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जब घर में हो मन का मरीज... कैसे पहचानें, कब किस डॉक्टर के पास जाएं, जानें सबकुछ

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मानसिक बीमारियों से जुड़ी बातों की चर्चा करने से भी ज्यादातर लोग भागते हैं। डॉक्टर के पास जाकर इलाज करवाने की बात तो बहुत बाद में आती है। वहीं एक सच यह भी है कि दुनिया में ऐसा शायद ही कोइ शख्स होगा जिसको मानसिक बीमारियां नहीं हुई हों। भले ही वह सामान्य मानसिक बीमारियां, जैसे: स्ट्रेस, एंग्जायटी या डिप्रेशन ही क्यों न हो। यहां समझने वाली बात यह है कि 'मैं डिप्रेशन में हूं' यह लाइन आजकल खूब सुनी और सुनाई जा रही है। यह आम बात है तो ऐसे में सवाल उठता है कि फिर लोग मानसिक बीमारियों के इलाज से क्यों भागते हैं। दरअसल, दूसरी कैटिगरी होती है अति गंभीर मानसिक बीमारियों की, जिसमें मेनिया, सिजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिसऑर्डर आदि आते हैं। इन बीमारियों की चर्चा करने से लोग कतराते हैं। इनसे कनेक्शन नहीं जोड़ना चाहते। अगर परिवार में किसी को ऐसी बीमारी हो तो उसे छुपाना चाहते हैं। यह सीधे तौर पर गलत है। इलाज सभी का सही तरीके से होना चाहिए।

अगर चीजें न छुपाएं तो हालात बिगड़ने से पहले इलाज संभव
मान लें, किसी शख्स को डायबीटीज के बारे में पता चला। उसे दवा दी जाने लगी। किसी ने उसे दवा खाते हुए देख लिया तो उस शख्स का रिऐक्शन सामान्य था। हां, मुझे डायबीटीज है, दवा भी ले रहा हूं और लाइफस्टाइल में भी बदलाव किया है। जब शुगर दवा से काबू नहीं हो पाई तो इंसुलिन की हेवी डोज देनी पड़ी। तब भी उसने यही बताया कि शुगर लेवल बढ़ गया था, इसलिए इंसुलिन ले रहा हूं। आगे डोज कम हो जाएगी। लाइफस्टाइल को दुरुस्त करने वाले काम भी कर रहा हूं। इसका मतलब यह कि जब डायबीटीज होने या उसके बेकाबू होने पर उसे छुपाने की जरूरत महसूस नहीं होती तो डिप्रेशन या फिर उसके बाद अगर बाइपोलर डिसऑर्डर (जिसमें डिप्रेशन के साथ, मेनिया यानी बहुत तेज आवाज में अजीब बातें करने की परेशानी हो) हो जाए तो उसे क्यों छुपाने की कोशिश होती है? इस बारे में जागरूक होने की जरूरत है। सामान्य या गंभीर मानसिक बीमारियों में भी अगर चीजें न छुपाई जाएं तो हालत बिगड़ने से पहले ही इलाज हो सकता है। इसमें मरीजों के साथ परिवार के सदस्यों की भूमिका भी अहम होती है।

