Quantcast
Channel: जस्ट जिंदगी : संडे एनबीटी, Sunday NBT | NavBharat Times विचार मंच
Viewing all 485 articles
Browse latest View live

... ताकि बचने की सूरत बनी रहे

$
0
0

सूरत के कोचिंग सेंटर में आग की घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। आग का खतरा घरों में भी रहता है। जब आग में फंस जाएं तब क्या करें और घर के अंदर और बाहर इन खतरों को कैसे कम किया जाए? पेश है पूरी जानकारी:

दुघर्टना के बाद भी अगर हम सचेत न हों तो इसे सही नहीं कहा जा सकता। सूरत जैसे हादसे पहले भी हुए हैं, लेकिन हम ऐसी बातों को जल्द ही भुला देते हैं। अगर कुछ बातों का ध्यान रखें तो ऐसे हादसे नहीं होंगे और होंगे भी तो जनहानि काफी कम होगी।

सूरत हादसे से 5 सबक
1. कोचिंग में एडमिशन के लिए बच्चों को उनके दोस्तों के साथ ही न भेजें क्योंकि बच्चे गहराई से चीजों का पड़ताल नहीं कर पाते। खुद जाकर पड़ताल करें।
2. यह भी जरूर देख लें कि कोचिंग कानूनी तरीके से चल रहा है या नहीं।
3. सेफ्टी नॉर्म्स में देखें:
- बिल्डिंग कितनी पुरानी है?
-आग बुझाने वाले यंत्र हैं या नहीं?
- फायर सेफ्टी क्लियरेंस है या नहीं
-फायर एग्जिट बंद तो नहीं या उसके रास्तों पर कुछ रुकावट तो नहीं?
- मेडिकल किट है या नहीं
-इमरजेंसी की स्थिति के लिए ऑक्सिजन की व्यवस्था है या नहीं?
-नजदीकी हॉस्पिटल से टाइअप है या नहीं
4. खुद पैरंट्स और बच्चों को यह बात पूरी तरह पता होनी चाहिए कि क्या करें और क्या न करें।
5. आग बुझाने और सुरक्षित बच निकलने की मॉक ड्रिल (प्रैक्टिस) हर 2-3 महीने में होती रहे।
-------------------

यह जानना जरूरी है...
1. क्या घर या दफ्तर में सब लोगों को पता है कि मेन स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
2. UPS या इनवर्टर का स्विच कहां है और कैसे बंद करना है?
3. क्या ABC क्लास का फायर एक्स्टिंगग्विशर लगा है?
4. क्या सबको पता है कि यह कहां ऱखा है और इसे कैसे इस्तेमाल किया जाता है?
5. क्या सबको फायर ब्रिगेड बुलाने का नंबर सबको पता है?
6. क्या स्मोक अलार्म लगा है? हर महीने इसकी टेस्टिंग होती है?
7. मेन गेट के अलावा दूसरे कौन-से रास्ते हैं जहां से आग लगने से सुरक्षित निकल सकते हैं?

...ताकि आग न लगे
गर्मी में आग लगने के मामले काफी बढ़ जाते हैं, खासकर शॉर्ट सर्किट के। आग न लगे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अगर कहीं आग लग जाए तो उससे कैसे निपटें?

गर्मियों में नमी कम होती है और तापमान बढ़ जाता है इसलिए कोई भी चीज आसानी से आग पकड़ लेती है। इस मौसम में इलेक्ट्रिक वायर भी जल्दी गर्म हो जाती है और जरा-सा ज्यादा लोड पड़ने पर स्पार्क होने से आग लग जाती है। वैसे, घर में ऐसी कई चीजें होती हैं, जो आग लगने की वजह बन सकती हैं।

एसी
एसी की ठीक से देखभाल न की जाए तो यह खतरनाक साबित हो सकता है। एसी आमतौर पर 15 एंपियर तक करंट झेल सकता है। अच्छी तरह रखरखाव वाला एसी 12 एंपियर का करंट लेता है, जबकि अगर एसी को बिना सालाना सर्विसिंग किए चलाया जाए तो वह 18 एंपियर तक करंट लेता है। इससे न सिर्फ वायर पर लोड बढ़ता है, बल्कि एसी जल भी सकता है। शॉर्ट सर्किट से घर में आग भी लग सकती है। जब न्यूट्रल, फेज और अर्थ, तीनों वायर या कोई दो वायर आपस में टच हो जाती हैं तो शॉर्ट सर्किट होता है।

क्या करें?

एसी के लिए हमेशा एमसीबी (MCB) स्विच लगवाएं। नॉर्मल या पावर स्विच में एसी का प्लग न लगाएं। सीजन शुरू होने से पहले एसी की सर्विस जरूर कराएं। हो सके तो सीजन के बीच में भी एक बार सर्विस कराएं। जब भी सर्विस कराएं, ट्रांसफॉर्मर आदि का प्लग खुलवा कर चेक कराएं कि कहीं कोई तार ढीली तो नहीं। एसी से आग की एक बड़ी वजह तारों के ढीले होने से स्पार्क होना है। एसी या इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट के पास पर्दा न रखें क्योंकि स्पार्क होने पर पर्दा आग पकड़ सकता है। एसी को रिमोट से बंद करने के बाद उसकी MCB को भी बंद करना चाहिए। एसी को लगातार 12 घंटे से ज्यादा न चलाएं। खिड़की-दरवाजे खोलकर एसी न चलाएं।

वायर और सर्किट
घर में वायरिंग कराते हुए हम पैसे बचाने के चक्कर में अक्सर सस्ती वायर डलवा देते हैं। इसके अलावा, एक बार वायरिंग कराकर हम निश्चिंत हो जाते हैं और उसे अपग्रेड नहीं कराते, जबकि वक्त के साथ घर में इलेक्ट्रिक गैजेट्स बढ़ाते जाते हैं। बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, ज्यादा टन का एसी, माइक्रोवेव आदि। घर में लगी पुरानी वायर इतना लोड सहन नहीं कर पाती और शॉर्ट सर्किट हो जाता है। घरों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही होता है।

क्या करें?
घर में हमेशा ब्रैंडेड वायर इस्तेमाल करें। सस्ती वायर खरीदने से बचें। वायर हमेशा आईएसआई मार्क वाली खरीदें और जितने एमएम की वायर की इलेक्ट्रिशियन ने सलाह दी है, उतने की ही खरीदें। घर के लिए वायर 1, 1.5, 2.5, 4, 6 और 10 एमएम की होती हैं। मीटर और सर्किट के बीच 10 एमएम की वायर, बाकी घर में पावर प्लग के लिए 4 एमएम और बाकी के लिए 2.5 एमएम की वायर लगती है। घर में पीवीसी वायर लगानी चाहिए, जो 1 लेयर की होती है। यह आसानी से गरम नहीं होती। वायर में टॉप ब्रैंड हैं: फिनॉलेक्स, प्लाजा, आरआर आदि। अगर आप किराये के घर में रहते हैं और घर का लोड जानना चाहते हैं तो बिजली बिल से जान सकते हैं। उस पर घर का लोड दर्ज होता है। हर 5 साल में इलेक्ट्रिशन बुलाकर वायर चेक जरूर करानी चाहिए। साथ ही मेन सर्किट बोर्ड पर पूरा लोड डालने से अच्छा है कि दो बोर्ड बनाकर लोड को बांट दें। मीटर बॉक्स भी लकड़ी के बजाय मेटल का लगवाएं। इससे आग लगने का खतरा कम हो जाता है।

दीया और अगरबत्ती
सुबह-शाम घर में पूजा करते हुए दीया और अगरबत्ती जलती छोड़ दें और उन पर ध्यान न दें तो भी आग लग सकती है।

क्या करें?
दीया जलाकर उसके ऊपर शीशे की चिमनी रख सकते हैं, जैसी पहले लैंपों में होती थी। इससे आग लगने के आसार कम होंगे।

कम जगह, ज्यादा सामान
आजकल घरों के साइज छोटे हो रहे हैं और सामान काफी ज्यादा। फर्नीचर, पर्दे और घर के दूसरे साजो-सामान भी ऐसे चलन में हैं जो जल्दी आग पकड़ते हैं। मसलन पॉलिस्टर के पर्दे, सिंथेटिक कपड़े, फोम के सोफे और गद्दे आदि।
क्या करें
घर में जरूरत का सामान ही रखें और फालतू चीजों को निकालते रहें। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स अच्छी कंपनी और बढ़िया क्वॉलिटी के होने चाहिए।

लापरवाही से बचें, रखें ध्यान
- हर रात गैस सिलेंडर की नॉब को बंद करके ही सोना चाहिए। साथ ही गैस के पाइप को हर 6 महीने में बदलते रहना चाहिए।
- ओवरलोडिंग से बचें। अक्सर हम एक ही इलेक्ट्रॉनिक सॉकेट में टू-पिन प्लग और थ्री-पिन वाला प्लग लगा देते हैं या मल्टिप्लग इस्तेमाल करते हैं। इससे लोड बढ़ जाता है और स्पार्किंग होने लगती है।
- रसोई में चूल्हे पर दूध का पतीला या तेल की कड़ाही चढ़ाकर निश्चिंत होना भी सही नहीं। ऐसा कर हम अक्सर दूसरे कामों में बिजी हो जाते हैं और तेल बेहद गर्म होकर आग पकड़ लेता है या फिर दूध उबल कर चूल्हे पर गिर जाता है। इससे चूल्हे की आग बुझ जाती है और गैस लीक होती रहती है, जो आग पकड़ लेती है।
- खराब रबड़ या खराब सीटी वाला प्रेशर कुकर यूज करना भी खतरनाक है। ऐसा होने पर कुकर ब्लास्ट कर सकता है।
- किचन में खाना बनाते समय ढीले-ढाले और सिंथेटिक कपड़े न पहनें। ये आग जल्दी पकड़ते हैं।
- इनवर्टर में पानी सही रखें। कम पानी होने, इनवर्टर की तार को अच्छी तरह कवर नहीं करने या फिर तार को ढीला छोड़ देने से स्पार्किंग हो सकती है।
- बच्चे के हाथ में माचिस न दें। यह आग लगने की वजह बन सकता है।
- फ्रिज के दरवाजे पर लगी रबड़ को अच्छी तरह साफ करें, वरना दरवाजा सही से बंद नहीं होगा। इससे कम्प्रेसर गर्म होकर आग लगने की वजह बन सकता है।
- कपड़े प्रेस करने के बाद गर्म आयरन को किसी कपड़े, पर्दे या इलेक्ट्रॉनिक प्लग के पास न रखें। गर्म आयरन की गर्मी से ये सभी चीजें आग पकड़ सकती हैं।
- बाथरूम के अंदर स्विच न लगवाएं, वरना नहाते समय या कपड़े धोते समय पानी उस पर गिर सकता है, जिससे स्पार्क हो सकता है। अंदर लगना ही है तो ऊंचाई ज्यादा हो, जहां तक पानी की छीटें न जा सकें।
- हर इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम को एक दिन में लगातार चलाने की तय सीमा होती है। फिर चाहे वह एसी हो, पंखा हो, टीवी या फिर मिक्सी ही क्यों न हो। हर प्रॉडक्ट की पैकिंग पर यह जानकारी होती है। जरूरत से ज्यादा चलाने पर इलेक्ट्रॉनिक आइटम गर्म हो जाते हैं और आग लगने का कारण बन सकते हैं।
- जब भी घर से बाहर जाएं तो सभी स्विच और इनवर्टर जरूर बंद करें।
-------------------------------

जरूरी हैं ये उपकरण
आमतौर पर घर में ड्राई केमिकल वाला फायर एक्स्टिंगग्विशर ही रखा जाता है। इस तरह के एक्स्टिंगग्विशर के सिलिंडर पर ABC लिखा होता है। मार्केट में इसके रेट वेट के हिसाब से हैं।
1 किलो : 740 रुपये
2 किलो : 900 रुपये
4 किलो : 1400 रुपये
6 किलो : 1740 रुपये
आप इन्हें ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं। इनमें टॉप ब्रैंड हैं: सीजफायर (Ceasefire), फायरफॉक्स (Firefox), अतासी (Atasi), अग्नि (Agni) आदि। इन कंपनियों के कार के भी फायर एक्स्टिंगग्विशर आते हैं।

सिलिंडरों के अलावा मॉड्यूलर एक्स्टिंगग्विशर भी बहुत काम की चीज है। अभी तक यह ऑफिस या इंडस्ट्रियल एरिया में ही लगाया जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका इस्तेमाल रेजिडेंशल एरिया में भी होने लगा है। इसे घर में कहीं भी लगा सकते हैं, लेकिन किचन में लगाना सबसे बेहतर है। यह सीलिंग में फिट होता है। इसके अंदर एक छोटा-सा बल्ब लगा होता है, जो 65 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंचते ही फट जाता है और उसमें से पाउडर निकलने लगता है, जो आग बुझा देता है। छोटा 1800 रुपये में और बड़ा 2400 रुपये में आता है। आपने घर में जो भी फायर एक्स्टिंगग्विशर रखा है, उसे साल में एक बार चेक जरूर करें। उसकी नोब ग्रीन एरिया में होनी चाहिए।

ये उपकरण भी बहुत काम के
स्मोक/फायर कर्टन: इसे एक तय एरिया में लगाया जाता है और लोकल फायर अलार्म पैनल या फिर स्मोक डिटेक्टर से कनेक्ट कर देते हैं। आग लगते ही या धुआं फैलते ही ये कर्टन ऐक्टिव हो जाते हैं। ये आग और धुएं को फैलने से रोकते हैं।

स्मोक डिटेक्टर
इसमें एक तरह का सेंसर लगा होता है, जिसे आग से फैलने वाले धुएं की मौजूदगी का पता लगाने के लिए लगाया जाता है। यह इस तरह डिजाइन किया जाता है कि जहां इसे लगाया गया है, उसके आसपास धुआं फैलते ही यह ऐक्टिव हो जाता है और फायर अलार्म सिस्टम को सिग्नल भेजता है।

फायर अलार्म सिस्टम

यह भी आग या धुएं की मौजूदगी का पता लगाने में मदद करता है। यह बिल्डिंग के फायर कंट्रोल रूम में लगा होता है। यह सिस्टम ऑटोमेटिक तरीके से काम करता है। आग लगते ही या धुआं फैलते ही यह अपने आप चालू हो जाता है। इससे पता चल जाता है कि बिल्डिंग में आग कहां लगी है।

कंवेंशनल सिस्टम
यह सिस्टम अब पुराना है। इसके जरिए सिर्फ इतना पता चल सकता है कि आग बिल्डिंग में कहां लगी है। उदाहरण के लिए बिल्डिंग के हर फ्लोर को चार-चार हिस्से में बांटा गया है तो इससे यह पता चल जाएगा कि आग किस हिस्से में लगी है।

अड्रेसेबल सिस्टम
यह आज के जमाने का सिस्टम है। इसका पैनल बिल्कुल सटीक तरीके से बताता है कि आग बिल्डिंग के किस हिस्से के कौन-से कमरे में किस जगह लगी है। इससे फायर फाइटर के लिए आग को जल्द-से-जल्द बुझाना आसान हो जाता है।

फायर होज रील

यह उपकरण हर कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में होना जरूरी है। आग बुझाने में यह बेहद कारगर है। किसी भी ट्रेंड व्यक्ति द्वारा इसे इंस्टॉल कर चालू करने में 20 से 30 सेकंड लगते हैं।

पॉर्टबल फायर होज रील

यह उपकरण हाल में मार्केट में लॉन्च हुआ है। जहां फायर होज रील को कमर्शल और रेजिडेंशल सोसायटी में बने वॉटर टैंक से कनेक्ट किया जाता है वहीं इसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि इसे किसी भी आम नल के साथ कनेक्ट किया जा सकता है।

फायर स्प्रिंकलर सिस्टम

सिर्फ ये स्प्रिंकलर ही होते हैं जो आग लगने पर सबसे पहले आग को बुझाने का काम करते हैं। कमरे का तापमान 67 डिग्री से ज्यादा होते ही इनमें लगे रबड़ पिघल जाते हैं और पानी की बौछार करने लगते हैं।

मॉड्युलर ऑटोमैटिक एक्स्टिंगग्विशर
यह स्प्रिंकलर बल्ब की शेप में फायर एक्स्टिंगग्विशर होते हैं जो कमरे की सीलिंग पर लगते हैं। इनमें भी आम फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह पाउडर भरा होता है। इन्हें सर्वर और यूपीएस रूम में लगाया जाता है।

गैस फ्लडिंग सिस्टम

इनका इस्तेमाल सिर्फ सर्वर रूम में ही किया जा सकता है। ये फायर एक्स्टिंगग्विशर की तरह सिलेंडर होते हैं जो सर्वर रूम में जरूरत के हिसाब से रखे जाते हैं। ये आग लगते ही ऐक्टिव हो जाते हैं और पाउडर रिलीज़ करते हैं।

फायर रेजिस्टेंट पेंट
यह एक तरह की कोटिंग होती है, जिसे फर्नीचर, दरवाजों और खिड़कियों पर किया जाता है। हालांकि यह पेंट किसी भी चीज को फायरप्रूफ तो नहीं बनाता, लेकिन उसमें आग लगने के टाइम को जरूर कम देता है। इससे आग को फैलने में समय लगता है और लोगों को आसानी से बचाया जा सकता है।

------------------
आग लग जाए तो...
- घबराएं नहीं और जिस चीज में आग लगी है, उसके आसपास रखी सभी चीजों को हटाने की कोशिश करें, ताकि आग को फैलने का मौका न मिले।
- अगर शॉर्ट सर्किट से आग लगती है तो मेन सर्किट को बंद कर दें और फायर एक्स्टिंगग्विशर का प्रयोग करें। अगर यह नहीं है तो आग पर मिट्टी या रेत डालें। अंदर-बाहर लगे गमले इसमें मदद कर सकते हैं। इलेक्ट्रिकल फायर में पानी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे करंट लग सकता है।
- आग ज्यादा है तो घर के सभी सदस्यों को इकट्ठे कर सुरक्षित जगह पर जाने की कोशिश करें। अगर बिल्डिंग में रहते हैं तो लिफ्ट की जगह सीढ़ियों के जरिए नीचे उतरें।
- आग लग जाने पर धुआं फैलता है इसलिए मुंह को ढककर निकलें।
- खाना बनाते समय अगर कड़ाही में आग लग जाए तो उसे किसी बड़े बर्तन से ढक देना चाहिए। इससे आग बुझ जाएगी।
- अगर सिलिंडर में आग लग जाती है तो सबसे पहले उसकी नॉब को बंद करने की कोशिश करें। फिर गीला कपड़ा या बोरी डालकर उसे ठंडा करने की कोशिश करें। साथ ही सिलिंडर को खींचकर खुली जगह पर ले जाएं।

------------------

आग काबू से बाहर हो जाए तो...

-पैनिक न हों। बचने के लिए क्या कर सकते हैं, इस पर ठंडे दिमाग से विचारें।
-अगर मुमकिन हो तो जलने वाली चीजों को बाहर फेंकने की कोशिश करें।
-अगर रास्ता बंद हो गया हो तो बाथरूम या कोने में चले जाएं और गीले कपड़े से मुंह को ढंक लें।
-आग लगे तो हो जाएं: डाउन, क्राउल और आउट
-जब आग में फंस गए हैं तो सबसे पहले झुक जाएं क्योंकि आग और धुआं हमेशा ऊपर की ओर बढ़ती है। झुकने के बाद जरूरी है कि आगे बढ़ें। झुकते हुए आगे बढ़ने के लिए रेंग कर आगे बढ़ना होगा और आखिरी में गेट आउट। बाहर निकलने के काम खिड़की या दरवाजा पहले दिमाग में खोजें और उससे बाहर निकलने की कोशिश करें।
-जींस अमूमन सभी पहनते हैं। इसकी एक खासियत दूसरी भी है, यह काफी मजबूत होती है। ऐसे में कुछ जींस को जोड़कर फौरन ही रस्सी बनाई जा सकती है। साथ ही स्कूटी, बाइक या साइकिल की की-रिंग की मदद से जींस को जोड़ सकते हैं।
-एक साथ कूदने से नीचे खड़े व्यक्तियों को कैच करना नामुमकिन हो जाता है। हां, अगर बारी-बारी से कूदेंगे तो कैच करना आसान होगा।
-अगर आग नजदीक है तो ऊपर के कपड़ों को उतारने में ही भलाई है। लोग क्या कहेंगे, यह सोचने की जरूरत नहीं।
---------------------------

जल जाने पर फर्स्ट एड

- कपड़ों या शरीर में आग लग जाए तो खड़े न रहें और न ही भागें। मुंह को ढककर जमीन पर लेट जाएं और रेंगकर चलें। इससे आग बुझ जाएगी। किसी और शख्स में आग लगी हो तो कंबल या मोटा कपड़ा डालकर आग बुझाएं। आग बुझाने के बाद उस शख्स पर पानी डालें।
- खिड़कियां खोल दें ताकि धुएं से दम न घुटे। धुएं में दम घुटने से अगर कोई बेहोश हो गया है तो सबसे पहले उसे खुली हवा में ले जाएं ताकि ऑक्सिजन मिल सके। आमतौर पर घर में ऑक्सिजन सिलिंडर नहीं होता इसलिए मरीज को तुरंत हॉस्पिटल ले जाएं। मुंह से हवा देने की कोशिश न करें क्योंकि इससे कोई फायदा नहीं होगा।
- जख्म पर टूथपेस्ट या किसी तरह का तेल लगाने की गलती न करें। इससे जख्म की स्थिति गंभीर हो सकती है और डॉक्टर को जख्म साफ करने में भी दिक्कत होगी।
- जख्म मामूली है तो उस पर सिल्वर सल्फाडाइजीन (Silver Sulfadiazine) क्रीम लगाएं। यह मार्केट में एलोरेक्स (Alorex), बर्निल (Burnil), बर्नएड (Burn Aid), हील (Heal) आदि ब्रैंड नेम से मिलती है। अगर जख्म ज्यादा हो तो हॉस्पिटल ले जाने तक उस पर नॉर्मल पानी डालते रहें ताकि जख्म गहरा न हो जाए।
------------------

घर बनाते हुए रखें ध्यान
- घर, कोठी, रेजिडेंशल बिल्डिंग आदि बनाते वक्त बिल्डिंग बायलॉज को फॉलो करना चाहिए। लेकिन 15 मीटर या उससे ऊंची बिल्डिंग बनाते वक्त इसे फॉलो करना अनिवार्य है, वरना फायर डिपार्टमेंट से एनओसी नहीं मिलेगी।
- अमूमन सभी मल्टिस्टोरी बिल्डिंगों में लिफ्ट जरूर होती है। लेकिन इसके साथ ही सीढ़ियां भी जरूर होनी चाहिए ताकि आग लगने पर सीढ़ियों के जरिए आराम से बाहर निकला जा सके। सीढ़ियों की चौड़ाई कम-से-कम 1 मीटर होनी चाहिए।
- रेजिडेंशल बिल्डिंग्स में हर दो फ्लोर छोड़कर एक रेस्क्यू बालकनी होना जरूरी है। यह इसलिए होती है ताकि आग लगने पर सभी यहां जमा हो सकें और फायर ब्रिगेड वाले उन्हें आसानी से निकाल सकें। इन बालकनी को बनाने का फायदा तभी है, जब बिल्डिंग में रहने वाले हर तीसरे-चौथे महीने छोटी-सी मॉक ड्रिल करें। किसी भी तरह की आपदा से निपटने के लिए यह जरूरी है।
- पानी की एक टंकी बिल्डिंग के ऊपर और एक अंडरग्राउंड होनी चाहिए ताकि आग लगने पर वहां से पानी निकालकर आग बुझाई जा सके।
- 15 से 40 मीटर ऊंची बिल्डिंग के चारों ओर 6 मीटर और 40 मीटर से ऊंची बिल्डिंग के लिए 9 मीटर तक की सड़क होनी चाहिए ताकि फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को वहां तक पहुंचने और चारों तरफ घूमने में परेशानी न हो और वे आग को बुझा सकें।
- आपका घर फायर-प्रूफ है या नहीं, इसकी जांच प्राइवेट फायर अडवाइजर से करा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च करने पर ये आपको मिल जाएंगे। दिल्ली में रहते हैं तो दिल्ली फायर सर्विस के डायरेक्टर के नाम लेटर लिख पास के फायर स्टेशन में दे सकते हैं। दिल्ली फायर सर्विस का कर्मचारी घर आएगा और चेक करेगा कि घर फायर-प्रूफ है या नहीं। यह सर्विस फ्री है।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।


आपको हमेशा स्वस्थ रखेंगे सेहत के ये 5 दोस्त

$
0
0

एक्सरसाइज किसी भी तरह से हो, अगर शरीर मेहनत करता है और कैलरी खर्च करता है तो फायदा शरीर को होता ही है। एक्सरसाइज के 5 शानदार तरीकों के बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं अखिलेश पांडे और दामोदर व्यास

1. बस चलते जाना है...

स्ट्रोक का खतरा कम
जनरल फिजिशन डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि जो लोग रोजाना पैदल चलते हैं, उनमें ब्रेन स्ट्रोक का खतरा बेहद कम हो जाता है क्योंकि पैदल चलने की वजह से कैलरीज बर्न होती हैं, शरीर से बैड कॉलेस्ट्रॉल कम होते हैं। ऐसा देखा गया है कि स्ट्रोक उन लोगों को ज्यादा होता है जो पैदल नहीं चलते या कोई एक्सरसाइज नहीं करते। इससे कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने लगता है और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है।

भागेगा मोटापा
मोटापा कई बीमारियों की वजह है और नियमित पैदल चलने से मोटापा आपसे दूर रहता है। बदलती जीवनशैली और फास्ट फूड पर बढ़ती निर्भरता के कारण तेजी से यह समस्या लोगों को अपनी चपेट में ले रही है। डॉक्टरों के अनुसार, मोटापा डायबीटीज, दिल के रोग और जोड़ों के दर्द की सबसे बड़ी वजह है। इनके अलावा, बढ़ती उम्र में अल्झाइमर तक की दिक्कत हो सकती है।

होगा ‘फील गुड’
जनरल फीजिशन डॉ. के. के. अग्रवाल बताते हैं कि जब रोजाना पैदल चलने की आदत बन जाती है तो बॉडी के भीतर एंडोर्फिन नाम के हॉर्मोन का रिसाव होता है, जिसे फील गुड हॉर्मोन कहा जाता है। इसके रिलीज होने से व्यक्ति के मूड में सुधार होता है और वह अच्छा महसूस करता है।

उम्र में होता है इजाफा
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि व्यक्ति जितना ज्यादा पैदल चलता है, उसकी उम्र में उतना ही इजाफा होता है। पैदल चलने से बड़ी उम्र में भी इंसान शारीरिक रूप से मजबूत रहता है। इससे उम्र के साथ बढ़ने वाली समस्याओं का असर शरीर पर बेहद कम दिखता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, अगर दिन में 80 मिनट स्लो वॉक की जाए तो घुटने, कूल्हे के दर्द से राहत तो मिलेगी ही, टखनों या पैरों में आई जकड़न भी दूर होगी। कोशिश करें कि हफ्ते में 80 मिनट तेज चाल से पैदल चलें। इससे कई तरह की बीमारियां दूर होंगी। द लैंसेट में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार, रोजाना 2 हजार कदम चलने वाले लोगों को हार्ट अटैक का खतरा ऐसा नहीं करने वालों से 10 फीसदी कम होता है।

ये जरूर अपनाएं
- बैठकर बातें करने के बजाय टहलते हुए बातें करें।
- मोबाइल पर भी बात करते हुए
टहलते रहें।
- पास की दुकानों तक टहलते
हुए जाएं।
- इंटरकॉम या फोन पर बात करने के बजाय ऑफिस में सहयोगियों से बात करने के लिए उसके पास चलकर जाएं।
- काम के दौरान एक ब्रेक लेकर थोड़ा बाहर घूमकर आएं।
- सड़क क्रॉस करने के लिए सब-वे या ब्रिज का इस्तेमाल करें।
- सुबह के वक्त टहलें। कैलरी बर्न होगी। फिर धूप से शरीर को विटामिन डी भी मिलता है।
- वॉक के दौरान ईअर फोन न लगाएं और न ही मोबाइल से बात करें।

2. साइक्लिंग से सेहत फिट
जब लोग साइकल से मीलों का सफर तय करते थे तब ज्यादा स्वस्थ रहते थे, वजह, एक तो उनकी भरपूर एक्सरसाइज होती थी, दूसरा, उस वक्त पलूशन भी इतना नहीं था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सुविधाएं बढ़ीं, यातायात के साधन बढ़े, घर-घर गाड़ियां बढ़ीं और इसी के साथ बढ़ीं मुश्किलें, बीमारियां और प्रदूषण। यूरोप के आज भी कई देश ऐसे हैं जहां अरबपति इंसान भी साइकल से ऑफिस जाना पसंद करते हैं, लेकिन अपने देश में तमाम लोग नजदीकी बाजार से सब्जी लाने के लिए भी कार या बाइक का उपयोग करते हैं। हालांकि अब बढ़ते प्रदूषण और सेहत को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से लोग साइकल को अपना रहे हैं। साइकल के कई फायदे हैं। इससे सेहतमंद तो रहा ही जा सकता है, पर्यावरण को स्वच्छ रखने में योगदान दिया जा सकता है और महंगे फ्यूल का पैसा भी बचता है। डॉक्टरों के अनुसार, साइकल चलाने से शरीर की तमाम मांसपेशियों को मजबूती मिलती है। साथ ही, इससे घुटनों और जोड़ों की समस्या से भी निजात मिल जाती है। दिल और दिमाग से जुड़ी कई समस्याओं को कम करने में भी साइक्लिंग कारगर है।

दिल दुरुस्त रखती है साइकल
अगर कोई हर रोज 20-30 मिनट के लिए भी साइकल चलाता है तो इससे दिल की कई बीमारियों से बचने में मदद मिलती है। इससे दिल की नलियों को मजबूती भी मिलती है। जेजे अस्पताल के हृदय रोग विभाग के प्रमुख डॉ. नरेंद्र बंसल बताते हैं कि साइक्लिंग बेहद आसान एक्सरसाइज है। नियमित रूप से साइकल चलाने से शरीर में रक्त संचार सही रहता है। इससे हार्ट अटैक की आशंका काफी कम होती है और लंग्स भी मजबूत होते हैं।

घटता है डायबीटीज का खतरा
जीवनशैली में हो रहे बदलाव के कारण मोटापा और डायबीटीज की समस्या तेजी से बढ़ रही है। डॉक्टरों के अनुसार, शरीर का भार बढ़ने से इंसान का ओवरऑल मूवमेंट कम होता है, जिससे डायबीटीज का खतरा बढ़ता है। अगर इंसान नियमित रूप से साइकल चलाता है तो इससे न सिर्फ उसका वजन नियंत्रित रहेगा बल्कि डायबीटीज होने का खतरा भी कम हो जाएगा। साइकल एक ओवरऑल एक्सरसाइज का बढ़िया विकल्प है।

अकड़न और जकड़न से राहत
साइकल चलाते समय पैर से लेकर हाथ और जोड़ों से लेकर मांसपेशियों तक, हर अंग का भरपूर उपयोग होता है। इससे पूरे शरीर की एक साथ एक्सरसाइज हो जाती है, बॉडी का स्टैमिना बढ़ता है और लोगों को जोड़ों की अकड़न और जकड़न से भी राहत मिलती है। जिम जाने की तुलना में साइकल चलाने के फायदे कहीं ज्यादा हैं। जिम में एक्सरसाइज बंद कमरे में होती है जबकि साइकल चलाते वक्त इंसान खुले वातावरण में रहता है। सुबह के वक्त साइकल चलाने से अच्छी मात्रा में शरीर को विटामिन डी भी मिलता है। साइक्लिंग से डिप्रेशन, टेंशन या दूसरे तरह की मानसिक समस्याओं को भी कम किया जा सकता है।

फायदे एक नजर में
- साइकलिंग से शरीर की इम्यूनिटी बेहतर होती है।
- कैलरी को बर्न कर मोटापा घटाने में भी कारगर है यह।
- 30 मिनट साइकल चलाने से शरीर की ओवरऑल एक्सरसाइज हो जाती है।
-रोजाना साइकल चलने से दिल से जुड़ी बीमारियों की आशंका कम हो जाती है।
- जोड़ो का दर्द और आर्थराइटिस से राहत मिलती है।
-ब्रेन को भी मिलती है मजबूती।

हेल्मेट खरीदें, सुरक्षा पाएं
अगर आप बिना हेल्मेट साइकल पर जा रहे हैं तो सड़क पर आपको कोई सीरियसली नहीं लेगा, लेकिन जरा हेल्मेट लगाकर देखिए, कुछ पल के लिए लोगों की निगाह आप पर टिक जाएगी। बाइक वाले भी आपको आगे बढ़ने का रास्ता देंगे।

3. जन-जन का जिम
जिम का मतलब सिर्फ तरह-तरह की मशीनों वाले एसी जिम से ही नहीं है। अब अमूमन ज्यादातर सोसायटीज, कम्यूनिटी सेंटर्स, पार्क में ओपन जिम मिल जाते हैं। जाहिर है, ओपन जिम की मदद से आप खुद को फिट रख सकते हैं।
इस जिम का फायदा सभी उम्र के लोग लेते हैं। ओपन में किसी पार्क या प्लॉट पर चलने वाले ऐसे जिम की खासियत होती है कि ये बंद कमरों में नहीं होते। सांस लेने के लिए फ्रेश हवा मिलती है। सच तो यह है कि पहले जहां पार्क में लोग सिर्फ टहलने के लिए जाते थे, अब वॉकिंग के साथ एक्सरसाइज भी करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अमूमन ऐसे जिम फ्री में उपलब्ध होते हैं तो आप जरूर इनका फायदा उठाएं। अगर आप हजारों रुपये खर्च कर एसी वाले जिम में पसीना बहाते हैं तो आपको ओपन जिम के बारे में सोचना चाहिए। जिम में इस्तेमाल होने वाली मशीनों की तर्ज पर ओपन जिम में भी कई मशीनें लगी रहती हैं जहां आप पांव से लेकर कंधे तक की भरपूर एक्सरसाइज कर सकते हैं। यही नहीं, सिक्स पैक ऐब्स भी बना सकते हैं।

पैरों के दर्द का मर्ज
पैर और घुटनों का दर्द लोगों में आम होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह एक्सरसाइज न करना या शरीर को सही मात्रा में कैल्शियम का नहीं मिलना है। ओपन जिम में लगी एरियल स्ट्रोलर मशीन से पैर और घुटनों की बेहतर एक्सरसाइज की जा सकती है। रोजाना 5-10 मिनट इस मशीन का इस्तेमाल कर आप दर्द को दूर रख सकते हैं और पैरों को मजबूत बना सकते हैं।

ट्वल से मजबूत कंधे
गोलाकार चक्र जैसी दिखने वाली मशीन का नाम ट्वल है। यह मशीन 360 डिग्री पर घूमती है। इसका मुख्य रूप से इस्तेमाल कंधे और हाथों के लिए होता है। मशीन में चक्र जैसे लगे पहिए को पहले एक तरफ घुमाएं, फिर विपरीत दिशा में घुमाएं। 5-10 मिनट तक इसका इस्तेमाल करने से फायदा होता है।

चेस्ट प्रेस से मोटापा कम
मोटापा कम करने के लिए ओपन जिम में लगी चेस्ट प्रेस मशीन काफी लाभदायक है। मशीन पर बने गद्दीनुमा कुर्सी पर बैठ जाएं और फिर दोनों तरफ से लोहे की रॉड को उठाएं। इसमें ढेर सारी कैलरी खर्च होती है। नतीजा, इससे मोटापा कम होता है और शोल्डर और कॉलर को भी अच्छा लुक मिलता है।

ऐब्स के लिए ऐब्स बोर्ड
युवाओं में ऐब्स का क्रेज दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ओपन जिम में भी युवाओं के लिए खासकर ‘ऐब्स बोर्ड’ मशीन लगाई जाती है। पीठ के बल लेटकर नीचे दिए लोहे के पाइप में पैर फंसाकर यह एक्सरसाइज की जाती है।

4. योग से भगाएं रोग
योग बीमारी से बचने या स्वस्थ रहने का सिर्फ विकल्प न होकर जीवन जीने की एक कला है। इसकी मदद से बीमारियों पर होने वाले बेवजह के खर्चों से भी बचा जा सकता है क्योंकि योग बीमारियों से निजात दिलाने में अहम भूमिका निभाता है।

हाजमा दुरुस्त
'द योग इंस्टिट्यूट' की निदेशक डॉ. हंसा योगेंद्र बताती हैं कि योग शरीर के लिए एक वरदान की तरह है, जिसकी मदद से जीवनभर बीमारियों से दूर रहा जा सकता है। हमारा जन्म स्वस्थ जीवन जीने के लिए होता है, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग इसे बीमारियों के इलाज में ही लगा देते हैं। सेहतमंद रहने के लिए आहार, व्यवहार और आचार-विचार का संतुलित होना बेहद जरूरी है। यह सिर्फ योग की मदद से ही किया जा सकता है।
दिल की बीमारी और डायबीटीज को नियंत्रित रखने में ही योग कारगार नहीं है बल्कि कई बार सर्जरी जैसी बड़ी समस्या से बचाने में भी योग अहम साबित होता है। विशेषज्ञों के अनुसार, दिल की बीमारी रक्त संचार के सही न रहने, खानपान और बेवजह की ओवर थिंकिंग के कारण होती है। योग पाचन क्रिया सही रखकर ब्लड सर्कुलेशन को संतुलित रखता है।

हॉर्मोन्स संतुलित
हॉर्मोनल असंतुलन के कारण शरीर को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसकी शिकायत महिलाओं में ज्यादा मिलती है। योग की मदद से हॉर्मोनल असंतुलन को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

सोच पर नियंत्रण
ऐसा देखा गया है कि तनाव का अहम कारण है मन में आने वाली नकारात्मक बातें और ढेर सारे नेगेटिव खयाल। नियमित योग से इस तरह की अनचाही सोच को रोका जा सकता है। योग से तन और मन में सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है ।

बढ़ाता है दौड़ने की क्षमता
सेहतमंद रहने के लिए दौड़ना बेहतर विकल्प है, लेकिन इसमें योग को शामिल कर लिया जाए तो नतीजे कई गुना बढ़ जाते हैं। योग से ब्रीदिंग कपैसिटी बढ़ जाती है। इससे फेफड़े को मजबूती मिलने के साथ, शरीर में ऑक्सिजन की मात्रा भी बढ़ती है। अमूमन हम एक-तिहाई क्षमता से ही सांस लेने में फेफड़े का उपयोग कर पाते हैं, लेकिन योग से इसे काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।

ये हैं खास आसन
अधोमुख श्वान आसन: हाथों और पैरों को जमीन पर रखकर कमर को ऊपर उठाएं। ध्यान रहे कि ऐसा करते समय घुटने और कोहनी न मुड़े। इस आसन को करने से पूरा शरीर स्ट्रेच होता है।

जानुशिरासन: समतल जगह पर बैठ कर अपने दोनों पैरों को सीधा कर सामने की ओर फैलाएं। इसके बाद सिर को घुटनों से मिलाने की कोशिश करें। इससे मांसपेशियों में लचीलापन आता है।

बद्ध कोणासन: जमीन पर बैठ जाएं और पैरों के तलवे को मिला लें। इसके बाद घुटनों को जितना हो सके जमीन से मिलाने की कोशिश करें। मसल्स में लचीलापन आता है।

सेतुबंध आसन: जमीन पर कमर के बल लेट जाएं। इसके बाद तलवों को जमीन पर टिकाएं। कमर को ऊपर की ओर उठाएं। इससे कमर को मजबूती मिलती है और दौड़ते समय कमर झुकती नहीं।

पर्वतासन: जमीन पर पद्मासन की क्रिया में बैठ जाएं। इसके बाद सांस को अंदर भरते हुए मूलबंध करके अपने दोनों हाथों को ऊपर की तरफ सीधा खड़ा कर लें और जितना हो सके, अपनी सांस को रोक कर रखें। फिर सांस को धीरे-धीरे छोड़ते हुए अपने हाथों को नीचे की ओर ले जाएं और घुटनों पर रख दें। इस आसन को करने से पैरों को ताकत मिलती है।

