तो वेबसाइट नहीं, सेलर या कूरियर कंपनी धोखेबाज हो सकती है। हालांकि ये साइट्स खुद भी खरीदारों की रेटिंग और दूसरे तरीकों से सेलर पर निगाह रखती हैं। फिर भी सभी धोखेबाजों को पकड़ पाना मुमकिन नहीं होता।
कूरियर कंपनी का धोखा: हो सकता है कि साइट और सेलर, दोनों सही हों, लेकिन अगर वे सही कूरियर कंपनी नहीं चुनें और पैसे बचाने के लिए सस्ती कंपनी चुन लें तो भी कस्टमर के साथ धोखा हो सकता है।

ऐसे बचें

साइट को चेक करें: अगर आप कोई नई साइट को ट्राई करना चाहते हैं तो सबसे पहले उसका डोमेन नेम जरूर चेक करें। देखें कि यूआरएल में https हो न कि खाली http, फिर साइट की स्पेलिंग भी देखें। यह जानने के लिए यह डोमेन किसके नाम पर है, आप registry.in/WHOIS पर जाकर चेक करें। अगर साइट पर कोई कॉन्टैक्ट डिटेल्स नजर नहीं आएं या फिर रिटर्न पॉलिसी सही नजर नहीं आए तो ऐसी साइट को छोड़ देना ही बेहतर है। आप scamadviser.com पर जाकर कंपनी की ट्रस्ट रेटिंग भी जान सकते हैं। यहां आपको कंपनी की सारी डिटेल्स के अलावा यह जानकारी भी मिल जाएगी कि कंपनी से खरीदारी कितनी सेफ है।

सेलर की रेटिंग देखें: अगर आपने एक नामी साइट को चुना है तो बेहतर है तो प्रोडक्ट अश्योरेंस सर्विस चुनें। अगर आप एक्स्ट्रा पेमेंट नहीं करना चाहते तो खरीदारों के रिव्यू और सेलर की रेटिंग पर गौर जरूर करें। देखें कि प्रॉडक्ट की क्वॉलिटी और डिलिवरी को लेकर लोगों ने उसे अच्छी रेटिंग दी हो। फ्लिपकार्ट के प्रवक्ता के मुताबिक, जिन सेलर्स की रेटिंग सही नहीं होती या फिर जो नकली सामान बेचते पाए जाते हैं, उनके खिलाफ कंपनी सख्त कदम उठाती है।

सिक्युअर पेमेंट: डायरेक्ट पेमेंट से बचें। ईबे पर मौजूद पैसापे (PaisaPay) जैसी सर्विस लें, जोकि यह सुनिश्चित करती है कि सेलर को तब तक वेबसाइट की ओर से पैसा नहीं दिया जाएगा, जब तक कि कस्टमर को प्रॉडक्ट न मिले। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक बैंक ट्रांसफर्स के जरिए भी पेमेंट से बचें क्योंकि एक बार बैंक से पैसा निकलने के बाद उसे वापस पाना मुश्किल होता है। इसी तरह, ऐसे क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करें, जिसकी पेमेंट लिमिट कम हो और जिसे खासतौर पर ऑनलाइन शॉपिंग के लिए ही यूज करते हों। 'कैश ऑन डिलिवरी' भी अच्छा ऑप्शन हो सकता है। बेहतर है कि डिलिवरी लेने और पैकेट खोलने के दौरान विडियो रेकॉर्डिंग करें, वह भी बिना रुके। किसी धोखे की स्थिति में यह विडियो सबूत का काम करेगा और आपका पैसा लौटाने में मदद करेगा।

अगर हो जाए ठगी
सबसे पहले वेबसाइट या सेलर को कॉन्टैक्ट करें। अगर आपने गारंटीशुदा एक्सचेंज या मनी बैक पॉलिसी वाली साइट चुनी है तो फ्रॉड, प्रॉडक्ट की डिटेल्स और पेमेंट के तरीके आदि की जानकारी देते हुए ईमेल लिखें। लेकिन बैंक अकाउंट जैसी संवेदनशील जानकारी न दें। साइट एक तय वक्त के भीतर वेरिफिकेशन कराने के बाद आपको जवाब देगी। अगर साइट जवाब नहीं देती तो आप जिला या स्टेट कंस्यूमर रिड्रेसल फोरम में शिकायत कर सकते हैं। अपनी शिकायत कंस्यूमर कंप्लेंट साइट पर डाल सकते हैं। आप कंपनी के टि्वटर हैंडल पर भी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। साइट अगर नकली है तो हर्जाने की उम्मीद छोड़ दें। मान लें कि आपका पैसा वापस नहीं मिलेगा। हालांकि आप पुलिस को जरूर इन्फॉर्म करें ताकि दूसरे लोग ठगी से बच सकें।

क्या करें, क्या नहीं
- नामी रिटेलर से ही शॉपिंग करें, जिसकी एक्सचेंज और रिटर्न पॉलिसी बिल्कुल साफ हों। पॉलिसी को अच्छी तरह से पढ़ लें।
- सिर्फ कम कीमत देखकर शॉपिंग न करें। सेलर की रेटिंग और खरीदारों के रिव्यू जरूर पढ़ें।
- बैंक ट्रांसफर के जरिए खरीदारी न करें। क्रेडिट कार्ड या कैश ऑन डिलिवरी के जरिए खरीदें।
- अगर फायरवॉल्स या एंटी-वायरस सॉफ्टवेयर नहीं है तो मोबाइल फोन से शॉपिंग न करें।
- डिलिवरी और पैकेट को खोलने के दौरान बिना रुके विडियो बनाएं ताकि पैकेट में क्या निकलता, यह रेकॉर्ड हो सके।

सोशल मीडिया
सोशल मीडिया जैसे कि फेसबुक, माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर, चैटिंग साइट्स, ऑनलाइन कंस्यूमर कंप्लेंट, चैरिटी और क्राउडफंडिंग वेबसाइटस ने धोखेबाजों की एक नई फौज खड़ी कर दी है। ये लोग इन साइट्स पर मौजूद लोगों की पर्सनल जानकारी का फायदा उठाते हैं।

कैसे करते हैं चीटिंग
कुछ ऐसी ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स हैं, जिन पर आपको फेसबुक या ईमेल के जरिए लॉगइन करना होता है। फ्रॉड करने वालों के लिए यह आसान एंट्री पॉइंट हो सकता है और वे आपकी बैंक डिटेल्स, फोन नंबर, ईमेल लॉगिन, पासवर्ड आदि चुराकर आपको चूना लगा सकते हैं।

सोशल मीडिया: यहां अपने दोस्तों के दोस्तों से भी सावधान रहें। हो सकता है कि कोई आपके दोस्त का अकाउंट हैक कर उसके नाम से एक डुप्लिकेट अकाउंट बना ले और फिर उसकी फ्रेंड लिस्ट में शामिल लोगों से मदद के नाम पर पैसा मांगे। ऐसे में कई बार लोग दोस्त समझ कर पैसा दे देते हैं, जबकि कोई ठग दोस्त के नाम पर फर्जी अकाउंट से पैसा वसूल रहा होता है।

कंप्लेंट फोरम: ध्यान रखें कि किसी साइट पर कंप्लेंट करते हुए गोपनीय जानकारी शेयर न करें। नोएडा की आरती मेहता बताती हैं, 'मैंने ऑनलाइन शॉपिंग साइट को गलती से एक गलत बैंक अकाउंट नंबर दे दिया था। इसके बारे में मैंने कंप्लेंट दी। मुझे एक शख्स का फोन आया और उसने दावा किया कि वह साइट की ओर से बोल रहा है और उसे सही बैंक अकाउंट नंबर दे दूं ताकि रिफंड हो सके। मुझे कोई शक नहीं हुआ और मैंने नंबर उसे दे दिया। इसके फौरन बाद मेरा अकाउंट खाली हो गया। शुक्र है कि उसमें ज्यादा पैसे नहीं थे।'

क्राउड फंडिंग और चैरिटी: हालांकि किसी की मदद करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन आजकल लोग चैरिटी के नाम पर भी खूब फ्रॉड कर रहे हैं। 26 फरवरी 2016 को इंडियन अमेरिकन मनीषा नागरानी को अपने कैंसर के इलाज के नाम पर हजारों डॉलर जमा करने के लिए अमेरिका में गिरफ्तार किया गया। असल में मनीषा को कोई बीमारी नहीं थी। लेकिन उसने कैंसर के इलाज के नाम पर लोगों से बड़ी रकम वसूल ली।
डेटिंग में धोखा: हालांकि यह ज्यादा विदेश में होता है लेकिन इंडिया के लिए भी पूरी तरह नया नहीं है। अगर आप किसी से डेटिंग साइट पर मिलें और सामने वाला शख्स आपसे मिलने या बीमारी या किसी और नाम पर रकम मांगें तो सावधान हो जाएं।

ऐसे बचें
इस तरह के मामलों में नुकसान की भरपाई के लिए आपके पास कानूनी अधिकार नहीं होते और रकम मिलने के चांस भी कम ही होते हैं क्योंकि पैसा या जानकारी आपने खुद ही मुहैया कराई होती है। ऐसे में बचाव ही बेहतर है। बिना यह जाने कि आपका पैसा कैसे इस्तेमाल होगा, किसी को पैसा न दें। चैरिटी के लिए पैसा देते हुए भी ध्यान रखें कि सिक्योर पेमेंट चैनल के जरिए ही पैसा दें।

क्या करें, क्या नहीं
- सोशल मीडिया पर अनजान शख्स से दोस्ती न करें।
- सोशल मीडिया साइट्स पर पर्सनल फाइनैंशल डिटेल्स की जानकारी न दें।
- अपने दोस्त के दोस्त (जिसे आप जानते न हों) को बिना अपने दोस्त से पूछे पैसा न दें।
- कंप्लेंट साइट्स पर बैंक डिटेल्स या दूसरी अहम जानकारी शेयर न करें।
- सोशल साइट पर मदद मांगने वाले किसी की भी मदद दूसरे मददगार लोगों से जानें बगैर न करें।

बैंक ट्रांजेक्शन
आरबीआई के मुताबिक, बैंक संबंधी फ्रॉड के मामले 2012-13 में 8,765 दर्ज किए गए जोकि 15-16 में बढ़कर 11,997 हो गए। एसबीआई कार्ड के सीईओ विजय वसूजा के मुताबिक, चिप एंड पिन सिक्योरिटी फीचर जोड़ने के बाद क्रेडिट कार्ड्स संबंधी फ्रॉड के मामलों में काफी कमी आई है। फिर भी यहां धोखे की काफी गुंजाइश होती है।

कैसे करते हैं ठगी

ऑनलाइन चोरी: ई-शॉपिंग या बिल पेमेंट के दौरान अगर आप सेफ वेबसाइट या पेमेंट चैनल नहीं चुनते हैं तो ठग आपकी कार्ड संबंधी जानकारी चुरा सकते हैं। आपको एक नकली साइट की ओर मोड़ा जा सकता है या आपका डेटा कीस्ट्रोक लॉगिंग के जरिए कॉपी किया जा सकता है। ऑनलाइन शॉपिंग के लिए यूज किए गए आपके बैंक अकाउंट, क्रेडिट कार्ड नंबर, सीवीवी नंबर आदि को धोखेबाज चुरा सकते हैं। साथ ही, आपके कंप्यूटर में वायरस भी डाल सकते हैं जो आपके ईमेल में मौजूद सारी जानकारी हासिल कर सकता है। अगर आपने अपने कंप्यूटर या लैपटॉप पर पासवर्ड या लॉग-इन आईडी सेव किए हैं तो डेटा चोरी होने की आशंका ज्यादा है।

सिम स्वाइप फ्रॉड: यह एक नई तकनीक है। इसमें धोखेबाज आपका एक नकली आईडी प्रूफ लेकर मोबाइल ऑपरेटर के पास जाता है और आपके नाम का डुप्लिकेट सिम कार्ड हासिल कर लेता है। ऑपरेटर आपका ऑरिजिनल सिम डी-एक्टिवेट कर देता है। धोखेबाज आपके फोन के जरिए वन टाइम पासवर्ड (OTP) बनाता है और ऑनलाइन ट्रांजेक्शन कर लेता है। ऐसे में सावधान रहें। बिना वजह लंबे समय तक मोबाइल की घंटी न बजे तो सतर्क हो जाएं।