मरीज से बातचीत करने का सही सलीका
  • जब कोई शख्स मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो तो जितना जरूरी उसका इलाज है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी उसके साथ रहने वाले लोगों का उस शख्स के प्रति सही बर्ताव किया जाना है। अगर परिवार के सदस्यों का बर्ताव ठीक नहीं होगा, जिम्मेदारी का भाव नहीं आएगा, तब तक मानसिक बीमारी के मरीज के साथ रहना एक चुनौती बनी रहेगी।
  • चाहे कोई डिप्रेशन का मरीज हो, मेनिया, बाइपोलर डिसऑर्डर का या फिर सिजोफ्रेनिया का, मानसिक मरीजों के साथ परिवार के सदस्यों की भूमिका कैसी होनी चाहिए इसके बारे में परिवार के सभी सदस्यों को पूरी जानकारी होनी चाहिए। इसमें परिवार में मौजूद बच्चे भी शामिल होते हैं। दरअसल, जब मानसिक बीमारी में मरीज के कुछ लक्षण परिवार के सदस्यों को समझ में आने लगते हैं और अंदाजा लग जाता है कि अब शायद मरीज की हालत ज्यादा खराब हो सकती है। जैसे- तेज आवाज में बोलने लगना, सामान उठाकर फेंकना, कमरे या बाथरूम में बंद हो जाना आदि। ऐसे में परिवार के सदस्य पहले से ही तैयार हो जाते हैं और दवा दे देते हैं या फिर डॉक्टर की सलाह ले लेते हैं। कई बार बच्चे भी यह बता देते हैं कि दादा या दादी कमरे में बंद हो गई हैं या वह गुस्सा कर रही हैं। वहीं बच्चे को भी यह समझा देना चाहिए कि उनके घर में एक पेशंट है जो ऐसा बर्ताव करते हैं। सीधे कहें तो पूरे परिवार के सदस्यों के साथ सामंजस्य बिठाकर ऐसे मरीज के साथ आसानी से रहा जा सकता है।
  • जब परिवार में कोई ऐसा मरीज होता है तो दूसरे सदस्य भी परेशान रहने लगते हैं। इससे उनकी भी मानसिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता है। ऐेसा तब होता है जब वे मरीज को एक चुनौती मानते हैं और मरीज के साथ किस तरह पेश आना है, क्या करना, क्या नहीं करना। सही तरीके से नहीं समझते।
  • यह चुनौती तब बनती है जब हम इसे सबसे छुपाने की कोशिश करते हैं। अगर कोई मरीज के बारे में पूछे तो हमें ऐसे पेश करना चाहिए जैसे- हां, पापा को डायबीटीज है और मां सिजोफ्रेनिया। हकीकत भी यही है कि मानसिक बीमारियां भी शारीरिक बीमारियों की तरह ही होती हैं।
  • अगर कोई खुदकुशी करने की कोशिश करे तो अमूमन यह माना जाता है कि 10 से 15 मिनट का वक्त (सूइसाइडल विंडो) गुजर जाए तो खुदकुशी की सोच या मूड बदल जा जाता है।

मरीज को यह कहें
  • तुम खुद को अकेला क्यों समझते हो। हम सब तुम्हारे साथ हैं।
  • शायद मैं तुम्हारी बातों को सही तरीके से नहीं समझ पा रही हूं, लेकिन मैं तुम्हारे लिए फिक्रमंद हूं और तुम्हारी मदद करना चाहती हूं।
  • तुम मुझे सुनाओ, मैं तुम्हारी हर बात को ध्यान से सुन रहा हूं।

मरीज को यह न कहें
  • क्यों नाटक कर रहे हो? तुम जितना परेशान दिखा रहे हो, उतने हो नहीं।
  • इस तरह की परेशानियों से हम सभी गुजरते हैं।
  • परेशान होना बंद करो। इससे बाहर निकलो और बेहतर भविष्य की ओर देखो।
  • मैं जो बोल रहा हूं, उसे ध्यान से सुनो।

कभी भी ये न करें
  • परिवार के सदस्य मरीज से कभी भी बहस, तर्क-वितर्क न करें। साथ ही उसे चुनौती देने से बचना चाहिए।
  • मानसिक बीमारी की स्थिति में परिवार वालों को यह कहकर नहीं चिल्लाना चाहिए कि देखो अपनी हालत क्या बना ली है। इससे मरीज चिढ़ जाते हैं।


मानसिक बीमारियों की 2 कैटिगरी
1. न्यूरोटिक डिसऑर्डर यानी सामान्य बीमारियां

स्ट्रेस यानी तनाव
जीवन में कोई भी बदलाव स्ट्रेस की वजह हो सकता है। यह बदलाव जॉब में, फैमिली में, सोसायटी में, सेहत में, सोच में, किसी दूसरे से तुलना में, ऐसी किसी भी चीज में हो सकता है। खासकर तब, जब हम इन्हें स्वीकार नहीं कर पाते।

A. तात्कालिक तनाव
इस तरह के तनाव में एग्जाम की टेंशन, कहीं जाने की टेंशन आदि हो सकती है। वैसे तो यह तनाव कुछ घंटों या कुछ दिनों में चला जाता है। लेकिन कभी-कभी ज्यादा वक्त तक भी हो सकता है। इसे कुछ आसान उपायों से दूर कर सकते हैं।