फायदे एक नजर में
- योग से दिल और फेफड़े को मिलती है ताकत
- सांस लेने की क्षमता में होता है इजाफा
- योग से शरीर में रक्त संचार को बढ़ाने में मिलती है मदद
- लगातार कुर्सी पर बैठने वालों के लिए खास उपयोगी
-मन को स्थिर रखने और सकारात्मक सोच की तरफ ले जाने में मददगार
-डाइजेशन सुधारने और ूनींद के लिए असरदार

5. जो तैरा, सो पार...
स्विमिंग को कंप्लीट एक्सरसाइज कहा जाता है। इसमें अमूमन शरीर की सभी मांसपेशियों का उपयोग होता है। इसीलिए लोग इसे अब जरूरी स्किल ही नहीं बल्कि फिटनेस का सटीक फॉर्म्युला भी मानने लगे हैं। 15 दिन की क्लास लेकर आसानी से स्विमिंग सीखी जा सकती है।

सुविधाजनक और सेफ
अगर आप स्विमिंग सीख गए तो यह आपको हर एक्सरसाइज से ज्यादा सुविधाजनक और सुरक्षित लगेगी। डॉक्टरों के अनुसार, एक तरफ जिम में जहां कई बार चोट लगने की आशंका रहती है वहीं बाहर एक्सरसाइज करने से प्रदूषण और गर्मी से सामना होता है, लेकिन स्विमिंग में ऐसा नहीं है। इसमें काफी एनर्जी लगती है, लेकिन सिर्फ स्विमिंग से मोटापा खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए डाइट का सही होना भी जरूरी है। स्विमिंग से शरीर का मेटाबॉलिज्म संतुलित रहता है। मोटापे से डायबीटीज की आशंका भी ज्यादा हो जाती है। ऐसे में लगातार स्विमिंग मोटापे पर नियंत्रण रखने के अलावा डायबीटीज के खतरे से भी बचाती है।

दिल को बनाए बेहतर
देश में बढ़ती दिल की बीमारी के लिए जीवनशैली और खानपान जिम्मेदार है, लेकिन दिल का खयाल स्विमिंग की मदद से बेहतर तरीके से रखा जा सकता है। दिल को बीमारियों से दूर रखने के लिए इसकी मांसपेशियों को मजबूत करना जरूरी है और इसके लिए स्विमिंग एक बेहतर ऑप्शन हो सकता है। स्विमिंग के दौरान शरीर की लगभग हर मांसपेशी काम करती है, जिससे उसे मजबूती मिलती है। किसी भी एक्सरसाइज से दिल को 3 फायदे मिलते हैं। इसमें ब्लड सर्कुलेशन को नियंत्रित रखना, कैलरी घटाना और फेफड़ों की सांस लेने की क्षमता बढ़ाना शामिल है। स्विमिंग से सभी चीजें मिलती हैं।

दिमाग के लिए वरदान
तन की तंदुरुस्ती के साथ ही स्विमिंग मन को भी स्थिर करती है। मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी बताते हैं कि स्विमिंग की तीन खासियत हैं: प्रकृति का स्पर्श, जॉय और एक्सरसाइज। ये तीनों चीजें इंसान को डिप्रेशन का शिकार होने से बचाती हैं और माइल्ड डिप्रेशन से बाहर निकालती है। ज्यादातर एक्सरसाइज कुछ खास अंगों तक सीमित होती है, जैसे: कार्डियो- हार्ट के लिए, बैक- पीठ के लिए, लेग्स- पैरों के लिए, लेकिन स्विमिंग सभी अंगों के लिए है। फिर पानी की प्रकृति शीतल है, जिससे मन को शांति मिलती है। अगर जिम जाना पसंद नहीं, दौड़ लगाना भी अच्छा नहीं लगता,
लेकिन स्विमिंग पसंद है तो आधे से एक घंटे की स्विमिंग फिट रहने के लिए
पर्याप्त है।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

जल का हल, पीने के पानी से जुड़ी सारी बातें, जानें यहां

$
0
0

10 दिन पहले नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने केंद्र सरकार से कहा है कि जिन इलाकों में पानी ज्यादा खारा नहीं है, वहां आरओ के इस्तेमाल पर बैन लगाया जाए क्योंकि इससे पानी की बहुत बर्बादी होती है और यह सेहत के लिए मुफीद भी नहीं है। खास बात यह है कि महानगरों में पानी सप्लाई करने वाली एजेंसियां भी इस बात पर जोर देती हैं कि उनका पानी सौ फीसदी शुद्ध है, लेकिन हकीकत यह है कि महानगरों में सबसे ज्यादा आरओ वॉटर प्योरिफायर ही बिक रहे हैं। क्या है शुद्ध पानी का फंडा और आरओ के इस्तेमाल में है समझदारी, एक्सपर्ट्स से बात करके ब्योरा दे रहे हैं वीरेंद्र वर्मा:

-दिल्ली, मुंबई या लखनऊ समेत देश के ज्यादातर शहरों में पानी के स्रोत या तो नदियां हैं या फिर ग्राउंड वॉटर। इनके पानी को ही साफ करके वहां की सरकारी एजेंसियां लोगों के घरों में पानी की सप्लाई करती हैं। सरकारी एजेंसी कच्चे पानी को साफ करके पाइपलाइन के जरिए लोगों के घरों में पहुंचाती हैं। हालांकि यहां दिक्कतें पुरानी पाइपलाइनों की वजह से आती हैं या फिर फैरूल से घर तक पानी पहुंचने के दौरान पानी में अशुद्धियां मिलती हैं। अगर कहीं लीकेज होती है तो सप्लाई वाले पानी में सीवर का पानी मिलने की आशंका बढ़ जाती है क्योंकि कई जगह पीने की पाइपलाइनें और सीवर की पाइपलाइनें साथ-साथ गुजरती हैं।

-पानी की पाइपलाइन पर सीधे मोटर लगाने से भी गंदा पानी आ जाता है। कई बार हमें यह पता नहीं होता कि पाइप में सप्लाई आ रही है या नहीं। अगर नहीं आ रही है और हम मोटर चालू कर देते हैं तो मोटर बाहर की गंदगी खींच लेता है।

-सप्लाई वाले पानी में अमूमन सबसे ज्यादा अशुद्धियां फेरूल से आपके घर तक जाने वाले पाइप में मिलती हैं। ऐसे में बेहतर रहेगा कि पानी का कनेक्शन जल बोर्ड के लाइसेंसी प्लंबर से ही कराएं और अगर पानी में गड़बड़ी आ रही है तो सबसे पहले अपनी लाइन की जांच कराएं। जरूरी हो तो पाइपलाइन बदलवा लें। फैरूल वह जॉइंट होता है, जहां पर जल बोर्ड की पाइपलाइन से घरों में पानी का कनेक्शन दिया जाता है। यहां लीकेज होने पर घरों के अंदर गंदा पानी सप्लाई होने लगता है।

पानी में गड़बड़ियां
पानी में दो तरह की अशुद्धियां होती हैं: घुलनशील और अघुलनशील। ये केमिकल और बायलॉजिकल होती हैं। केमिकल अशुद्धियां कई बातों पर निर्भर करती हैं। मसलन, अगर पानी के स्रोत के पास फैक्ट्रियां हैं तो उनकी गंदगी पानी में जाएगी। इसी तरह सेनेटरी लैंडफिल की गंदगी रिसकर जमीन के नीचे के पानी को खराब कर देती है। दिल्ली में गाजीपुर और भलस्वा लैंडफिल के साथ ऐसा ही हुआ है। स्टडी के मुताबिक, इन दोनों सैनिटरी लैंडफिल के 10 किलोमीटर तक के दायरे के अंडरग्राउंड वॉटर की क्वॉलिटी काफी खराब हो चुकी है। अगर खेती में कीटनाशकों का बहुत इस्तेमाल होता है तो ये केमिकल अंडरग्राउंड वॉटर में मिलकर उसे गंदा कर देते हैं।

क्या कहा है NGT ने
एनजीटी के निर्देश पर नैशनल एन्वॉयरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (Neeri), सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) और IIT-Delhi ने आरओ के इस्तेमाल पर एक रिपोर्ट तैयार कर एनजीटी को सौंपी है। रिपोर्ट के आधार पर एनजीटी ने 28 मई को पर्यावरण मंत्रालय को जारी निर्देश में ये बातें कही हैं:

-देश में 16 करोड़ 30 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता। यह संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है।

-विकसित देशों में भी आरओ का इस्तेमाल कम करने पर जोर दिया जाता है। वहां समंदर के पानी को पीने लायक बनाने के लिए आरओ इस्तेमाल होता है क्योंकि इस पानी में TDS बहुत होता है। वहीं भारत में मौजूद पानी में टीडीएस की मात्रा कम होने के बावजूद आरओ की डिमांड दिन ब दिन बढ़ रही है।

-आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियों ने पानी को लेकर लोगों में डर का माहौल बना दिया है।

-घरों में सप्लाई होने वाले पानी में अगर TDS 500mg/लीटर से कम है तो RO को बैन कर देना चाहिए।

-लोगों के घरों में जो पानी सप्लाई होता है, उसमें TDS कितना है, यह कैसे पता चले। इसके लिए सरकार को उस पानी के बारे में बिल के जरिए पूरी जानकारी दी जानी चाहिए। बिल पर लिखा रहे कि इस पानी का स्रोत क्या है और उसमें TDS कितना है।

-आरओ सिस्टम से पानी में मौजूद जरूरी मिनरल्स भी पूरी तरह निकल जाते हैं। विदेशों में आरओ के बुरे असर देखे जा रहे हैं। वहां के लोगों में कैल्शियम और मैग्निशियम की कमी होने की शिकायत आने लगी है। इसलिए भारत में आरओ सिस्टम बनाने वाली कंपनियां यह ध्यान रखें कि पानी में कम से कम 150mg/लीटर टीडीएस जरूर मौजूद रहे।

-जिन इलाकों के पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक तत्वों की मौजूदगी है, वहां के लिए भी ऐसी तकनीक लाई जाए जिससे कि इनका स्तर कम हो सके ताकि आरओ की जरूरत वहां भी नहीं पड़े।

-आरओ से पानी साफ होने की प्रक्रिया में अमूमन 80 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है और 20 फीसदी ही पीने लायक मिलता है। आरओ कंपनियों को ऐसी मशीन बनाने के लिए कहा जाए, जिसके द्वारा कम से कम 60 फीसदी पानी पीने लायक बने और 40 फीसदी से ज्यादा पानी बर्बाद न हो। वहीं साफ पानी प्राप्त करने की क्षमता को आगे कम से कम 75 फीसदी तक बढ़ाई जाए।

क्या कहना है RO कंपनियों का
'आरओ पर पाबंदी लगाना समस्या का हल नहीं है। दरअसल, पानी में टीडीएस के साथ-साथ माइक्रोप्लास्टिक, आर्सेनिक, कीटनाशक जैसी दूसरी अशुद्धियां भी होती है, जिन्हें आरओ के जरिए हटाया जाना जरूरी है। जहां तक पानी की बर्बादी की बात है तो हमने ऐसी तकनीक विकसित की है कि 80% की जगह 50% पानी ही बर्बाद होता है। हम और रिसर्च करके इसे घटाने की कोशिश कर रहे हैं। BIS और WHO के मापदंडों में कहीं भी यह नहीं बताया है कि टीडीएस कम से कम कितना हो। फिर भी हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे आरओ में कम से कम 50mg/लीटर टीडीएस पानी निकले। यह पानी स्वाद और सेहत के लिए मुफीद होता है।'
-महेश गुप्ता, चेयरमैन, केंट आरओ

क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
'अगर टीडीएस 100 तक है तो वह ठीक है। हां, किडनी के मरीजों के लिए 50 से 100 के बीच टीडीएस होना चाहिए।'
- डॉ. के. के. अग्रवाल, सीनियर कार्डियॉलजिस्ट

'सेफ वॉटर के लिए अगर बैक्टीरिया, वायरस हटाने हैं तो पानी उबालने से ये सब मर जाते हैं, लेकिन अगर उसमें हेवी मेटल्स हैं तो वे उबालने से नहीं जाएंगे। उसके लिए आरओ की जरूरत होती है।'
- डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बाइलरी साइंसेज

घर में अगर सरकारी पानी आ रहा है तो आरओ लगवाने की कोई जरूरत नहीं है। आरओ का पानी मिनरल-रहित होता है-यह बात सामने आने पर कंपनियां अब कुछ मात्रा में मिनरल मिलाने लगी हैं। पर यह कोई समाधान नहीं है। वे एक फिक्स्ड फॉर्म्युले में मिनरल मिलते हैं, पर यह फॉर्म्युले किसने तय किया है? किस आधार पर तय हुआ है? हर इलाके का जमीन का पानी अलग किस्म का होता है और पानी में करीब 140 किस्म के मिनरल होते हैं। आरओ हर तरह के वायरस का खात्मा नहीं कर पाता। मसलन: सुपरबग वायरस।
- संजय शर्मा, प्रेसिडेंट, Be Enviro Wise

TDS क्या है?
पानी में घुली हुई सभी चीजों को टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉलिड्स) कहते हैं। इसमें सॉल्ट, कैल्शियम, मैग्निशियम, पोटैशियम, सोडियम, कार्बोनेट्स, क्लोराइड्स आदि आते हैं। ड्रिंकिंग वॉटर को मापने के लिए टीडीएस पीएच और हार्डनेस लेवल देखा जाता है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड) के मुताबिक, मानव शरीर अधिकतम 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) टीडीएस सहन कर सकता है। अगर यह लेवल 1000 पीपीएम हो जाता है तो शरीर के लिए नुकसानदेह हैं। लेकिन फिलहाल आरओ से फिल्टर्ड पानी में 18 से 25 पीपीएम टीडीएस मिल रहा है जो काफी कम है। इसे ठीक नहीं माना जा सकता। इससे शरीर में कई तरह के मिनरल नहीं मिल पाते। यहां एक सवाल और है कि हमारे घरों में जो पीने के पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियां करती हैं, उनकी कितनी जांच होती है?

सरकारी एजेंसियां कैसे साफ करती हैं पानी?
एजेंसियों के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी नदी या नहर के जरिए आता है तो सबसे पहले पानी में मौजूद अशुद्धियों की जांच होती है। इसके बाद तय किया जाता है कि उस पानी को किस विधि से साफ किया जाना चाहिए।

1. पानी की जांच करने के बाद उसमें क्लोरीन मिलाई जाती है। उसके बाद फिटकरी, पॉली एल्युमिनियम क्लोराइड मिलाया जाता है, ताकि पानी की गंदगी साफ हो सके।

2. इसके बाद पानी क्लोरीफायर में जाता है, जहां अशुद्धियां और गाद नीचे बैठ जाती हैं। यहां पानी की दो बार टेस्टिंग होती है।

3. क्लेरीफायर से पानी फिल्टर हाउस में जाता है, जहां पानी छाना जाता है। फिर से पानी की जांच होती है। इसके बाद पानी को प्लांट में मौजूद जलाशयों में भेजा जाता है। यहां पर दोबारा से क्लोरीनेशन होता है। पानी साफ करने के बाद जितनी भी बार पानी की जांच होती है, उसमें घुलनशील और अघुलनशील अशुद्धियों की जांच की जाती है। अगर पानी में कोई भी गड़बड़ी पाई जाती है तो पानी की सप्लाई रोक दी जाती है। प्लांट से पानी साफ होने के बाद अंडर ग्राउंड रिजरवॉयरों में जाता है। यहां भी घरों में सप्लाई करने से पहले जांच की जाती है। इसके बाद भी जल बोर्ड लोगों के घरों में भी जाकर पानी के सैंपल जांच के लिए उठाता है। इसलिए आरओ कंपनियों का आरोप गलत है कि जल बोर्ड पानी की जांच सही से नहीं करता।

पीने के पानी के लिए
BIS स्टैंडर्ड
TDS: 0-500 ppm
PH level: 6.5-7.5
---------
WHO स्टैंडर्ड
- पानी में 300 से कम टीडीएस है तो उसे एक्सेलेंट कैटिगरी का माना जाता है।
- 300 से 600 के बीच की टीडीएस को गुड कैटिगरी में माना जाता है।
- 600 से 900 के बीच के टीडीएस को फेयर कैटिगरी में माना जाता है।
- 1200 से ज्यादा के टीडीएस वाले पानी को खराब कैटिगरी में माना जाता है।

BIS की बात
भारत में पानी की गुणवत्ता बीआईएस-10500 के तहत मापी जाती है। बीआईएस (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स) ने ड्रिकिंग वॉटर और पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर के मानकों के लिए नियम तय किए हैं। इनके अनुसार पानी में टीडीएस की मात्रा 0 से 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) होनी चाहिए। साथ ही पीएच लेवल 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। इससे ज्यादा होने पर यह नुकसानदेह है। बीआईएस के मुताबिक, पानी में कुल 82 तरह की अशुद्धियों की जांच होनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पानी में 300 से 400 तरह के केमिकल्स अशुद्धियों के रूप में मौजूद हो सकते हैं। हालांकि भारत में बीआईएस मानक के मुताबिक इनकी संख्या कम बताई गई है।

घर में क्वॉलिटी चेक
मार्केट में पानी का टीडीएस मापने की एक पेन-नुमा मशीन आती है। इसे डिजिटल टीडीएस मीटर कहते हैं। यह मीटर 600 से 1500 रुपये तक की आता है। हालांकि इससे सिर्फ टीडीएस का ही पता चलेगा। दिल्ली जल बोर्ड की लैब में फोन करके भी सैंपल चेक करवा सकते हैं। जल बोर्ड की टीम सैंपल उठाने आएगी और जांच के बाद आपको पूरी रिपोर्ट देगी। ऐसा ही दूसरे शहरों की पानी सप्लाई करने वाली सरकारी एजेंसी करती है।
दिल्ली में पानी की जांच के लिए इन नंबरों पर संपर्क किया जा सकता है:
टोल फ्री: 1916
011-23634469
9650291021


-अगर सरकारी एजेंसी द्वारा पीने के पानी की सप्लाई की जा रही है तो क्या प्योरिफायर की जरूरत है?
अगर सरकारी एजेंसियों की पाइप लाइनें सही हैं। उनमें लीकेज नहीं है और पानी टैंक में स्टोर भी नहीं किया जा रहा यानी पानी सीधे घर तक पहुंच रहा है तो वह पानी पीने के लिए सेफ है। इसके लिए आरओ की जरूरत नहीं है, लेकिन अमूमन ऐसा कम ही होता है। पानी की पाइप्स में लीकेज भी होते हैं और हम उन्हें टंकी में स्टोर भी करते हैं। ऐसे में सेरमिक फिल्टर वाला प्योरिफायर इस्तेमाल करना चाहिए।

-अगर पीने के पानी का सोर्स ग्राउंड वॉटर है, तब कौन-सा प्योरिफायर इस्तेमाल करें?
इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले ग्राउंड वॉटर की जांच कराएं। अगर पानी साफ है तो सिर्फ फिल्ट्रेशन से काम चल जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातर जगहों पर ग्राउंड वॉटर साफ है, लेकिन फैक्ट्री या डंप एरिया के करीब के ग्राउंड वॉटर में केमिकल्स मिल जाते हैं। अगर पानी में आर्सेनिक, क्लोराइड या फ्लोराइड की मौजूदगी है, तब आरओ लगाना जरूरी हो जाता है।

क्या आरओ प्यूरीफायर से मिनरल्स वाकई निकल जाते हैं?
आरओ पानी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी निकाल देता है। इन तत्वों के निकलते ही पानी की पीएच वैल्यू गिर जाती है यानी पानी फिर ऐसिडिक बन जाता है। पीएच का स्केल 0-14 के बीच होता है। पीएच वेल्यू 7 से नीचे होने पर पानी ऐसिडिक होता है। 7 से ऊपर होने पर पानी अल्केलाइन होता है। हमारा शरीर 97 फीसदी तक अल्केलाइन है। पीने लायक पानी का पीएच वैल्यू 6.5 से 8.5 के बीच होना चाहिए।

मिनरल्स की कमी को दूर करने के लिए क्या आरओ में फिल्टर के दौरान अशुद्ध पानी भी मिलाया जाता है?
पानी साफ करते वक्त आरओ 90 फीसदी तक मिनरल्स निकाल देता है। ऐसे में पानी में मिनरल्स के स्तर को बनाए रखने के लिए अमूमन 10 फीसदी इम्प्योर वॉटर मिला दिया जाता है। इस थोड़े से गंदे पानी से सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा आरओ कंपनियों का दावा है। फिर भी कुछ आरओ कंपनियां गंदे पानी की जगह दूसरे तरीके मिनरल मिला देती हैं।

क्या आरओ का पानी पीना सेहत के लिए हानिकारक है?
हां, पानी में मौजूद हर तरह की चीजों को आरओ निकाल देता है। इसमें केमिकल्स, मिनरल्स, पल्यूटेंट्स और टीडीएस भी शामिल हैं। पानी से मिनरल्स को भी पूरी तरह निकाल देने से लंबे समय तक मिनरल रहित पानी पीना सेहत के लिए समस्या पैदा कर सकता है। एक तरफ कैल्शियम के निकल जाने से हड्डियों में कमजोरी आ सकती है तो मैग्निशियम की कमी से क्रैंप्स हो सकते हैं। हालांकि, इसमें बहुत ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। कारण यह है कि अब ज्यादातर आरओ कंपनियां अपने आरओ के पानी में मिनरल्स मिलाने लगी हैं।

कौन-सा RO लें?
आरओ के इतने ब्रैंड्स और फीचर्स आने के बाद सबसे ध्यान रखने वाली बात यह है कि जो भी फाइनल करें, वह आपके इलाके के सप्लाई वॉटर के हिसाब से हो। मसलन, अगर मेट्रो सिटी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि वहां का पलूशन लेवल ज्यादा होगा। इसका असर सप्लाई हो रहे पानी पर भी पड़ेगा। ऐसे में प्योरीफायर वही लें जिसमें RO, UV, UF तीनों तकनीक हो। इसके साथ ही चूंकि जरूरी मिनरल्स की शरीर को जरूरत होती है, ऐसे में बाजार में आ चुकी TDS (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) कंट्रोलर तकनीक से लैस प्योरिफायर ही लें, जिससे शरीर में बैलंस बना रहे।

RO (रिवर्स ऑस्मोसिस)
आरओ पानी साफ करने की ऐसी तकनीक है, जिसमें प्रेशर डालकर पानी को साफ किया जाता है। इस तकनीक में पानी में घुली अशुद्धियां, पार्टिकिल्स और मेटल खत्म हो जाते हैं। आरओ का इस्तेमाल उन इलाकों में करना चाहिए जहां पानी में टीडीएस (टोटल डिसॉल्व्ड सॉल्ट) ज्यादा हो यानी पानी खारा हो। मसलन बोरवेल के पानी के लिए या समुद्री इलाकों के लिए आरओ सही है।

खूबियां
- आरओ के पानी में कोई भी अशुद्धि नहीं रहती।
- बैक्टीरिया और वायरस को ब्लॉक कर बाहर करता है।
- क्लोरीन और आर्सेनिक जैसी अशुद्धियों को भी साफ करता है।

कमियां
- बिजली की जरूरत पड़ती है।
- यह नॉर्मल से ज्यादा टैप वॉटर प्रेशर में काम करता है।
- औसतन 20 से 50 फीसदी पानी आरओ के रिजेक्ट सिस्टम से बर्बाद होता है।
- कई आरओ हमारे पीने के पानी से जरूरी मिनरल्स को बाहर कर देते हैं।

UV (अल्ट्रावॉयलेट)
इस तकनीक से पानी में मौजूद बैक्टीरिया और वायरस खत्म होते हैं। यह पानी में घुली क्लोरीन और आर्सेनिक को साफ नहीं कर सकता। इसका इस्तेमाल उन इलाकों में ही होना चाहिए जहां ग्राउंड वॉटर पहले से मीठा हो और सिर्फ बैक्टरिया को खत्म किए जाने की जरूरत हो। मसलन, पहाड़ी और कम प्रदूषण वाले इलाकों के लिए ठीक है। इसे समुद्री इलाकों में या प्रदूषित शहरों में इस्तेमाल करना सही नहीं होगा।

खूबियां
- सभी बैक्टीरिया और वायरस को खत्म कर देता है।
- यह नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।

अल्ट्रा फिल्ट्रेशन (UF)
यह एक फिजिकल तकनीक है। इसे ग्रैविटी तकनीक भी कहते हैं। इसमें किसी केमिकल का उपयोग किए बिना पानी साफ हो जाता है। इसमें तकनीक अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन तरीका एक ही है और वह यह कि यह ग्रैविटी की वजह से इसमें पानी विभिन्न परतों से होते हुए नीचे पहुंचती है और इस दौरान पानी साफ हो जाता है। कुछ में इसके लिए मेंब्रेन (झिल्ली) का इस्तेमाल होता है तो कुछ में सेरेमिक का जिससे पानी छनकर साफ होकर मिलता है।

खूबियां
- बिजली की जरूरत नहीं।
- बैक्टीरिया और वायरस को मार कर पानी से बाहर करता है।
- नॉर्मल टैप वॉटर प्रेशर में काम कर सकता है।
-किसी केमिकल इस्तेमाल नहीं होता।
-यह सस्ता है।

कमियां
पानी हार्ड हो और क्लोरीन और आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा हो तो इसका कोई फायदा नहीं। यह घुली हुई अशुद्धियों को साफ नहीं कर पाता।

पोर्टेबल प्योरिफायर
यह छोटे आकार का होता है। इसमें अक्सर नैनो टेक्नॉलजी या फिर मेटल बेस्ट प्योरिफिकेशन होता है।
खूबियां
-इसमें बिजली की जरूरत नहीं होती।
-इसे कहीं भी साथ ले जाना आसान है।
-इसे सीधे टैप में लगाकर साफ पानी मिल जाता है।

कमियां
-ज्यादा गंदा पानी के लिए कारगर नहीं।
-हार्ड वॉटर या खारे पानी में काम नहीं करता।
-बैक्टीरिया और वायरस को निकालने की इसकी क्षमता कम होती है।
-------

पानी साफ करने के परंपरागत तरीके

पानी को उबालना: वैसे तो पानी को साफ और पीने योग्य बनाने के लिए ढेरों तरीके मौजूद हैं, लेकिन सबसे पुराना तरीका है पानी को उबालना। दुनियाभर में इस परंपरागत तरीके को लोग अपनाते हैं। पानी को कम-से-कम 20 मिनट उबालना चाहिए और उसे ऐसे साफ कंटेनर में रखना चाहिए, जिसका मुंह छोटा हो ताकि उसमें गंदगी न जाए। उबले पानी को ढक कर रखें। हालांकि उबालने से पानी साफ तो हो जाता है, लेकिन उसमें मौजूद हेवी मेटल्स नहीं निकल पाते।

कैंडल वॉटर फिल्टर: पानी को साफ करने के लिए दूसरा मुफीद तरीका है कैंडल वॉटर फिल्टर। इसमें समय-समय पर कैंडल बदलने की जरूरत होती है ताकि पानी बेहतर तरीके से साफ हो सके। सिरैमिक से बने कैंडल्स पानी से बैक्टीरिया हटाते हैं। हालांकि यह पानी में घुले हुए केमिकल को निकाल नहीं पाता। इसके कैंडल को 6 महीने या इस्तेमाल के हिसाब से बदलते रहना चाहिए। कैंडल की कीमत करीब 550 रुपये से शुरू होती है। फिल्टर के साइज के साथ-साथ कीमत बढ़ती रहती है।

क्लोरिनेशन: पानी साफ करने के लिए क्लोरिनेशन बहुत पुरानी प्रक्रिया है। पानी को हानिकारक बैक्टीरिया से बचाने के लिए नगरपालिका, अस्पताल, रेलवे आदि की टंकियों में क्लोरीन का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रक्रिया से पानी साफ होने के साथ-साथ उसके रंग और गंध में भी बदलाव आ जाता है। क्लोरिनेशन से बैक्टीरिया मर जाते हैं। हालांकि इसका इस्तेमाल सही मात्रा में किया जाना चाहिए क्योंकि ज्यादा क्लोरीन से पानी के स्वाद के साथ हमारी सेहत पर भी असर पड़ता है। घरों में इसका इस्तेमाल करना हो तो एक्सपर्ट की सलाह लें।

हैलोजन टैब्लेट: इमर्जेंसी या ट्रैकिंग के दौरान पानी साफ करने के लिए हैलोजन टैब्लेट का इस्तेमाल किया जाता है। ये गोलियां पानी में पूरी तरह घुल जाती हैं। बाजार में पोर्टेबल एक्वा वॉटर टैब्लेट्स की 50 टैब्लेट्स लगभग 500 रुपये में आती हैं। इसी तरह एक्वाटैब्स वॉटर प्योरिफिकेशन की 100 टैब्लेट्स लगभग 1100 रुपये में आती हैं।
-----

सवाल-जवाब

फिल्टर होने के कितने दिनों बाद तक उस पानी पी सकते हैं?
आरओ से फिल्टर होने के बाद पानी अगर सही तापमान यानी फ्रिज में रखा है तो करीब एक हफ्ते तक ठीक रहता है।

पानी साफ होने के बाद आरओ से बर्बाद हुआ पानी पौधों में डाल सकते हैं?
एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में घरों में लगे आरओ से हर दिन काफी पानी बर्बाद हो जाता है। इतने पानी से करीब 20 लाख लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है। चूंकि आरओ पानी से सारी अशुद्धियां निकाल देता है तो बर्बाद हुए पानी में प्रदूषण ज्यादा होता है। अगर इस पानी को पौधों में डालेंगे तो पानी के जरिए प्रदूषण पौधों में भी जाएगा। साथ ही, यह पानी जमीन के अंदर जाने पर जमीन के पानी को भी खराब करेगा। हालांकि, कुछ कंपनियों का यह दावा कि इस पानी को स्टोर करके गार्डनिंग कर सकते हैं। इस बेकार पानी को इस्तेमाल करने का बेस्ट तरीका है कि इसका इस्तेमाल कपड़ा धोने और साफ-सफाई में किया जाए।

कहा जाता है कि आरओ वॉटर से बाल धोने से फायदा होता है। क्या यह सही है?
चूंकि आरओ वॉटर से प्रदूषण फैलाने वाले कण निकल जाते हैं। इसलिए आरओ के पानी से बाल धोने से फायदा हो सकता है।

पानी की टंकी के लिए सबसे बेहतरीन मटीरियल कौन-सा है?
वॉटर टैंक किसी भी मैटिरियल का हो अगर उसमें पानी लगातार निकलता और भरता रहता है तो वह हानिकारक नहीं है। अगर पानी के टैंक में पानी लंबे समय तक जमा रहता है तो मटीरियल से फर्क पड़ सकता है। वैसे फूड ग्रेड प्लास्टिक का पानी टैंक सबसे अच्छा माना जाता है। इससे पानी की क्वॉलिटी खराब नहीं होती। आजकल स्टेनलेस स्टील की भी टंकियां आने लगी हैं। सीमेंट की टंकियों की परंपरा पुरानी है।

क्या स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर शुद्ध पानी देता है?
स्टेनलेस स्टील का परंपरागत वॉटर फिल्टर तभी कामयाब होता है जब पानी में टीडीएस या क्लोराइड या फ्लोराइड या वायरस जैसी हानिकारक अशुद्धियां नहीं हैं। अगर ये अशुद्धियां हैं तो वह पानी शुद्ध नहीं कर पाता।

घर के अंदर पानी सप्लाई के लिए किस तरह की पाइप अच्छी मानी जाती हैं?
फूड ग्रेड प्लास्टिक की पाइपलाइनें सबसे अच्छी मानी जाती हैं। जीआई पाइप में जंग लगने की आशंका होती है।

अगर गर्मी में पानी की टंकी से बहुत गर्म पानी आ रहा है हो तो क्या आरओ को बंद कर देना चाहिए?
अगर पानी की टंकी का पानी 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक गर्म है तो आरओ चलाने में कोई दिक्कत नहीं है। अगर इससे ज्यादा गर्म होता है तो आरओ को बंद कर देना चाहिए।

आजकल में गली-गली में वॉटर प्यूरिफायर यूनिटें लग गई हैं। इनसे गैलन में पानी पैककर मोहल्लों, खासकर बाजारों में बेचा जाता है। क्या उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय होती है?
नहीं, उस पानी की क्वॉलिटी स्तरीय नहीं होती। अगर किसी ने बीआईएस से लाइसेंस लिया हो तो उसका पानी पी सकते हैं।

क्या पानी फूड कैटिगरी में शामिल है?
भारत में पानी फूड कैटिगरी में नहीं है। दुनिया के तमाम देशों में इसे फूड कैटिगरी में रखा गया है। अगर पानी फूड की कैटिगरी में आ जाता है तो उस पर 'प्रीवेंशन ऑफ फूड अडल्ट्रेशन ऐक्ट लागू होगा।' ऐसे में अगर पानी में कोई मिलावट हुई तो यह आपराधिक श्रेणी में आ जाएगा और पानी सप्लाई करने वाली एजेंसी पर केस दर्ज हो जाएगा। भारत में अधिकतर पानी की सप्लाई सरकारी एजेंसियों के पास ही है। अगर इस दायरे में पानी आता है तो लोगों को साफ पानी देने की जिम्मेदारी इन एजेंसियों की हो जाएगी।

क्या कोई प्राइवेट कंपनी भी पानी की जांच करती है? क्या इसके लिए पैसे भी लगते हैं?
अगर पानी गंदा आ रहा है तो इसकी जांच जल बोर्ड की लैबरेटरी से कराई जा सकती है। यह पूरी तरह से फ्री है। प्राइवेट कंपनियों से भी जांच कराई जा सकती है। मिनिस्ट्री ऑफ साइंस के तहत एनएबीएल प्रमाणित लैबरेटरी से पानी की जांच कराई जा सकती है।

एनएबीएल की वेबसाइट www.nabl-india.org पर जाकर, ऊपर लिखे Laboratory Search को क्लिक करने पर Accredited Laboratories का ऑप्शन आता है, इसमें जरूरी जानकारी भरने पर आपको नजदीकी लैब के बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। यहां से पूरे देश की लैबरेटरीज की जानकारी और उनके नंबर लिए जा सकते हैं।

----
पानी की बड़ी बोतल कितनी सेफ

कई इलाकों में पानी की सप्लाई कम होने या पानी साफ न होने की वजह से लोग पानी की 20 लीटर की बोतलें खरीदते हैं। फिलहाल 20 लीटर पानी की बोतल 40-70 रुपये में आती है। इस बड़ी प्लास्टिक की बोतल को सप्लायर कई बार इस्तेमाल करते हैं और अक्सर इन्हें ढंग से साफ नहीं किया जाता। हालांकि कुछ बड़ी कंपनियां साफ-सफाई का ख्याल रखती हैं। बोतल की गंदगी के अलावा पानी की क्वॉलिटी पर भी सवाल है। दरअसल, इन बोतलों में आरओ से साफ हुए पानी को भरा जाता है जिस पर डब्ल्यूएचओ सवाल उठा चुका है। यह सच है कि आरओ से पानी के सारे मिनरल्स निकल जाते हैं। इससे लंबे समय में शरीर की इम्यूनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

मौसमी फल खाने से पहले जान लें ये जरूरी बातें

$
0
0

जब भी हम फल खाते हैं तो उसके फल की चिंता भी साथ में हो जाती है। फल यानी उसे खाने का शरीर पर कोई उलटा असर तो नहीं होगा? ऐसे ही सवालों और चिंताओं के बारे में हमने कई एक्सपर्ट से बात की। नतीजा आया कि अगर हम कुछ एहतियात बरतें तो फल खाने पर फल की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी। इन्हीं एहतियातों के बारे में जानकारी दे रहे हैं, राजेश भारती :-

एक्सपर्ट पैनल

1. डॉ. आर. आर. शर्मा
चीफ साइंटिस्ट
पूसा इंस्टिट्यूट

2. डॉ. अशोक झिंगन
डायबीटीज एक्सपर्ट

3. स्कंद शुक्ल
सीनियर फिजिशन

4. इशी खोसला
न्यूट्रिशनिस्ट ऐंड डाइट एक्सपर्ट

5. नीलांजना सिंह
सीनियर डाइटिशन

6. एस. सी. शुक्ला
आम उत्पादक, लखनऊ

7. संजय वत्नानी
प्रमुख आम व्यापारी

8. राम गोपाल मिश्रा
प्रमुख फल व्यापारी

तरबूज के लिए मई-जून है आदर्श मौसम

तरबूज के लिए हर साल मई-जून का मौसम आदर्श माना जाता है। जिला बुलंदशहर में तरबूज और खरबूजा के उत्पादक किसान सुरेंद्र पाल सिंह के मुताबिक ज्यादा गर्मी वाला मौसम तरबूज और खरबूजा के लिए अच्छा माना जाता है, क्योंकि अधिक गर्मी से इनमें मीठापन ज्यादा आता है। यह जुलाई तक मार्केट में रहते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी मिठास कम हो जाती है और फिर इनका पीक सीजन भी खत्म हो जाता है।

तरबूज के भी हैं कई रूप


मार्केट में आपको कई प्रकार के तरबूज मिल जाएंगे। ये आपको बाहर से हरे और अंदर से लाल नजर आएंगे। वहीं अब ऐसे भी तरबूज आ रहे हैं जो अंदर से पीले निकलते हैं। तरबूज की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं:

माधुरी: यह तरबूज आकार में लंबा होता है। इसमें बाहर की ओर हरे रंग की धारियां होती हैं। यह तरबूज खाने में काफी मीठा होता है। इसकी अधिकतर खेती नदी के किनारे रेतीले स्थान पर होती है। यह तरबूज अब मार्केट में कम ही दिखाई देता है। इस वैरायटी का एक तरबूज 6 से 15 किलो का होता है। इसकी कीमत करीब 20 रुपये प्रति किलो है।

शुगर बेबी: यह भी गोलाकार और बाहर से गहरे हरे रंग का होता है। इसका आकार दूसरे तरबूजों की अपेक्षा छोटा और खाने में काफी मीठा होता है। इसी कारण इसे शुगर बेबी कहते हैं। आजकल मार्केट में ये तरबूज ही अधिक हैं। एक तरबूज का वजन 1.5 किलो से 4 किलो तक का होता है। यह थोक मार्केट में 4 से 7 रुपये प्रति किलो और रिटेल में 10 से 50 रुपये किलो तक मिल जाता है।

अनमोल: यह तरबूज बाहर से हरा, लेकिन अंदर से हल्के पीले रंग का होता है। इसका स्वाद शहद जैसा मीठा होता है। यह मार्केट में 15 से 20 रुपये प्रति किलो की दर से मिल जाता है। हालांकि दिल्ली-एनसीआर में यह कम बेचा जाता है।

ऐसे करें सही तरबूज की पहचान

तरबूज को उठाकर चारों ओर से देखें। अगर उसमें कोई निशान या कहीं से गला नजर आए तो न खरीदें। हो सकता है कि दुकानदार उस तरबूज को बेचने के लिए कुछ बहाने लगाए, लेकिन उसकी एक न सुनें।

अगर तरबूज के एक हिस्से पर गहरे पीले रंग का बड़ा धब्बा है तो वह प्राकृतिक रूप से पका हुआ होता है।

तरबूज को हथेलियों के बीच रखें और फिर धीरे-धीरे दबाकर देखें। अगर तरबूज टाइट है और दबने पर चुर्र की आवाज करता है तो समझ लें कि वह पका हुआ है।

तरबूज को हाथ से बजाकर देखें। अगर भारी और किसी धातु के बजने जैसी आवाज (टन-टन) आए तो समझिए कि वह पका हुआ है। वहीं अगर थप-थप या डब-डब की आवाज आए तो वह ज्यादा पका हुआ होता है। ऐसे तरबूज को न खरीदें।

तरबूज को उठाकर देखें। अगर वह वजन में हलका है तो उसे खरीदने से बचें। चूंकि तरबूज में पानी होता है, इसलिए उसका वजन आकार की अपेक्षा भारी होना चाहिए।

बारिश होने के बाद तरबूज में से मिठास कम हो जाती है। ऐसे में बारिश के बाद तरबूज/खरबूजा ध्यान से खाएं।