झूठे कॉल्स और ईमेल्स: फोन कॉल करके कस्टमर का सीवीवी नंबर या ओटीपी जुटाना और फिर पैसे निकाल लेना, इस तरह की घटनाएं पिछले कुछ वक्त में काफी बढ़ गई हैं। नोएडा के सुधीर मोहन का कहना है कि पिछले साल मेरे पास कथित तौर पर सिटी बैंक से एक कॉल आया। कॉल करने वाले शख्स का कहना था कि मेरे पॉइंट एक्सपायर होने वाले हैं और वह उन्हें नए कार्ड में ट्रांसफर करना चाहता है। इसके लिए उसे मेरे पुराने कार्ड के सीवीवी नंबर की जरूरत है। मुझे लगा कि कोई चीटिंग कर रहा है इसलिए मैंने गलत नंबर दे दिया। एक महीने बाद दोबारा ऐसा ही कॉल आया। तब मोहन ने बैंक को कॉल करके नंबर बदलवा लिया। इसी तरह ऐसा कोई कॉल जिसमें अकाउंट या पिन से संबंधित अहम जानकारी मांगी जाए, उससे भी सावधान रहें।

मोबाइल फोन ऐप्स: ऐसे कई ऐप हैं, जो आपके फोन पर मौजूद डेटा तक पहुंच मांगते हैं। ऐप डाउनलोड करते वक्त ध्यान रखें कि वह सेफ हो क्योंकि इसी तरह कई धोखेबाज आपके फोन में जमा जानकारी को हथिया लेते हैं। फोन की सेटिंग्स में जाकर आप यह तय कर सकते हैं कि कोई ऐप आपसे कौन-सी जानकारी ले सकता है। अनजान-से ऐप चाहे, वे कितने भी आकर्षक क्यों न हों, डाउनलोड न करें।

पब्लिक टर्मिनल और वाई-फाई: अगर आप पब्लिक एरिया में लैपटॉप यूज करते हैं या पब्लिक वाई-फाई के जरिए मोबाइल ट्रांजेक्शन करते हैं तो इसके जरिए कोई आपके क्रेडिट कार्ड की डिटेल्स चुरा सकता है। अनसेफ सर्फिंग से बचें। मुफ्त डेटा के लालच में न पड़ें।

एटीएम से पैसा निकालना: कई बार एटीएम पर ठग छुपे हुए कैमरे लगाकर रखते हैं और इससे पिन नंबर आदि चुरा लेते हैं। इसके अलावा कई बार वे एटीएम को जाम भी कर देते हैं। इससे कस्टमर पिन और दूसरी डिटेल्स डाल देता है लेकिन पैसे नहीं निकल पाते और धोखेबाज बाद में पैसे निकालकर ले जाते हैं।

ऐसे बचें
अपने फोन और कंप्यूटर पर प्रोटेक्टिव फीचर लगाकर रखें। ऐसे ही कुछ कदम हैं:

एसएमएस और ईमेल अलर्ट के लिए रजिस्टर करें: इससे आपको हर ट्रांजेक्शन की जानकारी मिल सकेगी। अगर आपकी जानकारी के बगैर किसी ने ट्रांजेक्शन किया है तो उसकी जानकारी भी आपको मिल जाएगी। ऐसा होने पर बैंक के कस्टमर केयर नंबर पर कॉल करें। अगर बिना वजह के अचानक फोन बंद हो जाए तो अपने मोबाइल ऑपरेटर से बात करें। हो सकता है कि किसी ने आपके नाम से डुप्लिकेट सिम हासिल कर लिया हो और आपका सिम बंद कर दिया गया हो।

डिटेल्स शेयर न करें: अपना नेट बैंकिंग पासवर्ड, एटीएम या फोन पिन किसी के भी साथ शेयर न करें। आपको पता होना चाहिए कि बैंक या क्रेडिट कार्ड से जुड़े किसी भी अधिकारी को कार्ड की डिटेल्स जानने का हक नहीं है।

सीवीवी छुपाएं: किसी साइट पर सीवीवी डालते वक्त ध्यान रखें कि स्क्रीन पर नंबर नजर न आएं, सिर्फ स्टार ही दिखें। खासकर विदेशी साइट्स पर पेमेंट करते हुए इस बात का जरूर ध्यान रखें क्योंकि वहां वेरिफिकेशन और अप्रूवल के लिए सीवीवी ही अकेला जरिया होता है। वेबसाइट पर पेमेंट करते हुए वर्चुअल कीबोर्ड यूज करें और एटीएम यूज करते हुए कीपैड को हाथ से ढक कर रखें।

साइट्स पर डिटेल्स सेव न करें: किसी भी वेबसाइट, सर्वर, मोबाइल या डेस्कटॉप पर क्रेडिट कार्ड्स की डिटेल्स सेव न करें।

अगर हो जाए ठगी
जैसे ही आपको पता लगे कि आपके साथ चीटिंग हुई है, बैंक को कॉल कर कार्ड बंद करवा दें। फिर लिखित शिकायत करें। बैंक को 30 दिन के अंदर आपको जवाब देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हो तो आप बैंकिंग ओम्बड्समैन को शिकायत करें। अगर यहां भी मसला सॉल्व न हो तो डिस्ट्रिक्ट कंस्यूमर रिड्रेसल फोरम और फिर कोर्ट में शिकायत करें।

क्या करें, क्या नहीं
- पब्लिक प्लैटफॉर्म पर अपना फोन नंबर न दें, न ही पब्लिक टर्मिनल्स पर ट्रांजेक्शन करें।
- अगर आप घर बदलते हैं तो बैंक को जानकारी दें ताकि कार्ड्स या स्टेटमेंट सही एड्रेस पर पहुंचें।
- अपना कार्ड स्टेटमेंट चेक करें। अगर कोई गैर-वाजिब चार्ज नजर आता है तो बैंक को जानकारी दें।
- मुमकिन हो तो बैंक के अंदर लगे एटीएम का ही यूज करें।
- अगर एटीएम में कार्ड अटक जाए या कैश न निकले या फिर कोई और गड़बड़ी हो तो चुपचाप चले न जाएं। सिक्योरिटी गार्ड को बताएं और बैंक में भी कॉल कर डिटेल्स दें।

फोन कॉल्स और ईमेल्स
फोन कॉल और ईमेल के जरिए किसी से चीटिंग करना सबसे आसान हो गया है। अगर धोखा देने वाले शख्स में कॉन्फिडेंस है और अच्छी बातचीत की काबिलियत है तो वह आसानी से आपको अपनी बातों में फंसा सकता है। ईमेल्स पर भी लॉटरी आदि के जरिए आपका पैसा चुराना काफी आसान हो गया है। इनमें से ज्यादातर बड़े इनाम या गिफ्ट का झांसा देकर कुछ रकम जमा करने की बात करते हैं और अक्सर लोग इनके झांसे में फंस भी जाते हैं।

ऐसे करते हैं ठगी
अगर आपको ऐसी कोई कॉल आए जिसमें आपसे कहा जाए कि आपकी एक भूली-बिसरी पॉलिसी मच्योर होने वाली है और आपको वह पैसा पाने के लिए कुछ रकम जमा करनी होगी तो समझ जाएं कि यह फ्रॉड कॉल है।

वर्क फ्रॉम होम ऑफर: टेलिनॉर सर्वे के मुताबिक इंटरनेट स्कैम में यह सबसे कॉमन है और धोखाधड़ी के 39 फीसदी मामले इसी के नाम पर होते हैं। इसमें आपको एक अच्छा जॉब ऑफर बताकर उसमें इनरॉल करने के नाम पर कुछ रकम जमा करने को कहा जाता है। जैसे ही आप रकम जमा करा देते हैं, वह शख्स गायब हो जाता है।

फ्री गिफ्ट्स और लोन: इसमें आमतौर पर आपके द्वारा ऑफलाइन किसी शॉप आदि पर दी गई जानकारी का इस्तेमाल किया जाता है। इसके तहत आपको एक स्पेशल कस्टमर बताते हुए आपको फ्री गिफ्ट ऑफर किया जाता है। इसके बदले में पहले आपसे कुछ रकम जमा करने को बोला जाता है। इसी तरह इंटरेस्ट फ्री लोन ऑफर्स पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए।

बैंकिंग कॉल्स: अगर आपके पास कोई कॉल आए और यह दावा किया जाए कि आपका पिन डी-एक्टिवेट किया जा रहा है या अकाउंट बंद किया जा रहा है और इसे जारी रखने के लिए आपको अपने बैंक या कार्ड से संबंधित जानकारी मुहैया करानी होगी तो इस कॉल को नजरअंदाज कर दें। कोई बैंक ऐसा नहीं करता। नए क्रेडिट कार्ड या पॉइंट्स को भुनाने के नाम पर भी धोखा हो सकता है।

ऐसे बचें
शॉपिंग पैकेज या गिफ्ट के लालच में मॉल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स आदि पब्लिक प्लेस पर पर्सनल डिटेल्स शेयर न करें। किसी ऐप्लिकेशन फॉर्म, फोन या ईमेल में अपनी फाइनैंशल या पर्सनल डिटेल्स की जानकारी न दें। इसी तरह अनजान एड्रेस से आनेवाली ईमेल्स या अनजान नंबर से आनेवाले एसएमएस का जवाब न दें, न ही ऐसी किसी मेल का जवाब दें जिस पर फौरन एक्शन या अटेंशन देने की बात कही गई हो। सचेत रहकर ही आप अपनी मेहनत की कमाई को बचा सकते हैं।

क्या करें, क्या नहीं
- पहला कॉल आने के बाद ही किसी स्कीम या प्रॉडक्ट के लिए पेमेंट न करें।
- अगर कॉलर खास जानकारी हासिल करना चाहे तो उसे क्रॉस क्वेश्चन जरूर करें।
- अगर कोई मेल कुछ ज्यादा ही अच्छा लगे जैसे कि लॉटरी या फ्री गिफ्ट तो उस पर यकीन न करें।
- अगर कोई मेल या कॉल आपको फीस या किसी दूसरे नाम पर पैसा मांगता है तो यह स्कैम हो सकता है।
- अनजान नंबरों से आनेवाली कॉल्स को इग्नोर करें और कॉल बैक भी न करें।

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ऑर्गैनिक फूड है सेहत के लिए गुड, होते हैं ये फायदे

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हेल्थ का सीधा रिश्ता डाइट से है। हेल्दी रहने के लिए लोग अब तेजी से ऑर्गैनिक फूड अपना रहे हैं। इसे सेहत के लिहाज से काफी अच्छा माना जाता है। ऑर्गैनिक फूड के तमाम पहलुओं के बारे में एक्सपर्ट्स से बात कर जानकारी दे रही हैं गुंजन शर्मा:-

क्या है ऑर्गैनिक फूड

ऑर्गैनिक फूड वे फूड आइट्म होते हैं, जो केमिकल-फ्री होते हैं। इनमें किसी तरह के पेस्टिसाइड्स या रासायनिक खाद इस्तेमाल नहीं होती। इन फल और सब्जियों की उपज के दौरान उनका आकार बढ़ाने या वक्त से पहले पकाने के लिए किसी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इसे जैविक खेती भी कहा जाता है। ऑर्गैनिक फूड ऑर्गैनिक फार्म में उगाए जाते हैं। वैसे, आम फूड आइटम्स और ऑर्गैनिक फूड आइटम्स के बीच फर्क कर पाना मुश्किल है क्योंकि रंग और आकार में ये एक जैसे ही दिखते हैं।

ऐसे पहचानें

बाजार में तमाम तरह के फल और सब्जियां उपलब्ध हैं, जो देखने में कुछ ज्यादा ही फ्रेश लगते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे ऑर्गैनिक हैं। ऑर्गैनिक फूड आइटम्स सर्टिफाइड होते हैं या छपे होते हैं। इन पर सर्टिफाइड स्टिकर्स लगे होते हैं या छपे होते हैं। इनका स्वाद भी नॉर्मल फूड से थोड़ा अलग होता है। ऑर्गैनिक मसालों की गंध नॉर्मल मसालों की तुलना में तेज होती है। इसी तरह ऑर्गैनिक सब्जियां गलने में ज्यादा टाइम नहीं लेतीं। जल्दी पक जाती हैं।