क्या डॉक्टर के पास जाने की जरूरत है?
इसमें डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है। ऐसे लोगों को मरीज कहना भी सही नहीं है। ऐसा सभी के साथ हो सकता है। वे खुद अपने बारे में फैसला लेते हैं। हां, इन समस्याओं को लगातार टालने से स्थायी तनाव हो सकता है। ऐसे में घर पर रहकर कुछ उपाय करने से ये परेशानियां भी काफी हद तक दूर हो जाती हैं।


B. स्थायी तनाव
ये ऐसे तनाव हैं जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ते। खुद कितनी भी कोशिश कर लें, रुटीन या सामान्य ज़िंदगी सामान्य नहीं रहने देते।
लक्षण: बार-बार पसीना आना, धड़कनों में बदलाव, उदास रहना, किसी से मिलने का मन न करना आदि।

कब और कैसे जाएं डॉक्टर के पास?
इसमें मरीज खुद डॉक्टर के पास जाने में सक्षम होता है, लेकिन नकारात्मक सोच की वजह से वह इसे टालता रहता है। इस स्थिति में वह पूरी तरह मना भी नहीं करता और खुद जाता भी नहीं। ऐसे में परिवार के सदस्य खुद ही डॉक्टर के पास जाने के लिए अपॉइंटमेंट लें। वे मरीज के लक्षणों को देखते हुए अपने जनरल फिजिशन या क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट के पास ले जाएं। फिजिशन भी धड़कनों को काबू करने यानी घबराहट आदि दूर करने के लिए दवा दे सकते हैं।

C. डिप्रेशन में कोई पहुंच जाए तब
तनाव, घबराहट, मूड ऑफ होना या फिर उदासी, ये सभी लक्षण ज़िंदगी में एक बार नहीं आते। ये हर दिन आते-जाते रहते हैं। एक दिन में कई बार भी आ सकते हैं। इनके आने और जाने की प्रक्रिया चलती रहती है।
  • इन वजहों से हमारे काम, हमारा रुटीन, हमारी बॉडी लैंग्वेज, शरीर में ऊर्जा का स्तर अमूमन ज्यादा प्रभावित नहीं होता।
  • जब ऐसे इमोशंस आकर ठहर जाएं और किसी के मन में अपना घर बनाने लगें तो दिक्कत है।
  • यह स्थिति 15 दिनों से ज्यादा वक्त तक बनी रहे और इसकी वजह से हमारे सामान्य काम भी प्रभावित होने लगें या उदासी का स्तर उस जगह तक पहुंचने लगे कि मन के भीतर से ऐसी आवाज आए कि अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता।
  • किसी से बात करने का मन बिलकुल न हो।
  • उन सभी चीजों से मन पूरी तरह हट जाए जिनमें पहले काफी दिलचस्पी थी। रातों की नींद उड़ जाए तो समझिए मामला गड़बड़ है। हर तरह के डिप्रेशन का पूरी तरह इलाज मुमकिन है।

ऐसे करें इलाज के लिए तैयार
डिप्रेशन की गंभीर स्थिति में मरीज को पता होता है कि वह बीमार है, लेकिन वह इससे निकलना नहीं चाहता। उसे यह अहसास होता है कि जो स्थिति बनी है, उसके लिए वही जिम्मेदार है। वह सोचता है कि मैं अपनी ज़िंदगी में जो चाहे करूं। इसमें किसी दूसरे की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। इसलिए उसकी मर्जी है कि वह इलाज कराए या न कराए। इसलिए परिवारवाले इस बात को समझें कि मरीज का ऐसा सोचना या बर्ताव करना डिप्रेशन का ही एक लक्षण है।
  • कोशिश करें कि मरीज अकेला न रहे।
  • कई बार इलाज के बजाय इस स्थिति को टालने की कोशिश की जाती है। यह बिलकुल गलत है।
  • जब मरीज डॉक्टर के पास जाने के लिए तैयार न हो तो परिवार का सदस्य यह कह सकता है कि उसे भी डॉक्टर के पास जाना है तो क्यों न साथ में ही जाकर डॉक्टर से मिल लें।
  • रहन-सहन को लेकर ताना न मारें। दूसरों से तुलना तो बिलकुल भी न की जाए।
  • डॉक्टर से सलाह लेने की बात की जाए, न कि यह कि तुम डिप्रेशन में हो इसलिए इलाज कराना जरूरी है।