सेहत ये भरपूर तरबूज

भरपूर पानी

92% पानी

8% शुगर और कार्ब्स

न्यूट्रिशन भी कम नहीं

विटामिन: A, B, B1, B6, C, D आदि

मिनरल: आयरन, कैल्शियम, कॉपर, बायोटिन, पोटेशियम और मैग्नेशियम।

एसिड:
पैंटोथेनिक और अमीनो एसिड।

फैक्ट (100 ग्राम तरबूज में)

कैलरी: 30

पानी: 92%

प्रोटीन: 0.6 ग्राम

कार्ब्स: 7.6 ग्राम

शुगर: 6.2 ग्राम

फाइबर: 0.4 ग्राम

फैट: 0.2 ग्राम

गर्मी में आती है खरबूजा में मिठास

खरबूजा के लिए भी अधिक गर्मी का मौसम आदर्श माना जाता है। जितनी ज्यादा गर्मी पड़ती है, बेल पर लगे खरबूजा उतने ही मीठे होते हैं। बारिश पड़ने के बाद इनकी भी मिठास कम हो जाती है और धीरे-धीरे पीक सीजन खत्म हो जाता है।

खरबूजा एक रंग अनेक

वैसे तो मार्केट में कई किस्म के खरबूजा मौजूद हैं, लेकिन कुछ प्रमुख वैराइटी इस प्रकार हैं : -

नामधारी:
यह खरबूजा मुख्यत: पंजाब से आता है। यह मई-जून तक मार्केट में मिलता है। इसका छिलका सफेद सा और खुरदरा होता है। वहीं यह अंदर से संतरी रंग का और काफी मीठा होता है।

कीमत

थोक मार्केट: 7 रुपये प्रति किलो

रिटेलर: 20 रुपये प्रति किलो

लाल परी: यह खरबूजा मुख्यत: राजस्थान और यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई-जून तक रहता है। यह बाहर से दिखने में ईंट जैसा गहरा लाल होता है। वहीं इसमें बीच-बीच में पीली और हरी धारियां होती हैं।

कीमत

थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो

रिटेलर: 40-20 रुपये प्रति किलो

मधुरस: यह खरबूजा मुख्यत: यूपी से आता है। इसका सीजन भी मई से जून तक रहता है। इसका ऊपरी हिस्सा चिकना और हरे-सफेद रंग का होता है। साथ ही इसमें इसमें बीच-बीच में हरे रंग की धारियां होती हैं।

कीमत

थोक मार्केट: 15-20 रुपये प्रति किलो

रिटेलर: 40-50 रुपये प्रति किलो

लखनऊ पट्टी: इस खरबूजा की पैदावार लखनऊ में ही होती है। इसकी कारण यह लखनऊ में काफी मिलता है। हालांकि दिल्ली में भी यह खरबूजाा मिल जाता है, लेकिन कम मात्रा में। इसका सीजन भी मई-जून का होता है।

कीमत

थोक मार्केट: 15-17 रुपये प्रति किलो

रिटेलर: 20-25 रुपये प्रति किलो

ऐसे करें सही खरबूजा की पहचान

खरबूजा को उठाकर हर तरफ से चेक करें। अगर कहीं से गला दिखाई दे तो उसे न खरीदें।

अगर खरबूजा दबाने पर मुलायम लग रहा है तो उसे खरीदने से बचें। हो सकता है कि दुकानदार आपको ऐसे खरबूजा को अधिक पका या कुछ और बहाना लगाकर बेचने की कोशिश करे, लेकिन दुकानदार को ना कह दें।

खरबूजा को सूंघकर देखें। उसमें से मीठी-मीठी खुशबू आए तो वह पका हुआ और मीठा होता है।

सेहत से भरपूर खरबूज

भरपूर पानी

90% पानी

10% शुगर और कार्ब्स

न्यूट्रिशन भी कम नहीं

विटामिन: A, B1, B3, B6, C, K आदि

मिनरल: आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नेशियम, फॉस्फोरस, जिंक, कॉपर।

एसिड: पैंटोथेनिक, फैटी और अमीनो एसिड।

फैक्ट (150 ग्राम तरबूज में)

कैलरी: 53

पानी: 90%

प्रोटीन: 0.9 ग्राम

कार्ब्स: 12.8 ग्राम

शुगर: 12 ग्राम

फाइबर: 1.9 ग्राम

फैट: 0.3 ग्राम

पेस्टिसाइड का होता है प्रयोग

तरबूज और खरबूजा के बीच की बुवाई के समय काफी जगह खतरनाक पेस्टिसाइड का प्रयोग किया जाता है। यही नहीं, तरबूज और खरबूजा की बेल की ग्रोथ के लिए काफी जगह ड्रॉप सिंचाई का प्रयोग करते हैं, लेकिन इसके लिए पेस्टिसाइड मिले पानी का प्रयोग होता है। जब तरबूज और खरबूजा बड़ा होता है तो पेस्टिसाइड का काफी हिस्सा इनमें चला जाता है और ऐसे तरबूज/खरबूजा खाने से सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

दावा और सचाई

दावा किया जाता है कि तरबूज और खरबूजा में उनका आकार बढ़ाने, मीठापन लाने और पकाने के लिए इंजेक्शन के जरिए कुछ दवा का प्रयोग किया जाता है। इन दावों के बीच हमने भी तरबूज और खरबूजा को लेकर एक एक्सपेरिमेंट किया। हमने दोनों फलों में इंजेक्शन की एक खाली निडल डाली और करीब 10 सेकेंड बाद निकाल ली। इसके बाद हमने दोनों फलों को कमरे के सामान्य तापमान पर तीन दिन के लिए छोड़ दिया। तीन दिन बाद जब हमने दोनों फलों को देखा तो उनकी स्थिति बुरी थी। खरबूजा का न केवल रंग बदल गया था, बल्कि वह बहुत ज्यादा सॉफ्ट हो गया था। जब उसे काटा गया, तो अंदर से भी खराब निकला। वहीं तरबूज के जिस जगह निडल डाली गई थी, वह हिस्सा अंदर से गल गया था। तरबूज का बाकी हिस्सा भी खाने लायक नहीं बचा था। इससे पता चलता है कि अगर इन फलों में किसी भी प्रकार का इंजेक्शन लगाया जाता है, तो वह दो-तीन दिन में ही खराब हो जाएगा। तरबूज/खरबूजा में इंजेक्शन के बारे में हमने पूसा के वैज्ञानिकों, उत्पादकों और थोक विक्रेताओं से इस बारे में पूछा तो उन्होंने इनकी पुष्टि नहीं की। इसलिए हम भी यह दावा नहीं करते कि तरबूज या खरबूजा में इस तरह की मिलावटें की जाती हैं, लेकिन इन्हें खरीदते समय सावधानी जरूर बरतें।

कब और कितना खाएं

तरबूज रोजाना 300 से 400 ग्राम और खरबूजा 150 से 200 ग्राम खाना काफी रहता है। इन्हें खाने का कोई निश्चित समय नहीं है। खाना खाने से पहले या खाना खाने के बाद। अगर तरबूज-खरबूजा को मिक्स करके भी खाएं तो भी कोई परेशानी नहीं है। आम धारणा है कि तरबूज में नमक (काला या सफेद) मिलाकर खाना चाहिए। दरअसल, चुटकी भर नमक मिलाने से इन फलों में कुछ एक्स्ट्रा मिनरल जुड़ जाते हैं, जो हमारे शरीर के लिए अच्छे रहते हैं। हालांकि तरबूज में नमक मिलाकर उन्हीं लोगों को खाना चाहिए जिनका अधिक पसीना निकलता है।

कैसे और कहां रखें तरबूज/खरबूजा

सबसे पहले तो तरबूज और खरबूजा उतने ही खरीदें, जितने आप एक बार में खा सकें। अगर किसी कारण से तरबूज/खरबूजा बच गए हैं तो उन्हें कटा हुआ या टुकड़ों में काटकर न छोड़ें। अगर मजबूरी में कटा हुआ छोड़ना पड़े तो उन्हें एयरटाइट ढक्कन वाले कंटेनर या पॉलीथीन से ढककर फ्रिज में रख दें। यहां ध्यान रहे कि कटे हुए तरबूज/खरबूजा को दो घंटे से ज्यादा समय तक फ्रीज में न रखें। काटकर ठंडा करने के लिए फ्रिज में रखने से बेहतर है कि जब खाना हो, साबुत ही दो घंटे पहले फ्रिज में रख दें। अगर तरबूज/खरबूजा कटे हुए नहीं हैं तो उन्हें फ्रिज में रखने के बजाय सामान्य तापमान पर ही घर में छांव में रखें।

तरबूज को बिना काटे गर्मी के मौसम में घर पर छांव में 5 से 7 दिन तक रखा जा सकता है।

खरबूजा को बिना काटे गर्मी के मौसम में दो दिन तक घर में रख सकते हैं। ध्यान रखें कि इस दौरान खरबूजा छांव और ठंडी जगह पर रखा हो।

डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें...

डायबीटीज के हर मरीज को कोई भी फल खाने में परेशानी नहीं है। हर फल का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (Glycemic Index) होता है। जिन फलों का GI 40 से 90 के बीच होता है, उन फलों की 100 ग्राम मात्रा डायबीटीज के मरीज रोजाना खा सकते हैं। हालांकि इस दौरान उन्हें वह चीज कुछ कम खानी होगी जिनमें शुगर होता है। यहां तरबूज का GI 72 और खरबूजा का GI 65 है। ऐसे में इन दोनों फलों को 100 ग्राम तक डायबीटीज के मरीज खा सकते हैं। वहीं किडनी के मरीजों को तरबूज या खरबूजा खाने को लेकर मिली-जुली प्रक्रिया है। चूंकि दोनों फलों में पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज इन दोनों फलों को डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।



आम पर भी दें ध्यान

आम का सीजन शुरू हो चुका है। मार्केट में कई वैरायटी के आम आ भी चुके हैं। लेकिन अभी डाल के पके आम मार्केट में काफी कम मात्रा में आ रहे हैं। दरअसल, इन आमों को कच्चा ही पेड़ से तोड़ लिया जाता है और आर्टिफिशल तरीके से पकाया जाता है। अगर ये आम सही तरीके से पकाए नहीं गए हैं, तो इन्हें खाने से सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है।

आम का असली सीजन अब हुआ है शुरू

हो सकता है कि आपको मार्केट में आम कुछ समय पहले से ही दिखाई देने लगे हों, लेकिन इसका असली सीजन अब शुरू हुआ है। चाहे सफेदा आम हो या दशहरी या लंगड़ा या चौसा, ये सभी आम जून के आखिरी महीने से मार्केट में आने शुरू होंगे जो जुलाई-अगस्त तक रहेंगे। इनमें दशहरी और चौसा आम मुख्यत: यूपी से आना शुरू होगा।

डाल का पका आम होता है बेस्ट

पका हुआ बेस्ट आम डाल का ही माना जाता है। यह आम न केवल सेहत के लिए अच्छे होते हैं, बल्कि काफी मीठे भी होते हैं। ये आम पकने पर अपने-आप डाल से टूटकर गिर जाते हैं। हालांकि इस तरह के पके हुए आम मार्केट में काफी कम मिलते हैं, क्योंकि पेड़ पर इन्हें पकने में कुछ समय लगता है।

कच्चे आमों को घर पर ऐसे पकाएं

कच्चे आमों को घर पर कई तरह से पकाया जा सकता है। इन्हें पकाने के लिए सबसे पहले कच्चे आम पूरी तरह परिपक्व होने चाहिए। यानी वे आकार में बड़े हों और दबाने पर कड़े हों। घर पर कच्चे आमों को इस तरह पका सकते हैं:

देसी तरीका: कच्चे आमों को टिश्यू पेपर या अखबार में लपेटकर 3-4 दिन के लिए किसी ऐसी जगह रख दें जो घर के बाकी हिस्सों की अपेक्षा कुछ गर्म हो। यहां ध्यान रहे कि आम रखने की जगह पर अंधेरा भी होना चाहिए। 3-4 दिन पर आम को थोड़ा दबाकर देंगे। अगर वह दब जाए तो समझ लें कि आम पक गया है।

इथरेल दवा से: इस दवा को पानी में मिलाकर उनमें कच्चे आमों को डुबोया जाता है। करीब पांच मिनट बाद आमों को निकालकर अलग किसी बड़े बर्तन में रख देते हैं। इसके बाद उन आमों को ऐसे ही करीब रातभर छोड़ दिया जाता है। सुबह आम पके हुए मिलते हैं। इस तरह से पके आमों को खाने से सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। इथरेल की 100 ml की शीशी करीब 250 रुपये में आती है।

इन बातों का रखें ध्यान

इथरेल दवा और पानी का घोल इतना होना चाहिए कि आम उसमें डूब जाएं।

इथरेल दवा की 500 ml मात्रा के लीटर पानी के लिए काफी होती है। इसलिए दवा और पानी का रेश्यो इसी अनुपात में रहे। अगर आपके पास एक किलो कच्चे आम हैं और आपको लगता है कि ये दो लीटर पानी में पूरी तरह डूब जाएंगे तो दो लीटर पानी में इथरेल दवा की 1000 ml मात्रा मिलाएं।

3. पुड़िया (Ethylene Ripener)

यह मार्केट में पुड़िया के रूप में आती है। इसमें एक केमिकल पाउडर के रूप में होता है। इसे पानी से भिगोकर कच्चे आमों के बीच में रख दिया जाता है और फिर करीब 20 घंटे के लिए आमों को छोड़ दिया जाता है। इस दौरान ध्यान रहे कि आम पूरी तरह से किसी पुराने अखबार से ढके हों और एसी के संपर्क में न हों। इससे निकलने वाली गैस से आम पूरी तरह पक जाते हैं। इस तरीके से पके आम सेहत के लिए हानिकारक नहीं होते।

कमर्शल रूप से ऐसे पकाए जाते हैं आम

एथिलीन गैस का प्रयोग: कदर डेयरी के सफल प्लांट में आम पकाने के लिए एथिलीन राइपनिंग चैंबर का प्रयोग किया जाता है। इस दौरान कच्चे आमों को एक चैंबर में रखा जाता है। इस चैंबर का तापमान 20 से 22 डिग्री सेल्सियस रखा जाता है और इसमें ऐथिलीन गैस का इस्तेमाल किया जाता है। इस गैस के कारण आम रातभर में ही पक जाते हैं। इस तरह से पके आम सेहत के लिए नुकसानदायक नहीं होते।

कैल्शियम कार्बाइड: आमों को पेड़ से कच्चा तोड़ने के बाद उन्हें कैल्शियम कार्बाइड से भी पकाया जाता है। आम पकाने का यह तरीका सेहत के लिए काफी खतरनाक होता है। कैल्शियम कार्बाइड से आर्सेनिक जैसी घातक गैसें निकलती हैं। इस तरीके में कैल्शियम कार्बाइड को एक छोटी पुड़िया में रखकर उसे आमों के बीच में रख देते हैं। इसके बाद इन आमों को करीब 24 घंटे के लिए अंधेरी और सामान्य तापमान वाली जगह रख दिया जाता है। 24 घंटे बाद आम पक जाते हैं। बाद में इस पुड़िया को फेंक दिया जाता है और आमों को मार्केट में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।

ऐसे करें पके आम की पहचान


आम के ऊपर सफेद धब्बे या पाउडर जैसा कुछ न हो।

पका हुआ आम पूरी तरह से मैच्योर नजर आएगा।

आम के डाल वाले और उसके निचले हिस्से को थोड़ा दबाकर देखें। अगर ऊपर का हिस्सा सॉफ्ट और निचला हिस्सा ज्यादा टाइट तो इसका मतलब कि उसे सही तरह से पकाया नहीं गया है।

सही तरह से पके आम का रंग एक जैसा और थोड़ा सुनहरा होता है।

अच्छी तरह से पका आम थोड़ा सॉफ्ट होता है। अधपका आम कहीं से सॉफ्ट और कहीं से ठोस होगा जबकि कच्चा आम पूरा ही ठोस होगा।

ऐसे खाएं आम

आमों को नमक मिले गुनगुने पानी में एक-दो घंटे के लिए छोड़ दें।

अब आम को साथ से रगड़े और फिर से साफ पानी से धो लें। इसके बाद साफ आम को कपड़े से पौछ लें।

इसके बाद आम का डंठल वाला हिस्सा हल्का-सा काट कर कुछ बूदें रस निकाल दें और आम को खा लें।

कई बार लोग आम को छिलके समेत काट लेते हैं और फिर उसे खाते हैं। कई बार खाने का तरीका ऐसा होता है कि आम का छिलका भी मुंह में आ जाता है। इससे बचें, क्योंकि अक्सर आमों पर खतरनाक पेस्टिसाइड का छिड़काव होता है।

डायबीटीज और किडनी के मरीज ध्यान दें

आम में तरबूज और खरबूजा की अपेक्षा अधिक शुगर होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि डायबीटीज के मरीज आम नहीं खा सकते। आम का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (GI) 51 से 55 के बीच होता है। ऐसे में डायबीटीज वाला मरीज एक दिन में 50 से 60 ग्राम आम खा सकता है। हालांकि मरीज को इस दौरान ऐसी दूसरी चीजें खाने की मात्रा कम करनी पड़ेगी। आम में भी पोटेशियम होता है। ऐसे में किडनी के मरीज डॉक्टर की सलाह के अनुसार ही खाएं।

एक दिन में इतने खाएं आम

आम खाना काफी हद तक आपके रुटीन पर निर्भर करता है। अगर मान लें कि एक आम का वजन 300 से 400 ग्राम है और अगर आप बहुत ऐक्टिव नहीं हैं और एक्सरसाइज नहीं करते हैं तो दिन भर में 2 से ज्यादा आम न खाएं। अगर आप ज्यादा आम खाना चाहते हैं तो बाकी चीजें जैसे कि कार्बोहइड्रेट (रोटी, चावल, मैदा, बेसन आदि) कम कर दें। वैसे, अगर कोई बीमारी नहीं है, वजन भी ज्यादा नहीं है और कसरत भी करते हैं तो दिन भर में 3-4 आम तक खा सकते हैं। इससे ज्यादा आम खाना सही नहीं है।

आम को बनाएं खास

सवाल: घर पर आम कितने दिनों तक खाने लायक रहते हैं?

जवाब: आम को घर में बिना फ्रिज के तीन दिन तक रख सकते हैं। वहीं फ्रिज में आम को 10 दिन तक रखा जा सकता है।

सवाल: आम को खाने का सही समय कौन-सा है?

जवाब: आम को किसी भी समय खाया जा सकता है। साथ ही आम को खाली पेट या खाने के बाद कैसे भी खा सकते हैं। हालांकि बेहतर समय रात का माना जाता है। रात को आम खाकर बिना चीनी के एक गिलास गुनगुना दूध पीना सेहत के लिए काफी लाभदायक माना गया है।

सवाल: आम खाने के क्या फायदे हैं?

जवाब: आम में विटामिन, बीटा कैरोटीन और फाइबर होते हैं। इससे हमारा इम्युनिटी सिस्टम ठीक बना रहता है। विटामिन ए की भरपूर मात्रा होने के कारण यह हमारी आंखों के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। साथ ही इसे खाने से तुरंत एनर्जी मिलती है।

सवाल: आम खाने से फुंसियां हो जाती हैं। फुंसियां न हों, इसके लिए क्या करें?

जवाब: आम गर्मी के कारण पकता है। ऐसे में हो सकता है कि आम खाने से उसकी गर्मी के कारण कुछ लोगों को फुंसियां हो जाती हों। कई बार कुछ लोगों को आम से एलर्जी भी होती है। इनसे बचने के लिए आम को धोकर उसके ऊपरी हिस्से को पहले ही थोड़ा ज्यादा काट दें, जिससे कि ऊपर का जो अम्ल होगा, वह निकल जाएगा क्योंकि उससे भी कई बार फोड़े-फुंसी होने की संभावना होती है। अगर फिर भी फुंसियां होती हैं तो डॉक्टर से संपर्क करें।

लीची खाएं, लेकिन ध्‍यान से

बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार यानी एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एसईएस) से करीब 72 बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी वजह से 200 बच्चे बीमार हो गए हैं।
70 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है। वहीं इसकी चपेट में 200 से ज्यादा बच्चे आ गए हैं। इन मौतों की वजह हाइपोग्लाइसीमिया और अन्य अज्ञात बीमारी है। कुछ रिपोर्ट में इन मौतों की वजह को लीची भी बताया गया है। रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि लीची में पाए जाने वाले एक जहरीले तत्व की वजह से यह मौतें हो रही हैं। अगर आप खुद या बच्चे को लीची खिला रहे हैं तो इन बातों का ध्यान रखें:

कुपोषित बच्चों को लीची न खाने दें

चमकी बुखार का असर 10 साल तक के कुपोषित बच्चों पर ही पड़ रहा है। एक्सपर्ट के मुताबिक इन बच्चों को ठीक ढंग से खाना और जरूरी पोषक तत्व नहीं मिल पाता है। इस कारण इन बच्चों के शरीर की इम्युनिटी कम होती है। सुबह को ये बच्चे खाली पेट ही लीची को बिना ढंग से साफ किए खा लेते हैं। इसके बाद बच्चों के शरीर में शुगर का लेवल गिरना शुरू हो जाता है और बच्चा बीमार पड़ जाता है।

कुपोषित बच्चों की पहचान

बच्चा पतला-दुबला होता है और उसकी हड्डियां दिखाई देती रहती हैं।

बच्चे का शरीर पतला और पेट बाहर की ओर निकला रहता है।

बच्चे के बाल कुछ सुनहरी हो जाते हैं।

बच्चा शारीरिक रूप से ऐक्टिव नहीं होता है और अधिकतर समय एक ही जगह बैठा-बैठा रोता रहता है।

उम्र के अनुसार बच्चे की लंबाई और वजन का अनुपात सही नहीं होता है।

घाव भरने में अधिक समय लगता है।

बच्चे को सांस लेने में परेशानी होती है और वह चिड़चिड़ा रहता है।

अधपकी या कच्ची लीची न खाएं

लीची कभी भी अधपकी या कच्ची और खाली पेट नहीं खानी चाहिए। पकी और बिना कीड़े वाली लीची को पहले छील लें। अब उसके खाने वाले हिस्से (गूदा) को उसकी गुठली से अलग कर लें। गूदा को भी गौर से देखें कि कहीं उसमें भी कीड़े तो नहीं हैं। अगर गूदा में कीड़े नहीं हैं तो उसे किसी बर्तन में इकट्ठे कर लें। इकट्ठे उतने ही करें जितना आप खा सकें। इसके बाद गूदा को फिर से साफ पीने वाले पानी से दो बार धोएं। अब इस गूदे को खा सकते हैं। यह तरीका आपको लंबा जरूर लग सकता है, लेकिन सेहत के लिए जरूरी है।

कीड़ों का रखें ध्यान

इस फल में कीड़े मिलने की भी आशंका ज्यादा होती है। लीची का वह हिस्सा जो डंठल से लगा होता है, वहां कीड़े अधिक मिलते हैं। इन कीड़ों का रंग लीची के रंग जैसा होता है, इसलिए ये कई बार दिखाई भी नहीं देते। लीची खाते समय कीड़ों का ध्यान रखें। अगर कीड़े दिखाई दें तो उस लीची को फेंक दें।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

आयुर्वेद में भी होती है सर्जरी

$
0
0
कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है।कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है।

काम की बातें, तो ऐडमिशन में ठगे नहीं जाएंगे

$
0
0
ऐडमिशन दिलाने के नाम पर ठगी के कई मामले सामने आ चुके हैं जिनमें छात्रों को चूना लगाया गया है। आप सावधानी बरतें तो इससे बच सकते हैं। आइए इससे जुड़े सभी पक्षों के बारे में बताते हैं...ऐडमिशन दिलाने के नाम पर ठगी के कई मामले सामने आ चुके हैं जिनमें छात्रों को चूना लगाया गया है। आप सावधानी बरतें तो इससे बच सकते हैं। आइए इससे जुड़े सभी पक्षों के बारे में बताते हैं...

मॉनसून टिप्स जिनसे आप रहेंगे हेल्दी और सेफ

$
0
0
मॉनसून आने पर वातावरण में आई ठंडक से राहत तो महसूस होती है लेकिन इस मौसम में कुछ सावधानियां बरतने की जरूरत होती है ताकि सेहत के साथ जान पर कोई आंच न आए।मॉनसून आने पर वातावरण में आई ठंडक से राहत तो महसूस होती है लेकिन इस मौसम में कुछ सावधानियां बरतने की जरूरत होती है ताकि सेहत के साथ जान पर कोई आंच न आए।

हेपटाइटिसः अगर हम होशियार तो यह खतरनाक नहीं

$
0
0

हेपटाइटिस का नाम लेते कुछ डर-सा लगता है, लेकिन सच यह है कि अगर हम होशियार रहें तो यह उतना खतरनाक नहीं है। विशेषज्ञों से बात कर जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती

क्या है हेपटाइटिस
सामान्य शब्दों में इसे लिवर में हेपटाइटिस वाइरस (HBV) का इन्फेक्शन कह सकते हैं। यह वाइरस खून, असुरक्षित सेक्स, दूसरों के इस्तेमाल की गई सूई से फैलता है और हां, मां से उसके नवजात बच्चे में भी। चूंकि यह वाइरस सीधे लिवर पर हमला करता है और इस वजह से लिवर में सूजन आ जाती है, इसलिए बीमारी को हेपटाइटिस नाम दिया गया।

कितनी तरह की हेपेटाइटिस
-A, B, C, D, E और G
-इनमें A और B सबसे कॉमन हैं।
-A और E ज्यादा खतरनाक नहीं होते।
-B और C सबसे खतरनाक होते हैं और इन्हें क्रॉनिक हेपटाइटिस माना जाता है।
-D कभी भी अकेला नहीं रहता। यह हमेशा B के साथ ही ऐक्टिव होता है।
- हेपटाइटिस A और B के लिए वैक्सीन उपलब्ध है, लेकिन हेपटाइटिस C के लिए नहीं।
-हेपटाइटिस E और G के मामले बहुत कम होते हैं।

हेपटाइटिस के लक्षण
-जोड़ों और पेट में दर्द, उलटी और कमजोरी
-हमेशा थकान रहना
-बुखार आ जाना और यूरिन का रंग गाढ़ा होना
-भूख कम लगना
-त्वचा पीली पड़ना और आंखों का सफेद हिस्सा भी पीला पड़ना
-पेशाब का रंग पीला होना

नोट: सामान्य फीवर और हेपटाइटिस के लक्षणों में कुछ खास फर्क होता है। मसलन, सामान्य बुखार में पेट दर्द, पेशाब का पीला होना जैसे लक्षण नहीं आते जबकि हेपेटाइटिस में ये खास लक्षण होते हैं। ऐसे लक्षण किसी दूसरी बीमारी में भी हो सकते हैं, इसलिए डॉक्टर से जरूर सलाह लें।

हेपटाइटिस के टेस्ट
अगर ऊपर के लक्षण हैं तो सबसे पहले लिवर फंक्शन टेस्ट (LFT) करवाया जाता है। इससे यह पता चलता है कि लिवर सही ढंग से काम कर रहा है या नहीं। अगर लिवर फंक्शन में कोई समस्या दिखती है तो फिर वाइरस की पहचान के लिए टेस्ट करवाया जाता है। LFT का खर्च 500-1200 रुपये होता है।
रिपोर्ट: ब्लड सैंपल सुबह देने पर शाम तक या दूसरे दिन रिपोर्ट मिल जाती है।

इतना खतरनाक क्यों
इसकी सबसे बड़ी वजह है कि इसका इन्फेक्शन साइलेंट होता है। कई बार लोगों को इन्फेक्शन होता है, लेकिन उन्हें साल, दो साल तक पता नहीं चलता। इस वाइरस की वजह से कभी-कभी लिवर कैंसर भी हो सकता है।

कितनी तरह के हेपटाइटिस B
1. एक्यूट हेपटाइटिस बी: इसका इन्फेक्शन 6 महीने तक रह सकता है। हेपटाइटिस B पैनल टेस्ट से इसके बारे में पता चल जाता है।
2. क्रॉनिक हेपटाइटिस B: अगर ब्लड में हेपटाइटिस बी का वाइरस 6 महीने से ज्यादा समय से हो तो उसका इलाज क्रॉनिक हेपटाइटिस बी के रूप में किया जाता है। यह ज्यादा खतरनाक है।

कैसे फैलता है
-संक्रमित ब्लड दूसरे शख्स के शरीर के ब्लड से संपर्क होने पर
-संक्रमित शख्स के साथ असुरक्षित सहवास करने से
-सूई जैसी चीजें जिन पर खून लगने का अंदेशा हो, उसे दोबारा इस्तेमाल करने पर अगर पहला शख्स संक्रमित हो
-मां से उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को
-ऐसे हॉस्पिटल या ब्लड बैंक से ही खून लें, जहां तरीके से चेक करने के बाद ही खून लिया जाता हो
-टैटू लगवाने के दौरान
-दांत का इलाज कराने के दौरान इन्फेक्टेड इक्वेपमेंट्स इस्तेमाल करने से
नोट: यह छूने से नहीं फैलता और न ही हवा, छींकने से, खांसी या टॉयलेट की सीट इस्तेमाल करने से

वैक्सीन लगाने की जरूरत
-वैक्सीन सभी बड़ों को लगवाने की जरूरत नहीं, हालांकि कुछ डॉक्टर सभी को वैक्सीन लगाने की सलाह देते हैं।
-सभी नवजात (1 साल तक के बच्चे) को लगवाना जरूरी
-मेडिकल फील्ड और पब्लिक सेफ्टी के लिए काम करने वाले लोगों को
-जिनकी किडनी खराब हो और डाइलिसिस होता हो
-जिन्हें बार-बार अपना खून बदलवाना पड़ता हो
-प्रेग्नेंसी के दौरान nड्रग्स लेने वाले या जिन्होंने पहले ड्रक्स लिया हो
-शरीर पर टैटू बनवाने वाले लोग nअसुरक्षित सेक्स किया हो तो
-जिनकी फैमिली में हेपटाइटिस बी किसी को पहले या अभी हुआ हो
-अगर किसी को यह वैक्सीन पहले लग चुका है तो उसे नहीं लगवाना चाहिए।

कितना सुरक्षित है वैक्सीन
हेपटाइटिस B वैक्सीन असरदार है। दरअसल, यह वैक्सीन कैंसररोधी है। यह बीमार शख्स में लिवर कैंसर होने से रोकता है। दुनिया में 80 फीसदी से ज्यादा लिवर कैंसर के मामले हेपटाइटिस B की वजह से ही होते हैं।

नोट: अगर किसी को पहले यह वैक्सीन लग चुका है, लेकिन उसे ठीक से याद नहीं तो सबसे पहले उसे डॉक्टर की सलाह से ब्लड टेस्ट (anti-HBs) करवाना चाहिए। वैसे दोबारा लेने से कोई नुकसान नहीं होता।

हेपटाइटिस A
हेपटाइटिस A क्रॉनिक (जो बीमारी लंबे समय तक रहे) नहीं, एक्यूट (ऐसी बीमारी जो कम समय तक रहे यानी कम खतरनाक) है। यह लिवर को अमूमन नुकसान नहीं पहुंचाता।
वैक्सीन-
बच्चों में: 18 से 20 महीने की उम्र में
खर्च: 2000 से 2500 (पेनलेस)
सामान्य: 400 से 600
बड़ों में: शरीर में हेपेटाइटिस A के लिए एंटीबॉडी कम होने पर डॉक्टर के कहने पर।
खर्च: 2000 से 2500 (पेनलेस)
सामान्य: 400 से 600

टेस्ट : Hepatitis A IgM खर्च: 200-300

बचाव: हेपटाइटिस A गंदे खानपान से फैलता है, इसलिए साफ खानपान जरूरी है।

हेपटाइटिस C
सी वायरस का इन्फेक्शन होने के करीब डेढ़ से दो महीने बाद लक्षण नजर आते हैं। जिन मामलों में एक महीने से चार महीने में लक्षण नजर आ जाते हैं, उन्हें एक्यूट कहा जाता है। इन्फेक्शन को छह महीने से ज्यादा हो जाए तो वह क्रॉनिक कहलाता है। ऐसा होने पर मरीज के पूरी तरह ठीक होने के आसार कम हो जाते हैं। हालांकि क्रॉनिक के मामले कम ही होते हैं। जिनको बचपन में यह इन्फेक्शन होता है, ज्यादातर उन्हीं में बड़े होने पर क्रॉनिक हेपटाइटिस होता है।
टेस्ट: HCV RNA खर्च: 5000-6000 रुपये
नोट: हेपटाइटिस सी की वैक्सीन उपलब्ध नहीं है।
(खर्च में कमी-बेशी मुमकिन है।)

प्रेग्नेंसी और हेपटाइटिस
मां को अगर हेपटाइटिस है तो बच्चे के भी इससे पीड़ित होने की आशंका रहती है। प्रेग्नेंसी के दौरान सही इलाज न हो तो महिला को ब्लीडिंग हो सकती है और बच्चे व महिला, दोनों की जान जा सकती है। अगर मां को पहले से मालूम है कि उसे हेपटाइटिस है तो उसे डॉक्टर को जरूर बताना चाहिए। जिन महिलाओं को हेपटाइटिस बी का टीका लगा है, उन्हें भी प्रेग्नेंसी के दौरान जांच करानी चाहिए। जन्म के बाद भी बच्चे को टीका लगाकर बीमारी से बचाया जा सकता है।

क्या है पीलिया
मां को अगर हेपटाइटिस है तो बच्चे के भी इससे पीड़ित होने की आशंका रहती है। प्रेग्नेंसी के दौरान सही इलाज न हो तो महिला को ब्लीडिंग हो सकती है और बच्चे व महिला, दोनों की जान जा सकती है। अगर मां को पहले से मालूम है कि उसे हेपटाइटिस है तो उसे डॉक्टर को जरूर बताना चाहिए। जिन महिलाओं को हेपटाइटिस बी का टीका लगा है, उन्हें भी प्रेग्नेंसी के दौरान जांच करानी चाहिए। जन्म के बाद भी बच्चे को टीका लगाकर बीमारी से बचाया जा सकता है।

हेल्दी लिवर के 7 टिप्स
-सुबह एक गिलास गुनगुना पानी और दिन में कम से कम 2 लीटर गुनगुना या सामान्य साफ पानी पिएं।
-शराब न पिएं। सेल्फ मेडिकेशन (डॉक्टर से बिना पूछे, खुद से दवाई लेना) न करें।
-नीबू, ग्रीन टी, फलों का जूस (स्ट्रॉबेरी, ब्लैकबेरी) आदि पिएं।
-सात या पंद्रह दिनों पर किसी दिन जूस उपवास रखने से लिवर को फायदा होगा।
-प्रोसेस्ड फूड जिनमें बहुत ज्यादा प्रिजर्वेटिव, फैट्स और कॉलेस्ट्रॉल हों, खाने से बचें। मसलन, फास्ट फूड, डीप फ्राइड फूड आदि न खाएं।
-हरी साग-सब्जियां (करेला, सरसों का साग, पालक) आदि को खाने में शामिल करें।
-लहसुन और अखरोट को भी डाइट में शामिल करें।

एक्सपर्ट्स पैनल
-डॉ. एस. के. सरीन डायरेक्टर, द इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलयरी साइंस
-डॉ. के. एन. सिंगला, एचओडी एंड सीनियर कंसल्टेंट, गेस्ट्रोइंटेरॉलजी, मैक्स
-डॉ. (कर्नल) वी. के. गुप्ता, स्पेशलिस्ट, गेस्ट्रोइंटेरॉलजी एंड हेपटॉलजी
डॉ. संदीप गर्ग, डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।


विश्व अंगदान दिवस: अंगदान के इंतजार में कई लोग हार जाते हैं जिंदगी की जंग

$
0
0

कौन कहता है कि इंसान अमर नहीं हो सकता। जरूर हो सकता है। इसके लिए अमृत पीने की जरूरत नहीं है। बस अंगदान जैसा पूण्य कार्य करना पड़ेगा। दरअसल, डीएनए के रूप में उसका अस्तित्व उसके गुजर जाने के बाद भी मौजूद होगा। उस अंग में मौजूद डीएनए एक जेनरेशन से दूसरे जेनरेशन में चलता जाएगा। अगर किसी के अंग चार-पांच लोगों को ट्रांसप्लांट हो गए तो अमरता की संभावना और भी प्रबल हो जाएगी। अपने देश में अंगदान के इंतजार में कई बेटे, कई पिता, कई मांएं, कई बहनें, कई भाई और कई दोस्त जिंदगी की जंग हार जाते हैं। अगर हॉस्पिटल में ब्रेन डेड हो चुके लोगों के अंग ही दान कर दिया जाएं तो देश की जरूरत लगभग पूरी हो सकती है। ऑर्गन डोनेशन पर एक्सपर्ट्स से बात कर जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती

कहते हैं जब कोई शख्स इस धरती पर नहीं रहता तो वह यादों और अच्छी बातों के जरिए लोगों के बीच जिंदा रहता है, लेकिन ऑर्गन डोनेशन यानी अंगदान की बदौलत तो वह लोगों के अंगों के अंदर जिंदा रहता है। और यह बात अंगदान को बहुत बड़ा बना देती है। दिल, आंखें, लंग्स, किडनी, पेनक्रियाज, लिवर और स्किन जैसे अंग किसी की मौत के बाद किसी और के काम आ जाते हैं और उसे नई जिंदगी दे जाते हैं।

इंसानियत की दो मिसालेंः-

1- बहन ने किया लिवर डोनेट
हेपटाइटिस की वजह से उसके छोटे भाई की लिवर खराब हो गई थी। डॉक्टरों का कहना था कि उसका 90 फीसदी लिवर खराब हो चुका है। घर में सभी लोगों ने रोना शुरू कर दिया, लेकिन उसकी बहन ने बचे हुए 10 फीसदी लिवर पर फोकस किया और एयर ऐंबुलेंस से मध्य प्रदेश के एक शहर से दिल्ली के बड़े अस्पताल लेकर आई। उसने भाई को अपना लिवर डोनेट किया और भाई की जान बचाई। इस ऑपरेशन में डॉक्टरों को 14 घंटे लगे। ऑपरेशन सफल रहा और दोनों स्वस्थ हैं। इस पूरी कवायद में बहन के ससुराल वालों ने उसका पूरा साथ दिया। यह तभी मुमकिन हुआ क्योंकि डोनर पहले से ही उपलब्ध था। टिशू डोनेशन से किसी की जान बचाने का यह एक अच्छा उदाहरण है।

2- पैरंट्स का साहसी फैसला
अमन 15 साल का है। उसे कुछ दिनों से पेशाब में परेशानी हो रही थी। स्किन पर इचिंग की समस्या रहती थी। वह जल्दी थक भी जाता था। उसके पैरंट्स ने डॉक्टर से संपर्क किया। डॉक्टर ने अमन का चेकअप किया और कुछ जांच लिखे। उन जांच में KFT (किडनी फंक्शन टेस्ट) भी था। रिपोर्ट में उसके शरीर में क्रिएटिनिन, यूरिया, सभी का स्तर नॉर्मल लेवल से काफी ऊपर पहुंच चुका था। डॉक्टर ने सीधा कह दिया कि किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत है और वह भी जल्द से जल्द। अमन का 2 से 3 फीसदी ही किडनी काम कर रहा है। अब इतनी जल्दी किडनी की व्यवस्था कहां से हो? उसके मम्मी और पापा दोनों को शुगर की समस्या थी, इसलिए डॉक्टर्स ने उनकी किडनी लेने से मना कर दिया। संयोग की बात थी कि उसी हॉस्पिटल में एक 14 साल के बच्चा भी भर्ती हुआ जिसका ब्रेन डेड था। उसके पैरंट्स अपने बच्चे के सभी अंगों का दान करना चाह रह थे। अमन को उसकी किडनी मिल गई। उस किशोर का हार्ट भी उसी शहर के दूसरे हॉस्पिटल में एक पेशंट में ट्रांसप्लांट हो गया। दोनों जगह ऑपरेशन सफल रहा। भले ही वह किशोर इस दुनिया में नहीं है, लेकिन सच तो यह है कि उसने कई इंसानों को नई जिंदगी दे दी। यह मुमकिन हुआ ऑर्गन डोनेशन से।