ये हैं खासियतें

ऑर्गैनिक फूड्स में आमतौर पर जहरीले तत्व नहीं होते क्योंकि इनमें केमिकल्स, पेस्टिसाइड्स, ड्रग्स, प्रिजर्वेटिव जैसी नुकसान पहुंचाने वाली चीजों का इस्तेमाल नहीं किया जाता। आम फूड आइटम्स में पेस्टिसाइड्स यूज किए जाते हैं। ज्यादातर पेस्टिसाइड्स में ऑर्गेनो-फॉस्फोरस जैसे केमिकल होते हैं, जिनसे कई तरह की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

ये सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। पारंपरिक फूड के मुकाबले ऑर्गैनिक फूड आइटम्स में 10 से 50 फीसदी तक अधिक पौष्टिक तत्व होते हैं। इसमें विटमिन, मिनरल्स, प्रोटीन, कैल्शियम और आयरन भी ज्यादा होते हैं। इनमें मौजूद न्यूट्रिशंस दिल की बीमारी, माइग्रेन, ब्लड प्रेशर, डायबीटीज और कैंसर जैसी बीमारियों से बचाते हैं।

ऑर्गैनिक फार्म्स में उपजाए जाने वाले फलों और सब्जियों में ज्यादा ऐंटि-ऑक्सिडेंट्स होते हैं क्योंकि इनमें पेस्टिसाइड्स नहीं होते इसलिए ऐसे पोषक तत्व बरकरार रहते हैं जो आपकी सेहत के लिए अच्छे हैं और आपको बीमारियों से बचाते हैं।

ये शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और स्किन में निखार लाने में मदद करते हैं। ये शरीर में चर्बी नहीं बढ़ने देते क्योंकि ऑर्गैनिक फूड को प्रोसेस्ड करते वक्त सैचुरेटेड फेट का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इनसे मोटापा नहीं बढ़ता। ये सुरक्षित भी लंबे समय तक रहते हैं।

ऑर्गैनिक फूड में आम तरीके से उगाई जानेवाली फसल के मुकाबले ज्यादा पोषक तत्व होते हैं क्योंकि इन्हें जिस मिट्टी में उगाया जाता है, वह अधिक उपजाऊ होती है।

ऑर्गैनिक खेती शुरू करने से पहले जमीन को 2 साल के लिए खाली छोड़ा जाता है ताकि मिट्टी में पहले से मिले पेस्टिसाइड्स का असर पूरी तरह खत्म हो सकते। इस वजह से इन उत्पादों में विटमिन और मिनरल अधिक होते हैं।

आजकल लोगों में ऐंटि-बायॉटिक को लेकर प्रतिरोध बढ़ रहा है। इसकी वजह जरूरत न पड़ने पर भी ऐंटि-बायॉटिक लेने के अलावा उन चीजों का सेवन भी है, जो हम खाते हैं क्योंकि उन्हें खराब होने से बचाने के लिए ऐंटि-बायॉटिक दिए जाते हैं। जब हम ऐसी चीजों को खाते हैं तो हमारा इम्यून सिस्टम कमजोर होता है। ऑर्गैनिक फूड्स की वजह से इस नुकसान से हम बच जाते हैं।

ऑर्गैनिक मीट ऐसे जानवरों का होता है, जिन्हें हेल्दी तरीके से पाला गया होता है।

बरकरार रखें फायदा

सही तरीके से पकाने पर ही ऑर्गैनिक फूड फायदा करते हैं। अगर आप ऑर्गैनिक सब्जियों से जंक फूड (पित्जा, बर्गर, फ्रेंच फ्राइज आदि) या तला-भुना खाना बना रहे हैं तो उसके पोषक तत्व भी कम हो जाएंगे। ऑर्गैनिक फूड को ऑइली बनाकर या इन्हें जंक फूड में तब्दील करके इसके मिनरल्स और विटमिन को नष्ट न करें।

कुछ बड़े ब्रैंड्स

ऑर्गैनिक इंडिया (Organic India)

प्योर ऐंड श्योर (Pure and Sure)

फैब इंडिया (Fab India)

नवधान्या (Navdanya)

डाउन टु अर्थ (Down to Earth)

24 मंत्रा (24 Mantra)

ग्रीन सेंस (Green Sense)

सात्विक (Sattvic)

सन ऑर्गेनोफूड्स (Sun Organofoods)

ऑर्गैनिका (Organica)

सनराइज (Sunrise)

ऑर्गैनिक तत्वा (Organic Tattva)

विजन फ्रेश (Vision Fresh)

(इनके अलावा भी मार्केट में बड़े ब्रैंड्स हैं।)

नजदीकी स्टोर कैसे पता लगाएं

इंटरनेट पर इनका नाम सर्च करके इनकी वेबसाइट से अपने नजदीकी स्टोर का पता लगा सकते हैं। organicfacts.net.in और organicshop.in आदि साइट्स पर आपको देश के विभिन्न ज्यादातर सभी ऑर्गैनिक फूड स्टॉल्स की जानकारी मिल सकती है। आप अपनी सुविधा के मुताबिक चुन सकते हैं। वैसे, बिग बाजार, स्पेंसर्स, ईजी डे, रिलायंस, हाइपर सिटी आदि बड़े रिटेल स्टोर्स पर भी ऑर्गैनिक फूड मिलते हैं।

ये फूड आइटम हैं ज्यादा पॉप्युलर

ऑर्गैनिक फूड आइटम्स में सीजनल फल और सब्जियों की ज्यादा डिमांड होती है, जैसे कि गर्मियों में तरबूज, खरबूज, आम और सब्जियों में टिंडा, तोरी और लौकी आदि। इसके अलावा मसाले, दाल, चावल, आटा, शहद, ग्रीन टी, हर्ब्स, नारियल तेल और जैतून के तेल (ऑलिव ऑइल) की डिमांड भी बढ़ रही है। जहां तक ब्रैंड्स की बात है तो मार्केट में कई नाम से ऑर्गैनिक फूड उपलब्ध हैं।

कीमत क्यों ज्यादा

ऑर्गैनिक फूड आइटम्स की पैदावार नॉर्मल फूड आइटम्स के मुकाबले कम है और मांग ज्यादा है इसलिए बाजार में इनके रेट नॉर्मल फूड आइटम्स के मुकाबले ज्यादा होते हैं। आमतौर पर ज्यादातर किसान जैविक खेती की बजाय पारंपरिक तरीके से ही खेती करते हैं। इसके अलावा इनका सर्टिफिकेशन भी महंगा होता है और सब्सिडी भी नहीं मिलती। लेकिन ध्यान रखें कि बरसों तक खाने में पेस्टिसाइड और केमिकल्स खाने के बाद खराब होने वाली सेहत के सामने ऑर्गैनिक फूड की कीमत ज्यादा नहीं है।

ऐसे बढ़ें ऑर्गैनिक की ओर

अक्सर लोग चाहकर भी ऑर्गैनिक फूड्स शुरू नहीं कर पाते। वजह फेवरिट ब्रैंड का स्वाद, पास की ग्रॉसरी शॉप पर इन फूड आइट्म्स का उपलब्ध न होना और महंगा होना आदि हो सकती है। आप इन आसान स्टेप्स को अपना कर ऑर्गैनिक सफर शुरू कर सकते हैं:-

पूरी ग्रॉसरी लिस्ट को बदलने की न सोचें। थोड़े से शुरू करें। मसलन पहले चावल से शुरू करें। रेड, ब्राउन या बिना पॉलिश वाला, कोई भी चावल चुनें और हफ्ते में कम-से-कम 2 बार यह वाला चावल खाएं। फिर धीरे-धीरे संख्या बढ़ा दें। ब्राउन राइस ज्यादा पौष्टिक होता है और लंबे समय तक पेट भरा होने का अहसास कराता है। यह वजन कम करने में भी मदद करता है। इसी तरह वाइट शुगर के बजाय गुड़, शक्कर या खांड का इस्तेमाल शुरू करें। इनमें आयरन ज्यादा मात्रा में होता है और रिफाइन नहीं होने की वजह से ये हेल्थ को नुकसान भी नहीं पहुंचातीं।

मौसमी हरी सब्जियों जैसे कि पालक, मेथी, चौलाई, पुदीना, धनिया आदि से शुरू करें। मौसमी होने की वजह से इन्हें खाना यूं भी सेहत के लिए अच्छा है।

ऑर्गैनिक को अपनी पूरी लाइफस्टाइल में शामिल करें। ऑर्गैनिक साबुन, लोशन और नॉन-सिंथेटिक टूथपेस्ट को शुमार करें। अगर बाल कलर करते हैं तो केमिकल-फ्री प्रॉडक्ट यूज करें। इस तरह आप शरीर पर केमिकल के लोड को कम कर पाएंगे।

अपने खानपान में हल्का बदलाव करके भी आप ऑर्गैनिक लाइफ की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। मसलन, वाइट राइस के बजाय ब्राउन राइस खाना शुरू करें।

इन्हें ऑर्गैनिक खरीदना जरूरी नहीं

सारे फूड आइटम्स को ऑर्गैनिक खरीदने की जरूरत नहीं होती क्योंकि उनका छिलका इतना मोटा होता है कि पेस्टिसाइड आसानी से अंदर नहीं जा पाते। वैसे भी ये नॉर्मल फूड से महंगे होते हैं, इसलिए हम कुछ फूड आइट्म्स को नॉर्मल भी खा सकते हैं:-

प्याज: इनमें या तो पेस्टिसाइड डाले नहीं जाते या फिर बहुत कम डाले जाते हैं। इनका ऊपरी छिलका उतारा ही जाता है इसलिए पेस्टिसाइड प्याज को नुकसान नहीं पहुंचा पाता।

भुट्टा: भुट्टे के ऊपर कई लेयर होती हैं इसलिए पेस्टिसाइड भुट्टे के दानों तक नहीं पहुंच पाता। बस ताजा भुट्टा खरीदें और उसे उबाल या भूनकर खाएं।

पाइनऐपल: इसके ऊपर की मोटी लेयर इसे किसी भी तरह के किटाणु और पेस्टिसाइड से बचाती है।

मटर: मटर का ऊपरी खोल उसके दानों को बचाए रखता है। इसलिए ऐसी मटर खरीदें, जिनकी ऊपरी परत बिल्कुल सही सलामत हो।

शकरकंद: ये जमीन के नीचे उगती हैं और पेस्ट या पेस्टिसाइट से प्रभावित होने की आशंका कम होती है। ये सुपरफूड हैं और इन्हें खाने के कई फायदे हैं।

नारियल: नारियल के ऊपर न सिर्फ मोटी परत होती है, बल्कि इसका खोल भी काफी मोटा होता है। ऐसे में यह पेस्टिसाइड के खराब असर से पूरी तरह बचा रहता है।

ये भी जानें

जिन चीजों पर नेचरल या फार्म फ्रेश लिखा हो, जरूर नहीं कि वे ऑर्गैनिक हों। ये अपने आप में प्रिजर्वेटिव-फ्री हो सकते हैं लेकिन हो सकता है कि इनमें ऐसी सामग्री हो, जिसमें पेस्टिसाइड डाला गया हो या वे जेनिटिकली मॉडिफाइड हों।

डीडीटी जैसे पेस्टिसाइड्स बरसों तक हवा और मिट्टी में मौजूद रहता है। यह नर्वस सिस्टम पर असर डालता है और ब्रेस्ट कैंसर की वजह बन सकता है। इसलिए पेस्टिसाइड्स से जितना दूर रहें, अच्छा है।

अगर ऑर्गैनिक चिप्स, ऑर्गैनिक सोडा या ऑर्गैनिक कुकीज खाएंगे तो सेहत को फायदे के बजाय नुकसान ही होगा।

ऑर्गैनिक फूड की कीमत नॉर्मल फूड आइट्स के मुकाबले करीब 40-50 फीसदी तक ज्यादा होती है।