डिप्रेशन में कोई करे खुदकुशी की कोशिश
अगर कोई शख्स किसी बड़े हादसे से गुजरा हो या फिर किसी करीबी को खोया हो और दो हफ्तों से उसका रुटीन पूरी तरह प्रभावित हो तो ऐसे शख्स की स्थिति को गंभीरता से लेना चाहिए। ज्यादातर लोग तो ऐसी विषम परिस्थिति से खुद को निकाल लेते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं और आत्मघाती कदम उठाने की कोशिश करते हैं। घर में जब भी ऐसी स्थिति बने तो...
  • उस शख्स से कभी भी कोई नेगेटिव बात नहीं करनी चाहिए।
  • उससे कभी भी बहस नहीं करनी चाहिए।
  • वह किसी शख्स से नाराज है तो उस शख्स को उस समय वहां से जरूर ही दूर कर देना चाहिए।
  • कोई खतरनाक चीज, जैसे चाकू आदि भी पास में नहीं रखना चाहिए।
  • ऐसी चीजें जो आसानी से उठाकर फेंकी जा सके, वहां से हटा देनी चाहिए।
  • जब स्थिति थोड़ी सामान्य हो तो उसे किसी क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट या फिर सायकायट्रिस्ट के पास ले जाना चाहिए।

2. साइकोटिक डिसऑर्डर यानी गंभीर बीमारियां
इसमें मरीजों का नाता असलियत से टूट जाता है। वे अपनी कल्पना की दुनिया में रहते हैं। ऐसे मरीज को यह पता नहीं होता कि वह बीमार है। हां, उनके साथ रहनेवालों या फिर बात करनेवालों को यह जरूर पता चल जाता है कि वह बीमार है। इस तरह की परेशानियों में मेनिया, सिजोफ्रेनिया, डिलूशनल डिसऑर्डर, बाइपोलर डिसऑर्डर में मेनिया वाली स्थिति आदि होती है। ऐसे में आमतौर पर सामान्य थेरपी से इलाज नहीं किया जाता।

A, मेनिया
मरीज उन्मादी हो। असलियत से नाता टूट गया हो। बिना वजह बहुत तेज आवाज में बातें करे। हाथ-पैर में कंपन हो। छोटी-सी बात पर बेतहाशा खुशी होना आदि। यह दौर दिन में हर समय हो, ऐसा नहीं होता।

B. बाइपोलर डिसऑर्डर
इस बीमारी में मरीज में डिप्रेशन और मेनिया, दोनों के लक्षण मौजूद होते हैं। ज्यादातर मरीजों में इसकी शुरुआत डिप्रेशन से होती है। फिर कुछ समय बाद मेनिया के लक्षण भी आ जाते हैं।

A, B स्थितियों में इलाज के लिए ऐसे करें तैयार
  • जब स्थिति सामान्य हो, मरीज का मूड नॉर्मल हो तो उससे लक्षणों के बारे में बातें करें और उसी के इलाज की बात करें। यह कहें कि तुम बीमार हो और तुम्हें इलाज के लिए जाना पड़ेगा।
  • बहस वाली स्थिति बिलकुल न बनने दें। यह मुमकिन है कि मरीज कई बार ऐसी बात कहे कि हंसी आ जाए। लेकिन मरीज की हालत पर हंसना सही नहीं होगा।
  • ऐसे मरीज को यह नहीं कहना चाहिए कि तुम मेनिया के मरीज हो, शांत रहा करो। शांत नहीं रहना ही इस बीमारी का लक्षण है।
  • उनसे कहना चाहिए कि आपके हाथ-पैर में कंपन होता है क्यों न इसका इलाज कराएं।
  • उनसे कहा जा सकता है कि शायद दूसरी परेशानियां भी इस कंपन की वजह से हों। इलाज से बाकी चीजें भी ठीक हो जाएंगी।