डोनेशन की जरूरत क्यों?
इंसान के शरीर में जो अंग काम करते हैं, वैसे अंग बनाना अभी संभव नहीं हुआ है। इस फील्ड में रिसर्च जोरों पर है। फिर भी वैज्ञानिकों का मानना है कि शरीर से काफी हद तक मिलते-जुलते कुछ अंग बनाने में 5 से 10 बरस तक लग सकते हैं। ऐसे में अगर कोई अंग काम नहीं कर रहा हो तो ट्रांसप्लांट का ही ऑप्शन बचता है और इसीलिए अंगदान की जरूरत है। लेकिन दिक्कत यह है कि भारत में अब भी लोग अंगदान से झिझकते हैं और इसीलिए ट्रांसप्लांट के लिए अंग मिल नहीं पाते।

क्या है ऑर्गन डोनेशन
मानव शरीर के कई ऐसे अंग हैं जिन्हें काम न करने पर बदला जा सकता है। इसके लिए किसी दूसरे हेल्दी इंसान से अंग लेकर उसे बीमार व्यक्ति में प्रत्यारोपित किया जाता है। प्रत्यारोपण के लिए अंगों का मिलना तभी संभव है जब कोई अंग देने के लिए तैयार हो। किसी दूसरे को अंग देना ही आर्गन डोनेशन है। आंखों को छोड़कर बाकी अंगों के मामले में यह तभी मुमकिन है जब शख्स के दिल की धड़कनें चलती रहें, भले ही उसके ब्रेन ने काम करना बंद कर दिया हो।

ब्रेन डेड और सामान्य मौत में अंतरः-

क्या है ब्रेन डेड
जब शरीर के बाकी अंग काम कर रहे हों, लेकिन किसी वजह से ब्रेन ने काम करना बंद कर दिया हो और फिर से उसके काम करने की संभावना न हो तो इंसान को ब्रेन डेड माना जाता है। ब्रेन के इस स्थिति में पहुंचने की खास वजहें होती हैं:
-सिर में गंभीर चोट लगने से
-ट्यूमर की वजह से
-लकवे की वजह से

कोमा और ब्रेन डेथ में अंतर
इन दोनों में एक बड़ा अंतर यह है कि कोमा से इंसान नॉर्मल स्थिति में वापस आ सकता है, लेकिन ब्रेन डेथ होने के बाद ऐसा नहीं होता। कोमा की स्थिति में शख्स का ब्रेन डेड नहीं होता, उसके दिमाग का कुछ हिस्सा काम कर रहा होता है जबकि ब्रेन डेड के मामले में ऐसा नहीं होता। कोमा की स्थिति में यह जरूरी नहीं है कि इंसान वेंटिलेटर पर ही हो जबकि ब्रेन डेथ की स्थिति में वह इसी पर रहता है। तो डोनेशन ब्रेन डेड के मामले में ही हो सकता है, कोमा वाले पेशंट का नहीं।

इन अंगों का होता है ज्यादा दानः
-किडनी, आंखें, लंग्स, हार्ट, लिवर

इनका होता है कम दानः
-पैनक्रियाज़, छोटी आंत और त्वचा

नोट: आंख, हड्डी और स्किन के टिशू का ही दान होता है। पूरे अंग का नहीं। वहीं बोनमैरो ट्रांसप्लांट के लिए अब सिर्फ ब्लड डोनेट करने से भी काम हो जाता है।

अंगदान से जुड़े कुछ दूसरे तथ्य
-अमूमन अंगदान किसी शख्स की मौत के बाद ही होता है। ब्रेन डेड को भी मौत के बराबर ही माना जाता है।
-जिंदा रहते हुए इंसान दो में से अपने एक किडनी का दान कर सकता है। लिवर में से एक छोटा-सा हिस्सा भी दान किया जा सकता है। दरअसल, एक किडनी के साथ इंसान सामान्य जिंदगी जी सकता है। ऐसे में हेल्दी इंसान अपना एक किडनी दान कर सकता है। आजकल किडनी ट्रांसप्लांट के मामले में सफलता की दर काफी है। ट्रांसप्लांट के बाद पहले साल में अंग 95 फीसदी क्षमता से भी ज्यादा से काम करता है, लेकिन हर साल इसमें 2 से 3 फीसदी की कमी होती जाती है। 10 साल के बाद यह प्रतिशत 50 फीसदी तक पहुंच जाती है।
-मरने के बाद होने वाले अंगदान में सबसे ज्यादा होता है आंखों का दान। दरअसल, सामान्य मौत के मामले में भी आंखें जल्दी खराब नहीं होतीं।
-दूसरे अंग का दान तभी कामयाब है जब शख्स का ब्रेन डेड हुआ हो।

बोन मैरो डोनेशन
-बोन मैरो की जरूरत अमूमन ब्लड कैंसर के केस में होती है।
-पहले जब तकनीक ज्यादा विकसित नहीं थी तब हेल्दी इंसान के बोन मैरो को शरीर की बड़ी हड्डियों (हाथ, पैर, थाई आदि) से निकालकर मरीज के शरीर में पहुंचाया जाता था। लेकिन अब यह बेहद आसान हो गया है।
-अब हेल्दी इंसान के सिर्फ 300 एमएल ब्लड डोनेट करने से ही बोन मैरो ट्रांसप्लांट में मदद हो जाती है।
-इसके लिए अगर कोई चाहे तो नॉर्मल रक्तदान करते समय भी बोन मैरो डोनेशन के लिए सहमति दे सकता है।
-सहमति मिलने के बाद डॉक्टर इसके लिए उसके ब्लड का नमूना लेते हैं। ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन (HAL) के मिलान के लिए उस शख्स का डीएनए रख लिया जाता है ताकि भविष्य में जब किसी का डीएनए उस शख्स के डीएनए से मैच हो जाए तब 300 एमएल ब्लड लेकर किसी बीमार इंसान में बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया जाता है।

ये कर सकते हैं ऑर्गन डोनेट
-दान के मामले में उम्र की कोई सीमा नहीं होती। एक दिन के बच्चे से लेकर 90 बरस के बुजुर्ग भी अंगदान कर सकते हैं।
-18 साल से 65 साल तक की उम्र में अंगदान करना सबसे बेहतर माना जाता है।
-अंगदान करने से पहले कई चीजों की मैचिंग कराई जाती है। मसलन, किडनी के मामले में एचएलए, लिवर और हार्ट के मामले में ब्ल्ड ग्रुप की मैचिंग कराई जाती है।
-किडनी या लिवर का दान अमूमन करीबी रिश्तेदार जिनमें पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी शामिल हैं, में ही मुमकिन होता है। अगर इनसे किडनी लेने में परेशानी है तो दादा-दादी, नाना-नानी, मामा, मौसी, चाचा, ताऊ, पोता-पोती, चचेरे-ममेरे भाई-बहन आदि किडनी दान कर सकते हैं।

कौन नहीं कर सकता
-हेपटाइटिस बी और सी, एचआईवी पॉजिटिव, सिफलिस और रैबीज जैसी बीमारियों से पीड़ित लोग ऑर्गन डोनेट नहीं कर सकते।

ऑर्गन की लाइफ
-अगर कोई इंसान ब्रेन डेड है तो जितनी जल्दी हो उसके शरीर से अंगों को निकालने की कोशिश की जाती है।
-अगर किडनी या लिवर ट्रांसप्लांट होना है तो मरीज और डोनर की इच्छा पर यह निर्भर है।
- अंग निकलने के 6 से 12 घंटों के अंदर ही ट्रांसप्लांट हो जाना चाहिए नहीं तो अंग ट्रांसप्लांट करने योग्य नहीं बचता।

किडनी: 12 घंटे के अंदर
हार्ट: 3 से 4 घंटे में
लंग्स: 4 घंटे में
लिवर: 6 घंटे में
आंख: 3 दिनों के अंदर

आई डोनेशन
-इसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती।
-कोई भी जीवित शख्स आंखें दान नहीं कर सकता।
-अपने देश में ट्रांसप्लांट के लिए हर साल दो से ढाई लाख आंखों की जरूरत होती है, जिनसे लोगों को फिर से रोशनी मिल सकती है।
-एक आंकड़ा के मुताबिक, देश में हर साल अमूमन 60 हजार आंखें ही दान में मिल पाती हैं।
-अगर कोई कमजोर नजर की वजह से चश्मा लगाता है, मोतियाबिंद है, शुगर का मरीज है तो भी वह अपनी आंखें दान कर सकता है।
- सीधे कहें तो अगर किसी के शरीर में कॉर्निया ठीक है तो उसकी आंखें दान की जा सकती हैं।
- इसके लिए इंसान की मौत के 5 से 6 घंटे के अंदर आई बैंक वालों से संपर्क करना होता है।
- इसमें सिर्फ आंखों की कॉर्निया को निकाला जाता है।
- आंख दान करने के मामले में डॉक्टर यह सलाह देते हैं कि मृतक की आंखें सही-सलामत रहे। इसके लिए पलकों को बंद करना जरूरी है।

जब लगती हैं दूसरों को आंखें
-आजकल डॉक्टर कॉर्निया को 2 से 3 हफ्तों तक सुरक्षित रख लेते हैं। इसके लिए वे कॉर्निया को खास तरह के सलूशन में डाल कर रखते हैं।
- कॉर्निया किसे लगाया जा रहा है, इस बारे में डोनेशन करने वाले के परिवार वाले को नहीं बताया जाता।

क्यों होते हैं कम अंगदान
-यूरोप के कई देशों में इस तरह का नियम है कि अगर किसी ने लिखकर नहीं है दिया है कि उसके शरीर से अंग नहीं निकाले जा सकते, तब ही उनके अंग दान के लिए उपलब्ध नहीं होते। नहीं तो ब्रेन डेथ की स्थिति में शख्स का अंग दूसरों के शरीर में लगा दिया जाता है।
-जहां तक अपने देश की बात है तो यहां पर अंगदान के लिए मृतक के घरवालों की रजामंदी की जरूरत होती है। इसके बाद ही शरीर से अंग निकाले जाते हैं।
-ब्रेन डेथ अगर हॉस्पिटल में हुई है तब ही दूसरे अंगों के दान हो सकते हैं, नहीं तो सिर्फ कॉर्निया ही दान किया जा सकता है क्योंकि हॉस्पिटल में ही शरीर को वेंटिलेटर पर रखने की सुविधा होती है।
- मेडिकल सुविधा के अभाव में भी अंगों का दान संभव नहीं हो पाता क्योंकि
-स्कूलों और कॉलेजों की पढ़ाई में भी इन बातों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि लोगों के मन में इससे जुड़ी हुई हर तरह की भ्रांति दूर हो।

सोच का भी फर्क
-ज्यादातर लोग सोचते हैं कि दिल की धड़कन बंद होने के बाद ही मौत होती है जबकि ब्रेन डेड की स्थिति में ऐसा नहीं होता। इसलिए लोग ब्रेन डेड होने के बाद भी अंगदान के लिए तैयार नहीं होते।
-अभी भी देश में अंगदान से जुड़े हुए कई मिथ मौजूद हैं। उन्हें लगता है कि आंखदान करने से अगले जनम में उस अंग के बिना पैदा होंगे।
-लोग सोचते हैं कि शरीर से अंग निकालने पर शरीर की बुरी गत हो जाती है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है।
- हॉस्पिटल में जब डॉक्टर इस बात को पूरी तरह से जांच-परख लेते हैं कि मरीज ब्रेन डेथ की स्थिति में है तब वह इस बात की जानकारी उसके घरवालों को देते हैं। अब यह घरवालों पर निर्भर करता है वह अंगदान करने की सहमति देते हैं कि नहीं। दरअसल, घरवालों के लिए बड़ी ही अजीब स्थिति होती है कि शख्स का दिल धड़क रहा है, सांसें चल रही हैं तो फिर उसे मृत कैसे मान लिया जाए। डॉक्टरों का कहना है कि ऐेसे में घरवालों को समझना चाहिए कि जिस इंसान का ब्रेन डेड हो चुका है वह सिर्फ लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर है। अगर वह सिस्टम हटा लिया जाए तो शख्स की धड़कनें रुक जाएंगी।

क्या है लीगल एंगल?
-अगर किसी शख्स ने ऑर्गन डोनेशन के लिए लिखित सहमति दे रखी है, लेकिन उसकी मौत के बाद उसके नजदीकी संबंधी (पत्नी, पिता, माता, भाई) में सभी या कोई एक भी डोनेशन से मना करता है तो अमूमन हॉस्पिटल अंगदान नहीं कराते। दरअसल, विवाद की स्थिति से हॉस्पिटल बचना चाहते है।
-अगर किसी ने ऑर्गन डोनेशन के बारे में फॉर्म नहीं भरा है तो भी अगर उसके परिवारवाले चाहें तो ऑर्गन डोनेशन हो सकता है।
-अंगदान में एक बात साफ है कि इसमें अंगों की खरीद-बिक्री बिलकुल भी नहीं होती।
-अंगदान के बदले किसी भी तरह का प्रलोभन नहीं दिया जा सकता (मसलन, हॉस्पिटल फीस में कमी आदि)।
-प्रलोभन आदि बातों को देखने के लिए अमूमन बड़े अस्पतालों में 'ट्रांसप्लांट ऑथराइजेशन कमिटी' होती है जो यह देखती है कि कोई शख्स या रिश्तेदार अंगदान कर सकता है या नहीं। इस कमिटी में डॉक्टर, वकील और सोशल ऐक्टिविस्ट शामिल होते हैं। अस्पताल में यह कमिटी नहीं है तो जिला या राज्य स्तर की ऑथराइजेशन कमिटी को संपर्क करना होता है।

एक्सपर्ट्स पैनल
-डॉ. एस. के. सरीन डायरेक्टर, द इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलयरी साइंस
-डॉ. प्रवीण वशिष्ट, एचओडी, सामुदायिक नेत्र विभाग, एम्स
-डॉ. राहुल भार्गव, डीएम, हेमेटॉलजी
-डॉ. वरूण वर्मा, सीनियर कंसल्टेंट, नेफ्रॉलजी
-डॉ. विवेक विज, एमएस, लिवर ट्रांसप्लांट
-डॉ. सौरव शर्मा, प्रोजेक्ट मैनेजर, ऑर्गन इंडिया

यहां अंगदान के लिए करें संपर्कः
www.organindia.org
www.notto.nic.in
www.dehdan.org
www.donatelifeindia.org
www.aiims.edu/aiims/orbo/form
www.mohanfoundation.org


मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

पेमेंट ऐप्स का करते हैं इस्तेमाल तो रहें सावधान, ऐसे हो रही है ठगी

$
0
0

अगर आप भीम, गूगल पे, फोनपे, पेटीएम आदि पेमंट ऐप का प्रयोग करते हैं तो सावधान हो जाइए। इन दिनों इस प्लैटफॉर्म पर खूब ठगी हो रही है। ठगी से बचने के बारे में एक्सपर्ट्स से जानकारी लेकर बता रहे हैं राजेश भारती।

एक्सपर्ट्स
-अशनीर ग्रोवर, सीईओ और को-फाउंडर, BharatPe
-प्रथमेश सोनसुरकर, साइबर क्राइम इन्वेस्टिगेशन एक्सपर्ट
-किरन जैन, डायरेक्टर प्रॉडक्ट्स, Ezetap
-अभिषेक अग्रवाल, टेक्नॉलजी एक्सपर्ट, The Judge Group

विनय ने एक वेबसाइट पर अपना पुराना मोबाइल बेचने के लिए लिस्ट किया। कुछ दिन बाद उनके पास एक कॉल आई। कॉल करने वाले शख्स ने उस मोबाइल को खरीदने की इच्छा जताई। सौदा 10 हजार रुपये में तय हो गया। मोबाइल खरीदने वाले शख्स ने कहा कि वह 5 हजार रुपये टोकन मनी के रूप में गूगल पे ऐप के जरिए भेज रहा है और बचे पैसे फोन लेते समय दे देगा। उस शख्स ने विनय के गूगल पे अकाउंट पर एक मेसेज भेजा जिसमें 5 हजार रुपये की बात थी। विनय ने उस मेसेज को गौर से नहीं देखा और Pay पर क्लिक कर दिया। विनय को उनके अकाउंट से 5 हजार रुपये कटने का मेसेज आया तो उनका सिर चकरा गया। उन्हें पता चला कि वह ठगी का शिकार हो गए हैं। जाहिर है, पेमंट ऐप पर ठगे जाने वाले विनय अकेले नहीं हैं।

कौन होता है शिकार
इस प्रकार की ठगी के शिकार वे लोग होते हैं जो पेमंट ऐप जैसे- गूगल पे, फोनपे, भीम ऐप आदि का प्रयोग करते हैं। डिजिटल लेन-देन के लिए अब इन ऐप का चलन काफी हो गया है। साथ ही, कुछ लोग शौक या फैशन के तौर पर भी इन ऐप्स का प्रयोग करने लगे हैं, जबकि उन्हें इन ऐप को सही तरीके से इस्तेमाल करना नहीं आता। और तो और, तमाम समझदार लोग भी हैं जो पेमंट ऐप पर आए मेसेज को ध्यान से नहीं पढ़ते और जल्दी से Pay वाली जगह पर टैप पर देते हैं।

कितने का चूना
हर पेमंट ऐप बैंक अकाउंट से जुड़ा होता है। पेटीएम, ओला, ऐमजॉन जैसी कुछ कंपनियों के डिजिटल वॉलेट सीधे भी काम करते हैं। साथ ही, हर ऐप के लिए केवाईसी कराना जरूरी होता है। इसके बाद कोई भी पेमंट ऐप यूजर एक दिन में 1 लाख रुपये तक का लेन-देन कर सकता है। ऐसे में हो सकता है कि जालसाज आपके पेमंट ऐप से एक दिन में ही 1 लाख रुपये उड़ा ले।

पेमंट ऐप की सुरक्षा
हर पेमंट ऐप की दो तरह से सुरक्षा की जाती है। पहला MPIN और दूसरी UPI PIN। MPIN चार या छह अंकों का होता है। इस पिन के बिना पेमंट ऐप को नहीं खोला जा सकता। कुछ ऐप में यह पिन जरूरी तो कुछ में वैकल्पिक होता है। वहीं किसी से पैसा मंगाना है तो ऐप को खोलने के लिए MPIN का प्रयोग करना होगा। UPI PIN भी चार या छह अंकों का होता है। UPI PIN के बिना न तो किसी को पैसा भेजा जा सकता है और न ही अकाउंट का बैलेंस चेक किया जा सकता है। हालांकि पैसा लेने के लिए किसी भी प्रकार के पिन की जरूरत नहीं पड़ती। पैसे देने यानी पे करने के लिए इसकी जरूरत होती है।

ऐसे करते हैं ठगी

1. शिकार ढूंढना
जालसाज ओएलएक्स जैसी वेबसाइट पर अपना शिकार ढूंढते हैं। ये जालसाज उस शख्स को फोन करते हैं और कुछ महंगे सामान जैसे मोबाइल, लैपटॉप, वीइकल, फर्नीचर आदि खरीदने का नाटक रचते हैं।

2. दाम तय करना
बात करते हुए जालसाज सामान बेच रहे शख्स से मोलभाव कर एक दाम तय करता है। जालसाज 50% रकम शुरू में देने की बात कहता है और बाकी की रकम सामान खरीदने पर। ऐसे में सामान बेचने वाला शख्स भी लालच में आ जाता है।

3. नंबर मांगना
सामान की कीमत तय होने पर जालसाज पेमंट ऐप के जरिए ही भेजने की बात कहता है। फिर पेमंट ऐप का नाम और उससे जुड़ा मोबाइल नंबर मांगता है। सामान बेचने वाला शख्स जालसाजों को पेमंट ऐप से जुड़ा मोबाइल नंबर दे देता है।

4. Request Money
चूंकि डील पक्की हो चुकी होती है इसलिए ये जालसाज फोन पर बात करने के दौरान टोकन मनी की रकम अपने पेमंट ऐप से पैसे भेजने की जगह पैसे लेने यानी Request Money का ऑप्शन भेज देते हैं और सामने वाले शख्स से कहते हैं कि रकम भेज दी है, प्लीज आप उसे ओके कर दीजिए और UPI PIN डालकर बैलेंस चेक कर लीजिए।

5. UPI PIN
बातचीत के दौरान सामान बेचने वाला व्यक्ति मेसेज को ध्यान से पढ़ नहीं पाता। वह बस रकम देखता है और Pay को ओके समझकर उस पर टैप पर देता है। साथ ही बैलेंस चेक करने के लिए UPI PIN डाल देता है। ऐसा करते ही उसके पेमंट ऐप से पैसे कट जाते हैं और जालसाज के अकाउंट में आ जाते हैं।

6. फोन बंद करना
फोन डिस्कनेक्ट होने के बाद उस शख्स को पता चलता है कि उसके पेमंट ऐप से जालसाज ने पैसे अपने अकाउंट में ट्रांसफर करा लिए हैं। जब जालसाज को फिर से फोन किया जाता है तो वह फोन नहीं उठाता या उसका मोबाइल नंबर बंद आता है।

इन बातों का रखें ध्यान

पैसे मांगने पर

यह पेमंट ऐप में Request के नाम से होता है। इसका अर्थ है कि जिस शख्स ने यह मेसेज भेजा है, वह आपसे पैसे मांगना चाहता है। अगर आपने Pay पर क्लिक करके UPI PIN डाल दिया तो आपके अकाउंट से पैसे उसके अकाउंट में चले जाएंगे।
सतर्क रहना है जरूरी

पैसे भेजने पर


अगर आप किसी शख्स को पेमंट ऐप के जरिए पैसे भेज रहे हैं, तो इसके लिए MPIN और UPI PIN की जरूरत होती है। बिना UPI PIN के किसी को भी पैसा नहीं भेजा जा सकता।

ऐसे समझें: यह ठीक उसी तरह है जैसे आप अपने बैंक में जाकर पैसे निकालते हैं। इसके लिए पैसे निकालने वाली स्लिप या चेक पर आपका साइन होना जरूरी है। UPI PIN ही एक तरह से आपका साइन है।

सतर्क रहें
पेमंट ऐप का प्रयोग करते समय सतर्क रहना बहुत जरूरी है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार, अगर पेमंट ऐप यूजर UPI PIN डाल देता है और उसके बाद उसके अकाउंट से रकम कट जाती है तो ऐसे में बैंक जिम्मेदार नहीं होता। ऐसे में पेमंट ऐप के यूजर को ही सतर्क रहना होगा।

अकाउंट में कम रखें रकम

अधिकतर पेमंट ऐप यूजर के बैंक अकाउंट से जुड़े होते हैं या वे उस ऐप के वॉलेट में पैसे रखते हैं। अगर किसी का एक ही बैंक अकाउंट है और उसमें बड़ी रकम है तो ऐसे में ठगी होने पर बड़ी रकम अकाउंट से निकाली जा सकती है। ऐसे में बेहतर होगा कि एक नया बैंक अकाउंट खुलवाएं और उसमें 10-15 हजार से ज्यादा रकम न रखें। इसी अकाउंट को पेमंट ऐप से कनेक्ट रखें। अगर किसी कारणवश पेमंट ऐप से ठगी होती है तो बड़ी रकम का नुकसान नहीं होगा।

बैंक का ऐप करें प्रयोग

ज्यादातर पेमंट ऐप थर्ड पार्टी होते हैं यानी ये बैंक के ऑफिशल ऐप नहीं होते। आज के समय में काफी बैंकों जैसे SBI, HDFC आदि के भी पेमंट ऐप हैं। बेहतर होगा कि बैंकों के ऐप का ही प्रयोग करें ताकि किसी भी प्रकार का गलत लेन-देन होने पर बैंक से सीधे शिकायत की जा सके।

इसलिए पकड़ में नहीं आते जालसाज
दरअसल जालसाज फर्जी डॉक्यूमेंट्स के जरिए निजी या छोटे बैंकों में अकाउंट खुलवा लेते हैं। साथ ही फर्जी डॉक्यूमेंट्स से सिम भी खरीद लेते हैं। फिर वे अपने मोबाइल नंबर और बैंक अकाउंट से पेमंट ऐप पर रजिस्टर करा लेते हैं और केवाईसी भी पूरी करा लेते हैं। इसके बाद ये जालसाज लोगों की रकम अपने बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करा लेते हैं। इस रकम को वे या तो एटीएम कार्ड के जरिए निकाल लेते हैं या शॉपिंग कर लेते हैं। चूंकि इनके डॉक्यूमेंट्स फर्जी होते हैं जिनके आधार पर बैंक अकाउंट से लेकर मोबाइल नंबर तक लिया होता है, इसलिए इन्हें पकड़ पाना मुश्किल होता है।

कस्टमर केयर बनकर चुरा रहे पैसे
हाल में जोमैटो के एक यूजर ने ऑर्डर कैंसिल करने और उसका रिफंड लेने के लिए लेकर कस्टमर केयर से बात करनी चाही। यूजर ने गूगल के जरिए जोमैटो का कस्टमर केयर नंबर लिया और फोन लगाया। वहां से कस्टमर से कहा गया कि वह Anydesk ऐप डाउनलोड करे। वहां बताई गईं डिटेल्स भरने के बाद एक कोड आएगा वह बता दे। पैसे उनके अकाउंट में आ जाएंगे। कुछ देर बाद उस यूजर के अकाउंट से पैसे निकल गए।

दरअसल, Anydesk ऐप के इस्तेमाल को लेकर रिजर्व बैंक ने भी चेतावनी जारी की है और इस ऐप को डाउनलोड नहीं करने को कहा है। इस ऐप के जरिए जलसाज कहीं भी बैठकर यूजर के फोन को ऐक्सेस कर उसका पूरा कंट्रोल अपने ले लेते है और UPI के जरिए पैसे की चोरी कर लेते हैं। ऐसा ही एक दूसरा ऐप है टीम व्यूअर। यह भी Anydesk के जैसे ही काम करता है।

ऐसे करते हैं धोखाधड़ी

- जालसाज खुद बैंक एग्जिक्यूटिव बनकर फोन करते हैं। कई बार ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिनमें गूगल पर मौजूद गलत कस्टमर केयर नंबर पर यूजर खुद ही फोन कर देते हैं।

- इन दोनों ही मामलों में फर्जी बैंक अधिकारी बने जालसाज यूजर को Anydesk या टीम व्यूअर ऐप डाउनलोड करने के लिए कहते हैं।

- ऐप के डाउनलोड होने के बाद इन साइबर क्रिमिनल्स को 9 अंकों वाले रिमोट डेस्क कोड की जरूरत पड़ती है। ये जालसाज यूजर से 9 अंकों का कोड मांग लेते हैं। यह कोड मिलते ही वे यूजर के मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन को आसानी से देख और कंट्रोल कर सकते हैं।

- जैसे ही यूजर अपने बैंक अकाउंट का यूजरनेम और पासवर्ड डालता है, ये जालसाज उसे नोट कर लेते हैं। इसके बाद अकाउंट से पैसे उड़ा देते हैं।

समझदारी से करें काम

स्क्रीन शेयर करने वाले किसी भी ऐप को डाउनलोड करने से पहले उसके काम करने के तरीके को ढंग से समझ लेना बेहतर रहता है। बिना जानकारी ये ऐप यूजर को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसके साथ ही इस बात का जरूर ध्यान रखें कि कोई भी बैंक अपने ग्राहकों को थर्ड पार्टी ऐप डाउनलोड करने के लिए नहीं कहता है।

ऐंड्रॉयड डिवाइस पर ज्यादा खतरा
आईफोन की तुलना में ऐंड्रॉयड डिवाइसेज पर इस प्रकार से पैसे उड़ाने का ज्यादा खतरा होता है। दरअसल, ऐंड्रॉयड पर Anydesk स्कैमर्स आसानी से स्क्रीन को मॉनिटर और रिकॉर्ड कर सकते हैं। वहीं दूसरी आईफोन Anydesk ऐप को स्क्रीन कास्ट नहीं करने देता।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

विश्व साक्षरता दिवसः ना बनें पढ़े-लिखे अनपढ़

$
0
0

साक्षरता का मतलब सिर्फ पढ़ना-लिखना आना ही नहीं होता, अपने अधिकारों को जानना भी पढ़े-लिखे होने की निशानी है। हर शख्स को अपने हकों के बारे में पता होना ही चाहिए। यह आपको बेवजह परेशान होने से बचाता है तो ठगे जाने से भी। आप चाहे ट्रेन से सफर कर रहे हों, किसी वजह से थाने के चक्कर लग रहे हों, किसी संस्थान से फीस रिफंड का मामला हो या फिर अस्पताल में इलाज कराने का, हर जगह यह ज्ञान काम आता है। तो आज अधिकारों के ज्ञान की बात:

स्कूल- कॉलेज में...
सुप्रीम कोर्ट ने फीस रिफंड और रैगिंग के मामले में जो आदेश दिए हैं, वे आपके लिए बड़े काम के हैं। यह फैसला असल में हर छात्र को खास अधिकार देता है:
- कोई भी शिक्षा संस्थान पूरे कोर्स की फीस एक साथ नहीं ले सकता। वह एक सेशन या एक साल की फीस ही एक साथ ले सकता है।
- किसी छात्र के संस्थान छोड़ने की वाजिब वजह पर उसे सही अनुपात में फीस काट कर बाकी रकम लौटाई जानी चाहिए।
- संस्थान छोड़ने पर कोई भी संस्थान मूल प्रमाणपत्र नहीं रोक सकता।

इसी मामले में यूजीसी की गाइडलाइंस भी हैं। कोई छात्र किसी संस्थान में एडमिशन लेकर अगर संस्थान छोड़ना चाहता है तो:
- छात्र के कुछ कक्षाएं लेने पर ज्यादा से ज्यादा 1 हजार रुपये तक की रकम काटकर बाकी रकम लौटाई जाए।
- छात्र द्वारा मूल प्रमाणपत्र मांगने पर संस्थान को हर हाल में उसे लौटाना होगा।

रैगिंग को रोकने की जिम्मेदारी हर शिक्षा संस्थान की है। हर शिक्षा संस्थान में एंटी-रैगिंग कमेटी और एंटी-रैगिंग स्क्वैड होता है। अगर कोई स्टूडेंट रैगिंग करता है तो इसके लिए सख्त सजा का प्रावधान है।

सड़क पर ये हैं हमारे हक
ट्रैफिक नियम को नहीं मानने वालों के खिलाफ अब भारी जुर्माना लगाया जा रहा है। ऐसे में ट्रैफिक नियमों को पूरी तरह समझ लेना जरूरी है। इसका फायदा यह होगा कि बिना वजह फाइन देने से आप बच जाएंगे।

पुलिस इन स्थितियों में कर सकती है गाड़ी जब्त
- जब वह लावारिस हालत में खड़ी हो।
- जहां पार्किंग की इजाजत नहीं है वहां पार्क किया गया हो।
- जब पूरे डॉक्युमेंट्स या चालान के पैसे न हों।
- अगर कोई बच्चा गाड़ी चला रहा हो।
- अगर वीइकल को बिना रजिस्ट्रेशन के चलाया जा रहा हो।

रोड पर ये 4 डॉक्युमेंट्स आपके अधिकार को करेंगे मजबूत
1. ड्राइविंग लाइसेंस(DL)
2. रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट (RC)
3. इंश्योरेंस सर्टिफिकेट
4. वैलिड पल्यूशन अंडर कंट्रोल सर्टिफिकेट (PUC)
नोट: इनमें डीएल और पीयूसी की ऑरिजिनल कॉपी ही मान्य है। अगर आपके पास आरसी और इंश्योरेंस सर्टिफिकेट की ऑरिजिनल नहीं बल्कि फोटो कॉपी उपलब्ध है तो भी आपसे फाइन नहीं वसूला जा सकता। आप डीएल और आरसी को डिजिलॉकर या एम-परिवहन मोबाइल ऐप में डिजिटल रूप में भी दिखा सकते हैं। हां, अगर कानून तोड़ा है तो डीएल या आरसी में से किसी एक का मूल रूप में होना जरूरी है। उसे जब्त करके ही कोर्ट का चालान काटा जाता है।

कौन नहीं वसूल सकता फाइन
ट्रैफिक कॉन्स्टेबल (वर्दी पर फीता सफेद रंग का होता है, कंधे पर बैज होता है।) को फाइन करने का अधिकार नहीं है। वे सिर्फ गाड़ी का नंबर नोट करके जेडओ (एएसआई) को दे सकते हैं। जेडओ के कहने पर चालान काटकर दे सकते हैं।
नोट: कोई ट्रैफिक वाला आपका चालान तभी काट सकता है जब उसने वर्दी पहनी हुई हो और उस पर नेमप्लेट लगाई हुई हो। अगर उसने वर्दी नहीं पहनी है या नेमप्लेट नहीं लगाई हुई है तो आपका अधिकार है कि आप उसकी बात न मानें।

गलत चालान कट जाए तो...
अगर किसी को लगता है कि पुलिस ने उसका गलत चालान काटा है तो जिस कोर्ट में चालान जमा करना है, उस कोर्ट को वह इस बारे में बता सकता है। उसके पास अगर कोई सबूत है तो उसे भी वह कोर्ट को दिखा सकता है।

पुलिस के सामने ये हैं आपके अधिकार
पुलिस की कार्रवाई को लेकर लोगों के मन में कई तरह के सवाल होते हैं। पुलिस को कानून में कितने अधिकार हैं? सच तो यह है कि पुलिस को कानून ने तमाम अधिकार दिए हैं तो आम आदमी को भी कानून और संविधान में तमाम अधिकार मिले हुए हैं।

पुलिस कब और किसे कर सकती है गिरफ्तार
पुलिस को गिरफ्तारी को लेकर जो अधिकार हैं, उसके बारे में सीआरपीसी की धारा-41 में बताया गया है। पुलिस बिना वॉरंट के गंभीर अपराध के मामले में ही गिरफ्तारी कर सकती है। अगर संज्ञेय अपराध हुआ हो यानी आमतौर पर 3 साल से ज्यादा सजा वाले गैरजमानती (मर्डर, रेप आदि) अपराध में पुलिस बिना वॉरंट के गिरफ्तार कर सकती है। अगर कोई भगोड़ा है तो उसे पुलिस गिरफ्तार कर सकती है या फिर इस बात का अंदेशा हो कि कोई गंभीर अपराध करेगा तो भी गिरफ्तारी हो सकती है। अगर मामला संज्ञेय अपराध का नहीं है तो फिर गिरफ्तारी के लिए पुलिस को वॉरंट दिखाना होगा। मैजिस्ट्रेट की कोर्ट से पुलिस को असंज्ञेय मामले में वॉरंट जारी कराना होता है तभी वह गैर-संज्ञेय या कम गंभीर मामले में गिरफ्तारी कर सकती है।

7 साल के कम सजा के मामले में
किसी की गिरफ्तारी सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती कि मामला संज्ञेय और गैर-जमानती है। 7 साल से कम सजा वाले मामले में रूटीन और मकैनिकल तरीके से गिरफ्तारी नहीं करनी चाहिए। यानी 7 साल से कम सजा के मामले में जब क्राइम की गंभीरता को लेकर पुलिस संतुष्ट होगी, तभी वह किसी को गिरफ्तार कर सकती है।

गिरफ्तारी के बाद आरोपी के अधिकार
गिरफ्तारी के वक्त अरेस्ट मेमो बनाया जाना जरूरी है। डीके बासु से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस की ड्यूटी है कि वह आरोपी को उसके वकील से मिलने दे। अरेस्ट मेमो पर आरोपी के रिश्तेदार या दोस्त या मौके पर मौजूद शख्स के दस्तखत लेना जरूरी है। साथ ही, ये बताना भी जरूरी है कि आरोपी के पास से क्या-क्या बरामद हुआ। गिरफ्तारी के बाद आरोपी के रिश्तेदार को इस बारे में जानकारी देना भी जरूरी है कि किस मामले में गिरफ्तारी हुई है। आरोपी का मेडिकल कराया जाना अनिवार्य है। कस्टडी में भी हर 48 घंटे पर मेडिकल कराना जरूरी है। इसी तरह महिलाओं को कुछ गंभीर मामलों को छोड़कर सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय पहले गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर गिरफ्तार करना है तो महिला पुलिस भी होगी और फौरन ही मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा।

महिलाओं के लिए कुछ खास नियम
- महिलाओं को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यही बात थाने बुलाकर पूछताछ करने पर भी लागू होती है। लेकिन अत्यंत गंभीर मामलों (मर्डर, आतंकवादी संलिप्तता आदि) में महिला पुलिस गिरफ्तार करेगी और उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा।
- लॉकअप में पूछताछ के समय, गिरफ्तारी के समय कोई न कोई महिला पुलिस साथ होगी।

अस्पताल में भी हैं अधिकारः

इमरजेंसी में इलाज का अधिकार
कोई भी अस्पताल चाहे प्राइवेट हो या सरकारी, मरीज को फौरन इलाज देने से मना नहीं कर सकता। इमरजेंसी में पेशंट से शुरुआती इलाज के लिए अस्पताल फौरन ही पैसे की मांग भी नहीं कर सकता। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि किसी भी अस्पताल में मरीज जब इलाज के लिए पैसे देता है तो उसी वक्त वह कंस्यूमर हो जाता है। ऐसे में कुछ गलत होने पर अस्पताल की किसी भी तरह की शिकायत मरीज या उसके परिजन कंस्यूमर कोर्ट में कर सकते हैं। अगर दवाई या इलाज को लेकर कोई शिकायत है तो सबसे पहले अस्पताल प्रशासन से इसकी शिकायत करें और सुनवाई न हो तो कानूनी कार्रवाई करें।

टेस्ट रिपोर्ट्स लेने का अधिकार
मरीज और उसके परिवारवालों को यह हक है कि वे संबंधित अस्पताल से मरीज की बीमारी से जुड़े तमाम दस्तावेज की मांग कर सकते हैं। इन दस्तावेजों में डायग्नोस्टिक टेस्ट, डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय, अस्पताल में भर्ती होने का कारण आदि शामिल है।

खर्च की पूरी जानकारी
मरीज का यह हक है कि इलाज से जुड़ी सभी जानकारी उसे मिले। उसे यह भी जानने का अधिकार है कि उसे क्या बीमारी है और कब तक उसके ठीक हो जाने की उम्मीद है। साथ ही, यह भी कि इलाज करवाने में करीब कितना खर्च आएगा।

सर्जरी से पहले मंजूरी
मरीज की किसी भी तरह की सर्जरी करने से पहले डॉक्टर को उससे या उसकी देखरेख कर रहे व्यक्ति से मंजूरी लेनी जरूरी है। साथ ही, डॉक्टर की यह भी जिम्मेदारी है कि वह मरीज को किए जाने वाले सर्जरी के सभी पहलुओं के बारे में जानकारी दे।

दवा दुकान के लिए दबाव नहीं
अक्सर शिकायत रहती है कि अस्पताल अपने ओपीडी मरीजों को दवा की पर्ची देते वक्त दबाव बनाते हैं कि दवा अस्पताल की दुकान से ही लें। आप इससे मना कर सकते हैं। यह मरीज का हक है कि वह दवा अपनी मर्जी की दुकान से खरीदे और साथ ही टेस्ट भी अपनी मर्जी की जगह से कराए।

...तो नहीं रोक सकता अस्पताल
कई बार बिल न चुकाए जाने की वजह से अस्पताल मरीज को डिस्चार्ज नहीं करता। बिल पूरा न दिए जाने की सूरत में कई बार लाश तक नहीं ले जाने दी जाती। बॉम्बे हाई कोर्ट ने इसे गैरकानूनी करार दिया है। अस्पताल को मरीज को जबरन रोकने का कोई हक नहीं है।

ये भी हैं अधिकार
- अगर कोई मरीज, किसी डॉक्टर के इलाज से संतुष्ट नहीं हैं तो वह उस डॉक्टर से इलाज करवाने से इनकार कर सकता है। अस्पताल की यह जिम्मेदारी है कि इसके लिए दूसरी व्यवस्था करे। - यदि अस्पताल मरीज को दूसरे अस्पताल में रेफर कर रहा है तो जब तक दूसरा अस्पताल उस मरीज को स्वीकार नहीं करता, तब तक उसे रेफर नहीं माना जाएगा।
- मरीज को अपने डॉक्टर के बारे में जानने का अधिकार है। हर मरीज को अपने डॉक्टर के साथ चर्चा करने और इलाज कौन-से डॉक्टर कर रहे हैं, इसे जानने का भी पूरा अधिकार है।
- मेडिकल रेकॉर्ड का रिव्यू कराने का भी हक है।