हर महीने करीब 1200 से 1500 रुपये एक्स्ट्रा की जरूरत पड़ती है ऑर्गैनिक फूड खाने पर।

किसी भी ऑर्गैनिक फूड आइटम को खरीदने से पहले उस पर लिखी सामग्री गौर से पढ़ें क्योंकि कई बार ऑर्गैनिक फूड्स में भी चीनी, नमक, फैट और कैलरी काफी ज्यादा होती हैं।

नॉर्मल फूड को बनाएं सेफ

अगर आप ऑर्गैनिक फूड की बजाय नॉर्मल फूड खा रहे हैं तो कुछ चीजों का ध्यान रखें:-

किसी एक स्टोर के बजाय अलग-अलग जगहों से और अलग-अलग ब्रैंड के फूड आइट्म खरीदें। इससे आप को बेहतर न्यूट्रिएंट मिल पाएंगे। साथ ही कोई एक पेस्टिसाइड लगातार आपके शरीर में जाने से बच जाएगा।

सीजनल फल और सब्जियां खरीदें। लोकल फार्मस मार्केट से खरीदारी करें।

दालों को बहते पानी में अच्छी तरह धोएं। करीब आधे घंटे भिगोकर रखें और इस पानी को फेंक दें। फिर ताजे पानी में उबालें।

एक लीटर पानी में 1 मिलीलीटर पोटैशियम परमैग्नेट मिलाकर घोल बनाएं। फलों और सब्जियों (खासकर पत्तेदार सब्जियों) को इस घोल में 15-20 मिनट तक भिगोकर रखें। ऐसा करने से इनमें मौजूद हानिकारक केमिकल्स निकल जाते हैं। पोटैशियम परमैग्नेट अगर सॉलिड फॉर्म में है तो 1 लीटर पानी के लिए 1 ग्राम काफी रहेगा।

पोटैशियम परमैग्नेट वैसे तो नजदीकी केमिस्ट से मिल जाएगा। ना मिले तो कम-से-कम 1 चम्मच नमक मिले पानी में जरूर फल और सब्जियों को 30 मिनट के लिए डुबोकर रखें।

घर में बनाएं ऑर्गैनिक गार्डन

ऑर्गैनिक गार्डनिंग करके आप अपने घर में ही फ्रेश फल-सब्जियां उगा सकते हैं। यह इन्वाइरनमेंट के लिए तो सुरक्षित है, इसमें खर्चा भी कम आता है क्योंकि इनमें महंगे खाद और कीटनाशकों की जरूरत नहीं होती। आप अपने गार्डन के छोटे से हिस्से में जहां धूप आती हो, वहां आसानी से खेती कर सकते हैं। अगर आपके पास सही औजार और उपजाऊ मिट्टी है तो छोटे-से ऑर्गैनिक गार्डन को मेंटेन रखना बहुत आसान है।

कम जगह से शुरुआत

जब भी इस तरह की गार्डनिंग करने की सोचें तो शुरुआत छोटी जगह से करें। इसे मेंटेन करना आसान होगा और खर्च भी कम आएगा। अगर 4x4 फुट का गार्डन बनाते हैं तो इसमें कई तरह की सब्जियां और हर्ब्स उगा सकते हैं। जरूरत से ज्यादा पौधे न लगाएं।

पौधों का चयन

कुछ पौधे जैसे टमाटर आदि दूसरी सब्जियों के मुकाबले नाजुक और जल्द खराब होने वाले होते हैं। इस समस्या को कम करने के लिए रोग-प्रतिरोधी (डिसीज रेजिस्टेंट) किस्मों का चयन करें। ऐसे बीज के पैकेट पर 'रोग-प्रतिरोधक' लिखा होता है। ऑर्गैनिक गार्डनिंग की सफलता मिट्टी की किस्म पर निर्भर है। इस बात का ध्यान रखें कि जिस मिट्टी में आप गार्डनिंग करना चाहते हैं, वह हेल्दी और उपजाऊ हो। इसमें नियमित रूप से ऑर्गैनिक खाद (नीम पत्ती चूरा या गोबर की खाद) डालकर उसे नम रखें। ध्यान रखें कि मिट्टी नम हो और उसमें घास-फूस न हों। गार्डन में लगे दूसरे पौधे इस मौसम में तेजी से बढ़ जाते हैं इसलिए समय-समय पर इनकी कटाई-छंटाई करते रहें। इसके अलावा गमलों और गार्डन में फालतू पानी भी जमा नहीं होने दें। मौसमी फलों और सब्जियों की जानकारी रखें। अगर थोड़ी-बहुत फालतू घास या दूसरे पौधे निकल आते हैं तो उनसे परेशान न हों। सबसे जरूरी है कि आप अपने गार्डन का प्राकृतिक चक्र बनाए रखें। चिड़ियां, केंचुए और कीट-पतंगों को गार्डन में आने दें। इनमें से कुछ जीव आपके गार्डन के लिए काफी फायदेमंद हो सकते हैं।

अगर कीड़ा लग जाए

पौधों में अगर कीड़ा या फफूंद लग जाए तो ऑर्गैनिक पेस्टिसाइड्स का इस्तेमाल करें। पौधों में कीड़े लगने पर नीम के तेल या नीम वाले पेस्टिसाइड का इस्तेमाल करें। 5 मिली दवा को एक लीटर पानी में घोलकर प्रभावित जगह पर स्प्रे करें। इसके अलावा कई बार फफूंद भी लग जाती है। इसके लिए फफूंदनाशी ट्राईकोडर्मा वीरडी का इस्तेमाल करें। ट्राईकोडर्मा वीरडी दवा पाउडर के रूप में आती है। 2 ग्राम पाउडर को एक लीटर में पानी में घोलकर स्प्रे करें। हालांकि बुवाई से पहले अगर बीजों को बीजामृत से ट्रीट कर लें तो कीट, बीमारी या फफूंद लगने का खतरा काफी कम हो जाता है।

पौधा सूखने लगें तो क्या करें

पौधों के सूखने की वजह अलग-अलग हो सकती है, जैसे पौधों में न्यूट्रिशंस की कमी होना, दीमक या किसी कीड़े का पौधों में लग जाना आदि। ऐसे में किसी विशेषज्ञ की सलाह से ही दवा का इस्तेमाल करें।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. राकेश कुमार, ऐग्रो साइंटिस्ट, इंडियन काउंसिल ऑफ ऐग्रिकल्चरल रिसर्च
सुनीता राय चौधरी, चीफ डायटिशन, बीएलके सुपर स्पेशिऐलिटी हॉस्पिटल
सीमा शर्मा, सीनियर डाइटिशन, तीर्थराम शाह चैरिटेबल हॉस्पिटल
रश्मि भंसाली, अहसास ऑर्गैनिक

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आर्थराइटिस: ...ताकि आपको घुटने न टेकने पड़ें!

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घुटनों की तकलीफ दिनोंदिन बढ़ रही है। अगर आपके माता-पिता को भी यह तकलीफ बढ़ती उम्र की वजह से है तो आगे जाकर नी रिप्लेसमेंट यानी घुटने बदलवाने पड़ सकती है। सुनने में यह काफी जटिल लगता है लेकिन अगर सावधानी बरती जाए और सही वक्त पर सही डॉक्टर की सेवाएं ली जाएं तो घुटने बदलवाना बहुत मुश्किल साबित नहीं होता। एक्सपर्ट्स से बात करके इस बारे में पूरी जानकारी दे रहे हैं हेमंत अग्रवाल:

एक्सपर्ट्स पैनल

डॉ. राजू वैश्य, सीनियर कंसल्टेंट, ऑर्थोपीडिक्स एंड जॉइंट रिप्लेसमेंट, इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल

डॉ. साइमन थॉमस, कंसल्टेंट, ऑर्थोपीडिक्स एंड जॉइंट रिप्लेसमेंट, संत परमानंद हॉस्पिटल

डॉ. अतुल मिश्रा, अडिशनल डायरेक्टर, ऑर्थोपीडिक्स एंड जॉइंट रिप्लेसमेंट, फोर्टिस हॉस्पिटल

आचार्य राजेंद्र अटल, नेचरोपैथी एक्सपर्ट

कंचन भारद्वाज, सीनियर फिजियोथेरपिस्ट


अनुज अग्रवाल (66 साल) को पत्नी ममता (62 साल) के साथ ट्रेन से कहीं जाना था। ममता को काफी समय से आर्थराइटिस की समस्या है। आखिरी वक्त में रिजर्वेशन कराने से उन्हें लोअर बर्थ नहीं मिल पाई। अनुज ने सोचा कि ट्रेन में किसी से बदल कर लोअर बर्थ ले लेंगे। जब ट्रेन में उन्होंने दूसरे यात्रियों से यह अनुरोध किया तो उनमें से कइयों ने आर्थराइटिस की समस्या का हवाला देते हुए ऊपर की बर्थ पर चढ़ने में असमर्थता जताई।

हालांकि बाद में एक युवक ने लोअर बर्थ दे दी। खैर, इस वाकये से यह पता चलता है कि आर्थराइिटस की दिक्कत काफी बढ़ गई है। पहले आमतौर पर 50-55 साल या ज्यादा उम्र के लोगों में जो लक्षण देखने को मिलते थे, अब कई लोगों में 40 -45 साल की उम्र में ही दिखने लगते हैं। आर्थराइटिस कई तरह का होता है, लेकिन आमतौर पर उम्र बढ़ने पर होने वाला आर्थराइटिस है ऑस्टियो आर्थराइटिस। इस मर्ज की शुरुआत में घुटनों में हल्का दर्द और चलने-फिरने या उठने-बैठने में थोड़ी परेशानी होती है। लेकिन धीरे-धीरे समस्या बढ़ती जाती है।



ऑर्थराइटिस से होने वाली परेशानियां:

- सूजन या लगातार दर्द होना

- चलना-फिरना या सीढ़ियां चढ़ना-उतरना मुश्किल

- नीचे बैठने या बैठकर उठने में दिक्कत

- पालथी मार कर बैठना मुमकिन नहीं

- इंडियन टॉयलेट यूज नहीं कर पाना

- टांगों की शेप और चाल बिगड़ जाना

लापरवाही पड़ती है भारी -


पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में यह बीमारी ज्यादा पाई जाती है। आमतौर पर बीमारी की शुरुआत घुटनों में हल्के दर्द से होती है। शुरू में लोग नजरअंदाज करते हैं और खुद ही पेनकिलर ऑयल या क्रीम से मालिश कर लेते हैं या पेनकिलर ले लेते हैं। बाद में हड्डियों के डॉक्टर यानी ऑर्थोपीडिटिशन को दिखाते हैं तो वह घुटनों का एक्स-रे कराने की सलाह देता है। एक्स-रे देखने के बाद डॉक्टर अक्सर बताता है कि आपके घुटनों में ऊपर और नीचे की हड्डियों के बीच की कार्टिलेज (एक तरह की कुदरती चिकनाई की परतें) को नुकसान हो गया है और इस कारण हड्डियां आपस में रगड़ खाने लगी हैं। यही आपके घुटनों में दर्द और चलने-फिरने या उठने-बैठने में परेशानी का कारण है।

आमतौर पर डॉक्टर शुरू में कैल्शियम की गोलियां या सैशे या पेनकिलर लेने की सलाह देते हैं। घुटनों में हड्डियों के बीच कार्टिलेज की कमी को दूर करने के लिए ग्लूकोसामाइन (Glucosamine) जैसे सॉल्ट से बनी दवा खाने की भी सलाह देते हैं। हालांकि उसके रिजल्ट को लेकर स्थिति बहुत साफ नहीं है। दवाओं के अलावा डॉक्टर जिस बात पर बहुत जोर देते हैं, वह है घुटनों की एक्सरसाइज।

इलाज के कुछ और तरीके

- आर्थराइटिस का इलाज आयुर्वेद और नेचरोपैथी तकनीक से भी किया जाता है। आयुर्वेदिक एक्सपर्ट आर्थराइटिस के मरीज को किसी पेनकिलर ऑयल से मालिश के अलावा अश्वगंधा, गुग्गुल, शतावरी, शिलाजीत और पुनर्नवा आधारित कुछ दवाएं लेने की सलाह देते हैं।

-होम्योपैथी मे किसी बीमारी की कोई एक पेटेंट दवा नहीं होती, बल्कि डॉक्टर लक्षणों के आधार पर दवा देते हैं। आर्थराइटिस में जो दवाएं आमतौर पर दी जाती हैं, उनमें प्रमुख हैं: आर्निका, रूटा, सल्फर, रसटॉस्क, कॉस्टिकम, ब्रायोनिया और कैल्कैरिया कार्ब आदि।

- नेचरोपैथी एक्सपर्ट दावा करते हैं कि वे सर्वांग उपचार से सभी तरह के जोड़ों के दर्द को खत्म कर सकते हैं। सर्वांग चिकित्सा में मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और जड़ी-बूटियों से किए जाने वाले इलाज शामिल हैं। लेकिन नैचरोपैथी तभी फायदेमंद है, जब इलाज करानेवाला और करने वाला, दोनों उसे साधना के तौर पर लें।

सर्जरी की जरूरत कब?

दवाओं और फिजियोथेरपी से फायदा न होने पर मरीज को आखिरकार ऑर्थोपीडिक सर्जन का सहारा लेना पड़ता है। ऑर्थोपीडिक सर्जन एक्स-रे या एमआरआई से पूरी जांच के बाद इलाज की दिशा तय करता है। अगर मरीज के घुटनों की हड्डियां आपस में रगड़ खाने से बहुत क्षतिग्रस्त नहीं हुई हैं या टांगों की शेप खराब नहीं हुई है तो घुटने में इंजेक्शन लगाए जाते हैं। इंजेक्शन 2 तरह के होते हैं: विस्कोसप्लिमेंटेशन (Viscosupplementation) और लोकल स्टेरॉयड।

विस्कोसप्लिमेंटेशन चिकनाई बढ़ाने वाले होते हैं। घुटना 50 फीसदी से कम घिसा है तो यह दिया जाता है। एक इंजेक्शन करीब 15 हजार रुपये का होता है, जिसका असर कुछ महीने से लेकर कुछ साल तक रह सकता है। लोकल स्टेरॉयड दर्द कम करता है और इसका कोई नुकसान भी नहीं है। 300-400 रुपये का एक इंजेक्शन होता है और असर कुछ महीने से लेकर साल भर तक हो सकता है। डॉक्टर की सलाह से इंजेक्शन 1 से ज्यादा बार भी लगवाया जा सकता है।

लेकिन अगर घुटनों का कार्टिलेज खत्म होने के कारण हड्डियां आपस में रगड़ खाकर घिस रही हैं, मरीज के लिए चलना-फिरना, उठना-बैठना मुश्किल हो गया है तो सर्जरी जरूरी हो जाती है। सर्जरी 2 तरह की होती हैं: माइनर (ऑर्थोस्कोपी) और मेजर (नी रिप्लेसमेंट)। माइनर सर्जरी लेप्रोस्कोपिक होती है और परमानेंट नहीं होती। इसमें जोड़ों की सफाई की जाती है या मांस फटने जैसी समस्या हल की जाती है। मरीज 24 घंटे या एक ही दिन में घर जा सकता है। सरकारी अस्पतालों में यह फ्री और प्राइवेट में इसकी कीमत 60-80 हजार हो सकती है। मेजर सर्जरी में घुटना बदला जाता है। यह सर्जरी तभी की जाती है, जब बाकी सारे तरीके फेल हो जाएं और दर्द लंबे समय से लगातार बना हुआ हो।

क्या है घुटना बदलवाना (नी रिप्लेसमेंट)

घुटने के दर्द से निजात के लिए आखिरी इलाज है घुटने बदलना। अंग्रेजी में इसे TKR यानी टोटल नी रिप्लेसमेंट कहते हैं। सर्जरी के नाम से ऐसा लगता है मानो ऑपरेशन के जरिए पूरा घुटना ही बदला जाता होगा। वास्तव में ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि इस ऑपरेशन में एक भी हड्डी बदली नहीं जाती। सिर्फ 2 हड्डियों की सर्जरी कर उन्हें कुछ नकली अंगों के जरिए सुरक्षा प्रदान की जाती है ताकि वे चलने-फिरने या उठने-बैठने पर आपस में रगड़ न खाएं और मरीज को दर्द न हो। ये नकली अंग हाई क्वॉलिटी मेटल, सिरेमिक या प्लास्टिक से बने होते हैं।

घुटने के ऊपर वाली हड्डी दरअसल जांघ की मुख्य हड्डी होती है, जिसे फीमर कहते हैं। इसी तरह घुटने के नीचे वाली हड्डी टांग की मुख्य हड्डी होती है, जिसे टिबिया कहा जाता है। फीमर और टिबिया के जोड़ को ही घुटना कहते हैं। फीमर और टिबिया को आपस में रगड़ से बचाने के लिए कुदरत ने इन दोनों के बीच चिकनाई की परतें दी हैं, जिन्हें कार्टिलेज कहा जाता है। उम्र के साथ-साथ कार्टिलेज को नुकसान होता है और यही आर्थराइटिस की वजह बनता है। ऑपरेशन के दौरान ऊपर वाली हड्डी यानी फीमर और नीचे वाली हड्डी यानी टिबिया के आपस में मिलने वाले सिरों को घिस कर पहले तो सही शक्ल दी जाती है और फिर उन पर हाई क्वॉलिटी वाले मटीरियल से बने कवच चढ़ा दिए जाते हैं। इन कवच को कुछ वैसा ही समझना चाहिए, जैसे टूटे-फूटे दांत पर डेंटिस्ट क्राउन चढ़ा देते हैं। इसके बाद दोनों हड्डियों के बीच एक प्लास्टिक की प्लेट रख दी जाती है, जो कुशन का काम करती है और हड्डियों को आपस में रगड़ने से बचाती है।

सर्जरी पर खर्च

यह सर्जरी आजकल ज्यादातर सभी बड़े अस्पतालों में होती है।

मरीज को अस्पताल और ऑर्थोपीडिक सर्जन की प्रतिष्ठा, आने-जाने की सुविधा और खर्च आदि को देख कर तय करना चाहिए कि ऑपरेशन कहां कराया जाए। ऑपरेशन का खर्च अस्पताल के स्तर, घुटने में डाले जाने वाले इम्प्लांट्स की किस्म और कमरे के आधार पर तय होता है। प्राइवेट अस्पतालों में एक घुटने की सर्जरी का कुल खर्च आमतौर पर 3 से 5 लाख और दोनों घुटनों की सर्जरी का कुल खर्च 4 से 7 लाख के बीच आता है। मेडिक्लेम का फायदा लेना है तो अस्पताल में पहले ही बात कर लें।

सरकारी अस्पताल में ज्यादातर सर्जरी फ्री होती है और सिर्फ इम्प्लांट का खर्च लिया जाता है, लेकिन वहां मरीजों की कतार काफी लंबी होती है। घुटनों में डाले जाने वाले इम्प्लांट्स आमतौर पर 2 तरह के होते हैं: यूनिकोडिलर और हाई फ्लेक्सियन। एक यूनिकोडिलर की कीमत करीब 80,000 रुपये होती है, जबकि हाई फ्लेक्सियन की करीब 1.25 लाख। अच्छी क्वॉलिटी के कारण सर्जन हाई फ्लेक्स इम्प्लांट्स की ही सलाह देते हैं। इसे 'राउंड नी इम्प्लांट' भी कहा जाता है और यह 30-35 साल तक बिल्कुल सही रहता है। महिलाओं के घुटने में डाले जानेवाले इम्प्लांट को जेंडर सल्यूशन इम्प्लांट कहते हैं। इनकी कीमत और क्वॉलिटी हाई फ्लेक्स इम्प्लांट जैसी ही होती है।

जरूरत है तो डॉक्टर दोनों घुटनों की सर्जरी आमतौर पर एक साथ कराना ही फायदेमंद बताते हैं। इससे ऐनिस्थीसिया, पेनकिलर और एंटी-बायोटिक मेडिसिन के दूसरे दौर से बचाव हो जाता है। कुल खर्चे में भी बचत होती है। मरीज सर्जरी और फिजियोथेरेपी की तकलीफ दो बार झेलने से बच जाता है। घरवालों को भी दो बार देखभाल नहीं करनी पड़ती। लेकिन कुछ भी फाइनल डॉक्टर ही कर सकते हैं।

ऑपरेशन से पहले

ऑपरेशन कराने से पहले कम-से-कम दो डॉक्टरों की राय लेकर आश्वस्त हो जाएं कि अब ऑपरेशन ही बेहतर विकल्प है। उसके बाद जहां ऑपरेशन कराना है, उस हॉस्पिटल के सर्जन से अपना सारा मेडिकल रेकॉर्ड (एक्स-रे, ब्लड, यूरीन आदि रिपोर्ट) ले कर मिलें। सर्जन ऑपरेशन की तारीख तय कर आमतौर पर मरीज को एक दिन पहले अस्पताल में ऐडमिट होने के लिए कहते हैं। ऐडमिट होने के बाद रात 10 बजे के बाद कुछ भी न खाने-पीने की हिदायत दी जाती है। अगले दिन ऑपरेशन से पहले मरीज को ऐनिस्थीसिया दिया जाता है। ऑपरेशन में डेढ़-दो घंटे लगते हैं।

ऑपरेशन के बाद

ऑपरेशन के बाद मरीज को ऑपरेशन थियेटर से बाहर लाकर एक दिन रिकवरी रूम या जरूरत पड़ने पर आईसीयू में रखा जाता है। अगले दिन मरीज को वॉर्ड (कमरे) में शिफ्ट कर दिया जाता है, जहां उसे दवाएं मुंह से और कुछ दवाएं नस (आईवी) के जरिए इंजेक्शनों से दी जाती हैं। फिर एक दिन बाद फिजियोथेरपिस्ट मरीज को कुछ एक्सरसाइज कराते हैं और उसे वॉकर के सहारे चलना-फिरना और सीढ़ियां चढ़ना-उतरना भी सिखाते हैं। एक घुटने की सर्जरी होने पर मरीज को आमतौर पर 4-5 दिन और दोनों घुटने बदले जाने पर 6-7 दिन अस्पताल में रहना पड़ता है। अस्पताल से छुट्टी के वक्त अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि दवाएं किस तरह कितने दिन लेनी हैं, फिजियोथेरपी कितने दिन जरूरी है, टांके कब काटे जाएंगे और कोई परेशानी होने पर किससे संपर्क करना है। ऑपरेशन के दो दिन बाद ही मरीज वॉकर के सहारे थोड़ा-थोड़ा चलना शुरू कर देता है और करीब 20 दिन बाद छड़ी के सहारे। इस दौरान मरीज को इमरजेंसी में सहारा देने के लिए एक शख्स की जरूरत रहती है। टांके कटने से पहले मरीज को नहाने की मनाही होती है क्योंकि पानी लगने पर टांकों में इन्फेक्शन हो सकता है।

रहना है हैपी तो कराएं फिजियोथेरपी

आर्थराइटिस के इलाज में फिजियोथेरपी का रोल बेहद अहम है। आर्थराइटिस के लक्षण शुरू होने पर दवाओं के साथ-साथ फिजियोथेरपी भी करानी चाहिए।

- घुटने बदलवाने के बाद तो ऑपरेशन के अच्छे नतीजों के लिए फिजियोथेरपी बेहद जरूरी है। ऑपरेशन के बाद 2-3 दिन हॉस्पिटल में फिजियोथेरपी कराई जाती है। इसके बाद घर पर भी कम-से-कम एक महीने किसी योग्य फिजियोथेरपिस्ट की सेवाएं ली जी जानी चाहिए। बाद में मरीज खुद एक्सरसाइज कर सकता है। ऑपरेशन में घुटनों की हड्डियों में जो इम्प्लांट्स किए जाते हैं, फिजियोथेरपी शरीर के साथ उन्हें ढंग से बिठाने में सहायक साबित होती है। इसके अलावा फिजियोथेरपी घुटनों के साथ-साथ जांघों, टांगों और पैरों की मांसपेशियों व लिगामेंट्स को भी मजबूत बनाने में अहम भूमिका अदा करती है।