अस्पताल के खिलाफ शिकायत
डॉक्टर या अस्पताल अगर लापरवाही करता है तो मरीज या उसके परिजनों को कंस्यूमर कोर्ट में केस दायर करने का अधिकार है। ऐसे मामले में इन बातों का ध्यान रखें:
- कंस्यूमर कोर्ट में शिकायतकर्ता एक सादे कागज पर पूरी शिकायत लिख कर दे सकता है। वह मुआवजे की मांग भी कर सकता है। डिस्ट्रिक्ट कंस्यूमर कोर्ट 20 लाख, स्टेट कंस्यूमर कोर्ट 1 करोड़ और नैशनल कंस्यूमर कोर्ट 1 करोड़ से ज्यादा के मुआवजे का आदेश दे सकता है।
- चूंकि कंस्यूमर कोर्ट में किसी भी केस की सुनवाई के लिए दोनों पक्षों में से किसी एक को कंस्यूमर होना जरूरी है, इसलिए अस्पताल या डॉक्टर का इलाज कराने के बाद कुछ बिल जरूर चुकाएं। ऐसा करने से ही आप कंस्यूमर माने जाएंगे।
- अस्पताल से डिस्चार्ज समरी के साथ ही ट्रीटमेंट रेकॉर्ड भी मांगें। अगर वह न मिले तो दवाइयों के बिल अपने साथ रखें।
- जिस डॉक्टर से इलाज हो रहा है उसका नाम और पूरे डेजिग्नेशन के साथ उसे नोट करके रख लें।
- इलाज के सही न होने का संदेह है तो किसी दूसरे डॉक्टर से राय लें। इसके साथ ही डॉक्टर या अस्पताल बदल दें और प्राथमिकता रोगी के इलाज को दें।

कहां करें शिकायत
- अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट को लिखित में शिकायत करें और जांच का अनुरोध करें।
- राज्य मेडिकल काउंसिल और इंडियन मेडिकल काउंसिल को शिकायत करें। दोनों गवर्निंग बॉडी हैं।
- कंस्यूमर कोर्ट में लापरवाही का मामला दर्ज करा सकते हैं और इलाज की राशि, हर्जाने और मुआवजे के साथ ही मुकदमे के खर्च की मांग कर सकते हैं।

जब न हों पूरे दस्तावेज
सभी बातों को पूरे विवरण के साथ लिखें और लोकल कोर्ट में केस दायर कर इलाज के कागजात मांगने और डॉक्टर का नाम-पता बताने के लिए अस्पताल को निर्देश देने के लिए कहें।

एक्सपर्ट्स पैनल
1. प्रेमलता, पूर्व जज, कंस्यूमर कोर्ट
2. प्रो. श्रीराम खन्ना, कंस्यूमर राइट ऐक्टिविस्ट
3. हर्षवर्धन, पूर्व एमडी, वायुदूत,
4. विराग गुप्ता, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
4. अंकित गुप्ता, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

लत को छोड़ना मुश्किल तो है, नामुकिन नहीं

$
0
0

लत किसी भी चीज की हो, बुरी है। खासकर नशे की लत की बात की जाए तो यह घर-बार से नाता तोड़कर सिर्फ बीयर-बार से जोड़ देता है। हकीकत यह है कि इस लत से आजाद होना मुश्किल तो है, लेकिन नामुमकिन नहीं। अगर सही तरीके से कोशिश की जाए, मरीज के साथ उसके परिवारवालों का साथ भी मिले तो यह मुश्किल भी आसान हो जाती है। नशे की लत छोड़ने के तरीकों और उपायों के बारे में एक्सपर्ट्स से बात कर पूरी जानकारी दे रहे हैं चंदन चौधरी-

केस 1- राकेश को हुआ फायदा
पारिवारिक समस्या और उससे पैदा हुए तनाव की वजह से राकेश (बदला हुआ नाम) को शराब की लत लग गई। शराब की वजह से उनकी जॉब छूट गई। धीरे-धीरे 5 साल बीत गए। परिवार वाले समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। बाद में उन्हें समझ में आया कि यह सिर्फ अडिक्शन नहीं, एक बीमारी है। इसके बाद राकेश के परिवार वाले राकेश को लेकर एम्स के साइकायट्री विभाग में गए। डॉक्टरों ने परिवार वालों से राकेश के बारे में हर तरह की जानकारी ली। पूरी केस हिस्ट्री देखने के बाद उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति का आकलन किया, जिससे पता चला कि शराब के कारण शरीर पर बहुत बुरा असर हुआ है। इसके अलावा डॉक्टरों ने पता लगाया कि इस वक्त वह नशा छोड़ने के लिए तैयार हैं या नहीं और यह भी कि उनका निश्चय कितना मजबूत है। शराब की वजह से डिप्रेशन या अन्य तरह की समस्या तो नहीं है। इसके बाद राकेश को बताया गया कि उनका जबर्दस्ती इलाज नहीं किया जाएगा। डॉक्टरों के इस कदम के बाद वह डॉक्टरों पर यकीन करने लगे। फिर उनका इलाज शुरू हुआ। पहले उनकी काउंसलिंग शुरू की गई और फिर अडिक्शन कंट्रोल करने की तकनीक सिखाई गई। फैमिली की भी काउंसलिंग हुई। डेढ़-दो साल के इलाज के बाद वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए और अब सामान्य जीवन जी रहे हैं।

केस 2- हर्षिता की परेशानी दूर
हर्षिता (बदला हुआ नाम) को स्मैक का अडिक्शन था। ऐसे में डॉक्टरों ने उनके लिए भी कमोबेश वही तरीका अपनाया जो राकेश के लिए अपनाया था। दरअसल, हर्षिता को अनजाने में ही स्मैक की लत लग गई थी। उन्हें इस खतरनाक अडिक्शन लगने से पहले माइग्रेन की समस्या थी और उससे निजात पाने के लिए एक झोलाछाप डॉक्टर के कहने पर उन्होंने पेनकिलर इंजेक्शन लेना शुरू कर दिया। यह स्मैक था। धीरे-धीरे उन्हें इसकी लत लग गई। घर में वह खुद से या पति से यह इंजेक्शन लगवाने लगीं। हर्षिता जैसे ही उस इंजेक्शन को बंद करने की कोशिश करतीं, उन्हें कई तरह की परेशानियां होने लगतीं। जब वह डॉक्टरों के पास पहुंचीं तो उनका इलाज शुरू हुआ। हर्षिता की असल परेशानी को डॉक्टरों ने जल्दी समझ लिया। अडिक्शन को दूर करने के लिए फौरन ही इलाज शुरू कर दिया। चूंकि हर्षिता खुद ही नशा नहीं करना चाहती थीं, इसलिए डॉक्टरों को ज्यादा समस्या नहीं हुई और वह नशे की गिरफ्त से छूट गईं। आज हर्षिता इस परेशानी से पूरी तरह आजाद हो चुकी हैं और सामान्य जीवन जी रही हैं।

अडिक्शन क्या है?
जब कोई शख्स नशे के सेवन को कंट्रोल नहीं कर पाता है तो नशीले पदार्थ का सेवन बीमारी का रूप धारण कर लेती है।
-अडिक्शन मानसिक बीमारी है।
-ज्यादा समय तक नशा करने पर दिमाग में बदलाव होने लगता है, जिसे बिना इलाज के ठीक करना मुमकिन नहीं है।
-इसमें लंबे समय तक इलाज की जरूरत पड़ती है। इलाज के दौरान दवाई, काउंसलिंग और सामाजिक मेल-मिलाप जरूरी होता है।
-इलाज के बाद भी बहुत सावधान रहने की जरूरत है। क्योंकि इसकी आशंका बनी रहती है कि अडिक्शन खत्म होने के बाद, यह फिर से शुरू हो जाए।

...तो समझो मामला गड़बड़ है
जब नशे की लत लग जाती है तो इससे दूर रहना बहुत मुश्किल हो जाता है। कोई नशे की लत का शिकार हो चुका है, इसके कुछ संकेत हैं:
-नशीली चीज का एक साल से ज्यादा समय से इस्तेमाल करना
-नशा बंद करने या सीमित इस्तेमाल के लिए की जाने वाली कोशिश का हमेशा नाकाम रहना या इच्छा का लगातार बने रहना
-नशे की वजह से ऑफिस, स्कूल या घर में जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल रहना
-रिश्तों में समस्या पैदा होना और लोग दूरी बनाने लगें
-खेल, टीवी यहां तक कि सिनेमा जैसे मनोरंजन के साधनों को छोड़ देना या बहुत कम कर देना
-नशे की वजह से शरीर में हो रही शारीरिक या मानसिक समस्या के बारे में जानकारी होने के बावजूद भी नशीली पदार्थों का बार-बार इस्तेमाल करना
-नशे का असर ज्यादा हो, इसके लिए लगातार इसकी मात्रा बढ़ाते जाना

परिवारवाले कर सकते हैं ऐसे मदद
मरीज को नशे की लत से बाहर लाने में परिवारअहम भूमिका निभा सकता है। इतना ही नहीं मरीज को पीड़ा, तनाव, शर्म और अपराधबोध से मुक्त कराने में मदद कर सकता है:
-फैमिली मेंबर्स, फ्रेंड्स, टीचर्स, हेल्थ सेंटर्स द्वारा, प्रेरणा देकर, बार-बार नशा करने से रोककर मदद कर सकते हैं।
-अडिक्शन की राह पर बढ़ रहे शख्स को नशे से बीमारी होने का कारण बताकर मदद कर सकते हैं।
-गलत धारणाओं को दूर करके मदद करें।
-मरीज को नशा छोड़ने और काउंसिलिंग और जरूरत पड़ने पर दवा लेने के लिए मोटिवेट करके भी हेल्प करें।
-नशे की तलब लगने वाली परस्थितियों के बारे में जागरुक करके उसकी मदद करें।
-किसी को मरीज के साथ बदसलूकी की इजाजत न दें।
-यदि आपके स्वयं के जीवन का कोई जरूरी पहलू खतरे में है तो काउंसलर की मदद लें।
-फैमिली को भी अडिक्शन संबंधित जानकारी होनी चाहिए। इससे उनका मरीज के प्रति गुस्सा कम होता है। इससे घर में इस मुद्दे पर बेवजह कलह भी कम होता है।
-पेशंट को समझना और दोष न देना सबसे ज्यादा जरूरी है।
-परिवार का तनावग्रस्त होना भी कॉमन है। इसके लिए उन्हें भी प्रफेशनल हेल्प की जरूरत होती है।
-मरीज के छोटे-छोटे प्रयासों की सराहना करें और नेगेटिव कॉमेंट्स पास करने से बचें।

ये हैं इलाज के तरीके
अडिक्शन छुड़वाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। अगर कोई अडिक्ट हो गया है तो उसे विशेष डॉक्टर से मिलने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। ऐसा कोई शख्स फैमिली, फ्रेंड्स या दफ्तर में हो तो उसे साइकायट्रिस्ट के पास ले जा सकते हैं। फैमिली को समझना पड़ेगा कि यह एक बीमारी है, न कि उसकी गलती। कोई जानबूझकर नशा कर रहा है और छोड़ना नहीं चाहता, जैसी बात नहीं सोचनी चाहिए। बीमारी है तो इसका इलाज भी है। मरीज को इलाज तक पहुंचने में और इलाज में मदद करे। मरीज को फिर से सुधरने के लिए कुछ मौका दें, थोड़ा वक्त दें।
जिस भी सरकारी अस्पताल में साइकायट्री डिपार्टमेंट है, वहां पर नशे की बीमारी का इलाज भी उपलब्ध होता है। हां, यह हो सकता है कि वहां सभी तरह के अडिक्शन का इलाज उपलब्ध न हो। ऐसे में आप किसी दूसरे नजदीकी अस्पताल में जा सकते हैं। नशा डिप्रेशन की ओर भी ले जाता है। नशा में मौजूद केमिकल ब्रेन के एक खास हिस्से को प्रभावित करता है। इससे डिप्रेशन हो सकता है। दरअसल, नशा करने की वजह से जीवन में दूसरी कई समस्याएं भी आ जाती हैं। मसलन: घर-बार छूटना, नौकरी छूटना, पैसे की परेशानी, पर्सनल लाइफ में किसी और तरह की समस्या होना, नशे के कारण अपराधबोध होना या हीन भावना से ग्रस्त होना। इन समस्याओं से भी डिप्रेशन की समस्या हो सकती है। इलाज के दौरान अगर मरीज सिर्फ नशे की लत का शिकार है तो सिर्फ उसी का इलाज किया जाता है। अगर वह नशे और डिप्रेशन, दोनों का शिकार होता है तो दोनों का साथ-साथ इलाज किया जाता है।

दवा के साथ काउंसलिग भी
दवा का दमः
तलब कम करने और नशे से हुए नुकसान ठीक करने के लिए दवा दी जाती है। लेकिन ऐसा अडिक्शन के हर मामले में नहीं होता। डॉक्टर अडिक्ट की अलग-अलग तरह से जांच करते हैं और फिर तय करते हैं कि दवा की जरूरत है भी या नहीं।

काउंसलिंग
-प्रेरित करना: मनोवैज्ञानिक यह काम बखूबी करते हैं। समझाने, रास्ता दिखाने और उत्साह बढ़ाकर असंभव से दिखने वाले काम को वे संभव बना सकते हैं। इससे मरीज को सीधे फायदा होता है।
-नशा करने से रोकना: परिवार के लोग नशे के बुरे प्रभावों के बारे में बताकर नशे से दूर रहने के लिए किसी को मना सकते हैं।
-जानकारी देकर: नशे के बुरे प्रभावों और इससे निकलने के रास्ते की जानकारी देकर अडिक्शन से बचाया जा सकता है।

क्या बताते हैं काउंसलिंग में
1. नशे के बुरे नतीजों के बारे में पूरी जानकारी दी जाती है।
2.इससे निकलने के आसान रास्ते की जानकारी दी जाती है।
3. अपने विचारों को कैसे बदलें, यह भी बताते हैं।
4. सोसाइटी-घर में जो कॉमेंट्स होते हैं, उन्हें कैसे हैंडल करें।
5. जब एक बार नशा छूट जाए तो फिर आगे इसे कैसे छोड़े रखें या तलब से दूर रहें।
6. नशा करने वाले यार-दोस्तों से कैसे दूर रहें।
7. नशा करने वाली जगह से कैसे दूर रहें।
8. स्ट्रेस को कैसे हैंडल करें।
9. कामकाज पर कैसे लौटें।
10. वर्कप्लेस पर किस तरह की समस्या आ सकती है जो उन्हें नशे की ओर जाने के लिए मजबूर कर सकती है।
11. परिवार-दोस्तों की भी काउंसलिंग होती है। उन्हें बताया जाता है कि मरीज से कैसा बर्ताव किया जाना है, उसे किस तरह से सपोर्ट करना है।

सबसे ज्यादा है शराब की लत
केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने AIIMS के साथ मिलकर इसी साल देश के सभी राज्यों में एक सर्वे कराया था। इसके मुताबिक, देशभर में 10 से 75 साल आयु वर्ग के 14.6 फीसदी यानी करीब 16 करोड़ लोग शराब का सेवन करते हैं। यह बहुत बड़ी संख्या है। वैसे असल समस्या इतनी बड़ी संख्या में शराब पीने वालों का होना नहीं है बल्कि सबसे अहम बात यह है कि इनमें से ज्यादातर को इलाज की जरूरत है।

कैसे लगती है बुरी लत
-संगति से
-घरेलू माहौल
-मस्ती या शौक के लिए
-जिनेटिक कारण

सर्वे के मुताबिक
16 करोड़ में से करीब 6 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें इलाज की जरूरत
नशा करने वाली 2 फीसदी महिलाओं में से 6.5 फीसदी को इलाज की जरूरत
3 करोड़ लोग करते हैं भांग, गांजा, चरस या किसी दूसरे नशे का सेवन
1.14 फीसदी लोग करते हैं हेरोइन का इस्तेमाल
लगभग 1 फीसदी लोग नशीली दवाएं लेते हैं।

सही इलाज के लिए कहां जाएं
National Drug Dependence Treatment Centre, AIIIMS
-अडिक्शन के इलाज के लिए यह देश की सबसे बेहतरीन संस्था है। नशे के इलाज के लिए वेटिंग जैसी कोई स्थिति नहीं है। साढ़े 11 बजे तक ओपीडी में जो मरीज आते हैं, उन सभी का रजिस्ट्रेशन हो जाता है। यह सेंटर गाजियाबाद में है। यहां के बारे में डिटेल्ड जानकारी यहां ले सकते हैं: bit.ly/2MZuMZV
दिल्ली: एम्स, जीबी पंत, सफदरजंग जैसे लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में इसका इलाज है।
लखनऊ: किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज
-अडिक्शन और इससे जुड़ी तमाम जानकारी के लिए देखें:
www.alcoholwebindia.in

योग से मिलेगी मदद
-विशेषज्ञों का दावा है कि अगर कोई योग करता है तो उसे नशा करने में परेशानी होगी।
-शीतली और शीतकारी प्राणायाम, अनुलोम-विलोम, कपालभाती आदि प्राणायाम नशे को दूर रहने में आपकी मदद करते हैं।
-हर दिन कम से कम 50 बार शीतली और 50 बार शीतकारी करें। इसमें 5-5 मिनट का समय लगेगा।
-जो व्यक्ति नियमित शीतली और शीतकारी प्राणायाम करता है उस व्यक्ति के शरीर का सिस्टम इस तरह का हो जाता है कि वह नशीली चीज का सेवन नहीं कर पाता और उससे दूर हो जाता है। उसके सेवन की इच्छा भी मर जाएगी। यह कोई भी कर सकता है। इससे खून साफ होता है। एक महीने के अंदर इसका असर दिखने लगेगा।

लत छोड़ने में होती हैं क्या-क्या परेशानियां
-जब भी कोई शराब का आदी शख्स इसे छोड़ने की कोशिश करता है तो उसके शरीर में कंपकंपी, पसीना आना, मितली या उलटी होना, सिर दर्द, नींद की कमी, कमजोरी, गुस्सा आना, मतिभ्रम की स्थिति रहना आदि आम बात है।
-स्मैक या हेरोइन जैसी नशीली चीजों का मादक पदार्थ सेवन बंद करने से उलटी, शरीर में दर्द, बहती नाक, आंखों में पानी, बहुत ज्यादा पसीना, बदहजमी, दस्त, लगातार उबासी लेना, बुखार, अनिंद्रा, उदास मन जैसी समस्याएं आती हैं।
-तंबाकू का एडिक्शन छोड़ने वाले व्यक्ति में: चिड़चिड़ापन, चिंता, मुश्किल से किसी काम या बात पर ध्यान दे, भूख लगने में वृद्धि, बेचैनी, मन उदास रहना, अनिंद्रा
-भांग या गांजा छोड़ने का प्रयास करने वाले व्यक्ति में: चिड़चिड़ापन, गुस्सा, घबराहट, चिंता, अनिंद्रा, भूख में कमी, वजन में कमी, बेचैनी, उदास मन, कंपकंपी, सिरदर्द जैसी समस्याएं होती हैं।
-धीरे-धीरे शरीर खुद अजस्ट कर लेता है तो ये दिक्कतें दूर होने लगती हैं।

गंभीरता के आधार पर अडिक्शन
हल्का: 2-3 पैग रोजाना
मध्यम: 4-5 रोजाना
गंभीर: 6 या उससे ज्यादा रोजाना

...लेकिन यह नहीं है अडिक्शन
अगर आप चाय, कोल्ड ड्रिंक ज्यादा मात्रा में पीते हैं तो भी यह अडिक्शन नहीं है। मेडिकल साइंस इसे नशे के तौर पर नहीं देखता। यहां एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि आदत यानी हैबिट और व्यसन यानी लत दो अलग-अलग चीजें हैं। अमूमन हम इन दोनों तरह को एकसाथ ही रख देते हैं। अगर किसी को हर दिन सुबह चाय पीने की आदत है और उसे अगर चाय न मिले कुछ लोगों में सिरदर्द जैसी परेशानी हाे सकती है, लेकिन शरीर में कंपकपी जैसी परेशानी तो नहीं ही होती। इसी तरह अगर कोई शख्स कोल्ड ड्रिंक दो-चार दिन न पिए तो उसे कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन नशे की लत है और उसे हर दिन नशा करने के लिए न मिले तो उसका एक-एक दिन काटना मुश्किल हो जाता है।

ज्यादा मात्रा में शराब पीने के खतरे
-पुरुष के लिए 2 घंटे में 5 या उससे ज्यादा पैग और महिलाओं के लिए 4 या उससे ज्यादा पैग खतरनाक हैं।
-पुरुष के लिए एक हफ्ते में 14 पैग और महिलाओं के लिए एक हफ्ते में 7 पैग खतरनाक।
शराब के नशे से बीमारीः लंबे समय तक सेवन करने से लिवर खराब हो जाएगा। कैंसर हो सकता है। ब्लड प्रेशर की समस्या, डायबीटीज बिगड़ सकता है और हार्ट की समस्या हो सकती है। बाद में मरीज की मौत भी हो सकती है।

फिर से फंसने से बचाने की तरकीब
नशे की लत छूटने के बाद फिर से फिर से नशे में पड़ जाना सामान्य है। इससे बचना जरूरी है। इसके लिए सीखना होगा कि:
1. किसी दोस्त द्वारा ऑफर किए जाने पर कैसे मना करें।
2. तलब को कैसे हैंडल करें, यह बताना। मसलन:
-ध्यान किसी और काम में लगाना
-लम्बी सांस लेकर मन को शांत करना
-टालना
-पानी पीना
-ध्यान किसी दूसरे जरूरी काम में लगाना
-लम्बी सांस लेकर मन को शांत करना

लत लगने के चरण
1- नशे की लत लग जाना
2- ज्यादा लेना शुरू करना यानी हानिकारक उपयोग
3- शुरुआत में कभी-कभार लेना

जितनी पुरानी लत, उतना लंबा इलाज
-व्यक्ति अडिक्शन की बीमारी के अलग-अलग चरण में होता है। ऐसे में एक जैसा इलाज सभी के लिए फायदेमंद नहीं होता है। जो जिस स्टेज में होता है, उसका इलाज उसी के अनुसार किया जाता है।
-नशे के अडिक्शन से निकल कर मरीज फिर उसमें फंस जाता है। ऐसे में इलाज के दौरान ध्यान रखना जरूरी है कि मरीज फिर से उसमें नहीं जाए। इसके लिए परिवार वालों को भी निर्देश दिए जाते हैं।
-नशे का ट्रीटमेंट महीनों और सालों तक चल सकता है। इसलिए सब्र बनाकर रखना बहुत जरूरी होता है।
-इलाज में भागीदारी होना ज्यादा फायदेमंद है। इसलिए इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इलाज किस तरह हो और कहां किया जाए।

रीहैबिलिटेशन सेंटर कितने कारगर?
नशे के इलाज के लिए अक्सर मरीज को रीहैब सेंटर में भर्ती करा दिया जाता है। ऐसा कर परिजन निश्चिंत हो जाते हैं कि वह ठीक हो जाएगा, लेकिन इस मामले में थोड़ी सावधानी की जरूरत है:
- देश के करीब 80 फीसदी रीहैबिलिटेशन सेंटर प्राइवेट हैं और वे कितने प्रभावी हैं, इसके बारे में कहना मुश्किल है।
-प्राइवेट सेंटर ज्यादातर वे लोग चलाते हैं जो पहले खुद नशे से पीड़ित थे। वे इसी बात को हाईलाइट कर अडिक्ट के परिजनों को अपनी सेंटर की ओर खींचते हैं। लेकिन यह बात रीहैबिलिटेशन सेंटर के उपयोगी होने का सबूत कतई नहीं है।
-सर्वे में यह बात सामने आ चुकी है कि इस तरह के ज्यादातर सेंटरों में जरूरी दवाइयों की काफी कमी होती है जबकि इलाज के नाम पर काफी पैसे लिए जाते हैं।
-आमतौर पर इन सेंटरों पर शुरुआत में थोड़ी दवाई दी जाती है और बाद में उनकी काउंसलिंग की जाती है। साथ ही मरीजों को नशे से दूर रखने का प्रयास किया जाता है।
-इन सेंटरों के बारे में शिकायत रहती है कि मरीजों से काम करवाया जाता है और उनके साथ डांट-डपट और मारपीट तक की जाती है।
-रीहैब के अनुभव के बाद कई मरीज डॉक्टर के पास जाने से कतराने लगते हैं।

रीहैबिलिटेशन सेंटर को लेकर रहें सतर्क
-मरीजों को सीधे रीहैबिलिटेशन सेंटरों में भर्ती नहीं कराया जाना चाहिए बल्कि पहले उसे डॉक्टरों या ओपीडी में दिखाना चाहिए। कई बार स्थिति डॉक्टरों से ही संभल जाती है। रिहैब जाने से परेशानी बढ़ भी सकती है।
-एम्स के नशा मुक्ति विभाग का दावा है कि उसके यहां आने वाले मरीजों में से करीब 90 फीसदी मरीजों को ओपीडी से ही लाभ मिल जाता है।
-रीहैब सेंटर जाने से पहले एक ऑप्शन अस्पताल में भर्ती कराने का भी है। एम्स में इसके लिए पूरी व्यवस्था है। यह विकल्प भी सही है।
-हां, रीहैबिलिटेशन सेंटर का विकल्प अंतिम हो सकता है और वह भी थोड़े समय के लिए ही। इस ऑप्शन पर तब ही जाना चाहिए जब बाकी सभी ऑप्शन फेल हो गए हों या ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा हो।
-कई रीहैबिलिटेशन सेंटर पैसा कमाने के लिए अडिक्शन के मरीजों को लंबे समय के लिए भर्ती के लिए कहते हैं। यह सही नहीं है। वह ऐसा पैसों के लिए करते हैं। इससे मरीज की स्थिति ठीक होने की बजाय खराब भी हो जाती है।
-किसी भी रीहैबिलिटेशन सेंटर में भर्ती करने से पहले वहां पहले से भर्ती मरीज का फीडबैक जानने की कोशिश करें। इससे उसके सक्सेस रेट के बारे में भी जानकारी मिल जाएगी।
-मेंटल हेल्थकेयर ऐक्ट 2017 के तहत रीहैबिलिटेशन सेंटर खोलने के लिए लाइसेंस की जरूरत होती है। भर्ती करने से पहले लाइसेंस जरूर मांगें।

मिथ मंथन
1. किसी शख्स के चरित्र या व्यक्तित्व में कमी के कारण वह नशीली चीजों का सेवन करने लगता है।
- इसका चरित्र या व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। नशे की लत किसी भी व्यक्ति को लग सकती है।

2. नशे का सेवन करने वाला शख्स कोई अप्रत्याशित काम कर सकता है या हमला कर सकता है।
-अमूमन नशे की वजह ऐसा कोई नहीं करता। दरअसल जब लोग किसी नशे में पहुंच चुके शख्स के साथ जबर्दस्ती करते हैं और उन्हें नशा करने से रोकने या समझाने की कोशिश करते हैं तो उसकी भावनाएं काबू से बाहर हो जाती हैं। उसे शारीरिक और मानसिक परेशानी होती है। ऐसे में वह अपना आपा खो देता है। किसी अडिक्ट को जब समझाना हो तो यह जरूरी है कि वह पूरे होशो-हवास में रहे।

3. नशे का आदी व्यक्ति कभी भी खुद से नशा नहीं छोड़ना चाहता।
-जिस शख्स को नशे की लत होती है, उसे यह पता होता है कि नशे की लत लग चुकी है। सच यह है कि ऐसे लोगों में से ज्यादातर नशा छोड़ना चाहते हैं, लेकिन जैसे ही वे छोड़ना चाहते हैं, उन्हें परेशानी शुरू हो जाती है। इस परेशानी से निकलने के लिए उन्हें मदद की जरूरत होती है।

4. जिस शख्स की इच्छाशक्ति बहुत मजबूत होगी, वही नशे का सेवन छोड़ सकता है।
-नशे की लत पर कोई भी शख्स लात मार सकता है। नशे की काउंसलिंग के लिए जब कोई शख्स शुरू में आता है तो वह नशा छोड़ने के बारे में नहीं सोच रहा होता, लेकिन जब काउंसलिंग शुरू होती है और काउंसलर दो-तीन बार उससे मिलते हैं तो वह तैयार हो जाता है। कई बार शख्स को खुद भी विश्वास नहीं होता कि वह नशा छोड़ सकता है।

5.नशा छुड़ाने का एक ही तरीका है कि उसे उसकी मर्जी से या जबर्दस्ती कुछ महीने के लिए रीहैबिलिटेशन सेंटर में भर्ती करा दिया जाए।
-यह पूरी तरह गलत है। आमतौर पर एक धारणा है कि नशा छुड़ाना है तो रीहैबिलिटेशन सेंटर में भर्ती करा दो। हमें समझना होगा कि अडिक्शन एक बीमारी है और इसका इलाज है।

6.काउंसलिंग और लाइफस्टाइल में बदलाव से नशे का इलाज संभव है?
-सिर्फ काउंसलिंग और जीवनशैली में बदलाव से इलाज संभव नहीं है। अडिक्शन के मामले में दवा की जरूरत पड़ेगी ही। मरीज के नशे की लत का इलाज करना होगा।

एक्सपर्ट्स पैनल
1- डॉ. आलोक अग्रवाल, असिस्टेंट प्रफेसर, एम्स
2- डॉ. आर. के. चड्ढा चीफ NDDTC, एम्स
3- डॉ. गौरीशंकर केलोया, एसोसिएट प्रफेसर, एम्स
4- डॉ. रवींद्र राव एसोसिएट प्रफेसर, एम्स
5- डॉ. अंजू धवन NDDTC, एम्स
6- आशीष चटर्जी योग गुरु, सत्या फाउंडेशन

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

घूमने का कोई महीना नहीं, देखें रोचक लिस्ट

$
0
0
हमने तीन बड़े घुमक्कड़ों से जाना चंद ऐसी जगहों के बारे में जो शानदार हैं, लेकिन लोग वहां कम ही जाते हैं। हम आपको महीने के हिसाब से घूमने के तमाम विकल्प बता रहे हैंहमने तीन बड़े घुमक्कड़ों से जाना चंद ऐसी जगहों के बारे में जो शानदार हैं, लेकिन लोग वहां कम ही जाते हैं। हम आपको महीने के हिसाब से घूमने के तमाम विकल्प बता रहे हैं

वेस्ट का बेस्ट मैनेजमेंट

$
0
0

देशभर में इन दिनों प्लास्टिक का इस्तेमाल न करने और बेहतर वेस्ट मैनेजमेंट के जरिए प्रदूषण पर कंट्रोल करने की पहल की जा रही है। अगर हम थोड़ी-सी कोशिश करें तो बेकार चीजों का बेहतर तरीके से निस्तारण कर सकते हैं और पर्यावरण में अहम योगदान दे सकते हैं। इस बारे में एक्सपर्ट्स से बातचीत कर जानकारी दे रहे हैं राजेश भारती

सिंगल यूज प्लास्टिक ज्यादा खतरनाक
यों तो प्लास्टिक खतरनाक होता ही है, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक सबसे ज्यादा खतरनाक है। यह सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल के लिए बनाई गई होती है। इनमें कैरी बैग, कप, पानी या कोल्ड ड्रिंक की बोतलें, स्ट्रॉ, फूड पैकेजिंग आदि आते हैं।

4R का करें प्रयोग
R (Reuse): किसी भी चीज को बेकार समझकर यों ही न फेंकें। हर चीज का दोबारा प्रयोग हो सकता है। बस थोड़ा दिमाग लगाने की जरूरत होती है।
R (Reduce): बेहतर होगा कि सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल धीरे-धीरे बंद कर दें और इसके विकल्पों जैसे जूट या कपड़े का थैला, कागज के लिफाफे आदि का इस्तेमाल करें।
R (Recycle): ऐसी चीजें जिन्हें रीसाइकल किया जा सकता है, उन्हें एक जगह इकट्ठा कर कबाड़ी वाले को बेच दें। इन चीजों में लोहा, एल्युमिनियम, प्लास्टिक, कांच आदि शामिल हैं।
R (Refuse): जिसे रीसाइकल नहीं किया जा सकता, उस प्लास्टिक के इस्तेमाल से बचें। साथ ही ऐसी रीसाइकल होने लायक प्लास्टिक को भी न कहें जिसकी बहुत ज्यादा जरूरत न हो।

क्यों हो रहा है इस्तेमाल
दरअसल, सिंगल यूज प्लास्टिक को बनाने में ज्यादा खर्चा नहीं आता। ऐसे में न केवल इनका उत्पादन बहुत अधिक हो रहा है बल्कि इस्तेमाल भी खूब हो रही हैं, जबकि यह मजबूत और पैकेजिंग के लिए परफेक्ट होती है। सब्जी, किराना आदि दुकानों पर मिलने वाले 50 माइक्रोन से कम के कैरी बैग सबसे ज्यादा इस्तेमाल होते हैं और ये ही सबसे ज्यादा खतरनाक भी हैं, क्योंकि इन्हें रीसाइकल नहीं किया जा सकता। डस्टबिन में इस्तेमाल होने वाली काले रंग की थैलियां भी 50 माइक्रोन से कम प्लास्टिक की होती हैं।

नुकसानदेह है यह
प्लास्टिक जल, पृथ्वी और वायु को प्रदूषित करती है, जिसका असर इंसान और जीव-जंतुओं पर पड़ता है। प्लास्टिक को पूरी तरह गलने में कई सौ साल लग जाते हैं। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। प्लास्टिक का असर इस प्रकार पड़ता है:

पानी पर असर: प्लास्टिक इस्तेमाल होने के बाद इधर-उधर फेंक दी जाती है। बारिश के पानी या अन्य कारणों से ये प्लास्टिक नदियों, नालों और समुद्र में चली जाती है। इससे पानी का बहाव प्रभावित होता है। चूंकि प्लास्टिक जल्दी गलती नहीं है इस कारण सैकड़ों सालों तक पानी में पड़ी रहती है। इस प्लास्टिक में केमिकल मिले होते हैं जो पानी के साथ इंसान के शरीर में भी आ जाते हैं। समुद्री जीव भी प्लास्टिक को खाना समझकर खा लेते हैं। प्लास्टिक उनके फेफड़ों या सांस की नली में फंस जाती है और उनकी मौत का कारण बन जाती है।

जमीन पर असर: प्लास्टिक से जहरीली गैस निकलती हैं। धूप के संपर्क में आने पर इससे जहरीली गैसें और ज्यादा निकलती हैं। प्लास्टिक के कारण जमीन बंजर हो जाती है और खेती करना मुश्किल हो जाता है।

हवा पर असर: प्लास्टिक के कूड़े को जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड गैसों की मात्रा वायुमंडल में बहुत बढ़ जाती है।


इन विकल्पों का कर सकते हैं उपयोग
1. प्रॉडक्ट्स:
प्लास्टिक प्रॉडक्ट की जगह हम दूसरी चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं।
प्लास्टिक प्रॉडक्ट के ऑप्शन
स्ट्रॉ- पेपर के बने स्ट्रॉ
बोतल- कांच, मेटल, बांस, मिट्टी और सिरेमिक
कप- सिरेमिक या मिट्टी
पॉलीबैग- जूट या कागज की थैली
गिफ्ट रैपर्स- पेपर रोल

2. कटलरी:
मार्केट में मिलने वाले थर्मोकॉल के कप, प्लेट, कटोरी, चम्मच आदि भी सिंगल यूज प्लास्टिक में आते हैं। इनकी जगह बायोडिग्रेडेबल पदार्थों जैसे पेड़ों की पत्तियां, गन्ने की भूसी आदि से बने बर्तन इस्तेमाल किए जा सकते हैं। ये बर्तन खरीदारी के लिए ऑनलाइन उपलब्ध हैं। अलग-अलग बर्तन लेने की जगह आप ट्रे ले सकते हैं।

इतनी है कीमत
प्रॉडक्ट साइज संख्या कीमत
ट्रे 4 कंपार्टमेंट 20 204 रुपये
गोल प्लेट 6.75 इंच 50 472 रुपये
कटोरी 250 ml 100 340 रुपये
स्नैक्स प्लेट 7 इंच 50 260 रुपये
चम्मच 16 सेमी 100 200 रुपये
कंटेनर 750 ml 50 800 रुपये
कप 220 ml 100 450 रुपये
(नोट: यहां बताई गईं कीमतें ई-कॉमर्स वेबसाइट्स से हैं। कीमतों में परिवर्तन संभव।)

एडिबल बर्तन भी हैं मार्केट में
मार्केट में इन दिनों ऐसे भी एडिबल बर्तन (ऐसे बर्तन जिन्हें खाया जा सकता है) भी मौजूद हैं। ऑनलाइन मार्केट में ऐसी ही 90 चम्मचों का सेट 1150 रुपये में उपलब्ध है। खाना खाने के बाद इन चम्मचों को भी खा सकते हैं। एडिबल बर्तन चॉको पाउडर, पुदीने की पत्तियों आदि से बने होते हैं और पूरी तरह ऑर्गेनिक होते हैं। हालांकि इन्हें खरीदते समय इन पर लिखी एक्सपायरी डेट और अन्य जरूरी बातें जरूर पढ़ लें।

शोरूम में बैग को लेकर यह है नियम
प्लास्टिक के कैरी बैग पर बैन की स्थिति में खरीदारों को दिक्कत होना स्वाभाविक है। अगर आप किसी शो रूम में खरीदारी के लिए जाते हैं तो आपको कैरी बैग की जरूरत पड़ सकती है। अगर शोरूम से आप कैरी बैग मांगते हैं और उस बैग पर किसी कंपनी या उसी शो रूम का विज्ञापन है तो आपको हक है कि आप उस बैग की कीमत न दें। वहीं, अगर बैग पर कोई विज्ञापन नहीं है तो आपको बैग की कीमत देनी पड़ सकती है। बेहतर होगा कि शॉपिंग के लिए आप अपना बैग साथ ले जाएं। अभी कुछ समय पहले एक कंपनी का ऐसा ही मामला कंजूमर कोर्ट पहुंचा था, जहां बैग की कीमत लेने को लेकर सुनवाई हुई थी।

प्लास्टिक के इस्तेमाल को लेकर राज्यों में कानून
दिल्ली
50 माइक्रोन से कम की प्लास्टिक इस्तेमाल करने, बेचने या स्टोर करने पर 5 हजार रुपये तक का जुर्माना।
100 किलो तक प्रतिबंधित प्लास्टिक मिलने पर दो लाख रुपये तक का चालान।
100 किलो से ज्यादा प्रतिबंधित प्लास्टिक मिलने पर 5 लाख रुपये तक का चालान।

ये लगा सकते हैं जुर्माना
प्लास्टिक के संदर्भ में जुर्माना लगाने की जिम्मेदारी 11 विभागों के अधिकारियों को दी गई हैं। इनमें डीपीसीसी के मेंबर सेक्रेट्री, एनवायरमेंटल डायरेक्टर और इनका स्टाफ, क्षेत्रीय एडीएम, क्षेत्रीय एसडीएम, डीपीसीसी के एनवायरमेंटल इंजिनियर्स, एमसीडी के असिस्टेंट कमिश्नर, फूड एंड सप्लाई ऑफिसर, एनडीएमसी के मेडिकल ऑफिसर हेल्थ, दिल्ली सरकार के हेल्थ सर्विसेज डायरेक्टर, एमसीडी के हेल्थ ऑफिसर आदि शामिल हैं। 50 माइक्रोन से कम पॉली बैग्स मिलने की शिकायत डीपीसीसी और एमसीडी के अधिकारियों से की जा सकती है।

उत्तर प्रदेश
योगी सरकार पिछले साल 15 जुलाई से तीन चरणों में प्लास्टिक पर बैन लगाने के लिए अध्यादेश लाई थी। बाद में यह ऐक्ट बन गया।