- ऑपरेशन के बाद मरीज को टॉयलेट जाने, वॉकर या छड़ी के सहारे चलने-फिरने और सीढ़ियां चढ़ने-उतरने के लिए स्पेशल ट्रेनिंग की जरूरत होती है। यह ट्रेनिंग फिजियोथेरपिस्ट देता है। घुटने बदलवाने के बाद मरीज को ताउम्र दिन भर में आधा-एक घंटा पैदल जरूर घूमना चाहिए।

- फिजियोथेरपी का मतलब सिर्फ कुछ एक्सरसाइज भर नहीं है। फिजियोथेरपी में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मदद से मरीज की जांघों और टांगों में कुछ तरंगें प्रवाहित की जाती हैं, जो ब्लड सर्कुलेशन को रेग्युलर कर मांसपेशियों को मजबूती प्रदान करती हैं।

- ऑपरेशन के बाद मरीज इंडियन स्टाइल टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं कर सकता। असल में तो उसे कुछ दिन यूरोपियन सीट को भी थोड़ा ऊंचा करने की जरूरत महसूस होती है और इसके लिए बड़े मेडिकल स्टोर्स पर सीट रेजर नामक अटैचमेंट उपलब्ध है।

- एक और खास बात यह है कि आमतौर पर शरीर में कोई कष्ट होने पर हम गर्म सिकाई करते हैं। लेकिन सर्जरी के बाद घुटनों पर गर्म नहीं, ठंडी सिकाई की जाती है। ठंडी सिकाई के लिए आमतौर पर अस्पताल से कूल पैक्स दिए जाते हैं, जिनमें एक तरह का जेल भरा होता है। उन्हें फ्रीजर में रख कर ठंडा किया जाता है और फिर उनसे करीब दो महीने तक घुटनों की सिकाई की जाती है।

कुछ अहम सवाल

महिलाओं में यह बीमारी ज्यादा होती है, क्यों?

महिलाएं पौष्टिक खाने के प्रति लापरवाही बरतती हैं। ज्यादातर घर में ही रहने के कारण उन्हें धूप भी कम मिलती है, जिससे शरीर में विटामिन डी कम हो जाता है। मिनोपॉज के बाद हॉर्मोंस का असंतुलन भी इसका एक कारण है।

घुटने बदलवाने के लिए क्या उम्र की भी कोई सीमा है?

नहीं। जब भी लगे कि परेशानी ज्यादा है और किसी इलाज से फायदा नहीं हो रहा तो सर्जरी के बारे में सोचा जा सकता है। हां, बहुत अधिक उम्र में सर्जरी कराने पर रिकवरी में समय ज्यादा लगता है।

क्या बिना आपरेशन ऑर्थराइटिस का इलाज मुमकिन है?

दवाओं और फिजियोथेरेपी से बीमारी की शुरुआत में तो कुछ फायदा होता है, लेकिन बीमारी बढ़ने पर सर्जरी कराना ही बेहतर है। वैसे भी पेनकिलर का ज्यादा इस्तेमाल सेहत के लिए नुकसानदेह है।

सर्जरी से क्या फायदे हैं?

आदमी बिना तकलीफ चलने-फिरने लगता है और टांगों में आई विकृति और बिगड़ी हुई चाल में सुधार आ जाता है। माना जाता है कि घुटने बदलवाने के बाद 15-20 साल तो व्यक्ति आराम की जिंदगी जी सकता है। परेशानी होने पर उसे फिर सर्जन की सलाह लेनी पड़ सकती है।

सर्जरी के बाद क्या काम कर सकते हैं और क्या नहीं?

ऑपरेशन के बाद व्यक्ति सामान्य रूप से चल-फिर सकता है, सीढ़ियां चढ़ और उतर सकता है, ड्राइविंग कर सकता है और गोल्फ जैसे हल्के- फुल्के खेल भी खेल सकता है। लेकिन उसे अधिक दौड़-भाग और उछल-कूद से बचना चाहिए। ज्यादा वजन उठाना भी नुकसानदेह हो सकता है। साथ ही, वजन बढ़ने से भी रोकना चाहिए।

क्या इस दौरान मरीज को भयंकर पीड़ा झेलने पड़ती है?

नई और प्रभावशाली पेनकिलर दवाओं के कारण अब मरीज को ज्यादा दर्द नहीं होता। ऑपरेशन के समय तो मरीज को कुछ भी पता नहीं चलता।

क्या डायबीटीज और दिल के मरीज भी यह ऑपरेशन करा सकते हैं?

ऑर्थोपीडिक सर्जन मरीज की पूरी जांच के बाद ही ऑपरेशन का फैसला करते हैं। इस दौरान एक सीनियर फिजिशिन की भी सलाह ली जाती है।

क्या आर्थराइटिस के मरीज को दही, चावल, आइसक्रीम जैसी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए?

डॉक्टर ऐसा नहीं कहते। लेकिन उनका कहना है कि अगर किसी मरीज को लगता है कि उसे कोई चीज माफिक नहीं आती तो उससे परहेज किया जा सकता है। आयुर्वेदिक एक्सपर्ट दही, चावल, मटर, उड़द और आइसक्रीम आदि से परहेज की सलाह देते हैं।

क्या ऑपरेशन के बाद मरीज पालथी मारकर बैठ सकता है?

अब आमतौर पर घुटनों में हाई क्वॉलिटी वाले हाई प्लेक्स इम्प्लांट डाले जाते हैं, इसलिए मरीजों को आलथी-पालथी मारकर बैठने की इजाजत दी जाती है। लेकिन आलथी-पालथी मारकर बैठना इस बात पर भी निर्भर है कि मरीज की मांसपेशियां और लिगामेंट कितने मजबूत हैं। ऑपरेशन के बाद भी अगर मरीज को पालथी मारना तकलीफ भरा लगता है तो बेहतर है कि ऐसा करने से बचा जाए।

पूरी तरह सही होने में कितना वक्त लगता है?

आमतौर पर मरीज सर्जरी के 2-3 महीने बाद छड़ी के सहारे के बिना भी चलने लगता है। थोड़ी सावधानी बरतते हुए वह अपने जरूरी काम शुरू कर सकता है। कुछ लोगों को पूरी तरह नॉर्मल होने में 5-6 महीने भी लग सकते हैं।

...ताकि घुटना बदलवाने की नौबत ही ना आए

इन बातों को अपनाकर आप घुटने की तकलीफ से काफी हद तक बच सकते हैं:

- वजन न बढ़ने दें। आपके शरीर का वजन आखिरकार आपकी टांगों को ही उठाना पड़ता है। वजन ज्यादा होने पर घुटनों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। अपनी उम्र के मुताबिक बीएमआई यानी बॉडी मास इंडेक्स से 5 किलो से ज्यादा वजन हो तो घुटनों पर कई गुना बुरा असर पड़ता है। बेहतर होगा कि आप बीएमआई 18-23 के बीच रखें।

- बचपन से खानपान का ध्यान रखें। जंक फूड (पित्जा, बर्गर, चिप्स, नूडल्स, कोल्ड ड्रिंक्स आदि) और ज्यादा तला-भुना न खाएं। जंक फूड हफ्ते में 1-2 बार से ज्यादा न खाएं और वह भी कम मात्रा में।

- बढ़ते बच्चों को रोजाना 1 से 1.2 ग्राम कैल्शियम की जरूरत होती है। ऐसे में रोजाना कम-से-कम एक गिलास दूध पीना जरूरी है। साथ ही, दूध से बनी चीजों (दही, पनीर, खोया आदि) और हरी सब्जियों (मशरूम, पालक, बीन्स, ब्रोकली, चुकंदर, कमलककड़ी आदि), फल (केला, संतरा, शहतूत, सिंघाड़ा, मखाना आदि), ड्राई-फ्रूट्स (खजूर, अंजीर, अखरोट आदि) और अंडे भी खाना चाहिए क्योंकि इनमें काफी कैल्शियम होता है। राजमा, मूंगफली, तिल, टूना मछली खाना भी फायदेमंद हैं। 35 साल की उम्र के बाद डॉक्टर की सलाह से कैल्शियम की टैब्लेट या सैशे भी ले सकते हैं।

- हफ्ते में कम-से-कम 5 दिन 45-50 मिनट एक्सरसाइज जरूर करें। किसी एक तरह की एक्सरसाइज के बजाय कार्डियो, स्ट्रेंथनिंग और स्ट्रेचिंग, तीनों को मिलाकर करें। कार्डियो के लिए जॉगिंग, ब्रिस्क वॉक (30 मिनट में 3 किलोमीटर चलना), स्वीमिंग, साइक्लिंग और स्कीपिंग कर सकते हैं। अगर आप एक बार में 30 मिनट का टाइम नहीं निकाल पाते तो 2 बार में इसे निपटाएं। उछलने, दौड़ने, सीढ़ियां चढ़ने, रस्सी कूदने जैसी एक्टिविटी करें। इनसे घुटने मजबूत होते हैं और आगे जाकर दर्द से बच सकते हैं।

- इसके अलावा पूरी बॉडी की स्ट्रेचिंग करें और शरीर को मजबूत बनाने के लिए वेट लिफ्टिंग भी करें। इनसे मांसपेशियां लचीली और मजबूत बनती हैं। मांसपेशियां जोड़ों पर पड़ने वाले दबाव का कुछ हिस्सा खुद झेल जाती हैं। स्ट्रेचिंग उम्र बढ़ने के साथ आपके जोड़ों में लचीलापन बनाए रखने में मदद करती है। जॉइंट्स लचीले रहेंगे तो उनमें चोट लगने का खतरा कम होगा। ट्रेडमिल के बजाय पार्क में जॉगिंग करना बेहतर है, क्योंकि ट्रेडमिल पर समतल सतह मिलती है, जबकि रियल लाइफ में हम उतनी स्मूद जगहों के बजाय ऊंची-नीची जगहों पर भी चलते हैं। ट्रेडमिल अगर यूज करना ही है तो अच्छी क्वॉलिटी (जिसमें शॉकर्स हों, रबड़ काफी मोटी हो आदि) की ही यूज करें। हां, किसी भी जोड़ में दर्द शुरू होने पर कोई भी एक्सरसाइज डॉक्टर की सलाह लेकर ही करें, वरना हड्डियां आपस में घिस कर आपका दर्द बढ़ा सकती हैं।

- अगर आपकी मसल्स और लिगामेंट्स मजबूत हैं तो जोड़ों की हड्डियों में मामूली समस्या होने के बावजूद आपको बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। मसल्स और लिगामेंट्स को मजबूत बनाए रखने में एक्सरसाइज के अलावा मालिश भी मददगार होती है। मालिश के लिए तिल या जैतून का तेल बेहतर है। सरसों का तेल और बादाम रोगन भी फायदेमंद है।

- हड्डियों और मांसपेशियों की मजबूती के लिए विटामिन डी जरूरी है, जो हमें धूप में मिलता है। मोटे तौर पर ऐसे समझ सकते हैं कि साल में 40 दिन 40 मिनट के लिए धूप में बैठें। इस दौरान शरीर पर कपड़े कम हों। धूप में बैठना मुमकिन नहीं है तो डॉक्टर से पूछकर विटामिन डी के सैशे भी ले सकते हैं।

- बच्चों को धूप और मिट्टी में खेलने दें। इससे उनकी इम्युनिटी बढ़ती है और विटामिन डी भी मिलता है।

- कोई चोट भी आपके घुटने को भारी नुकसान पहुंचा सकती है इसलिए कोशिश करें कि घुटनों को कोई नुकसान न हो। चोट लग जाए तो फौरन सही इलाज कराएं।

- आयुर्वेदिक और नेचुरोपैथी एक्सपर्ट जोड़ों के दर्द के लिए मेथी दाने को बहुत फायदेमंद बताते हैं। रात को एक चम्मच मेथी दाना एक कप पानी में भिगो दें। सुबह उठकर वह पानी पी लें और भीगा हुआ मेथी दाना भी चबा कर खा लें। यह प्रयोग गठिया दर्द के साथ-साथ डायबिटीज को रोकने में भी सहायक बताया जाता है। हल्दी, मेथी और सौंठ का पाउडर समान मात्रा में मिला कर रख लें और सुबह-शाम पानी के साथ एक-एक चम्मच लें।

- पढ़ाई, नेट सर्फिंग, चैटिंग या टीवी देखने जैसी एक्टिविटी के लिए लंबे समय तक एक ही पोजिशन में बैठने से बचें। 30 मिनट के बाद 5 मिनट का ब्रेक जरूर लें। साथ ही, किसी एक जॉइंट या हिस्से पर जोर डालने से बचें। मसलन एक पैर पर वजन डालकर खड़े होना आदि।

- फिजिकली आप जितना एक्टिव रहेंगे, जोड़ों के दर्द के चांस उतने कम होंगे इसलिए छोटे-मोटे काम खुद करें।

- चोटों का खयाल रखें। अगर खेलते-दौड़ते आपको एक ही जगह पर बार-बार चोट लगती है, तो आपको खयाल रखने की जरूरत है। घुटने या टखने की मांसपेशियों में परेशानी आगे जाकर ऑर्थराइटिस की वजह बन सकती है। जोड़ों की चोट को पूरी तरह ठीक होने दें। इसके लिए फिजियोथेरेपिस्ट की मदद भी ले सकते हैं।

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अगर फेरों में हो हेरा-फेरी तो क्या करें...