-15 जुलाई 2018 से 50 माइक्रॉन से पतली प्लास्टिक कैरीबैग्स और अन्य प्रॉडक्ट्स के इस्तेमाल, खरीद, बिक्री और स्टोरेज पर बैन लगा दिया गया।
-15 अगस्त 2018 से प्रतिबंध को कड़ा करते हुए सिंगल यूज प्लास्टिक और थर्मोकॉल से बने सभी प्रॉडक्ट्स के इस्तेमाल, निर्माण और स्टोरेज को प्रतिबंधित कर दिया गया।
-2 अक्टूबर 2018 से सभी तरह के नॉन बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक या थर्मोकॉल के प्रॉडक्ट्स का पूरी तरह बैन है। इसका इस्तेमाल करते हुए पाए जाने लोगों से जुर्माना लगाने के अलावा जेल तक भेजा जा सकता है। जुर्माना इस रेट से वसूला जा सकता है:
वजन जुर्माना (रुपये में)
100 ग्राम तक 1000
101-500 ग्राम तक 2000
501 ग्राम से 1 किलोग्राम तक 5000
1 किग्रा से 5 किग्रा तक 10000
5 किलोग्राम से अधिक 25000

जुर्माने के साथ जेल भी: जुर्माना ऐक्ट के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति प्रतिबंधित प्लास्टिक वेस्ट पब्लिक या किसी की प्राइवेट प्रॉपर्टी में, नदी, नालियों, सड़कों, झीलों, तालाबों में फेंकता पाया जाता है तो उसपर 1000 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। जबकि अगर यह वेस्ट किसी व्यक्ति का न होकर कमर्शल या नॉन कमर्शल संस्था का होगा तो जुर्माना की राशि 25000 रुपये होगी। साथ ही प्रतिबंधित पॉलीथीन या थर्मोकॉल के प्रॉडक्ट्स के इस्तेमाल, बनाने, बेचने, स्टोरेज और आयात-निर्यात का दोषी पाए जाने पर छह महीने की जेल या दस से 25 हजार का जुर्माना लिया जा सकता है। दूसरी या इससे आगे ऐसी ही गलती करते हुए पकड़े जाने पर एक साल की जेल हो सकती है या 20 हजार से एक लाख रुपये तक जुर्माना हो सकता है।

एक खामी यह भी: यूपी में प्लास्टिक और थर्मोकॉल प्रॉडक्ट्स पर प्रतिबंध लगाने के लिए जो ऐक्ट है, वह नगर विकास विभाग ने बनाया है। इसे केवल शहरी इलाकों में ही लागू किया जा सकता है। ग्रामीण हिस्सों में प्लास्टिक के इस्तेमाल का कोई प्रतिबंध नहीं है।
इनपुट: रोहित मिश्रा

हरियाणा
-हरियाणा में भी 50 माइक्रोन से कम की प्लास्टिक बैन है।
-इस प्लास्टिक के कैरी बैग बेचने वालों पर 5000 रुपये तक जुर्माना है।
-प्लास्टिक बैग इस्तेमाल करने पर 250 से 500 रुपये तक जुर्माना है।

कचरा अलग-अलग करना जरूरी
हर कचरे को मिलाने से कूड़ा पूरी तरह डिकंपोज नहीं हो पाता। इससे कूड़े का ढेर लगता जाता है, जो प्रदूषण बढ़ता है। कचरा अलग-अलग करने से इसकी प्रॉसेसिंग आसान हो जाती है। गीले कचरे से खाद और सूखे कचरे की रीसाइक्लिंग हो सकती है।

कचरे के अनुसार डस्टबिन का रंग
सार्वजनिक जगहों पर सरकार अलग-अलग तरह के कचरे को छांटने के लिए अलग-अलग रंग का डस्टबिन लगवा रही है, लेकिन इनका उपयोग नहीं हो पा रहा क्योंकि लोग रंग को लेकर अवेयर नहीं हैं। इन डस्टबिन के बारे में जानें:

गीला कचरा (हरा डस्टबिन)
किचन का कचरा जैसे फल-सब्जियों के छिलके, चाय पत्ती, सड़े फल-सब्जियां, सब्जी, बचा भोजन, फूल आदि।

सूखा कचरा (नीला डस्टबिन)
प्लास्टिक, बोतलें, चिप्स या नमकीन के पैकेट, दूध की खाली थैली, कागज कप, प्लेट, अखबार, डिब्बे, बॉक्स, पुराने कपड़े, पेपर बैग आदि।

अन्य कचरा (काला या लाल डस्टबिन)
बायोमेडिकल वेस्ट, डायपर, सैनिटरी नैपकिन, पटि्टयां, टिशू पेपर, रेजर, प्रयोग में लाई हुई सीरिंज, ब्लेड, स्लाइन की बोतलें, एक्सपायर दवाई आदि। इन्हें कागज में लपेटकर ही डस्टबिन में डालें। इस डस्टबिन का अधिकतर इस्तेमाल हॉस्पिटल में होता है।

घर से करें शुरुआत
कचरे को अलग-अलग करने और उसके निस्तारण की शुरुआत घर से ही करनी चाहिए। इसके लिए ये तरीके अपनाएं:

1. डस्टबिन का प्रयोग

दो रंग के डस्टबिन रखें
घर में नीले और हरे रंग के दो डस्टबिन रखें। गीला कचरा हरे रंग के डस्टबिन में और सूखा कचरा नीले रंग के डस्टबिन में डालें। अगर आपके घर से कुछ ऐसा भी कचरा निकलता है, जो अन्य कचरे की कैटिगरी में आता है, उसे कागज में लपेटें और उस पर लाल रंग से क्रॉस का निशान लगा दें। इस कचरे को सूखे कचरे वाली डस्टबिन में डाल सकते हैं। यहां ध्यान रखें कि इस तरह के कचरे को इकट्ठा न होने दें और इसे रोजाना ढलाव घर में फेंक दें या कूड़े वाले को दे दें।

कितना बड़ा हो डस्टबिन
अगर आपके परिवार में दो लोग और दो बच्चे हैं तो गीले कचरे के लिए 30 से 35 लीटर का डस्टबिन काफी रहेगा। यहां ध्यान रहे कि आपको गीले कचरे के लिए तीन डस्टबिन लेने होंगे, क्योंकि एक में जब कचरे का निस्तारण होगा, तब दूसरे का इस्तेमाल कूड़ा जमा करने के लिए किया जा सकेगा। वहीं सूखे कचरे के लिए करीब 50 लीटर का एक ही डस्टबिन काफी है।
कहां से खरीदें
ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों मार्केट में कूड़ा निस्तारण के लिए प्लास्टिक और मिट्टी के डस्टबिन मौजूद हैं। प्लास्टिक के डस्टबिन को कंपोस्टर डस्टबिन और मिट्टी के डस्टबिन को डेली डंप खंबा कहते हैं। इनकी कीमत इस प्रकार है:
प्रॉडक्ट क्षमता सेट कीमत
प्लास्टिक डस्टबिन 35 लीटर 2 `2 से `3 हजार मिट्टी डस्टबिन 500 ग्राम 1 करीब `3 हजार

कौन-सा है बेहतर
कचरा अलग-अलग करने के लिए घर में इस्तेमाल होने वाला सामान्य डस्टबिन ही ठीक हैं, लेकिन इनमें गीले कचरे का निस्तारण सही तरीके से नहीं हो पाता है। कचरे के निस्तारण के लिए मार्केट में स्पेशल डस्टबिन हैं। बेहतर होगा कि इन्हीं डस्टबिन का इस्तेमाल करें। इनमें प्लास्टिक डस्टबिन 4 से 5 साल तक ही काम कर पाता है, वहीं मिट्टी से बने डस्टबिन को लंबे समय तक इस्तेमाल कर सकते हैं।

2. ऐसे करें निस्तारण
अगर आपके घर की गली, कॉलोनी या सोसायटी में कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी आती है और उसमें गला और सूखा कचरा अलग-अलग डालने की सुविधा है तो बेहतर होगा कि आप कूड़ा उसी में डालें। वहीं आपको लगता है कि कूड़े का निस्तारण खुद कर सकते हैं तो इसे घर पर कर सकते हैं।

गीला कचरा
गीले कचरे के निस्तारण के लिए आपको सूखे पत्ते या कोकोपीट (नारियल का बाहरी रेशे वाला भाग) की भी जरूरत पड़ेगी। सूखे पत्ते आपको पार्क में आसानी से मिल सकते हैं। ध्यान रहे दो मुट्ठी सूखे पत्ते रोजाना के लिए काफी रहेंगे। वहीं, कोकोपीट मार्केट में आसानी से मिल जाता है। आप चाहें तो नारियल बेचने वाले से भी कोकोपीट ले सकते हैं। दो मुठ्ठी कोकोपीट भी रोजाना के लिए काफी है। कोकोपीट ऑनलाइन भी मिल जाता है। साथ ही, कूड़ा निस्तारण के लिए कोकोपीट या सूखे पत्तों के अलावा कंपोस्ट मेकर पाउडर भी ऑनलाइन मिलता है। तीन किलो पाउडर की कीमत करीब 500 रुपये है।

गीले कचरे के निस्तारण की प्रक्रिया:
हरे रंग के डस्टबिन में सबसे पहले दो मुठ्ठी कोकोपीट या सूखे पत्तों को हाथों से मसलकर छोटा-छोटा करके फैला दें। फिर गीले कचरे को उसमें डाल दें। एक दिन में जितना भी गीला कचरा निकले, उसे डालते जाएं। ध्यान रहे, कचरा डालने के बाद डस्टबिन का ढक्कन जरूर बंद कर दें।

रात को गीले कचरे के ऊपर फिर से दो मुठ्ठी कोकोपीट या सूखे पत्ते डाल दें आैर पूरे कचरे को किसी छड़ी से मिला दें ताकि उसके अंदर हवा पहुंच जाए। इसके बाद उसे ढक दें।

कोकोपीट या सूखे पत्तों का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है ताकि ये गीले कचरे से पानी को सोख लें।

यह एक महीने तक करें। यानी जब भी गीला कचरा हो, उसे डस्टबिन में डालें, फिर एक मुट्ठी कोकोपीट या सूखे पत्ते डाल दें और रोजाना रात को कचरे को किसी छड़ी की सहायता से मिला दें।

एक महीने बाद बाद उसमें गीला कचरा डालना बंद कर दें और दो महीने ऐसे ही रहने दें। इस दौरान कचरे को छड़ की सहायता से रोजाना मिलाते रहें। दो महीने बाद आप देखेंगे कि कचरे का रंग भूरा हो चुका होगा। वह गीला भी नहीं होगा और थोड़ा बिखरा-बिखरा होगा। ऐसे में आप समझ जाइए कि आपका गीला कचरा
खाद में बदल चुका है। इस ऑर्गेनिक खाद को बगीचे या किसी भी गार्डन में इस्तेमाल कर सकते हैं।

सूखा कचरा
सूखे कचरे को आप पूरे महीने इकट्ठा कर कबाड़ी को दे सकते हैं। सूखे कचरे के बदले आपको कुछ रकम भी मिल जाएगी। वहीं, आप चाहें तो सूखे कचरे में से चीजों को छांटकर उनका फिर से उपयोग कर सकते हैं। इसके लिए आप यू-ट्यूब की मदद ले सकते हैं।

3. इन बातों का रखें ध्यान
मार्केट में गीले कचरे के निस्तारण के लिए ऐसे भी डस्टबिन हैं जिनमें कचरे को मिलाने के लिए किसी छड़ी की जरूरत नहीं पड़ती। इनमें एक हैंडल लगा होता है जिसे घुमाकर कचरे को मिलाया जा सकता है। इन्हें कंपोस्टिंग टंबलर कहा जाता है। यह साधारण डस्टबिन के मुकाबले महंगे होते हैं।

जब एक डस्टबिन में गीला कचरा डालना बंद कर दें तो उस समय कचरा डालने के लिए दूसरे डस्टबिन का इस्तेमाल करें। खाद निकालने के बाद डस्टबिन को साफ कर लें और उसे रख लें, क्योंकि अब आपका दूसरा डस्टबिन उपयोग में आ चुका है। जब वह भर जाए तो तीसरा डस्टबिन इस्तेमाल करें। जब तक तीसरा डस्टबिन भरेगा, आप पहले डस्टबिन से खाद निकालकर उसे खाली कर चुके होंगे।

शुरू में गीले कचरे से कुछ बदबू आ सकती है, लेकिन धीरे-धीरे यह बदबू कम हो जाएगी और बाद में बिल्कुल बंद हो जाएगी। हालांकि कचरे में से बदबू दूर करने के लिए बायो सेनेटाइजर आते हैं। ये ऑनलाइन आसानी से मिल जाते हैं। इनके इस्तेमाल का तरीका इन पर लिखा होता है। गीले कचरे के डस्टबिन को ऐसी जगह रखें, जहां आपका आना-जाना कम होता हो या कमरे से कुछ दूर हो। ऐसी जगह गैलरी या बालकनी भी हो सकती है। वहीं सूखे कचरे के डस्टबिन को आप कहीं भी रख सकते हैं।

-गीला कचरा निस्तारण के लिए मार्केट में मिलने वाले डस्टबिन के साथ यूजर बुक आती है, इसलिए इसके उपयोग से पहले यूजर बुक को ध्यान से पढ़ लें।

कॉलोनी/सोसायटी लेवल पर ऐसे हो सकता है निस्तारण
किसी कॉलोनी या सोसायटी में रहने के दौरान भी आप चाहें तो व्यक्तिगत रूप से भी गीले और सूखे कचरे का घर पर निस्तारण कर सकते हैं, लेकिन सभी लोग मिलकर ये काम करें तो कचरे को घर पर निस्तारण करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। सभी घरों के कचरे का निस्तारण एक ही जगह बड़े लेवल पर हो सकता है। इसके लिए सभी लोगों को साथ आना होगा। कॉलोनी या सोसायटी लेवल पर गीले कचरे के निस्तारण के लिए इन बातों पर ध्यान दें:

-कॉलोनी या सोसायटी के लोगों को स्वच्छता और कचरा निस्तारण को लेकर जागरुक करें। साथ ही लोगों को गीले कचरे और सूखे कचरे के बारे में जानकारी दें और इन्हें अलग-अलग इकट्ठा करने को कहें।
-आप वॉट्सऐप ग्रुप बनाकर कॉलोनी या सोसायटी के लोगों को जोड़ सकते हैं। साथ ही इसमें RWA या उन लोगों काे भी जोड़ें जो आपकी कॉलोनी या सोसायटी कमिटी से जुड़े हैं।
nसभी लोग मिलकर इलाके के नगर निगम अधिकारी से मिलें और गीले कचरे के निस्तारण को लेकर उनसे चर्चा करें। साथ ही इनमें उनकी मदद लें।
-गीले और सूखे कचरे के निस्तारण को लेकर बहुत सारी संस्थाएं और एनजीओ काम करते हैं। बेहतर होगा कि उनकी भी मदद लें। इनके बारे में आप अपने इलाके के नगर निगम अधिकारी से जानकारी ले सकते हैं क्योंकि ये सभी नगर निगम के साथ मिलकर ही काम करते हैं। कुछ संस्थाएं और एनजीओ के नाम हम बता रहे हैं:
1. वन स्टेप ग्रीनर
Website: onestepgreener.org
Contact: 8744901010
2. स्वयं स्वच्छता इनशिएटिव लिमिटेड
Contact: 011-40988800
3. के. के. प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट
Website: kkplasticroads.in
Contact: 9886505811

गीले कचरे का निस्तारण
कॉलोनी या सोसायटी के सभी मकानों और उनसे रोजाना निकलने वाले गीले कचरे की मात्रा का अनुमान लगाएं। इसके बाद इसी अनुसान से कंपोस्टिंग टंबलर लगाएं। चूंकि कॉलोनी में बड़े लेवल पर गीला कचरा इकट्ठा होगा और उसे ज्यादा दिनों तक कंपोस्ट होने के लिए रख भी नहीं सकते। ऐसे में कंपोस्टिंग की प्रक्रिया तेजी से करने के िलए उसमें बायो डाइजेस्टर मिलाया जाता है। बायो डाइजेस्टर ऑनलाइन खरीदा जा सकता है। इसके प्रयोग का तरीका उस पर लिखा होता है। बायो डाइजेस्टर से कचरा करीब 40 दिनों में कंपोस्ट बन जाता है, यानी गीले कचरे को सिर्फ एक महीने तक टंबलर में डालते जाएं और फिर दूसरा टंबलर इस्तेमाल में ले आएं। पहले टंबलर को 10 दिनों के लिए यों ही छोड़ दें। 10 दिनों में खाद बनकर तैयार हो जाएगी। इस खाद को कॉलोनी या सोसायटी के लोगों को ही दे सकते हैं ताकि वे अपने-अपने गमलों में इसका इस्तेमाल कर सकें।

सूखे कचरे का निस्तारण
सूखे कचरे को सभी लोग एक जगह इकट्ठा करते जाएं। इसे कई संस्थाएं ले जाती हैं और सूखे कचरे में मिली सभी चीजों को अलग-अलग कर लेती हैं। इसे वे रीसाइकल करके उपयोग में ले लेती हैं। इससे बहुत कम कचरा ही डंपिंग साइट पर जा पाता है और वहां कूड़े का ढेर नहीं लगता। इस तरह न केवल हम पर्यावरण को स्वच्छ रखने में मदद करते हैं, बल्कि खाद बनाकर प्रकृति को भी कुछ-न-कुछ वापस करते हैं।

एक्सपर्ट्स पैनल

-विश्वेंद्र सिंह, डिप्टी कमिश्नर, एसडीएमसी
-डॉ. सविता नागपाल, वाइस प्रेजिडेंट, ऐसोसिएशन ऑफ प्रैक्टिसिंग पैथॉलजिस्ट
-विनोद शुक्ला, अध्यक्ष, पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्मृति मंच एनजीओ
- विहान अग्रवाल, फाउंडर, वन स्टेप ग्रीनर

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

घर की हवा होगी सफा

$
0
0

पलूशन से खुद को बचाना बेहद जरूरी है, चाहे आप चारदीवारी के बाहर हों या फिर भीतर। घर के बाहर के पलूशन को लेकर तो हम सचेत रहते हैं, लेकिन घर के अंदर के पलूशन के लिए नहीं, जबकि यह भी उतना ही खतरनाक है। इन्डोर पलूशन की पहचान और इससे होने वाली परेशानियों और बचाव के बारे में एक्सपर्ट्स से बात कर पूरी जानकारी दे रही हैं अनु जैन रोहतगी...

पति से एलर्जी
32 साल की राधिका को सांस फूलने, सांस लेने में दिक्कत, अचानक छीकें शुरू हो जाने की समस्या काफी समय से चली आ रही थी। कई डॉक्टरों से इलाज करवाने के बाद भी उन्हें आराम नहीं मिला। राधिका को यह समस्या अमूमन शाम में शुरू होती थी। काउंसलिंग के दौरान राधिका ने बातों-बातों में डॉक्टरों को बताया कि उनके पति का फार्महाउस है। जब भी शाम को उनके पति घर लौटते हैं तो उनकी छींक और सांस की समस्या शुरू हो जाती है। डॉक्टरों ने इस बात तो गंभीरता से लिया। एक टेस्ट से पता चला कि राधिका को 'चिकन एलर्जी' थी। दरअसल, जब उनके पति फार्महाउस से लौटते थे तो पंख, रोएं, बीट आदि उनके कपड़ों से चिपककर घर के अंदर आ जाते थे। यहीं से राधिका की एलर्जी शुरू होती थी। बेशक यह अजीबो-गरीब मामला था, लेकिन जब उनके पति डॉक्टर की सलाह पर हर दिन फार्महाउस से लौटने के फौरन बाद नहाकर कपड़े बदलने लगे तो राधिका की लंबे समय से चली आ रही समस्या गायब हो गई और वह सामान्य जिंदगी जीने लगीं।

परफ्यूम से खांसी
20 साल की मोना को लगातार सूखी खांसी होती थी। डॉक्टरों ने तमाम टेस्ट के साथ टीबी को ध्यान में रखते हुए उनके बलगम की भी जांच करवाई, लेकिन कुछ ठोस पता नहीं चला। एक दिन बातचीत के दौरान मोना ने डॉक्टरों को बताता कि इस तरह की समस्या उसे अमूमन तब होती है जब वह तैयार होकर पार्टी में जाती है। पार्टी में खांसी की वजह से उन्हें शर्मिंदगी होने लगती है। मोना ने यह भी बताया कि उन्हें परफ्यूम लगाना बहुत पसंद है। परफ्यूम का नाम सुनते ही डॉक्टर अलर्ट हो गए, पता चला कि मोना जिस ब्रांड का परफ्यूम लगाती हैं, उससे उन्हें एलर्जी होती है। इस वजह से उन्हें खांसी होती है। ऐसे में डॉक्टरों ने परफ्यूम को बिलकुल ही बंद करने की सलाह दी। परिणाम सकारात्मक रहा। उनकी खांसी ठीक हो गई।

ये दोनों मामले बताते हैं कि इन्डोर पलूशन हमारी सेहत के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। बहुत-सी चीजें ऐसी हैं जो घर के अंदर की हवा को लगतार खराब कर रही हैं। बड़ी बात यह है कि इसका हमें भान तक नहीं होता। हमलोग अभी भी आउटडोर पलूशन यानी वाहनों का धुआं, निर्माणाधीन इमारतों की धूल-मिट्टी जैसी चीजों को ही खतरनाक मान कर चल रहे हैं, लेकिन बहुत बार इन्डोर पलूशन आउटडोर पलूशन से ज्यादा खतरनाक साबित होता है। यह कई तरह की बीमारियों और एलर्जी का कारण बन जाता है। इन्डोर पलूशन से डरने और बचने की सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि जिंदगी का 70-90 फीसदी समय इंसान घर या चारदीवारी के भीतर ही गुजारता है, फिर चाहे वह घर हो, ऑफिस, रेस्तरां, मॉल या कोई दूसरी जगह।


-----------------------
क्या है इन्डोर पलूशन
इसका मतलब है घर, दफ्तर, स्कूल या किसी भी चारदीवारी के अंदर मौजूद हवा का दूषित होना। घर में हवा दो तरह से प्रदूषित होती है।
1. वोलैटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड (VOCs): इसमें सभी तरह की खुशबू होती है। यह बहुत जल्दी और आसानी से गैस या वाष्प बनकर हवा में मिल जती है और हवा को प्रदूषित करती है। जैसे कि एयर फ्रेशनर, परफ्यूम, मच्छर मारने के काम आने वाला स्प्रे, तमाम क्लीनिंग एजेंट, कॉस्मेटिक्स, रंग और तमाम ऐसी गैसीय पदार्थ जो खुशबूदार हैं।
2. सेमी वोलैटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड (SVOCs): फर्नीचर, कीटनाशक, मच्छर भगाने वाली क्रीम, बिल्डिंग मटीरियल आदि। इनसे निकलने वाले केमिकल भी धीरे-धीरे ही सही, लेकिन काफी लंबे समय तक घर के अंदर की हवा को प्रदूषित करते रहते हैं।

कौन फैलाता है इसे?

जानवरों के रोएं, पक्षियों की बीट, पालतू पक्षी के पंख आदि। इसके अलावा, बायोलॉजिकल एजेंट भी हैं इसके लिए जिम्मेदार, जैसे: वायरस, बैक्टीरिया, फूलों के परागकण, तमाम तरह की गैस, धूल, धूल में पनपने वाले कीड़े, केमिकल, धुआं आदि।

हम भी कम जिम्मेदार नहीं
बाथरूम से लेकर फर्श और बर्तनों तक को साफ करने वाले तमाम क्लींनिंग एजेंट से निकलने वाली जहरीली गैस इन्डोर पलूशन के लिए जिम्मेदार है। हर दिन इस्तेमाल होनेवाले परफ्यूम, कॉस्मेटिक्स, मच्छर मारने के तमाम साधन, एयर फ्रेशनर, पूजा में कपूर आदि को जलाने से भी इन्डोर पलूशन बढ़ता है। दीवारों और फर्नीचर पर होने वाला चमकदार पेंट, पॉलिश जैसी चीजों से कार्बन मोनॉक्साइड गैस निकलती है। यह एक गंधहीन गैस है जिसका पता नहीं चलता, लेकिन यह इन्डोर पलूशन को बढ़ाता है। पर्दे, कालीन, बिस्तर और रजाइयों में छिपे धूल-कीटाणु भी इन्डोर पलूशन की बड़ी वजहे हैं। इनके अलावा पानी गर्म करने के हीटर, घरों-ऑफिसों में इस्तेमाल होने वाली स्टेशनरी, प्रिंटर, ग्लू से निकलने वाली गंधहीन गैसें... ऐसे एजेंटों की लंबी लिस्ट है जो इन्डोर पलूशन के लिए जिम्मेदार हैं।

समस्याओं की है लंबी लिस्ट
पलूशन शरीर में तमाम तरह की समस्याएं खड़ी करता है। हवा में मौजूद गैस और खुशबू से सरदर्द, छींक, गले में खिच-खिच जैसी समस्याएं पैदा होती हैं। यह एलर्जी खुजली के रूप में हो सकती है या फिर आंखों से लगातार पानी बह सकता है। कई बार सूखी खांसी हो जाती है तो स्किन पर लाल दाने निकल आते हैं।
हवा में मौजूद केमिकल, धूल-मिट्टी, जहरीली गैसें, वायरस और बैक्टीरिया हमारे शरीर के तमाम सिस्टम को नुकसान पहुंचाते हैं। सबसे पहले ये हमारे श्वसन तंत्र (खासकर फेफड़े) पर अटैक करते हैं और कई तरह के संक्रमण का कारण बनते हैं। इतना ही नहीं ये हमारे इम्यून सिस्टम को कमजोर करते हैं और अस्थमा की परेशानी को बढ़ाते हैं।

घर में यूज होने वाले तमाम तरह के केमिकल कैंसर के कारण बनते हैं। ड्राईक्लीनिंग के लिए प्रयोग में आने वाला केमिकल इसका उदाहरण है। हम घर को सुंदर बनाने के लिए जो कलर प्रयोग करते हैं उसमें लेड की मात्रा खतरनाक स्तर तक पाई गई है। यह हमारे नर्वस सिस्टम को कमजोर करता है। खून में ज्यादा मात्रा में लेड पहुंच जाए तो किडनी फेल होने की आशंका भी रहती है।

इन्डोर पलूशन प्रजनन क्षमता को कम करता है। सिगरेट, कुकिंग ऑयल, गैस, स्टोव से निकलने वाला धुआं निमोनिया, ब्रोंकाइटिस और हार्ट की समस्या पैदा करता है। साथ ही इससे लंग्स कैंसर होने का खतरा भी कई गुना बढ़ जाता है। ऑफिस में स्टेशनरी, लेजर प्रिंटर आदि से निकलने वाले छोटे-छोटे कण और गैस भी लंग्स के लिए नुकसानदेह होते हैं।


बचने के उपाय
- घर के अंदर किसी भी प्रकार के धुएं को ना फैलने दें।
- सिगरेट-बीड़ी हमेशा घर से बाहर खुले में पिएं।
- किचन और बाथरूम में बढ़िया एग्ज़ॉस्ट फैन का इस्तेमाल करें। खिड़कियां खुली रखें ताकि वाष्प और धुआं आदि आसानी से निकल सके।
- घर को हवादार बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपनी खिड़कियां-दरवाजे खोलकर रखें।
- घर में बेकार की चीजों पर धूल-मिट्टी जम जाती है, इसलिए कोशिश करें कि सिर्फ जरूरत की चीजें ही आपके घर में हों। सजाने के लिए ऐसी चीजों से बचें जिन पर बहुत जल्द धूल जमती है और साफ करने के लिए आपके पास समय की कमी रहती है।
- पालतू जानवरों और पक्षियों की सफाई पर विशेष ध्यान दें। इनके बालों को समय-समय पर कटवाएं। समय पर नहलाएं और इनके मल को हटाने की सही व्यवस्था करें। जानवरों को अपने पलंग-सोफे पर न ही बैठाएं तो बेहतर है। उनके लिए अलग से जगह बनाएं और उन्हें आदत डलवाएं कि वे वहीं जाकर बैठें, जिससे घर में उनके बाल या डेड स्किन न बिखरे।
- जूते-चप्पलों का स्टैंड घर से बाहर रखें और घर के सदस्यों के अलावा बाहर से आने वाले मेहमानों को भी जूते-चप्पल बाहर ही उतारने की सलाह दें।
- एसी का फिल्टर समय-समय पर साफ करें।
- केमिकल की जगह हर्बल मोमबत्तियों और मच्छर मारने के हर्बल तरीकों का इस्तेमाल करें।
- फर्श, फर्नीचर, बाथरूम को साफ करने के लिए हर्बल वस्तुओं का इस्तेमाल करें।
- यदि स्प्रे का इस्तमाल जरूरी है तो कोशिश करें कि कमरा बंद न हो, खिड़की और जाली वाले दरवाजे खोलकर रखें ताकि प्रदूषित हवा बाहर जा सके।
- परफ्यूम लगाने का शौक है तो लगाएं, लेकिन जरूरत से ज्यादा नहीं। कोशिश करें कि पूरी तरह तैयार होने के बाद सबसे आखिर में परफ्यूम लगाएं और फौरन ही घर से निकल जाएं जिससे घर के अंदर की हवा प्रदूषित न हो।
- अपने जूते-चप्पलों को सप्ताह में एक बार धूप लगाएं। धूप जूतों में मौजूद इंफेक्शन पैदा करने वाले कारकों को खत्म कर देती है।
- अगर भीड़-भाड़ वाले इलाके में रह रहे हैं तो सुबह और रात में ही खिड़कियां-दरवाजे खोलने की आदत डालें ताकि ज्यादा प्रदूषित हवा अंदर न आ सके।
- घर में वेंटिलेशन की अच्छी व्यवस्था करें।
- इन्डोर पलूशन का एक बड़ा कारण है किचन में नमी का होना। इसके लिए जरूरी है कि बर्तन को पानी से धोने के बाद सीधा स्टैंड में न लगाएं। उन्हें पहले टोकरी में रखकर सूखने दें। यदि समय है तो साफ कपड़े से पोछकर ही स्टैंड में लगाएं।
- इस बात का ध्यान रखें कि बच्चों का आर्ट एंड क्राफ्ट का सामान भी पलूशन फैलाता है। इनमें तमाम तरह के रंग, गोंद, क्ले, मार्कर शामिल हैं। इन सामान में मौजूद केमिकल हवा में मिलकर सांस की समस्याओं को बढ़ा देता है।

डस्ट माइट्स से बचकर

इन्डोर पलूशन का बड़ा कारण धूल में पनपने वाले कीड़े भी हैं जिन्हें हम डस्ट माइट्स भी कहते हैं। ये कई तरह की परेशानियां पैदा करते हैं, मसलन खांसी, खुजली, आंखों और नाक से पानी आना, अस्थमा के अटैक आदि। अमूमन ये कीड़े न तो दिखाई देते हैं और न ही इंसान को काटते हैं। जहां धूल, अंधेरा, खाने का सामान या नमी होती है, वहीं ये पनपते हैं।

- इनसे बचने के लिए जरूरी है कि घर में कारपेट न बिछाएं क्योंकि इस पर जमने वाली धूल में ये कीड़े ज्यादा पनपते हैं। अगर कारपेट बिछाना जरूरी समझते हैं तो सप्ताह में एक बार उसे खुले में ले जाकर, ब्रश से अच्छी तरह साफ करें। इनके अलावा अपने पर्दों, सोफों में जमी धूल की लगातार सफाई करें। ध्यान रखे सफाई करते समय अपने घर की खिड़कियां और दरवाजे खोलकर रखें ताकि धूल बाहर निकल जाए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो धूल और ये कीड़े वापस दूसरी चीजों पर चिपक जाएंगे।

- कपड़े से बनी चीजें इनकी मनपसंद जगह है। इसलिए सबसे ज्यादा ये आपके बेडरूम में मौजूद चादरों, तकियों और कंबलों में अपनी जगह बनाते हैं। इसलिए जरूरी है कि इन चीजों को आप रोजाना झाड़कर बिछाएं। सप्ताह में एक बार इन्हें जरूर बदलें और समय-समय पर धूप दिखाएं।

एयर प्यूरीफायर का इस्तेमाल
आजकल कई तरह के एयर प्यूरीफायर बाजार में मौजूद हैं। दावा किया जाता है कि इन्डोर पलूशन को कम करने में ये अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि ये कितने प्रभावी हैं अभी इसके बारे में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। फिर भी अगर आप इन्हें खरीदने जा रहे हैं तो इन बातों को जरूर जान लें...

-सस्ते एयर प्यूरीफायर घर की हवा में सिर्फ इलेक्ट्रिक चार्ज छोड़ते हैं, जिससे हवा में मौजूद छोटे-छोटे कण दीवारों, पर्दों आदि पर चिपक जाते हैं। हवा थोड़ी देर के लिए साफ हो जाती है, लेकिन फिर यहां-वहां चिपके वे कण वापस हवा में मिल जाते हैं। दूसरा, यह न तो हवा में मौजूद जहरीली गैस को सोखते हैं और न ही बायॉलजिकल एजेंट को। इसलिए सस्ता खरीदने के चक्कर में बेअसर एयर प्यूरीफायर खरीदने से बचें। एयर प्यूरीफायर की कीमत कुछ हजार रुपये से शुरू होकर 1 लाख रुपये तक पहुंचती है, लेकिन एक ठीक-ठाक प्यूरीफायर की कीमत 15 हजार से शुरू हो जाती है।

- खरीदने से पहले ये जरूर पूछें कि एयर प्यूरीफायर सभी तरह के पलूशन, मसलन गैस, बायॉलजिकल एजेंट और धूल-मिट्टी के कण को खत्म करने में सक्षम है या नहीं।

- कुछ एयर प्यूरीफायर बायॉलजिकल एजेंट जैसे कि बैक्टीरिया, वायरस आदि को पकड़ने की क्षमता तो रखते हैं, लेकिन उनको खत्म करने की नहीं। इससे सेकंडरी पलूशन का खतरा बना रहता है। यानी जब आप फिल्टर साफ करने जाएंगे तो ये दोबारा हवा में फैल जाएंगे। ऐसा प्यूरीफायर खरीदने से बचें।

- यह सुनिश्चित करें कि फिल्टर को एक समय बाद बदलने की जरूरत न हो बल्कि इसे धोकर काम चल जाए। इससे आपकी काफी बचत होगी।

----------------------------------
उपाय और भी हैं
बी-वैक्स कैंडल्स: इनडोर पलूशन दूर करने का नेचुरल तरीका है यह। कम ही लोग इस बात से वाकिफ हैं कि बी-वैक्स से बनी मोमबत्तियां घर की हवा में मौजूद पॉलेन, धूल, तमाम तरह के कण को सोखने का काम करती हैं। यह पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है। हवा को साफ करने के साथ इसकी खूशबू भी घर को ताजा रखने का काम करती है।
नमक लैंप: नमक से बने लैंप आजकल खूब बिक रहे हैं। इन्हें जलाने से भी हवा में मौजूद प्रदूषण कम होता है। खासकर जिन लोगों को अस्थमा की शिकायत है उनके लिए ज्यादा उपयोगी है।

घर में बनाएं क्लीनिंग एजेंट

- आधा कप विनेगर और एक चौथाई बड़ा चम्मच बेकिंग सोडा को दो लीटर पानी में अच्छे से मिला लें। इस घोल से कमरे की खिड़कियों, बाथरूम के शीशों आदि को साफ करने से इन्डोर पलूशन कुछ कम होता है।
- लकड़ी के फर्नीचर और शीशे को साफ करने के लिए साफ सूती कपड़ों का इस्तेमाल करें क्योंकि इसमें धूल को पकड़ने की क्षमता होती है।
- कटिंग बोर्ड और चाकू से मछली या प्याज-लहसून की गंध हटानी है तो उन्हें पहले विनेगर से पोछ दें। इसके बाद पानी में धोएं।
- बाथरूम की टाइल्स में लगी फंगस को साफ करने के लिए हाइड्रोजन पैरॉक्साइड में उससे दुगुना पानी मिलाकर घोल तैयार करें और जहां भी फंगस दिखे वहां स्प्रे करके एक घंटे में साफ कर दें। फंगस खत्म हो जाएगा।
- एक कप बेकिंग सोडा में 10 से 12 बूंद मनपसंद तेल मिला कर उसे कारपेट पर लगा दें। इसके 2 घंटे बाद वैक्यूम क्लीनर से उसे साफ करें।
-नीबू के टुकड़े को चॉपिंग ब्लॉक पर रगड़ें। इससे वहां मौजूद बैक्टीरिया का खात्मा होगा।

पेशंट को पूलशन से ऐसे बचाएं
घर में कोई बीमार है, खासकर टीबी, वायरल बुखार, खांसी-जुकाम से पीड़ित है तो बायॉलजिकल एजेंट से फैलने वाले इन्डोर पलूशन से उसे बचाना जरूरी है।
- अगर मुमकिन हो तो पेशंट को अलग कमरे में रखें।
- उस कमरे में शुद्ध हवा और धूप आनी चाहिए।
- कमरे में कम से कम सामान होना चाहिए।
- मरीज यदि थूके, खांसे तो साफ कपड़े का इस्तेमाल करें, जिसे बाद में साबुन या डिटर्जेंट आदि से धोने की पूरी व्यवस्था करें।
- घर में कोई अस्थमा से पीड़ित है तो सोफों, पर्दों पर हल्के कपड़ों का इस्तेमाल करें, जिससे उनकी सफाई आसानी से हो, कालीन न बिछाएं तो बेहतर होगा।
- मरीज को पालतू जानवरों से बचाकर रखें।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।


पंचकर्म से दुरुस्‍त रखें अपना तन-मन

$
0
0

आयुर्वेद में तन-मन को दुरुस्त रखने के लिए कई उपाय बताए गए हैं। इनमें से पंचकर्म काफी अहम है। पंचकर्म के उपयोग से कैसे तन-मन की परेशानियों को काफी हद तक कम कर सकते हैं, एक्सपर्ट्स से बातकर पूरी जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती...

आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य का शरीर जिन 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से बना है, उन्हीं तत्वों से ब्रह्मांड भी बना है। जब शरीर में इन 5 तत्वों के अनुपात में गड़बड़ी होती है तो दोष यानी समस्याएं पैदा होती हैं। आयुर्वेद इन तत्वों को फिर से सामान्य स्थिति में लाता है और इस तरह से रोगों का निदान होता है। गठिया, लकवा, पेट से जुड़े रोग, साइनस, माइग्रेन, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, साइटिका, बीपी, डायबीटीज, लिवर संबंधी विकार, जोड़ों का दर्द, आंख और आंत की बीमारियों आदि के लिए पंचकर्म किया जाता है।

पंचकर्म की बात
पंचकर्म को आयुर्वेद की खास चिकित्‍सा विधि माना जाता है। यह शरीर की शुद्धि (डिटॉक्सिफिकेशन) और पुनर्जीवन (रिजूविनेशन) के लिए उपयोग किया जाता है। इस चिकित्सा विधि से तीनों शारीरिक दोषों: वात, पित्त और कफ को सामान्य अवस्था में लाया जाता है और शरीर से इन्हें बाहर किया जाता है। शरीर के विभिन्न अंगों और रक्त को दूषित करने वाले अलग-अलग रसायनिक और विषैले तत्वों को शरीर से बाहर निकालने के लिए विभिन्‍न प्रकार की प्रक्रियाएं प्रयोग में लाई जाती हैं। इन प्रक्रियायों में पांच कर्म प्रधान हैं। इसीलिए इस खास विधि को 'पंचकर्म' कहते हैं।
इस विधि में शरीर में मौजूद विषों (हानिकारक पदार्थों) को बाहर निकालकर शरीर का शुद्धिकरण किया जाता है। इसी से रोग निवारण भी हो जाता है। यह शरीर के शोधन की क्रिया है जो स्वस्थ मनुष्य के लिए भी फायदेमंद है। आयुर्वेद का सिद्धांत है: रोगी के रोग का इलाज करना और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाए रखना। पंचकर्म चिकित्सा आयुर्वेद के इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वोत्तम है। इसीलिए सिर्फ शारीरिक रोग ही नहीं बल्कि मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए भी पंचकर्म को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा माना जाता है।

इसमें पांच प्रधान कर्म होते हैं लेकिन इन्हें शुरू करने से पहले दो पूर्व कर्म भी जरूरी हैं। ये हैं स्नेहन और स्वेदन। इन दो विभिन्न प्रक्रियाओं के जरिए शरीर में व्याप्त दोषों को बाहर निकलने लायक बनाया जाता है।

प्रधान कर्म (काय चिकित्सानुसार) के अनुसार निम्न हैं:

1. वमन 2. विरेचन 3. आस्थापन वस्ति 4. अनुवासन वस्ति 5. नस्य
यहां ध्यान देने की बात यह है कि शल्य चिकित्सा संबंधी शास्त्रों के अनुसार आस्थापन और अनुवासन वस्ति को वस्ति शीर्षक के अंतर्गत लेकर तीसरा प्रधान कर्म माना गया है और पांचवां प्रधान कर्म 'रक्त मोक्षण' को माना गया है।

पंचकर्म विधि:


पूर्व कर्म
1. स्नेहन: स्नेह शब्द का तात्पर्य शरीर को स्निग्ध करने से है। स्नेहन शरीर पर तेल आदि स्निग्ध पदार्थों का अभ्यंग (मालिश) करके की जाती है या फिर पिलाकर। कुछ रोगों की चिकित्सा में स्नेहन को प्रधान कर्म के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। पंचकर्म चिकित्सा पद्धति की मुख्य थेरपी शिरोधारा को भी स्नेहन कर्म के तहत माना जाता है।

स्नेहन थेरपी के अंतर्गत इन चार प्रमुख स्नेहों (चिकनाई) का प्रयोग किया जाता है:
1. घृत
2. मज्जा
3. वसा
4. तेल

इनमें घृत (गाय की घी) को उत्तम स्नेह माना गया है। ये चारों स्नेह मुख्य रूप से पित्त को खत्म करने वाले होते हैं। औषधि से सिद्ध विभिन्न तेलों का प्रयोग पंचकर्म के लिए किया जाता है जिनका आधार खासतौर पर तिल का तेल होता है जबकि दूसरे तेलों का भी प्रयोग भी आधार के रूप में किया जाता है।

2. स्वेदन: यह वह प्रक्रिया है जिससे स्वेद अर्थात पसीना पैदा हो। वाष्प स्वेदन में स्टीम बॉक्स में रोगी को लिटाकर या बिठाकर स्वेदन किया जाता है। रुक्ष स्वेदन के लिए इंफ्रारेड लैंप लगे हुए बॉक्स का प्रयोग किया जाता है।

स्वेदन के तरीके
1. एकांग स्वेद: अंग विशेष का स्वेदन
2. सर्वांग स्वेद: पूरे शरीर का स्वेदन
अ. अग्नि स्वेद: आग के सीधे संपर्क से स्वेदन
ब. निरग्नि स्वेद: आग के सीधे संपर्क के बिना स्वेदन


सुश्रुत संहिता के अनुसार पंचकर्म के तहत आने वाले 5 मुख्य प्रधान कर्म:


1. वमन
आयुर्वेद कहता है कि मौसम, रोगी और रोग के अनुसार मरीज का इलाज करना चाहिए। जब शरीर के दूषित पदार्थ स्नेहन और स्वेदन के द्वारा अमाशय में इकट्ठा हो जाते हैं तो उन्हें बाहर निकालने के लिए वमन का सहारा लिया जाता है। वमन यानी उल्टी कराकर मुंह से दोषों को निकालना वमन कहलाता है। वमन को कफ से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए मुफीद बताया गया है। स्नेहन व स्वेदन क्रिया द्वारा कफ‌-प्रधान रोगों में जो कफ अपने स्थान से हटा दिया जाता है, उसे ठीक तरह से शरीर के बाहर निकाल देना भी जरूरी है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो आशंका रहती है कि विरेचन औषधि देने से कफ आंतों में चिपक कर पेट के रोग पैदा कर सकता है। अमूमन वसंत ऋतु में वमन विधि से इलाज किया जाता है।
वमन विधि से उपचार: खांसी, दमा, सीओपीडी, प्रमेह, डायबीटीज, एनीमिया, पीलिया, मुंह से जुड़े रोग, ट्यूमर आदि।
वमन विधि से कौन न कराए इलाज: गर्भवती स्त्री, कोमल प्रकृति वाले लोग, शारीरिक रूप से बेहद कमजोर इंसान आदि।

2. विरेचन
गुदामार्ग से दोषों को निकालना विरेचन कहलाता है। विरेचन से अमाशय, हार्ट और लंग्स से दूषित पदार्थ बाहर निकल जाता है और शरीर में शुद्ध रक्त का संचार होने लगता है। विरेचन को पित्त दोष की प्रधान चिकित्सा कहा जाता है।
किस तरह के रोगों का इलाज: सिरदर्द, बवासीर, भगंदर, गुल्म, रक्त पित्त आदि।
इस विधि से कौन न कराए इलाज: टीबी और एड्स जैसे रोगों से पीड़ित व्यक्ति को विरेचन नहीं कराना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को भी विरेचन नहीं कराना चाहिए जो बुखार से पीड़ित हो या रातभर जागा हो।

3. वस्ति

इस प्रक्रिया में गुदामार्ग या मूत्रमार्ग के द्वारा औषधि शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि रोग का इलाज हो सके। वस्ति को वात रोगों की प्रधान चिकित्सा कहा गया है।
यह दो तरह का होता है: आस्थापन और अनुवासन। चरक संहिता में इन दोनों को दो अलग-अलग कर्म माने गए हैं।
आस्थापन या निरुह वस्ति: इसमें विभिन्न औषधि द्रव्यों के क्वाथ (काढ़े) का प्रयोग किया जाता है। यह वस्ति क्रिया शरीर के दोषों को चलायमान करती है, शोधन करती है और फिर इन्हें शरीर से बाहर निकालती है।

अनुवासन वस्ति:
इसमें विभिन्न औषधि द्रव्यों से सिद्ध स्नेह का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रयुक्त द्रव्य यदि शरीर के भीतर भी रह जाए तो कोई हानि नहीं होती। पहली वस्ति से मूत्राशय और प्रजनन अंगों को बेहतर किया जाता है। दूसरी बार दी जाने वाली वस्ति से मस्तिष्क विकारों और चर्म रोगों में शांति मिलती है। इसके बाद दी जाने वाली हर वस्ति से शरीर में बल की वृद्धि होती है और रस व रक्त आदि धातुएं शुद्ध हो जाती हैं।

किस तरह के रोगों का इलाज: न्यूरो और जोड़ों के रोग, वीर्य की कमी या वीर्य का दूषित होना, योनि मार्ग और प्रजनन संबंधी रोग आदि।
कौन न कराए इलाज: भोजन किए बिना अनुवासन वस्ति और भोजन के बाद आस्थापन वस्ति नहीं किया जाता है। अत्यधिक दुबले-पतले और कमजोर लोगों को वस्ति नहीं दी जाती। खांसी और दमा के रोगी या जिन्हें उल्टियां हो रही हों, उन्हें भी वस्ति नहीं दी जाती।

4. नस्य
नाक से औषधि को शरीर में प्रवेश कराने की क्रिया को नस्य कहा जाता है। नस्य को गले और सिर के सभी रोगों के लिए उत्तम चिकित्सा कहा गया है।

मात्रा के अनुसार नस्य के दो प्रकार हैं
1. मर्श नस्य: 6, 8 या 10 बूंद नस्य द्रव्य को नाक में डाला जाता है।
2. प्रतिमर्श नस्य: 1 या 2 बूंद औषधि को नाक में डाला जाता है। इसमें नस्य की मात्रा कम होती है इसलिए इसे जरूरत पड़ने पर रोज भी लिया जा सकता है।

किस तरह के रोगों का इलाज: जुकाम, साइनोसाइटिस, गले के रोग, सिर का भारीपन, दांतों और कानों के रोग आदि।
कौन न कराए इलाज: अत्यंत कमजोर व्यक्ति, सुकुमार रोगी, मनोविकार वाले रोगी, अति निद्रा से ग्रस्त लोग आदि।

5. रक्त मोक्षण
शल्य चिकित्सा संबंधी शास्त्रों के अनुसार पांचवां कर्म 'रक्त मोक्षण' माना गया है। रक्त मोक्षण का मतलब है शरीर से दूषित रक्त को बाहर निकालना। आयुर्वेद में खून की सफाई के लिए जलौकावचरण (लीच थेरपी) का विस्तार से वर्णन किया गया है। किस तरह के घाव में जलौका यानी जोंक (लीच) का उपयोग करना चाहिए, यह कितने तरह की होती है, जलौका किस तरह से लगानी चाहिए और उन्हें किस तरह रखा जाता है, जैसी बातों को सुश्रुत संहिता में विस्तार से बताया गया है।
आर्टरीज और वेन्स में खून का जमना और पित्त की समस्या से होने वाले बीमारियों मसलन, फोड़े-फुंसियों और त्वचा से जुड़ी परेशानियों में लीच थेरपी से जल्दी फायदा होता है।

जलौका दो तरह के होती हैं:
सविष (विषैली) और निर्विष (विष विहीन)

आयुर्वेद में इलाज के लिए निर्विष जलौका का उपयोग किया जाता है। आप भी इन्हें आसानी से पहचान सकते हैं। निर्विष जलौका जहां हरे रंग की चिकनी त्वचा वाला और बिना बालों वाला होती है, वहीं सविष जलौका गहरे काले रंग का और खुरदरी त्वचा वाली जिस पर बाल भी होती हैं। ऐसा माना जाता है कि जलौका दूषित रक्त को ही चूसती है, शुद्ध रक्त को छोड़ देता है। जलौका (लीच) लगाने की क्रिया सप्ताह में एक बार की जाती है। इस प्रक्रिया में मामूली-सा घाव बनता है, जिस पर पट्टी करके उसी दिन रोगी को घर भेज दिया जाता है।

नोट: सुश्रुत संहिता के अनुसार, दोनों तरह की वस्ति को एक ही माना गया है और इसमें 5वें को रक्त मोक्षण।

पंचकर्म के साथ आयुर्वेद बीमारियों से बचने के लिए बेहतर खानपान पर भी जोर देता है:
- हरी सब्जियों, सालादों और प्रोटीनयुक्त डाइट की मात्रा बढ़ाएं।
- ऑयली, जंक फूड, कोल्ड ड्रिंक आदि से दूर रहें।
- फ्रिज का ठंडा पानी न पिएं।
- गुनगुना या सामान्य पानी सेहत के लिए अच्छा है।
- खाने के फौरन बाद पानी न पिएं। कम से कम आधे घंटा का गैप जरूर हो।
- जितनी भूख हो, उससे कम खाना खाएं। हां, ध्यान रखें कि खाना अचानक कम न करें। धीरे-धीरे कम करेंगे तो शरीर और मन दोनों को तालमेल बिठाना आसान होगा।
- सूर्यास्त के बाद खाना न खाएं। अगर यह मुमकिन नहीं है तो रात में 8 बजे से पहले जरूर खा लें।
- खाना खाने के बाद फौरन ही बेड पर जाकर नींद में न पहुंच जाएं। खाने और सोने में कम से कम 2 से 3 घंटे का गैप जरूर होना चाहिए।
- हर रोज सुबह खाली पेट 4-5 तुलसी के पत्तों का प्रयोग करें। इससे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है।
- एक कच्चा आंवला हर दिन खाएं, लेकिन खाली पेट इसे न खाएं।

पलूशन के दुष्प्रभाव से बचने के लिए पंचकर्म

वैसे तो शरीर से हानिकारक पदार्थ निकालने के कई तरीके हैं, लेकिन हर दिन जो हम पलूशन झेलते हैं उसका असर कम करने के लिए तेल या शुद्ध घी का उपयोग करने से फायदा होता है।

नाक के दोनों छिद्रों के अंदर सरसों का तेल या देसी घी लगाएं। इससे हवा में मौजूद खतरनाक कण कम मात्रा में फेफड़े में पहुंचते हैं। घर से बाहर निकलते समय तो हमेशा लगाएं, चूंकि घर में भी धूल कण होता है, इसलिए घर के अंदर रहने पर भी इन्हें लगाएं।

स्वेदन और स्नेहन से भी फायदा
सलाह दी जाती है कि शरीर के अंदर कुछ गर्म पेय पहुंचते रहना चाहिए। इसके लिए शाम में ऑफिस से घर पहुंचते ही 2 गिलास गर्म पानी या एक गिलास गर्म दूध या एक कप गर्म चाय (दूध वाली) लें। इसके फौरन बाद ही 15 से 20 मिनट तक मुंह समेत पूरे शरीर को किसी मोटी चादर या कंबल से ढंक लें। इससे शरीर से पसीना निकलेगा। इस पसीने के माध्यम से शरीर में मौजूद पल्यूटेंट्स भी बाहर आ जाएंगे। अगर मुमकिन हो तो दूध, चाय या पानी को उबालते समय इसमें आधा चम्मच सौंठ, 3-4 काली मिर्च, आधा चम्मच पीपल और 4-5 तुलसी के पत्ते को भी उबाल कर लेने से काफी फायदा होता। इससे शरीर की इम्यूनिटी बढ़ जाती है। इसे हर दिन ले सकते हैं।

विरेचन
सुबह उठते ही दो गिलास गुनगुना पानी पिएं। इससे पेट में मौजूद प्रदूषण के कण मल के साथ आसानी से बाहर निकल जाएंगे।

स्नेहन
रात को सोने से पहले एक चम्मच कैस्टर या बादाम का तेल गर्म दूध के साथ पीने से पेट साफ होगा।

आज के समय में बेहद उपयोगी

आजकल संक्रामक रोगों और लाइफस्टाइल से जुड़ी हुई समस्याएं काफी बढ़ रही हैं। साथ ही, इम्यून सिस्टम से जुड़ी हुई परेशानियां भी कम नहीं हैं। वजह है, शरीर में विषैले तत्वों का पहुंचना और शरीर की इम्यूनिटी का कम होना। ये विषैले तत्व हवा के अलावा सब्जियों, फलों, अन्न आदि में मौजूद विभिन्न रसायनों और कीटनाशकों की वजह से पहुंचते हैं। इनके लगातार उपयोग से बीमारियां पैदा होती हैं। एक्सपर्ट्स बताते हैं कि अगर हम साल में एक बार पंचकर्म करवा लें तो इन तमाम समस्याओं से बच सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पंचकर्म शरीर और मन के विकारों को दूर कर आपको स्वस्थ करता है और शरीर की कोशिकाओं को नया बल और जीवन देता है।

लाइफस्टाइल में बदलाव
- अगर बैठकर काम करने की मजबूरी है और इस वजह से शरीर का वजन बढ़ रहा है तो सचेत हो जाने की जरूरत है।
- फिजिकल ऐक्टिविटीज जरूर करें। इससे रक्त संचार तेज होगा और ज्यादा से ज्यादा मात्रा में शरीर से हानिकारक पदार्थ फिल्टर होकर पसीना और मूत्र मार्ग से बाहर निकलेगा।
- सुबह की सैर, वॉकिंग फायदेमंद है।
- सुबह कम से कम 20 से 30 मिनट योग और प्राणायाम जरूर करें।

आयुर्वेद में भी होती है सर्जरी
आयुर्वेद भारत का बहुत ही पुराना इलाज का तरीका है। जड़ी-बूटियों के अलावा मिनरल्स, लोहा (आयरन), मर्करी (पारा), सोना, चांदी जैसी धातुओं के जरिए इसमें इलाज किया जाता है। हालांकि, कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है।
शल्य तंत्र (सर्जरी): वे बीमारियां जिनमें सर्जरी की जरूरत होती है जैसे फिस्टुला, पाइल्स आदि।

सर्जरी शुरुआत से ही आयुर्वेद का एक खास हिस्सा रहा है। महर्षि चरक ने जहां चरक-संहिता को काय-चिकित्सा (मेडिसिन) के एक अहम ग्रंथ के रूप में बताया है, वहीं महर्षि सुश्रुत ने शल्य-चिकित्सा (सर्जरी) के लिए सुश्रुत संहिता लिखी। इसमें सर्जरी से संबंधित सभी तरह की जानकारी उपलब्ध है।

आयुर्वेदिक सर्जरी की खासियत
खून में होने वाली गड़बड़ी को आयुर्वेद में बीमारियों का सबसे अहम कारण माना गया है। इन्हें दूर करने के दो उपाय बताए गए हैं- पहला है, सिर्फ दवाई लेना और दूसरा दवाई के साथ खून की सफाई (रक्त-मोक्षण)। दूषित रक्त को हटाना सर्जरी की एक प्रक्रिया है। इसके लिए आयुर्वेद में खास विधि अपनाई जाती है।

कुछ अहम सवाल
क्या पंचकर्म की सभी क्रियाएं एक साथ होती हैं?
- ऐसा नहीं है। पूर्व कर्म जिनमें स्नेहन और स्वेदन हैं। ये दोनों एकसाथ भी हो सकते हैं और अलग-अलग भी। वहीं प्रधान कर्म वमन और विरेचन अलग-अलग समय या दिन में होते हैं। इन प्रक्रियाओं को करने में कितना वक्त लगेगा, यह व्यक्ति की उम्र और उसकी जरूरत पर निर्भर करता है। अमूमन वमन और विरेचन 1 से 7 दिन तक चल सकते हैं। पहले वमन होगा, इसके बाद विरेचन की क्रिया पूर्ण की जाती है। इसके बाद ही वस्ति संपन्न होगी। यहां एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि पंचकर्म में लगने वाला समय वैद्य से मिलने के बाद ही पता चलता है। अगर समस्या बड़ी है तो ज्यादा वक्त लग सकता है, नहीं तो एक दो बार में भी परेशानी खत्म हो सकती है।

क्या इसके लिए अस्पताल में भर्ती किया जाता है?
- जिन पंचकर्म अस्पतालों में ये सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहां पर जरूरतमंद ठहर सकते हैं। अहम बात यह है कि इन प्रक्रियाओं को ओपीडी में भी सरलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है। सभी पंचकर्म केंद्रों की ओपीडी में इस तरह की सुविधाएं उपलब्ध होती हैं।

क्या इससे रोग पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं?
- जिन बीमारियों को ठीक करने के लिए पंचकर्म की पद्धतियों का उपयोग किया जाता है, उनमें ये पूरी तरह कारगर हैं। मसलन स्पॉन्डिलाइटिस, बैकपेन, स्लिप डिस्क, साइनोसाइटिस, माइग्रेन आदि। इनके अलावा डिप्रेशन, तनाव और चिंता जैसी परेशानियों में भी पंचकर्म बहुत उपयोगी है।

किस तरह की समस्याओं में पंचकर्म सफल नहीं है।
- जन्म के समय पैदा हुई समस्याओं को ठीक करने में यह सक्षम नहीं है।

मिथ मंथन
मसाज कराना पंचकर्म में शामिल है?
- नहीं। मसाज कराना पंचकर्म की पूर्व क्रिया है। इसे पंचकर्म मान लेना गलत है।

आयुर्वेद में इलाज काफी लंबा चलता है?
- आयुर्वेद कभी भी बीमारी में तात्कालिक लाभ के उपाय नहीं करता। यह समस्या को जड़ से खत्म करता है, इसलिए कुछ ज्यादा वक्त लग सकता है।

कोई भी पंचकर्म करा सकता है?
- अमूमन 16 साल से कम और 70 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को पंचकर्म से ज्यादा फायदा नहीं होता क्योंकि इनमें धातुओं की कमी रहती है। इनके अलावा किस शख्स को पंचकर्म कराना चाहिए और किसे नहीं, ये बातें जानकार वैद्य ही बता सकते हैं। इसलिए पंचकर्म शुरू करवाने से पहले वहां के वैद्य से जरूर सलाह लें। इसके अलावा अगर किसी बच्चे को ऐसी शारीरिक या मानसिक दुर्बलता है जिसके कारण उसे चलने-फिरने, उठने-बैठने में कठिनाई हो रही हो या मानिसक विकास ठीक से न हुआ हो तो इसमें उम्र की कोई सीमा नहीं होती।

क्या आयुर्वेद की दवाएं गर्म होती हैं?
- ऐसा बिल्कुल नहीं है। यह रोगों और मौसमों के आधार पर इलाज करता है।

क्या आयुर्वेद की दवाओं में स्टेरॉइड्स होते हैं?
- आयुर्वेदिक दवाओं में केमिकल का उपयोग नहीं होता। काफी पौधों में फाइटोस्टेरॉइड्स (नैचरल रूप में मिलने वाले स्टेरॉइड्स) होते हैं और उनका किसी भी व्यक्ति पर प्रयोग हानिकारक नहीं होता। यह हर तरीके से फायदेमंद होता है। इनका उपयोग भी काफी कम मात्रा में किया जाता है।

एक्‍सपर्ट्स पैनल
- डॉ. राज मान, अडिशनल डायरेक्टर, नॉर्थ एमसीडी
- डॉ. आर. पी. पाराशर, मेडिकल सुपरिटेंडेंट, पंचकर्म हॉस्पिटल, प्रशांत विहार, नॉर्थ एमसीडी
- डॉ. पूजा सभरवाल, असिस्टेंट प्रफेसर, चौधरी ब्रह्मप्रकाश आयुर्वेदिक संस्थान
- डॉ. चंद्रशेखर कौशिक, सीनियर मेडिकल ऑफिसर, साउथ एमसीडी

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

दिवाली पर खरीद रहे हैं ड्राई फ्रूट्स? बरतें ये सावधानियां

$
0
0
दिवाली के मौके पर लोग मिठाई के अलावा ड्राई फ्रूट्स भी खूब गिफ्ट करते हैं। लेकिन इससे पहले आपको जानना जरूरी है कि आप सही क्वॉलिटी खरीद रहे हैं या नहीं? इसकी सही खरीदारी और खाने के सही तरीके के बारे में एक्सपर्ट्स से जानकारी लेकर बता रहे हैं राजेश भारती:दिवाली के मौके पर लोग मिठाई के अलावा ड्राई फ्रूट्स भी खूब गिफ्ट करते हैं। लेकिन इससे पहले आपको जानना जरूरी है कि आप सही क्वॉलिटी खरीद रहे हैं या नहीं? इसकी सही खरीदारी और खाने के सही तरीके के बारे में एक्सपर्ट्स से जानकारी लेकर बता रहे हैं राजेश भारती:

ट्रैवलिंग के टूल्स

$
0
0

घूमने के लिए बस यूं ही निकल पड़ना आसान है, लेकिन घुमक्कड़ी के एक अच्छे आउटिंग के लिए बैकपैक का होना आपकी घुमक्क्ड़ी के उन्माद को दुगुना जरूर कर सकता है। यह उन्माद ही आपके जोश, जूनून और साहस को परवान चढ़ाता है इसलिए हम इस पर ध्यान दें कि बैकपैक ही क्यों? एक अच्छा बैकपैक कैसा होता है? एक अच्छे बैकपैक में किन-किन चीजों का होना नितांत जरुरी होता है? एक अच्छे बैकपैक की खास बात क्या होती है? एक अच्छा बैकपैक कैसे बन सकता है?

बैकपैक की बात

भारत में बड़े बैकपैक्स 10 किलोग्राम (20 लीटर) से अधिक भार के लिए बने होते हैं। ये आमतौर पर छोटे स्पोर्ट्स जैसे कि साइक्लिंग, रनिंग, ट्रैकिंग के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। ये सामान्य बैग से काफी अलग होते हैं क्योंकि इसके लोड को स्थिर करने के लिए कमर, कंधे के साथ-साथ हिप बैक का सपोर्ट लिया जाता है। संतुलित बनावट की वजह से सामान्य बैग के मुकाबले इनका नब्बे प्रतिशत भार कम हो जाता है।

वैसे, अगर सिर्फ घूमने जा रहे हों यानी आपको कैंपिंग नहीं करनी हो तो आपका काम डे पैक (छोटी बैग) से भी आसानी से चल सकता है। यूं तो हजारों कंपनियां बैकपैक बनाती हैं, लेकिन विश्वसनीयता के लिहाज से आपको बैकपैक चुनना चाहिए। अपने देश में वाइल्ड क्राफ्ट, माउंट ट्रेक, क्वेचुआ और स्काईबैग के बैक पैक अच्छे माने जाते हैं। इनमें से वाइल्डक्राफ्ट को बहुत अच्छी क्वॉलिटी के लिए, माउंट ट्रैक विविधतापूर्ण रेंज के लिए, क्वेचुआ को बजट में बेहतर प्रॉडक्ट के लिए तो स्काईबैग को 2-3 दिनों की यात्रा के लिए अच्छा माना जाता है।

अच्छे बैकपैक की विशेषताएं
•जरूरत के हिसाब से हो या फ्री साइज का हो
•हल्का हो, वॉटर प्रूफ हो और इसमें सपोर्ट फ्रेम लगा हो
•फ्रंट लोडिंग अच्छी होनी चाहिए
•ऑर्गेनाइजर कम्पार्टमेंट बेहतरीन हो
•वेस्ट स्ट्रैप और चेस्ट स्ट्रैप को अजेस्टबल होना चाहिए
•जिप लॉकिंग की सुविधा हो
•डबल कैरी हैंडल हो तो ज्यादा बेहतर रहेगा क्योंकि इससे बैकपैक को उठाने में आसानी होती है।

कौन सा बैकपैक
बैकपैक बनाते वक्त सबसे जरूरी बात होती है- साइज। यह घुमक्क्ड़ी की अवधि के हिसाब से तय होता है। घुमक्क्ड़ी में यूं तो कुछ भी तय नहीं होता, लेकिन मोटा-मोटा हिसाब तो होता ही है कि सफर कितने दिनों तक चलने वाला है।

क्या-क्या हो बैकपैक में

बैकपैक के लिए ध्यान रखें कि यह हल्का बने और जरूरी चीजें भी न रह जाएं। दरअसल, घुमक्क्ड़ी के दौरान आपकी जरूरत की चीजें आपको लंबी यात्रा को लेकर आश्वस्त करती हैं। इसलिए कैंपिंग टेंट, स्लीपिंग बैग, ट्रैवल मैट, ब्यूटेन सिलिंडर से लेकर शूज, क्लॉदिंग, मेडिकल किट, वॉटर बोतल जैसी रोजमर्रा में काम आने वाली चीजें तक इसमें शामिल होनी चाहिए। साथ ही साथ इन चीजों की क्वॉलिटी और उपयोगिता को लेकर भी आपको सचेत होना चाहिए। हम जिस जमाने में जी रहे हैं इसमें टेक्नॉलजी के प्रयोग से घुमक्कड़ी को हम आसान और दिलचस्प बना सकते हैं इसलिए नई टेक्नॉलजी को लेकर झिझकें नहीं। जरूरी मोबाइल ऐप्स, रिकॉर्डिंग डिवाइस, कैमरा फोन का उपयोग करके आप अपनी घुमक्क्ड़ी की यादों को सहज ही सहेज सकते हैं।

30 दिनों की यात्रा के लिए आप

50-80 लीटर के बैकपैक की जरूरत आपको हो सकती है।

15 दिनों के लिए निकलना है तो
45-75 लीटर के बैकपैक में आपकी जरूरी चीजें आ जाएंगी।

2-3 दिनों के लिए निकलना है तो

30-50 लीटर के बैकपैक में आपकी जरूरी चीजें आ जाएंगी।


देश में मौजूद कुछ बेहतरीन ट्रेक रूट्स

चोपता चंद्रशिला ट्रेक, उत्तराखंड

बेस्‍ट सीजन
जून, सितंबर-दिसंबर
कठिनाई स्‍तर
मध्‍यम
अधिकतम ऊंचाई
3962 मीटर
कितने दिन की ट्रैकिंग
4 से 5 दिन
चोपता चंद्रशिला ट्रैक विविधतापूर्ण है। यह उन ट्रेक में से एक है, जिसे पूरे साल चलाया जा सकता है। यहां पर ट्रैकिंग के दौरान, केदारनाथ, चौखंभा, नंदा देवी और त्रिशूल जैसे विभिन्न हिमालयी चोटियों के दीदार भी होते हैं। साथ ही आपको अल्पाइन वनस्पति की सुंदरता भी देखने को मिलती है, जिसके लिए यह क्षेत्र काफी प्रसिद्ध है। कुंड कैंप और साड़ी विलेज के रास्ते यहां पहुंचा जा सकता है। ट्रेक का खास खूबसूरत हिस्सा साड़ी से देवरिया ताल तक फैला हुआ है। यात्रा का मुख्य आकर्षण तब होता है जब आप भगवान शिव को समर्पित 1000 साल पुराने मंदिर के आगे से गुजरते हैं। लगभग 10,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह सबसे ऊंचा भगवान शिव मंदिर होने के लिए प्रसिद्ध है।

रूपकुंड झील, उत्‍तराखंड
बेस्‍ट सीजन
जुलाई से नवंबर
कठिनाई स्‍तर
कठिन
अधिकतम ऊंचाई
5000 मीटर
दिनों में अवधि
5 से 7 दिन
आप साहसिक पर्यटन या ट्रैकिंग के शौकीन हैं तो चमोली जिले में स्थित रूपकुंड झील आपके लिए एक बेहतरीन जगह है। यह हिमालय के ग्लेशियरों के गर्मियों में पिघलने से पहाड़ों में बनने वाली झील है जिसके चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे बर्फ के ग्लेशियर हैं। इस जगह पर पहुंचने का रास्ता बेहद दुर्गम हैं इसलिए यह जगह एडवेंचर ट्रेकिंग करने के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। यह झील यहां पर मिलने वाले नरकंकालों के कारण प्रसिद्ध है। सर्दियों में रूपकुंड झील जम जाती है इसलिए इस ट्रेकिंग के लिए गर्मियों के मौसम को ही चुनें। जुलाई से नवंबर के बीच जाना उपयुक्त समय माना जाता है। यहां पर अपना टेंट लेकर आपको जाना होगा। 22 किमी लंबे इस ट्रेक के दौरान आपको जीवन का अद्भुत रोमांच होगा।

वैली ऑफ फ्लार्स, उत्‍तराखंड
बेस्‍ट सीजन
जुलाई से मध्‍य सितंबर
कठिनाई स्‍तर
आसान
अधिकतम ऊंचाई
3900 मीटर
कितने दिन की ट्रैकिंग
4 से 6 दिन
यह कहना गलत नहीं है कि भारत में यह ट्रेकिंग आत्मिक यात्रा की तरह है। अगर आप फूलों की घाटी पर ट्रेक करते हैं तो ये आत्मिक अनुभव होगा। फूलों की यह घाटी यूनेस्को द्वारा 1982 में घोषित विश्व धरोहर स्थल नंदा देवी अभयारण्य, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान का ही एक भाग है। हिमालय क्षेत्र पिंडर घाटी या पिंडर वैली के नाम से भी जाना जाता है। 11 किमी के इस सफर में आप हिमालयी फूलों के बीच से होकर गुजरते हैं और पूरे वक्त मानसून के मौसम में खिलने वाले फूल 'प्रिमुला' के खुमार में रहते हैं। लगभग 300 प्रकार के स्थानीय पहाड़ के शीर्ष फूलों और वनस्पतियों की एक समृद्ध श्रृंखला से आप परिचित होते हैं।

हम्प्टा पास ट्रैक, हिमाचल प्रदेश
बेस्‍ट सीजन

मई से अक्‍टूबर
कठिनाई स्‍तर
मध्‍यम
अधिकतम ऊंचाई
4400 मीटर
कितने दिन की ट्रैकिंग
4 से 5 दिन
हम्प्टा पास ट्रैक आसान और उत्तम है। अगर अपने दैनिक जीवन से काफी समय से नहीं निकल पा रहे और अपनी थकी हुई मांसपेशियों को एक धक्का देना चाहते हैं तो बैकपैक बांधकर इस नए रोमांच पर निकल जाइए। यह ट्रैक कुल्लू घाटी में हम्पटा गांव से शुरू और लाहौल व स्पीति घाटी में चतरू पर समाप्त होता है। ट्रेक के बीच चिका, बालू का घेरा, शीया गोरू क्रॉसिंग, चतरू और चंद्रताल जैसे आकर्षक स्थान आते हैं, जिनके बीच से होकर गुजरना काफी अच्छा लगता है। बर्फ से ढकी चोटियां, खुले हरे मैदानों के शानदार दृश्य पेश करते हुए यह ट्रेक आप में से हरेक को रोमांचित करेगा और आपकी कल्पनाओं को एक उभार देगा।


चादर ट्रेक, लद्दाख
बेस्‍ट सीजन

जनवरी से फरवरी
कठिनाई स्‍तर
मुश्किल
अधिकतम ऊंचाई
3890 मीटर
कितने दिन की ट्रैकिंग
9 से 12 दिन
यदि आप एक मजबूत दिल वाले और हिम्मती हैं तो चादर ट्रैक आपके लिए है। चादर ट्रेक जिसे ज़ांस्कर ट्रैक के नाम से भी जाना जाता है। यह चिलिंग से शुरू होता है और लिंग शेड तक जारी रहता है। यह आपको न सिर्फ जमे हुए ज़ंस्कार नदी पर चलने का एक शानदार मौका प्रदान करेगा बल्कि यहां आपको बौद्ध विरासत और धार्मिक समृद्धि के बारे में जानने का मौका भी मिलेगा। यह देश के मुश्किल ट्रैक में आता है। तो हो सकता है कि जलवायु और पगडंडी पर चलते हुए आपका आत्मविश्वास खोने लगे, लेकिन जब आप इस पगडंडी को पार करेंगे तो यह सुनिश्चित होगा कि यह आपके जीवन का सबसे शानदार अनुभव रहा।


ट्रैकिंग के लिए कुछ सुझाव

सफाई की करें परवाह: एक ट्रेकर की सबसे बड़ी जिम्मेदारियों में से एक यह है कि वह अपने पर्यावरण की उतनी ही परवाह करता है जितना कि अपनी खुशी का। आपको एक जिम्मेदार ट्रेकर के रूप में हमेशा अपने पर्यावरण को लेकर सजग रहना चाहिए।

स्थानीय संस्कृति को जानें: एक ट्रेकर के रूप में आपको हमेशा स्थानीय लोगों के रीति-रिवाज और परंपराओं को जानने की कोशिश और उनकी परवाह करनी चाहिए।

छिटपुट, लेकिन जरूरी चीजें

जूते (रेंज: 2 से 4 हजार)

अच्छे जूते के बिना घुमक्कड़ी संभव नहीं है। इसलिए अच्छी कंपनियों के जूते ही खरीदें क्योंकि ये टिकाऊ और कंफर्टेबल होते हैं। वाइल्डक्राफ्ट के जूते अच्छे माने जाते हैं। वुडलैंड के जूते भी मजबूती के लिहाज से अच्छे होते हैं, लेकिन वजन ज्यादा होता है। आप घुमक्क्ड़ी के लिए नाइकी, एडिडास और प्यूमा के लाइटवेट जूते भी उपयोग में ला सकते हैं।

चाकू, सेफ्टी पिन, सुई धागे
ये छोटी-छोटी चीजें आपकी यात्रा में कब काम आ जाएंगी आपको भी नहीं पता। ऐसे में इन्हें अपने बैकपैक में जगह जरूर दें। लाइटर और मैच बॉक्स भी साथ में रखें। स्टेपलर, कटर, परमानेंट मार्कर, डायरी, स्केच बुक आदि जरूरत के अनुसार रख सकते हैं।

टॉयलट बैग (रेंज: 500 से 1000)
टॉयलट बैग सबसे बड़ी जरूरतों में से एक है। इसलिए पहले यह सुनिश्चित कर लें कि इसमें किन-किन चीजों की आपको ज्यादा जरूरत पड़ेगी। टूथब्रश, पेस्ट, फेस वॉश, बॉडी वॉश, सनस्क्रीन के साथ-साथ फेस क्रीम भी जरूर रखें।

नोटबुक (रेंज: 50 से 100)
ट्रैवलिंग के दौरान कई छोटी-छोटी बातों को दर्ज करने की जरूरत महसूस होती है। ऐसे में एक छोटी नोटबुक का होना बहुत ही जरूरी होता है।

टॉर्च (रेंज: 600 से 1800)
आपको अक्सर दुर्गम रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे में लाइट की व्यवस्था आपके पास होनी चाहिए, भले ही मोबाइल में टॉच हो तो भी।

कम्पास और मैप (रेंज: 200 से 500)
यह दोनों जरूरी इंस्ट्रूमेंट हैं। जब कोई आसपास मदद के लिए न हों तो इनका उपयोग किया जा सकता है।

टी बैग (रेंज: 70 से 200)
चाय के बिना सबकुछ अधूरा है। इसलिए टी बैग के साथ वह सभी जरुरी चीजें होनी चाहिए जिससे कि चाय बना सकें।


आई मास्क (रेंज: 150 से 500)
अच्छी नींद के लिए यह बेहद ही जरूरी चीज है क्योंकि घुमक्कड़ी के दौरान आपको झपकी मारने की जगह कहां मिलेगी, कहना मुश्किल है।

ट्रैवल पिलो (रेंज: ~150 से 400)
आपका ज्यादातर समय यात्राओं में बीतता है तो इसका होना बहुत ही जरूरी है।

सन ग्लासेस (रेंज: 1500 से 3,000)
यह आपको सूरज की तीखी किरणों से बचाती है तो रास्ते में आंखों को धूल-मिट्टी से भी सुरक्षित रखती है।

डिजिटल किट (रेंज: 30 से 60 हजार)
जितना घूमना जरूरी है, उतना ही यादों को संजो लेना भी। डिजिटल किट इसलिए बेहद खास है। इसमें आप डेटा ट्रैवलर से लेकर कैमरा और लैपटॉप तक रख सकते हैं। इलेक्ट्रिक कन्वर्टर, ऐप्स और मैप भी रखें। अगर आप अपनी घुमक्क्ड़ी के दौरान रिकॉर्डिंग का शौक रखते हैं तो भारी भरकम कैमरे की बजाय गो प्रो और गिम्बल कैमरे का उपयोग कर सकते हैं।

मेडिकल किट (रेंज: 500 से 1000)

घुमक्कड़ी के दौरान एक ऐसी मेडिकल किट का होना बेहद जरूरी होता है जिसके सहारे छोटी-मोटी बीमारियों से खुद निपटा जा सके। मेडिकल किट तैयार करते समय आपको अपनी आवश्यकता पर विशेष ध्यान देना होता है। मौसमी रोगों के लिए एंटी-बायॉटिक, बुखार, दर्द, पेट और गैस की दवाएं, जले-कटे पर लगाने की क्रीम के साथ-साथ ग्लूकोज पाउडर जरूर इस किट में रखें।

पानी की बोतल (रेंज: 200 से 700)
यह शायद सबसे जरूरी चीजों में से एक है। घुमक्कड़ी के दौरान पानी की दो बोतल साथ रखना जरूरी होता है। बोतल की क्वॉलिटी से कोई समझौता नहीं करें क्योंकि कई बार आपको दो-तीन दिनों तक पानी को इन बोतल में स्टोर करना पड़ जाता है।

यह भी जरूरी है
•सबसे जरूरी है कि आप अपने सामान की चेकलिस्ट बना लें कि कौन-कौन-सी चीज आपके पास है।
•सभी चीजों को बैकपैक के अलग-अलग कम्पार्टमेंट में रखें। अच्छा होगा कि सामान को सुरक्षित और अच्छे से अरेंज करने के लिए छोटे-छोटे पाउच का उपयोग करें।
•जहां जा रहे हैं वहां की पूरी जानकारी पहले से कर लें। मोबाइल में वहां का नक्शा गूगल मैप डाउनलोड कर लें क्योंकि हर जगह मोबाइल नेटवर्क नहीं होता।
•दिन में सुबह या फिर शाम के वक्त घर पर दिन में कम से कम एक बार बात जरूर करें। आपकी स्थिति की सही जानकारी किसी ना किसी के पास होनी चाहिए।
•सुरक्षा पहली और आखिरी प्राथमिकता होती है। घुमक्क्ड़ी इन दोनों के बीच की चीज है। सुरक्षित रहेंगे तभी घूम पाएंगे। यह दुनिया बहुत बड़ी है।

सिलिंडर और बर्तन
घुमक्कड़ी के शौकीन लोगों की खास या फिर सबसे अलग बात यह होती है कि वह बने-बनाए नक्शे के मुताबिक यात्रा नहीं करते। वे कभी भी, कहीं भी अपनी मर्जी से निकल पड़ते हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि रोजमर्रा की बेहद जरूरी चीजें उनके पास हों। जंगल और पहाड़ की यात्रा के दौरान या फिर ऐसी जगहों पर जहां एलपीजी तक जम जाती है ट्रैवलर ब्यूटेन सिलिंडर या मल्टीफ्यूल सिलिंडर का उपयोग करते हैं। साथ ही, उन्हें हल्की और आसानी से ढोए जा सकने वालो बर्तनों की भी जरूरत होती है।