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एक अच्छे और सच्चे हमसफर की चाहत तो ज्यादातर सभी को होती है। लेकिन जैसा हमने सोचा या चाहा, सामनेवाला वैसा ही हो, जरूरी नहीं है क्योंकि शुरुआती मुलाकातों में लोग अपना बेस्ट ही दिखाते हैं जोकि पूरा सच नहीं होता। शादी तय करते हुए हमें ज्यादा ही सचेत रहना चाहिए। शादी को लेकर कैसे-कैसे धोखे हो सकते हैं और किस तरह उनसे निपटा जाए, एक्सपर्ट्स की मदद से बता रही हैं प्रियंका सिंह:

निकिता* (25 साल) के पैरंट्स ने उनके लिए एक लड़का देखा। लड़का एक मल्टिनैशनल कंपनी में नौकरी करता था और फैमिली के साथ नोएडा में रहता था। निकिता और पैरंट्स को फैमिली और लड़का, दोनों अच्छे लगे। लड़केवाले जल्दी-से-जल्दी शादी करना चाहते थे, लेकिन निकिता के पैरंट्स ने अच्छी तरह जांच-परख करने की सोची। उन्होंने नए के साथ-साथ लड़के के पुराने अड्रेस का भी पता लगाया। लड़के की फैमिली करीब 10 साल पहले पुरानी दिल्ली में रहती थी। वहां का अड्रेस पता कर उन्होंने वोटर लिस्ट निकलवाई तो उस अड्रेस पर घर के लोगों के अलावा लड़के की उम्र और सेम सरनेम वाली एक और लड़की का नाम वोटर के रूप में मिला, जबकि उस सदस्य के बारे में निकिता की फैमिली को कोई जानकारी नहीं दी गई थी। धीरे-धीरे जानकारी इकट्ठा करने पर पता लगा कि लड़के की पहले शादी हो चुकी थी और वह उसकी पहली पत्नी का नाम था। निकिता और पैरंट्स ने शादी की बात वहीं खत्म कर दी।

ऐसा ही एक मसला है साउथ दिल्ली का। 28 साल के नचिकेत* की शादी तय हो गई थी। लड़के और लड़की के बीच बातचीत और मुलाकातें भी शुरू हो गईं, लेकिन शादी से करीब 15 दिन पहले नचिकेत* को महसूस हुआ कि लड़की उनके साथ वैसी गर्मजोशी या प्रेम से बात नहीं करती, जैसी होनी चाहिए। नचिकेत* ने लड़की से पूछने की काफी कोशिश की, लेकिन वह टाल-मटोल करती रही। आखिर में नचिकेत​ * ने एक डिटेक्टिव एजेंसी का सहारा लिया। एजेंसी के लोगों ने लड़की पर निगाह रखनी शुरू की और पाया कि लड़की शाम को 5 बजे ऑफिस से निकलने के बाद 2-3 घंटे तक किसी शख्स के साथ रेस्तरां में बैठी रहती थी। देखने में दोनों में काफी नजदीकी लगती थी। हैरानी की बात थी कि वह शख्स कोई और नहीं, बल्कि नचिकेत​ * का जीजा था, जो यह रिश्ता तय करवा रहा था। एजेंसी ने दोनों की मुलाकात के फोटो आदि दिखाए, लेकिन नचिकेत का कहना था कि चूंकि जीजा इसमें शामिल है इसलिए और ठोस सबूत चाहिए।

शादी से पांच दिन पहले लड़की ने अपने परिवार और नचिकेत को बताया कि वह ऑफिस के काम से दो दिन के लिए चंडीगढ़ जा रही है। डिटेक्टिव ने पाया कि लड़की चंडीगढ़ जाने के बजाय उसी शख्स (जीजा) की कार से निकली और दोनों ने दिल्ली के एक होटल में चेक-इन किया। पता लगा कि जीजा ने अपने और पत्नी के नाम से होटल में दो दिन के लिए कमरा बुक कराया था। डिटेक्टिव ने यह सारी जानकारी लड़की के पैरंट्स और नचिकेत को दी। दोनों परिवारों के लोग रात में होटल पहुंचे और दोनों को एक साथ कमरे में पाया। पता लगा कि लड़की का नचिकेत​ * के जीजा के साथ अफेयर था और वह उसकी शादी नचिकेत के साथ कराकर हमेशा के लिए उसके साथ संबंध बनाए रखना चाहता था। इस तरह परिवार में ही चल रहे धोखेबाजी की पोल खुली और नचिकेत की जिंदगी बर्बाद होने से बच गई।

ऐसा ही एक मामला है गुड़गांव की एक महिला का, जिसका डिवॉर्स हो गया था। दोबारा शादी करने के मकसद से उसने ऑनलाइन मैट्रिमोनियल साइट पर प्रोफाइल बनाया। एक शख्स ने उससे कॉन्टैक्ट किया और बताया कि वह एक बड़ी कंपनी में बड़े पद पर काम करता है। उसने यह भी बताया कि उसका बीवी के साथ तलाक का केस चल रहा है। महिला उससे मिली तो काफी इम्प्रेस हो गई। दोनों रेग्युलर तौर पर मिलने लगे, लेकिन महीनों बीतने के बाद भी उसने डिवॉर्स फाइनल होने की बात नहीं की। जब महिला ने पूछा कि डिवॉर्स क्यों नहीं हो रहा तो युवक ने बहाना बनाया कि पत्नी ने 75 लाख रुपये हर्जाना मांगा है। महिला शादी को बेताब थी इसलिए उसने युवक को 10 लाख रुपये दे दिए। इसके बाद युवक ने महिला से मिलना और फोन पर बात करना कम कर दिया। महिला को उस पर शक हुआ। उसने उस पर कड़ी निगाह रखनी शुरू की। उसने उसके घर के आसपास जाकर लोगों से जानकारी हासिल की। पता चला कि उसका अपनी पत्नी के साथ तलाक का कोई केस नहीं चल रहा था। वह बेरोजगार था और उसके कई लड़कियों के साथ संबंध थे और यह भी कि वह इसी तरह शादी के नाम पर लड़कियों को धोखा देता था।

ये महज कुछ मामले हैं, लेकिन ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं। पहले शादी-ब्याह अक्सर लोग दोस्तों-रिश्तेदारों के जरिए तय करते थे, इसलिए धोखे की गुंजाइश भी कम होती थी। अब मैट्रिमोनियल साइट्स के जरिए शादियां हो रही हैं। ऐसे में दूर-दराज के मामलों की पूरी छानबीन मुमकिन नहीं होती और लोगों ने प्रोफाइल में कितना सच लिखा है और कितना झूठ, यह भी पता लगाना मुश्किल होता है। जाहिर है, धोखाधड़ी के मामले बढ़ रहे हैं। वैसे, जागरूक लोग अपनी तरफ से शादी से पहले पूरी जानकारी हासिल करने की कोशिश करते हैं ताकि आगे जाकर पछताना ना पड़े।

कैसे-कैसे झूठ
शादी को लेकर लड़का या लड़की कई चीजों को लेकर अक्सर झूठ बोलते नजर आते हैं। जिन चीजों पर अक्सर झूठ बोला जाता है, वे हैं: लव-अफेयर, सिगरेट या शराब पीने की आदत, फैमिली बैकग्राउंड की गलत जानकारी देना (मसलन कई बड़े अधिकारी रिश्तेदार हैं, प्रॉपर्टी काफी है आदि), बीमारी (बीपी, डायबीटीज, ऑपरेशन आदि) को छुपाना, एजुकेशन की गलत जानकारी देना, सैलरी को बढ़ा-चढ़ाकर बताना, खुद को एनआरआई बताना, अपनी उम्र कम बताना, पहले शादी हुई है तो उसे छुपाना, पहली पत्नी से कानूनन अलग हुए बिना खुद को तलाकशुदा बताना आदि। दरअसल, शादी की की बात करते वक्त लोग अपना बेस्ट ही दिखाना चाहते हैं और उसके लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं चूकते, इसलिए फ्रॉड होने के चांस ज्यादा होते हैं।

मैट्रिमोनियल साइट्स का रोल
आजकल ऑनलाइन मैट्रिमोनियल साइट्स या अखबार में ऐड के जरिए काफी रिश्ते तय हो रहे हैं। ऐसे में साइट पर प्रोफाइल के साथ दी गई जानकारी को वेरिफाई करने की जिम्मेदारी लड़के या लड़की और उसके घरवालों की हो जाती है। हालांकि ज्यादातर मैट्रिमोनियल साइट्स प्रीमियम क्लाइंट के बारे में लिखती हैं कि हमने इनका वेरिफिकेशन और इनवेस्टिगेशन कराया है, लेकिन अक्सर यह सच नहीं होता। इसकी वजह भी है। ज्यादातर साइट्स प्रोफाइल को ऐक्टिव करने के लिए 6 महीने के 7-10 हजार रुपये लेती हैं। ऐसे में किसी प्रोफाइल की डिटेक्टिव से जांच के लिए 20-25 हजार रुपये कैसे खर्च कर सकती हैं? हालांकि कुछ साइट्स अपने लेवल पर कुछ हद तक वेरिफाई करने की कोशिश करती हैं जैसे कि simplymarry.com मोबाइल नंबर चेक करने के साथ-साथ लोगों से फेसबुक और लिंक्डइन आईडी भी प्रोफाइल के साथ डालने को कहती हैं ताकि उनका प्रोफाइल ज्यादा विश्वसनीय बन सके।

यहां तक कि क्लाइंट से KYC (Know Your Customer) डॉक्युमेंट्स जैसे कि पासपोर्ट, आधार, वोटर आईकार्ड, डीएल आदि भी अपलोड करने को कहा जाता है। जो कस्टमर ये डॉक्युमेंट्स अपलोड करता है, उसके प्रोफाइल के साथ स्पेशल वैरिफाइड बैज लगाया जाता है। साथ ही, जब भी कोई यूजर किसी की कॉन्टैक्ट रिक्वेस्ट स्वीकार करता है, उसे साइट की ओर से रिमाइंडर भेजा जाता है कि किसी के साथ भी अपनी डिटेल्स शेयर करने से पहले अच्छी तरह आश्वस्त हो जाएं। अगर कोई शख्स अपने KYC डॉक्युमेंट्स, वैध आईडी प्रूफ और अड्रेस प्रूफ 72 घंटे के अंदर अपलोड नहीं करता तो उसका प्रोफाइल हटा लिया जाता है। हालांकि इतने भर से भी किसी के बारे में पूरी तरह जानकारी नहीं मिल सकती। ऐसे में बेहतर है कि पैरंट्स साइट्स के दावे में न आकर खुद ही जांच करें और जरूरत लगे तो किसी भरोसेमंद एजेंसी से जांच कराएं।

कैसे करते हैं जांच
सामनेवाले पर शक होने पर कई बार लोग डिटेक्टिव एजेंसी की मदद भी लेते हैं। डिटेक्टिव आमतौर पर किसी शख्स के धोखे की जानकारी जुटाने के लिए फोटो, ऑडियो और विडियो का सहारा लेते हैं। यह काम करते हुए कानूनी और गैर-कानूनी तरीकों का भी ध्यान रखा जाता है। मसलन, सड़क पर अगर किसी का दूर से फोटो खींचा जाए या विडियो बनाया जाए तो वह लीगल होगा, लेकिन यही काम अगर कमरे के अंदर किया जाए तो गैरकानूनी माना जाएगा। इस तरह की बातों का ध्यान रखते हुए डिटेक्टिव सबूत जुटाते हैं। आमतौर पर सब्जेक्ट (लड़का या लड़की) के दोस्तों, ऑफिस कॉलीग, ड्राइवर, घर में काम करनेवाले नौकर-कुक आदि से जानकारियां हासिल की जाती हैं। वे कई दिनों तक उनके रूटीन पर निगाह रखते हैं, मसलन कहां जाते हैं, किससे मिलते हैं आदि। कुछ संदेहास्पद लगने पर रेकॉर्ड कर लेते हैं। हालांकि बेहतर यह है कि पहले खुद ही जानकारी हासिल करने की कोशिश की जाए।

जासूसी में भी सावधानी जरूरी
- आप जिस एजेंसी को अप्रोच कर रहे हैं, वह भरोसेमंद होनी चाहिए। आमतौर पर जो एजेंसी जितनी पुरानी होगी, उस पर भरोसा उतना ही ज्यादा होगा। इस वक्त दिल्ली में करीब 45 और देश भर में 500 डिटेक्टिव एजेंसियां हैं। यह जरूर देखें कि एजेंसी का अपना ऑफिस हो। ऐसा न हो कि वह आपको किसी कॉफी शॉप पर मिलने बुलाए और आप वहीं पैसे देकर आ जाएं। खुद ऑफिस जाकर मिलें और जरूरी पड़ताल करें।

- सस्ते के चक्कर में न पड़ें। अगर कोई 15-20 हजार रुपये में सारी जानकारी मुहैया कराने का भरोसा दिलाता है तो यकीन न करें। यह सोचने वाली बात है कि कोई डिटेक्टिव एजेंसी 15-20 हजार रुपये में किसी की निगरानी 10 दिन तक कैसे करेगी या जानकारी कैसे जुटा पाएगी? ऐसे लोग अक्सर लड़के या लड़की की फोन डिटेल्स निकलवाते हैं और अगर अपोजिट सेक्स के लोगों के ज्यादा नंबर मिलते हैं तो कह देते हैं कि लड़के या लड़की का कैरक्टर ठीक नहीं है। यह गलत है। पहले पूरी जानकारी हासिल करें, फिर राय बनाएं।

- अगर सामनेवाला शख्स सही है और उसे पता लगता है कि उसकी जासूसी कराई जा रही है तो उसे बुरा भी लग सकता है। ऐसे में रिश्ता टूटने की आशंका काफी बढ़ जाती है। बेहतर है कि सक्षम एजेंसी चुनें ताकि सामनेवाले को भनक न लगे वरना लेने के देने पड़ सकते हैं।

खुद जानकारी ऐसे जुटाएं
- रिश्ता तय करते वक्त आंख, कान खुले रखें। जो भी जानना चाहते हैं, सामनेवाले से अच्छी तरह पूछें। कई चीजों के बारे में सीधे तौर पर न पूछकर घुमाकर पूछें, लेकिन पूछें जरूर। हां, जहां शक हो वहां खुलकर पूछना चाहिए क्योंकि बाद में पछताने से बेहतर है पहले ही सारी बातें जान लेना।

- हर चमकती चीज सोना नहीं होती। जिस रिश्ते में सब कुछ परफेक्ट लगे, वहां गड़बड़ी होने की आशंका ज्यादा होती है। ऐसे में आपको ज्यादा सचेत होने की जरूरत है।

- अगर लड़के का बड़ा-सा मकान है तो उसकी चकाचौंध में ना आएं। कई बार ऐसे मामले भी सामने आए हैं जहां लड़के वालों ने किसी और के घर में लड़के से मिलवाया। अगर आपको भी सामने वालों के स्डटैंर्ड और घर में तालमेल नहीं लगता तो सामनेवाले से घर के पेपर भी देखने को मांग सकते हैं।

- अगर किसी बड़े अधिकारी मसलन आईएएस, सैन्य अधिकारी आदि से रिश्तेदारी बताए तो उससे जाकर मिलें। अगर वह फैमिली मेंबर होगा तो गर्मजोशी से स्वागत करेगा, वरना पोल खुल जाएगी।

- रिश्ता तय करने से पहले या बाद में भी थोड़ा वक्त लड़के-लड़की को एक साथ जरूर बिताने दें, मसलन शादी तय करने से पहले या रिश्ता तय करने के बाद भी 2-3 बार उन्हें साथ घूमने या मिलने जाने दें। अगर कुछ गड़बड़ लगे तो रिश्ता तोड़ना बेहतर है।

- लड़के या लड़की के पड़ोसियों से पूरी जानकारी हासिल करने की कोशिश करें। कम-से-कम 3-4 पड़ोसियों से बात करें। अगर कोई पड़ोसी खुलकर बोलने से बच रहा है या फिर बहुत ज्यादा बुराई कर रहा है तो दाल में काला हो सकता है। बेहतर है कि कई लोगों से जानकारी हासिल करके अपनी राय बनाएं।

- उसके फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर चेक करें कि उसकी फ्रेंड लिस्ट में कैसे-कैसे लोग हैं। आप उनमें से भी एक-दो लोगों को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजकर फ्रेंड बना सकते हैं और उनके जरिए लड़के या लड़की के बारे में जानकारी जुटा सकते हैं।

ऐसे करें क्रॉस-चेक

- जिस भी लड़के या लड़की से शादी की बात चल रही है, उसकी उम्र या अड्रेस की सही जानकारी के लिए electoralsearch.in की मदद ले सकते हैं। इस साइट पर जाकर अगर आप नाम डालेंगे तो लड़के या लड़की की उम्र, अड्रेस आदि पूरी डिटेल्स आ जाएंगी। वहां पर पूरा फैमिली ट्री बनकर आता है, जिससे परिवार की भी जानकारी मिल जाएगी।

- लड़का/लड़की अगर खुद को किसी कंपनी का मालिक बताता है यानी उसकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है तो mca.gov.in पर जाएं। यह सरकारी साइट है। यहां पर MCA Services - Master Data- View Signatory Data में जाकर कंपनी का नाम डालकर चेक करें। अगर सही है तो कंपनी कितनी पुरानी है, उसका मालिक कौन है और अड्रेस क्या है, जैसी जानकारियां आ जाएंगीं। अगर पिता की कंपनी होने का दावा किया जाता है तो भी कम-से-कम कंपनी की जानकारी तो मिल ही जाएगी।

- अगर छोटा बिजनेस है तो भी जांच कर सकते हैं। आजकल छोटे बिजनेस के लिए भी ज्यादातर लोग वेबसाइट बनवाते हैं। ऐसे में whois.com पर जाएं। वहां जिस नाम से कंपनी बताई जा रही है, उसका नाम डालें तो पूरी डिटेल्स आ जाएंगी, मसलन वेबसाइट किसके नाम पर है, कब बनवाई है आदि। आमतौर पर लोग बिजनेस शुरू करने के कुछ ही टाइम में साइट बनवा लेते हैं।

- अगर लड़का/लड़की नौकरी करता/करती है तो उसके ऑफिस के लैंडलाइन पर फोन करें। फिर पूछें कि फलां नाम के शख्स से बात करा दीजिए। कुछ फर्जी बातें भी कर सकते हैं, मसलन उसे गिफ्ट भेजना है, इन्विटेशन भेजना है आदि। घुमा-फिरा कर कुछ जानकारी हासिल कर सकते हैं। अगर वह वहां काम करता होगा तो पता लग जाएगा। झूठ बोला होगा तो वह भी सामने आ जाएगा।

- अगर रिश्ता तय हो गया है तो मंगेतर के ऑफिस में सरप्राइज विजिट भी कर सकते हैं। अगर वह शख्स सही होगा तो खुश हो जाएगा। गड़बड़ होगा तो हड़बड़ा जाएगा। इससे उसके बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।

क्या करें
1. पैरंट्स दबाव न बनाएं


कई बार लड़के याc लड़की का किसी के साथ अफेयर होता है और पैरंट्स उस पर अपनी पसंद के जीवनसाथी को चुनने का दबाव बनाते हैं। उसकी मर्जी के बिना रिश्ता तय कर दिया जाता है। ऐसे में शादी के बाद भी कई बार उसका पुराना अफेयर फिर से चालू हो जाता है और वह अपने जीवनसाथी से चीटिंग करने लगता है। बेहतर है कि पैरंट्स रिश्ता तय करते वक्त लड़के या लड़की की पसंद-नापसंद का ख्याल रखें।

2. हिचकिचाहट हटाएं
जब भी शादी की बात हो तो लड़के/लड़की या उसके घरवालों से हर बात साफ-साफ पूछें। कोई भी जानकारी लेने में हिचकें नहीं। लड़के या लड़की की एजुकेशन से जुड़े डॉक्युमेंट्स, सैलरी स्लिप आदि मांगें और अच्छी तरह देखें। उनके साथियों से भी जानकारी जुटाएं। अगर प्रॉपर्टी को लेकर दावे किए जा रहे हैं तो उनके भी डॉक्युमेंट मांगें। अगर किसी मसले पर हल्का भी शक है तो खुलकर पूछें।

3. साइन किया हुआ प्रोफाइल लें
जब भी शादी के लिए मिलें तो सामनेवाले से साइन किया हुआ प्रोफाइल लें और खुद भी साइन करके दें। किसी तरह की गड़बड़ी होने पर सामनेवाला यह नहीं कह पाएगा कि मैंने तो यह प्रोफाइल दिया ही नहीं था। कई बार ऐसा होता है कि लोग बाद में मुकर जाते हैं और कहते हैं कि हमने यह प्रोफाइल दिया ही नहीं था। साइन होने से आप साबित कर पाएंगे कि आपके पास वही प्रोफाइल है जो आपको सामनेवाले ने दिया था।

4. रजिस्ट्रेशन जरूर कराएं
शादी के बाद रजिस्ट्रेशन जरूर कराएं। किसी तरह की समस्या होने पर यह बहुत काम आता है, खासकर अगर लड़का विदेश में है तो वह रजिस्ट्रेशन न होने का बहाना बनाकर साथ ले जाने में आना-कानी कर सकता है।

5. पुलिस के पास जाएं
अगर किसी के धोखे का खुलासा होता है तो पुलिस के पास जाने में न हिचकें। अक्सर लड़कियां ऐसे मामलों में धोखा खाने के बावजूद पुलिस में जाकर शिकायत दर्ज नहीं करातीं क्योंकि उन्हें डर होता है कि राज खुलने से आगे शादी में दिक्कत आएगी।

अगर हो जाए धोखा
सगाई के बाद और शादी से पहले अगर लड़के या लड़की या उनके घरवालों का कोई धोखा पकड़ में आ जाता है और वे रिश्ता खत्म करने के अलावा सामनेवाले को सजा भी दिलाना चाहते हैं, तो कोर्ट जा सकते हैं। इस तरह के मामलों में आईपीसी की धारा 402 (धोखाधड़ी) और 406 (अमानत में खयानत) के तहत मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। दोषी साबित होने पर धारा 402 के तहत सात साल और धारा 406 के तहत 3 साल तक की कैद हो सकती है। साथ में जुर्माना भी लगाया जा सकता है। अगर शिकायतकर्ता अलग से ऐप्लिकेशन दे तो उसे मुआवजा भी दिया जा सकता है।

*(खबर में लोगों के नाम बदल दिए गए हैं।)

एक्सपर्ट्स पैनल

संजीव देसवाल, सीनियर डिटेक्टिव

निलांजन रॉय, सिंपली मैरी डॉट कॉम

गीतांजलि शर्मा, मैरिज ऐंड रिलेशनशिप काउंसिलर

मनीष भदौरिया, सीनियर लॉयर

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