बर्तन सेट: 2500-4000, सिलिंडर: 2 से 7 हजार

साइज और क्वॉलिटी
लैंप से भी छोटा यह सिलिंडर आंधी, पानी और तूफान के बीच भी जल जाता है और एक बार भरवाने के बाद महीनों चल जाता है। कई बार यह सिलिंडर मल्टिफ्यूल के ऑप्शन के साथ भी आता है। जरूरत पड़ने पर इसमें आप डीजल, किरोसिन आदि का उपयोग भी कर सकते हैं। भारत में कोलमैन का बर्नर ड्यूल फ्यूल ब्यूटेन सिलिंडर काफी पॉपुलर है। बाजार में वैसे और भी कई ऑप्शन मौजूद हैं।

आपको इसमें देखना चाहिए
•कैंपिंग के लिए मुफीद हो
•इमरजेंसी में तुरंत कुछ पकाने के लिए बेहतर हो
•मिनटों में पानी उबाल दे
•पॉट स्पोर्ट हो और हवा से लौ को बचाने वाला हो

कपड़े चुनें ध्‍यान से
एक ट्रैवलर के तौर पर सबसे महत्वपूर्ण होता है कपड़ों का चुनाव। बैग पैक करते समय हमेशा इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि कपड़े का चुनाव मौसम और जगह के हिसाब से किया जाए। साथ ही साथ इस बात का भी खयाल रखना जरूरी है कि ये पहनने में आरामदेह और बेहद हल्के हों। एक तरफ इससे जहां यात्रा सुखद होती है वहीं दूसरी तरफ गंदे होने या भीग जाने पर जल्दी सूख जाने की सहूलियत भी मिलती है। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जरूरत का कोई कपड़ा छूट न जाए और ऐसा एक भी कपड़ा न रखें जिसकी जरूरत यात्रा के दौरान न हो। इस समय कई कंपनियां ट्रैवलर्स के लिए खासतौर पर कपड़े डिजाइन करती हैं। इनमें वाइल्ड क्राफ्ट, वुडलैंड और डिकैथ्लॉन जैसी कंपनियां खास हैं।

जरूरी कपड़े
शर्ट्स व शॉर्ट्स: यह कम जगह घेरने के साथ-साथ पहनने में काफी आरामदेह होनी चाहिए।

टी-शर्ट्स: ट्रैवलिंग के लिहाज से ये काफी आरामदेह और लाइट होती हैं। अंडरगारमेंट्स, सॉक्स: ये अच्छी क्वॉलिटी की लें और हमेशा जरूरत से ज्यादा रखें क्योंकि घूमने के दौरान धोने और सुखाने का मौका कम ही मिल पाता है। (नामी कंपनियां: वाइल्ड क्राफ्ट, केंचुआ, डिकैथ्लॉन। एक सेट की कीमत: 5000 से 7000)

कैंपिंग टेंट
यह छोटा-सा कैंपिंग टेंट एक ट्रैवलर के लिए पूरा-पूरा घर होता है जो उसे धूप, बारिश और आंधी-तूफान से बचाता है। यात्रा के दौरान इसके होने से आपको कहीं भी अपनी पसंद की जगह पर रुकने की परेशानी नहीं रह जाती। इसलिए टेंट खरीदते समय काफी सतर्क रहें और सही टेंट चुनें। कई बार ऐसी परिस्थितियां बनती हैं कि उन्हें दूरदराज के क्षेत्रों तक लेकर चल देती हैं, जहां रहने के लिए ना तो घर होता है और ना ही खाने की कोई अच्छी व्यवस्था। ऐसे में पास में टेंट का होना बेहद जरूरी हो जाता है। आप आसानी से अपना टेंट लगाकर मैदान, पर्वत, पठार, कहीं भी रह सकते हैं। बेशक यह छोटा-सा टेंट आपको मौसम के साथ-साथ भौगोलिक विषमताओं से भी बचाने का काम करता है।

कैसे चुनें टेंट
यात्रा में लोगों की संख्या के अनुसार कैंपिंग टेंट का चुनाव करना चाहिए। अगर आप सोलो ट्रिप पर जा रहे हैं तो आप वन पर्सन टेंट का चुनाव कर सकते हैं, लेकिन आप किसी साथी के साथ सफर पर निकल रहे हैं तो टु पर्सन टेंट ले सकते हैं। अगर ग्रुप या पूरे परिवार के साथ निकल रहे हैं तो आप अपनी आवश्यकता या कम्फर्ट के मुताबिक थ्री पर्सन, फोर पर्सन, सिक्स पर्सन, ऐट पर्सन या इससे भी बड़े टेंट का चुनाव कर सकते हैं। टेंट के अलावा वीवी सैक या हममॉक का भी उपयोग करना अच्छा विकल्प हो सकता है।

कैंपिंग टेंट खरीदते समय कंपनी या ब्रांड का पूरा ख्याल रखना चाहिए। कई बार हम सस्ते के चक्कर में पड़कर खराब चीज खरीद लेते हैं और फिर पछताते रहते हैं। ऐसे में परेशानी के साथ पैसे की बर्बादी भी होती है। क्वॉलिटी के लिहाज से इंडिया में वाइल्ड क्राफ्ट, कोलमैन और गजटबकेट के टेंट अच्छे माने जाते हैं।

अच्छे टेंट की विशेषताएं
•थ्री सीजन टेंट होना चाहिए
•रॉड एल्यूमिनियम की होनी चाहिए
•उसमें अच्छा जिपर होना चाहिए
•वजन कम होना चाहिए
•एक अच्छी छत का वेंटिलेटर हो
•बारिश के लिए फ्लाई नेट लगा हो
•टेंट का मटीरियल अच्छा हो
•लगाने में आसान हो


स्लीपिंग बैग व ट्रैवल मैट
बिना एक अच्छे ट्रैवल मैट और स्लीपिंग बैग के कभी भी आप अच्छे कैंपर नहीं हो सकते। आराम और बेहतर नींद के लिए ये जरूरी हैं। आप फैमिली कैंपिंग पर जा रहे हों या सोलो ट्रिप की प्लानिंग कर रहे हों या फिर कभी-कभार घूमने में यकीन रखते हों, आपके पास ये होने चाहिए। ये हर स्थिति में मौसम की मार से आपको बचाते हैं। ट्रैवल मैट आपको कहीं भी रुककर आराम कर लेने की सहूलियत देती है। यह हल्की और वॉटर रेसिस्टेंस होनी चाहिए ताकि एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में आसान हो और भीग जाने की स्थिति में भी इस्तेमाल में लाई जा सके।

साइज और क्वॉलिटी
स्लीपिंग बैग ज्यादातर एक इंसान की जरूरत के लायक ही आता है, लेकिन दो लोगों के लिए भी अब बैग आने लगे हैं, जिसमें आप अपने साथी के साथ आराम से सो सकते हैं। साइज के साथ-साथ क्वॉलिटी का भी इसमें विशेष ख्याल रखना होता है। अच्छी क्वॉलिटी के स्लीपिंग बैग आपको मौसम की मार से बचाते और ओपन में भी पूरी तरह से सुरक्षित रखते हैं। कई बार आपको उन जगहों की भी यात्रा करनी पड़ जाती है जहां का तापमान जीरो डिग्री से भी नीचे उतर जाता है। ऐसे में तापमान के मुताबिक स्लीपिंग बैग का चुनाव होना चाहिए।

भारत में उपलब्‍ध टेंट के अच्‍छे ब्रांड

वाइल्ड क्राफ्ट (क्वॉलिटी और विश्वसनीयता)

कोलमैन (क्वॉलिटी के लिए)

गजटबकेट (विविधतापूर्ण रेंज)

डिकैथ्लॉन (किफायती और अच्छा)

अच्छे स्लीपिंग बैग की विशेषताएं

•टेंपरेचर रेटिंग सही हो
•स्लीपिंग बैग का शेप अनुकूल हो
•इंसुलेशन की खासियत के साथ हो
•वॉटर रेसिस्टेंट हो

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

विश्व अंगदान दिवस: अंगदान के इंतजार में कई लोग हार जाते हैं जिंदगी की जंग

$
0
0

कौन कहता है कि इंसान अमर नहीं हो सकता। जरूर हो सकता है। इसके लिए अमृत पीने की जरूरत नहीं है। बस अंगदान जैसा पूण्य कार्य करना पड़ेगा। दरअसल, डीएनए के रूप में उसका अस्तित्व उसके गुजर जाने के बाद भी मौजूद होगा। उस अंग में मौजूद डीएनए एक जेनरेशन से दूसरे जेनरेशन में चलता जाएगा। अगर किसी के अंग चार-पांच लोगों को ट्रांसप्लांट हो गए तो अमरता की संभावना और भी प्रबल हो जाएगी। अपने देश में अंगदान के इंतजार में कई बेटे, कई पिता, कई मांएं, कई बहनें, कई भाई और कई दोस्त जिंदगी की जंग हार जाते हैं। अगर हॉस्पिटल में ब्रेन डेड हो चुके लोगों के अंग ही दान कर दिया जाएं तो देश की जरूरत लगभग पूरी हो सकती है। ऑर्गन डोनेशन पर एक्सपर्ट्स से बात कर जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती

कहते हैं जब कोई शख्स इस धरती पर नहीं रहता तो वह यादों और अच्छी बातों के जरिए लोगों के बीच जिंदा रहता है, लेकिन ऑर्गन डोनेशन यानी अंगदान की बदौलत तो वह लोगों के अंगों के अंदर जिंदा रहता है। और यह बात अंगदान को बहुत बड़ा बना देती है। दिल, आंखें, लंग्स, किडनी, पेनक्रियाज, लिवर और स्किन जैसे अंग किसी की मौत के बाद किसी और के काम आ जाते हैं और उसे नई जिंदगी दे जाते हैं।

इंसानियत की दो मिसालेंः-

1- बहन ने किया लिवर डोनेट
हेपटाइटिस की वजह से उसके छोटे भाई की लिवर खराब हो गई थी। डॉक्टरों का कहना था कि उसका 90 फीसदी लिवर खराब हो चुका है। घर में सभी लोगों ने रोना शुरू कर दिया, लेकिन उसकी बहन ने बचे हुए 10 फीसदी लिवर पर फोकस किया और एयर ऐंबुलेंस से मध्य प्रदेश के एक शहर से दिल्ली के बड़े अस्पताल लेकर आई। उसने भाई को अपना लिवर डोनेट किया और भाई की जान बचाई। इस ऑपरेशन में डॉक्टरों को 14 घंटे लगे। ऑपरेशन सफल रहा और दोनों स्वस्थ हैं। इस पूरी कवायद में बहन के ससुराल वालों ने उसका पूरा साथ दिया। यह तभी मुमकिन हुआ क्योंकि डोनर पहले से ही उपलब्ध था। टिशू डोनेशन से किसी की जान बचाने का यह एक अच्छा उदाहरण है।

2- पैरंट्स का साहसी फैसला
अमन 15 साल का है। उसे कुछ दिनों से पेशाब में परेशानी हो रही थी। स्किन पर इचिंग की समस्या रहती थी। वह जल्दी थक भी जाता था। उसके पैरंट्स ने डॉक्टर से संपर्क किया। डॉक्टर ने अमन का चेकअप किया और कुछ जांच लिखे। उन जांच में KFT (किडनी फंक्शन टेस्ट) भी था। रिपोर्ट में उसके शरीर में क्रिएटिनिन, यूरिया, सभी का स्तर नॉर्मल लेवल से काफी ऊपर पहुंच चुका था। डॉक्टर ने सीधा कह दिया कि किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत है और वह भी जल्द से जल्द। अमन का 2 से 3 फीसदी ही किडनी काम कर रहा है। अब इतनी जल्दी किडनी की व्यवस्था कहां से हो? उसके मम्मी और पापा दोनों को शुगर की समस्या थी, इसलिए डॉक्टर्स ने उनकी किडनी लेने से मना कर दिया। संयोग की बात थी कि उसी हॉस्पिटल में एक 14 साल के बच्चा भी भर्ती हुआ जिसका ब्रेन डेड था। उसके पैरंट्स अपने बच्चे के सभी अंगों का दान करना चाह रह थे। अमन को उसकी किडनी मिल गई। उस किशोर का हार्ट भी उसी शहर के दूसरे हॉस्पिटल में एक पेशंट में ट्रांसप्लांट हो गया। दोनों जगह ऑपरेशन सफल रहा। भले ही वह किशोर इस दुनिया में नहीं है, लेकिन सच तो यह है कि उसने कई इंसानों को नई जिंदगी दे दी। यह मुमकिन हुआ ऑर्गन डोनेशन से।

डोनेशन की जरूरत क्यों?
इंसान के शरीर में जो अंग काम करते हैं, वैसे अंग बनाना अभी संभव नहीं हुआ है। इस फील्ड में रिसर्च जोरों पर है। फिर भी वैज्ञानिकों का मानना है कि शरीर से काफी हद तक मिलते-जुलते कुछ अंग बनाने में 5 से 10 बरस तक लग सकते हैं। ऐसे में अगर कोई अंग काम नहीं कर रहा हो तो ट्रांसप्लांट का ही ऑप्शन बचता है और इसीलिए अंगदान की जरूरत है। लेकिन दिक्कत यह है कि भारत में अब भी लोग अंगदान से झिझकते हैं और इसीलिए ट्रांसप्लांट के लिए अंग मिल नहीं पाते।

क्या है ऑर्गन डोनेशन
मानव शरीर के कई ऐसे अंग हैं जिन्हें काम न करने पर बदला जा सकता है। इसके लिए किसी दूसरे हेल्दी इंसान से अंग लेकर उसे बीमार व्यक्ति में प्रत्यारोपित किया जाता है। प्रत्यारोपण के लिए अंगों का मिलना तभी संभव है जब कोई अंग देने के लिए तैयार हो। किसी दूसरे को अंग देना ही आर्गन डोनेशन है। आंखों को छोड़कर बाकी अंगों के मामले में यह तभी मुमकिन है जब शख्स के दिल की धड़कनें चलती रहें, भले ही उसके ब्रेन ने काम करना बंद कर दिया हो।

ब्रेन डेड और सामान्य मौत में अंतरः-

क्या है ब्रेन डेड
जब शरीर के बाकी अंग काम कर रहे हों, लेकिन किसी वजह से ब्रेन ने काम करना बंद कर दिया हो और फिर से उसके काम करने की संभावना न हो तो इंसान को ब्रेन डेड माना जाता है। ब्रेन के इस स्थिति में पहुंचने की खास वजहें होती हैं:
-सिर में गंभीर चोट लगने से
-ट्यूमर की वजह से
-लकवे की वजह से

कोमा और ब्रेन डेथ में अंतर
इन दोनों में एक बड़ा अंतर यह है कि कोमा से इंसान नॉर्मल स्थिति में वापस आ सकता है, लेकिन ब्रेन डेथ होने के बाद ऐसा नहीं होता। कोमा की स्थिति में शख्स का ब्रेन डेड नहीं होता, उसके दिमाग का कुछ हिस्सा काम कर रहा होता है जबकि ब्रेन डेड के मामले में ऐसा नहीं होता। कोमा की स्थिति में यह जरूरी नहीं है कि इंसान वेंटिलेटर पर ही हो जबकि ब्रेन डेथ की स्थिति में वह इसी पर रहता है। तो डोनेशन ब्रेन डेड के मामले में ही हो सकता है, कोमा वाले पेशंट का नहीं।

इन अंगों का होता है ज्यादा दानः
-किडनी, आंखें, लंग्स, हार्ट, लिवर

इनका होता है कम दानः
-पैनक्रियाज़, छोटी आंत और त्वचा

नोट: आंख, हड्डी और स्किन के टिशू का ही दान होता है। पूरे अंग का नहीं। वहीं बोनमैरो ट्रांसप्लांट के लिए अब सिर्फ ब्लड डोनेट करने से भी काम हो जाता है।

अंगदान से जुड़े कुछ दूसरे तथ्य
-अमूमन अंगदान किसी शख्स की मौत के बाद ही होता है। ब्रेन डेड को भी मौत के बराबर ही माना जाता है।
-जिंदा रहते हुए इंसान दो में से अपने एक किडनी का दान कर सकता है। लिवर में से एक छोटा-सा हिस्सा भी दान किया जा सकता है। दरअसल, एक किडनी के साथ इंसान सामान्य जिंदगी जी सकता है। ऐसे में हेल्दी इंसान अपना एक किडनी दान कर सकता है। आजकल किडनी ट्रांसप्लांट के मामले में सफलता की दर काफी है। ट्रांसप्लांट के बाद पहले साल में अंग 95 फीसदी क्षमता से भी ज्यादा से काम करता है, लेकिन हर साल इसमें 2 से 3 फीसदी की कमी होती जाती है। 10 साल के बाद यह प्रतिशत 50 फीसदी तक पहुंच जाती है।
-मरने के बाद होने वाले अंगदान में सबसे ज्यादा होता है आंखों का दान। दरअसल, सामान्य मौत के मामले में भी आंखें जल्दी खराब नहीं होतीं।
-दूसरे अंग का दान तभी कामयाब है जब शख्स का ब्रेन डेड हुआ हो।

बोन मैरो डोनेशन
-बोन मैरो की जरूरत अमूमन ब्लड कैंसर के केस में होती है।
-पहले जब तकनीक ज्यादा विकसित नहीं थी तब हेल्दी इंसान के बोन मैरो को शरीर की बड़ी हड्डियों (हाथ, पैर, थाई आदि) से निकालकर मरीज के शरीर में पहुंचाया जाता था। लेकिन अब यह बेहद आसान हो गया है।
-अब हेल्दी इंसान के सिर्फ 300 एमएल ब्लड डोनेट करने से ही बोन मैरो ट्रांसप्लांट में मदद हो जाती है।
-इसके लिए अगर कोई चाहे तो नॉर्मल रक्तदान करते समय भी बोन मैरो डोनेशन के लिए सहमति दे सकता है।
-सहमति मिलने के बाद डॉक्टर इसके लिए उसके ब्लड का नमूना लेते हैं। ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन (HAL) के मिलान के लिए उस शख्स का डीएनए रख लिया जाता है ताकि भविष्य में जब किसी का डीएनए उस शख्स के डीएनए से मैच हो जाए तब 300 एमएल ब्लड लेकर किसी बीमार इंसान में बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया जाता है।

ये कर सकते हैं ऑर्गन डोनेट
-दान के मामले में उम्र की कोई सीमा नहीं होती। एक दिन के बच्चे से लेकर 90 बरस के बुजुर्ग भी अंगदान कर सकते हैं।
-18 साल से 65 साल तक की उम्र में अंगदान करना सबसे बेहतर माना जाता है।
-अंगदान करने से पहले कई चीजों की मैचिंग कराई जाती है। मसलन, किडनी के मामले में एचएलए, लिवर और हार्ट के मामले में ब्ल्ड ग्रुप की मैचिंग कराई जाती है।
-किडनी या लिवर का दान अमूमन करीबी रिश्तेदार जिनमें पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी शामिल हैं, में ही मुमकिन होता है। अगर इनसे किडनी लेने में परेशानी है तो दादा-दादी, नाना-नानी, मामा, मौसी, चाचा, ताऊ, पोता-पोती, चचेरे-ममेरे भाई-बहन आदि किडनी दान कर सकते हैं।

कौन नहीं कर सकता
-हेपटाइटिस बी और सी, एचआईवी पॉजिटिव, सिफलिस और रैबीज जैसी बीमारियों से पीड़ित लोग ऑर्गन डोनेट नहीं कर सकते।

ऑर्गन की लाइफ
-अगर कोई इंसान ब्रेन डेड है तो जितनी जल्दी हो उसके शरीर से अंगों को निकालने की कोशिश की जाती है।
-अगर किडनी या लिवर ट्रांसप्लांट होना है तो मरीज और डोनर की इच्छा पर यह निर्भर है।
- अंग निकलने के 6 से 12 घंटों के अंदर ही ट्रांसप्लांट हो जाना चाहिए नहीं तो अंग ट्रांसप्लांट करने योग्य नहीं बचता।

किडनी: 12 घंटे के अंदर
हार्ट: 3 से 4 घंटे में
लंग्स: 4 घंटे में
लिवर: 6 घंटे में
आंख: 3 दिनों के अंदर

आई डोनेशन
-इसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती।
-कोई भी जीवित शख्स आंखें दान नहीं कर सकता।
-अपने देश में ट्रांसप्लांट के लिए हर साल दो से ढाई लाख आंखों की जरूरत होती है, जिनसे लोगों को फिर से रोशनी मिल सकती है।
-एक आंकड़ा के मुताबिक, देश में हर साल अमूमन 60 हजार आंखें ही दान में मिल पाती हैं।
-अगर कोई कमजोर नजर की वजह से चश्मा लगाता है, मोतियाबिंद है, शुगर का मरीज है तो भी वह अपनी आंखें दान कर सकता है।
- सीधे कहें तो अगर किसी के शरीर में कॉर्निया ठीक है तो उसकी आंखें दान की जा सकती हैं।
- इसके लिए इंसान की मौत के 5 से 6 घंटे के अंदर आई बैंक वालों से संपर्क करना होता है।
- इसमें सिर्फ आंखों की कॉर्निया को निकाला जाता है।
- आंख दान करने के मामले में डॉक्टर यह सलाह देते हैं कि मृतक की आंखें सही-सलामत रहे। इसके लिए पलकों को बंद करना जरूरी है।

जब लगती हैं दूसरों को आंखें
-आजकल डॉक्टर कॉर्निया को 2 से 3 हफ्तों तक सुरक्षित रख लेते हैं। इसके लिए वे कॉर्निया को खास तरह के सलूशन में डाल कर रखते हैं।
- कॉर्निया किसे लगाया जा रहा है, इस बारे में डोनेशन करने वाले के परिवार वाले को नहीं बताया जाता।

क्यों होते हैं कम अंगदान
-यूरोप के कई देशों में इस तरह का नियम है कि अगर किसी ने लिखकर नहीं है दिया है कि उसके शरीर से अंग नहीं निकाले जा सकते, तब ही उनके अंग दान के लिए उपलब्ध नहीं होते। नहीं तो ब्रेन डेथ की स्थिति में शख्स का अंग दूसरों के शरीर में लगा दिया जाता है।
-जहां तक अपने देश की बात है तो यहां पर अंगदान के लिए मृतक के घरवालों की रजामंदी की जरूरत होती है। इसके बाद ही शरीर से अंग निकाले जाते हैं।
-ब्रेन डेथ अगर हॉस्पिटल में हुई है तब ही दूसरे अंगों के दान हो सकते हैं, नहीं तो सिर्फ कॉर्निया ही दान किया जा सकता है क्योंकि हॉस्पिटल में ही शरीर को वेंटिलेटर पर रखने की सुविधा होती है।
- मेडिकल सुविधा के अभाव में भी अंगों का दान संभव नहीं हो पाता क्योंकि
-स्कूलों और कॉलेजों की पढ़ाई में भी इन बातों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि लोगों के मन में इससे जुड़ी हुई हर तरह की भ्रांति दूर हो।

सोच का भी फर्क
-ज्यादातर लोग सोचते हैं कि दिल की धड़कन बंद होने के बाद ही मौत होती है जबकि ब्रेन डेड की स्थिति में ऐसा नहीं होता। इसलिए लोग ब्रेन डेड होने के बाद भी अंगदान के लिए तैयार नहीं होते।
-अभी भी देश में अंगदान से जुड़े हुए कई मिथ मौजूद हैं। उन्हें लगता है कि आंखदान करने से अगले जनम में उस अंग के बिना पैदा होंगे।
-लोग सोचते हैं कि शरीर से अंग निकालने पर शरीर की बुरी गत हो जाती है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है।
- हॉस्पिटल में जब डॉक्टर इस बात को पूरी तरह से जांच-परख लेते हैं कि मरीज ब्रेन डेथ की स्थिति में है तब वह इस बात की जानकारी उसके घरवालों को देते हैं। अब यह घरवालों पर निर्भर करता है वह अंगदान करने की सहमति देते हैं कि नहीं। दरअसल, घरवालों के लिए बड़ी ही अजीब स्थिति होती है कि शख्स का दिल धड़क रहा है, सांसें चल रही हैं तो फिर उसे मृत कैसे मान लिया जाए। डॉक्टरों का कहना है कि ऐेसे में घरवालों को समझना चाहिए कि जिस इंसान का ब्रेन डेड हो चुका है वह सिर्फ लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर है। अगर वह सिस्टम हटा लिया जाए तो शख्स की धड़कनें रुक जाएंगी।

क्या है लीगल एंगल?
-अगर किसी शख्स ने ऑर्गन डोनेशन के लिए लिखित सहमति दे रखी है, लेकिन उसकी मौत के बाद उसके नजदीकी संबंधी (पत्नी, पिता, माता, भाई) में सभी या कोई एक भी डोनेशन से मना करता है तो अमूमन हॉस्पिटल अंगदान नहीं कराते। दरअसल, विवाद की स्थिति से हॉस्पिटल बचना चाहते है।
-अगर किसी ने ऑर्गन डोनेशन के बारे में फॉर्म नहीं भरा है तो भी अगर उसके परिवारवाले चाहें तो ऑर्गन डोनेशन हो सकता है।
-अंगदान में एक बात साफ है कि इसमें अंगों की खरीद-बिक्री बिलकुल भी नहीं होती।
-अंगदान के बदले किसी भी तरह का प्रलोभन नहीं दिया जा सकता (मसलन, हॉस्पिटल फीस में कमी आदि)।
-प्रलोभन आदि बातों को देखने के लिए अमूमन बड़े अस्पतालों में 'ट्रांसप्लांट ऑथराइजेशन कमिटी' होती है जो यह देखती है कि कोई शख्स या रिश्तेदार अंगदान कर सकता है या नहीं। इस कमिटी में डॉक्टर, वकील और सोशल ऐक्टिविस्ट शामिल होते हैं। अस्पताल में यह कमिटी नहीं है तो जिला या राज्य स्तर की ऑथराइजेशन कमिटी को संपर्क करना होता है।

एक्सपर्ट्स पैनल
-डॉ. एस. के. सरीन डायरेक्टर, द इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलयरी साइंस
-डॉ. प्रवीण वशिष्ट, एचओडी, सामुदायिक नेत्र विभाग, एम्स
-डॉ. राहुल भार्गव, डीएम, हेमेटॉलजी
-डॉ. वरूण वर्मा, सीनियर कंसल्टेंट, नेफ्रॉलजी
-डॉ. विवेक विज, एमएस, लिवर ट्रांसप्लांट
-डॉ. सौरव शर्मा, प्रोजेक्ट मैनेजर, ऑर्गन इंडिया

यहां अंगदान के लिए करें संपर्कः
www.organindia.org
www.notto.nic.in
www.dehdan.org
www.donatelifeindia.org
www.aiims.edu/aiims/orbo/form
www.mohanfoundation.org


मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

पेमेंट ऐप्स का करते हैं इस्तेमाल तो रहें सावधान, ऐसे हो रही है ठगी

$
0
0

अगर आप भीम, गूगल पे, फोनपे, पेटीएम आदि पेमंट ऐप का प्रयोग करते हैं तो सावधान हो जाइए। इन दिनों इस प्लैटफॉर्म पर खूब ठगी हो रही है। ठगी से बचने के बारे में एक्सपर्ट्स से जानकारी लेकर बता रहे हैं राजेश भारती।

एक्सपर्ट्स
-अशनीर ग्रोवर, सीईओ और को-फाउंडर, BharatPe
-प्रथमेश सोनसुरकर, साइबर क्राइम इन्वेस्टिगेशन एक्सपर्ट
-किरन जैन, डायरेक्टर प्रॉडक्ट्स, Ezetap
-अभिषेक अग्रवाल, टेक्नॉलजी एक्सपर्ट, The Judge Group

विनय ने एक वेबसाइट पर अपना पुराना मोबाइल बेचने के लिए लिस्ट किया। कुछ दिन बाद उनके पास एक कॉल आई। कॉल करने वाले शख्स ने उस मोबाइल को खरीदने की इच्छा जताई। सौदा 10 हजार रुपये में तय हो गया। मोबाइल खरीदने वाले शख्स ने कहा कि वह 5 हजार रुपये टोकन मनी के रूप में गूगल पे ऐप के जरिए भेज रहा है और बचे पैसे फोन लेते समय दे देगा। उस शख्स ने विनय के गूगल पे अकाउंट पर एक मेसेज भेजा जिसमें 5 हजार रुपये की बात थी। विनय ने उस मेसेज को गौर से नहीं देखा और Pay पर क्लिक कर दिया। विनय को उनके अकाउंट से 5 हजार रुपये कटने का मेसेज आया तो उनका सिर चकरा गया। उन्हें पता चला कि वह ठगी का शिकार हो गए हैं। जाहिर है, पेमंट ऐप पर ठगे जाने वाले विनय अकेले नहीं हैं।

कौन होता है शिकार
इस प्रकार की ठगी के शिकार वे लोग होते हैं जो पेमंट ऐप जैसे- गूगल पे, फोनपे, भीम ऐप आदि का प्रयोग करते हैं। डिजिटल लेन-देन के लिए अब इन ऐप का चलन काफी हो गया है। साथ ही, कुछ लोग शौक या फैशन के तौर पर भी इन ऐप्स का प्रयोग करने लगे हैं, जबकि उन्हें इन ऐप को सही तरीके से इस्तेमाल करना नहीं आता। और तो और, तमाम समझदार लोग भी हैं जो पेमंट ऐप पर आए मेसेज को ध्यान से नहीं पढ़ते और जल्दी से Pay वाली जगह पर टैप पर देते हैं।

कितने का चूना
हर पेमंट ऐप बैंक अकाउंट से जुड़ा होता है। पेटीएम, ओला, ऐमजॉन जैसी कुछ कंपनियों के डिजिटल वॉलेट सीधे भी काम करते हैं। साथ ही, हर ऐप के लिए केवाईसी कराना जरूरी होता है। इसके बाद कोई भी पेमंट ऐप यूजर एक दिन में 1 लाख रुपये तक का लेन-देन कर सकता है। ऐसे में हो सकता है कि जालसाज आपके पेमंट ऐप से एक दिन में ही 1 लाख रुपये उड़ा ले।

पेमंट ऐप की सुरक्षा
हर पेमंट ऐप की दो तरह से सुरक्षा की जाती है। पहला MPIN और दूसरी UPI PIN। MPIN चार या छह अंकों का होता है। इस पिन के बिना पेमंट ऐप को नहीं खोला जा सकता। कुछ ऐप में यह पिन जरूरी तो कुछ में वैकल्पिक होता है। वहीं किसी से पैसा मंगाना है तो ऐप को खोलने के लिए MPIN का प्रयोग करना होगा। UPI PIN भी चार या छह अंकों का होता है। UPI PIN के बिना न तो किसी को पैसा भेजा जा सकता है और न ही अकाउंट का बैलेंस चेक किया जा सकता है। हालांकि पैसा लेने के लिए किसी भी प्रकार के पिन की जरूरत नहीं पड़ती। पैसे देने यानी पे करने के लिए इसकी जरूरत होती है।

ऐसे करते हैं ठगी

1. शिकार ढूंढना
जालसाज ओएलएक्स जैसी वेबसाइट पर अपना शिकार ढूंढते हैं। ये जालसाज उस शख्स को फोन करते हैं और कुछ महंगे सामान जैसे मोबाइल, लैपटॉप, वीइकल, फर्नीचर आदि खरीदने का नाटक रचते हैं।

2. दाम तय करना
बात करते हुए जालसाज सामान बेच रहे शख्स से मोलभाव कर एक दाम तय करता है। जालसाज 50% रकम शुरू में देने की बात कहता है और बाकी की रकम सामान खरीदने पर। ऐसे में सामान बेचने वाला शख्स भी लालच में आ जाता है।

3. नंबर मांगना
सामान की कीमत तय होने पर जालसाज पेमंट ऐप के जरिए ही भेजने की बात कहता है। फिर पेमंट ऐप का नाम और उससे जुड़ा मोबाइल नंबर मांगता है। सामान बेचने वाला शख्स जालसाजों को पेमंट ऐप से जुड़ा मोबाइल नंबर दे देता है।

4. Request Money
चूंकि डील पक्की हो चुकी होती है इसलिए ये जालसाज फोन पर बात करने के दौरान टोकन मनी की रकम अपने पेमंट ऐप से पैसे भेजने की जगह पैसे लेने यानी Request Money का ऑप्शन भेज देते हैं और सामने वाले शख्स से कहते हैं कि रकम भेज दी है, प्लीज आप उसे ओके कर दीजिए और UPI PIN डालकर बैलेंस चेक कर लीजिए।

5. UPI PIN
बातचीत के दौरान सामान बेचने वाला व्यक्ति मेसेज को ध्यान से पढ़ नहीं पाता। वह बस रकम देखता है और Pay को ओके समझकर उस पर टैप पर देता है। साथ ही बैलेंस चेक करने के लिए UPI PIN डाल देता है। ऐसा करते ही उसके पेमंट ऐप से पैसे कट जाते हैं और जालसाज के अकाउंट में आ जाते हैं।

6. फोन बंद करना
फोन डिस्कनेक्ट होने के बाद उस शख्स को पता चलता है कि उसके पेमंट ऐप से जालसाज ने पैसे अपने अकाउंट में ट्रांसफर करा लिए हैं। जब जालसाज को फिर से फोन किया जाता है तो वह फोन नहीं उठाता या उसका मोबाइल नंबर बंद आता है।

इन बातों का रखें ध्यान

पैसे मांगने पर

यह पेमंट ऐप में Request के नाम से होता है। इसका अर्थ है कि जिस शख्स ने यह मेसेज भेजा है, वह आपसे पैसे मांगना चाहता है। अगर आपने Pay पर क्लिक करके UPI PIN डाल दिया तो आपके अकाउंट से पैसे उसके अकाउंट में चले जाएंगे।
सतर्क रहना है जरूरी

पैसे भेजने पर


अगर आप किसी शख्स को पेमंट ऐप के जरिए पैसे भेज रहे हैं, तो इसके लिए MPIN और UPI PIN की जरूरत होती है। बिना UPI PIN के किसी को भी पैसा नहीं भेजा जा सकता।

ऐसे समझें: यह ठीक उसी तरह है जैसे आप अपने बैंक में जाकर पैसे निकालते हैं। इसके लिए पैसे निकालने वाली स्लिप या चेक पर आपका साइन होना जरूरी है। UPI PIN ही एक तरह से आपका साइन है।

सतर्क रहें
पेमंट ऐप का प्रयोग करते समय सतर्क रहना बहुत जरूरी है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार, अगर पेमंट ऐप यूजर UPI PIN डाल देता है और उसके बाद उसके अकाउंट से रकम कट जाती है तो ऐसे में बैंक जिम्मेदार नहीं होता। ऐसे में पेमंट ऐप के यूजर को ही सतर्क रहना होगा।

अकाउंट में कम रखें रकम

अधिकतर पेमंट ऐप यूजर के बैंक अकाउंट से जुड़े होते हैं या वे उस ऐप के वॉलेट में पैसे रखते हैं। अगर किसी का एक ही बैंक अकाउंट है और उसमें बड़ी रकम है तो ऐसे में ठगी होने पर बड़ी रकम अकाउंट से निकाली जा सकती है। ऐसे में बेहतर होगा कि एक नया बैंक अकाउंट खुलवाएं और उसमें 10-15 हजार से ज्यादा रकम न रखें। इसी अकाउंट को पेमंट ऐप से कनेक्ट रखें। अगर किसी कारणवश पेमंट ऐप से ठगी होती है तो बड़ी रकम का नुकसान नहीं होगा।

बैंक का ऐप करें प्रयोग

ज्यादातर पेमंट ऐप थर्ड पार्टी होते हैं यानी ये बैंक के ऑफिशल ऐप नहीं होते। आज के समय में काफी बैंकों जैसे SBI, HDFC आदि के भी पेमंट ऐप हैं। बेहतर होगा कि बैंकों के ऐप का ही प्रयोग करें ताकि किसी भी प्रकार का गलत लेन-देन होने पर बैंक से सीधे शिकायत की जा सके।

इसलिए पकड़ में नहीं आते जालसाज
दरअसल जालसाज फर्जी डॉक्यूमेंट्स के जरिए निजी या छोटे बैंकों में अकाउंट खुलवा लेते हैं। साथ ही फर्जी डॉक्यूमेंट्स से सिम भी खरीद लेते हैं। फिर वे अपने मोबाइल नंबर और बैंक अकाउंट से पेमंट ऐप पर रजिस्टर करा लेते हैं और केवाईसी भी पूरी करा लेते हैं। इसके बाद ये जालसाज लोगों की रकम अपने बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करा लेते हैं। इस रकम को वे या तो एटीएम कार्ड के जरिए निकाल लेते हैं या शॉपिंग कर लेते हैं। चूंकि इनके डॉक्यूमेंट्स फर्जी होते हैं जिनके आधार पर बैंक अकाउंट से लेकर मोबाइल नंबर तक लिया होता है, इसलिए इन्हें पकड़ पाना मुश्किल होता है।

कस्टमर केयर बनकर चुरा रहे पैसे
हाल में जोमैटो के एक यूजर ने ऑर्डर कैंसिल करने और उसका रिफंड लेने के लिए लेकर कस्टमर केयर से बात करनी चाही। यूजर ने गूगल के जरिए जोमैटो का कस्टमर केयर नंबर लिया और फोन लगाया। वहां से कस्टमर से कहा गया कि वह Anydesk ऐप डाउनलोड करे। वहां बताई गईं डिटेल्स भरने के बाद एक कोड आएगा वह बता दे। पैसे उनके अकाउंट में आ जाएंगे। कुछ देर बाद उस यूजर के अकाउंट से पैसे निकल गए।

दरअसल, Anydesk ऐप के इस्तेमाल को लेकर रिजर्व बैंक ने भी चेतावनी जारी की है और इस ऐप को डाउनलोड नहीं करने को कहा है। इस ऐप के जरिए जलसाज कहीं भी बैठकर यूजर के फोन को ऐक्सेस कर उसका पूरा कंट्रोल अपने ले लेते है और UPI के जरिए पैसे की चोरी कर लेते हैं। ऐसा ही एक दूसरा ऐप है टीम व्यूअर। यह भी Anydesk के जैसे ही काम करता है।

ऐसे करते हैं धोखाधड़ी

- जालसाज खुद बैंक एग्जिक्यूटिव बनकर फोन करते हैं। कई बार ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिनमें गूगल पर मौजूद गलत कस्टमर केयर नंबर पर यूजर खुद ही फोन कर देते हैं।

- इन दोनों ही मामलों में फर्जी बैंक अधिकारी बने जालसाज यूजर को Anydesk या टीम व्यूअर ऐप डाउनलोड करने के लिए कहते हैं।

- ऐप के डाउनलोड होने के बाद इन साइबर क्रिमिनल्स को 9 अंकों वाले रिमोट डेस्क कोड की जरूरत पड़ती है। ये जालसाज यूजर से 9 अंकों का कोड मांग लेते हैं। यह कोड मिलते ही वे यूजर के मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन को आसानी से देख और कंट्रोल कर सकते हैं।

- जैसे ही यूजर अपने बैंक अकाउंट का यूजरनेम और पासवर्ड डालता है, ये जालसाज उसे नोट कर लेते हैं। इसके बाद अकाउंट से पैसे उड़ा देते हैं।

समझदारी से करें काम

स्क्रीन शेयर करने वाले किसी भी ऐप को डाउनलोड करने से पहले उसके काम करने के तरीके को ढंग से समझ लेना बेहतर रहता है। बिना जानकारी ये ऐप यूजर को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसके साथ ही इस बात का जरूर ध्यान रखें कि कोई भी बैंक अपने ग्राहकों को थर्ड पार्टी ऐप डाउनलोड करने के लिए नहीं कहता है।

ऐंड्रॉयड डिवाइस पर ज्यादा खतरा
आईफोन की तुलना में ऐंड्रॉयड डिवाइसेज पर इस प्रकार से पैसे उड़ाने का ज्यादा खतरा होता है। दरअसल, ऐंड्रॉयड पर Anydesk स्कैमर्स आसानी से स्क्रीन को मॉनिटर और रिकॉर्ड कर सकते हैं। वहीं दूसरी आईफोन Anydesk ऐप को स्क्रीन कास्ट नहीं करने देता।

मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।

Viewing all 485 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>