C और D में इलाज के लिए मरीज को ऐसे करें तैयार
  • चूंकि दोनों परस्थितियों में शक करना एक बड़ा लक्षण होता है। ऐसे में मरीज को उनकी मर्जी से डॉक्टर के पास तक ले जाना चुनौती होता है।
  • ऐसे में मरीज से ज्यादा बहस नहीं करनी चाहिए जिससे उसे ज्यादा शक हो।
  • वह सदस्य बात करे जिस पर मरीज थोड़ा भी भरोसा करता हो।
  • किसी सायकायट्रिस्ट को होम विजिट करवा सकते हैं।
  • वहीं कोविड के बाद से ऑनलाइन कंसल्टेशन का विकल्प भी उभरकर सामने आया है। इसमें डॉक्टर पूरा इलाज और सभी दवाएं नहीं दे सकते, लेकिन कई दवाएं दी जा सकती हैं।
  • हालत सामान्य हो जाए तो मरीज की मर्जी से सायकायट्रिस्ट के पास ले जाकर अच्छी तरह जांच करवानी चाहिए और पूरी दवा लेनी चाहिए। दवा शुरू होने के बाद मिस न हो।

C, सिजोफ्रेनिया
यह भी कई तरह का होता है। पर सभी के केंद्र में शक करना एक बड़ा लक्षण है। शक इस कदर करना कि ऐसा लगता है कि वह मुझे मार डालेगा या मार डालेगी। अजीब-अजीब आवाजें सुनाई देना, जो असल में होता नहीं।

D. डिलूशनल डिसऑर्डर
इसमें शक इतना पुख्ता होता है कि ज़िंदगी उस शक के ही चारों तरफ घूमती है। सोते-जागते, उठते-बैठते सिर्फ शक ही करना। सिजोफ्रेनिया से फर्क यह है कि इसमें अजीब आवाजें नहीं सुनाई देतीं।

जब A,B,C,D में बने इमरजेंसी की हालत
इमरजेंसी की स्थिति यानी जब मरीज खुद की जान लेने पर तुला हो या फिर किसी दूसरे पर हमला करने की कोशिश करे या कर चुका हो। मरीज प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाने जैसे, आग लगाने की कोशिश करता हो।
  • इन सभी परिस्थितियों में कभी मरीज को चुनौती न दें।
  • अगर मरीज को शक की बीमारी है और जिस पर शक हो, वह भी करीब हो तो उस शख्स को सामने से जरूर हट जाना चाहिए। कुछ मामलों में वह हमला भी कर सकता है। मरीज को लगता है कि वह अपनी जान बचा रहा है।
  • मरीज के करीब अगर चाकू, ब्लेड, माचिस जैसी चीजें हो, जिन्हें वह हथियार बना सकता है तो वहां से दूर कर देनी चाहिए।
  • जब कोई शख्स खुदकुशी करने की कोशिश में हो तो उसे बातों में उलझाएं। 10 से 15 मिनट निकाल देने से कई बार हादसा टल जाता है।
  • ऐसे शख्स को कभी भी आंखों से ओझल न होने दें।
  • मरीज को यह अहसास होना चाहिए कि जो उससे बात कर रहा है, वह उसकी पीड़ा को समझता है।
  • इसी बीच पुलिस की मदद लेनी चाहिए और साथ ही, अस्पताल से ऐंबुलेंस भी बुला लेनी चाहिए

कानून के मुताबिक होना चाहिए इलाज
सामान्य परिस्थितियों में मरीज की मर्जी के बिना दवा नहीं दी जा सकती, लेकिन मरीज अगर खुद अपनी या किसी दूसरे की जान के लिए खतरा हो जाए, प्रॉपर्टी आदि को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हो तो 2017 के मेंटल ऐक्ट के अनुसार कुछ खास प्रावधानों में मरीज को इमरजेंसी में परिवार के सदस्यों की मर्जी से भर्ती कर सकते हैं। पर यह भी जरूरी है कि मरीज ने परिवार को पहले इसका अधिकार दिया हो। ऐसा नहीं है और मरीज की स्थिति बहुत खराब है, वह बहुत हिंसक है तो पुलिस या कोर्ट की मदद से भर्ती किया जा सकता है।

कब-किस डॉक्टर के पास ले जाएं
किसी भी मानसिक समस्या में अगर डॉक्टरी जांच की बात आती है तो सबसे पहले फैमिली डॉक्टर या फिर जनरल फिजिशन के पास जाना सही रहता है। इसके बाद बीमारी की गंभीरता और जरूरत के मुताबिक साइकॉलजिस्ट, क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट या फिर सायकायट्रिस्ट का चुनाव करना चाहिए:

जनरल फिजिशन के पास
अगर किसी के घर में सामान्य बीमारी जैसे- डिप्रेशन, एंग्जायटी, स्ट्रेस डिसऑर्डर, फोबिया आदि के मरीज हों तो उसे सबसे पहले किसी जनरल फिजिशन के पास जाना चाहिए। सामान्य मानसिक परेशानियों के ज्यादातर मामलों में धड़कनों को सामान्य करने वाली दवा दी जाती है। इससे जब रुटीन दुरुस्त कर दिया जाता है तो चीजें काफी बेहतर हो जाती हैं। अगर मानसिक परेशानी है, चाहे छोटी या फिर बड़ी तो उसे खत्म जरूर कराना चाहिए। जरूरी नहीं कि हम सीधे साइकॉलजिस्ट या सायकायट्रिस्ट के पास ही जाएं। पहले जनरल फिजिशन के पास जाएं।

साइकॉलजिस्ट के पास
दो तरह के होते हैं साइकॉलजिस्ट
1. बिना एमफिल डिग्री के साइकॉलजिस्ट
ऐसे साइकॉलजिस्ट जिन्होंने साइकॉलजी में ग्रैजुएशन, मास्टर्स या पीएचडी की डिग्री ली हो। हालांकि पीएचडी डिग्री वाले साइकॉलजिस्ट भी नाम के आगे डॉक्टर लिखते हैं। अगर इन्होंने साइकॉलजी में एमफिल नहीं किया है तो वे मनोवैज्ञानिक उलझन का हल यानी सामान्य काउंसलिंग ही कर सकते हैं।

कई तरह के सामान्य साइकॉलजिस्ट
स्पोर्ट्स साइकॉलजिस्ट, स्कूल साइकॉलजिस्ट, ऑर्गेनाइजेशनल साइकॉलजिस्ट आदि।
2. 'एमफिल इन साइकॉलजी' डिग्री वाले
अगर किसी शख्स ने बीए, एमए, पीएचडी किया हुआ है और साथ में एमफिल इन साइकॉलजी है तो सोने पर सुहागा, लेकिन अगर उसने पीएचडी नहीं भी की है, पर एमफिल साइकॉलजी किया है तो भी वह मरीज की काउंसलिंग करने का अधिकार रखता है। लेकिन दवा नहीं लिख सकता। अगर वह RCI (Rehabilitation Council of India) में रजिस्टर्ड है तो काउंसलिंग कर सकता है।

सायकायट्रिस्ट के पास
ये एमडी डॉक्टर होते हैं। अगर मरीज की स्थिति गंभीर है या फिर उसे दवा की जरूरत है या वह काउंसलिंग की स्थिति में नहीं है। यानी अगर मरीज को यह समझ नहीं आ रहा कि वह बीमार है तो पहले सायकायट्रिस्ट दवा देकर उसे इस लायक बनाते हैं कि मरीज को काउंसलिंग से फायदा हो।


जब अजब-गजब अचानक होने लगे
मान लें कि कोई शख्स रात को 2 बजे उठकर नहा रहा है। ऐसा कभी एक-दो बार न हो, हर दिन होने लगे। इसकी कई वजहें हो सकती हैं:
  • डिमेंशिया की वजह से दिन और रात में फर्क करना कई बार मरीज के लिए मुश्किल हो जाता है।
  • ओसीडी की परेशानी की वजह से भी हो सकती है।
  • ब्रेन का इन्फेक्शन भी हो सकता है।
उपाय
  • पहले तो प्यार से समझाएं कि इस समय जागना और फिर नहाना सही नहीं है।
  • अगर यह डर है कि सभी के सोने के बाद वह फिर से नहाने के लिए जा सकते हैं या सकती हैं तो बाथरूम को लॉक कर दें ताकि वे बाथरूम में ही न जा सकें।

एक्सपर्ट पैनल
  • डॉ. निमेष जी. देसाई वरिष्ठ मनोचिकित्सक, पूर्व निदेशक, IHBAS
  • डॉ. राजेश सागर, प्रफेसर ऑफ सायकायट्री, AIIMS
  • डॉ. सुनील मित्तल, वरिष्ठ मनोचिकित्सक वाइस प्रेसिडेंट, WFMH
  • डॉ. समीर पारिख, सीनियर सायकायट्रिस्ट
  • डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी सदस्य, सूइसाइड प्रिवेंशन टास्क फोर्स
  • पूजा प्रियंवदा, मेंटल हेल्थ फर्स्ट एड प्रोवाइडर
  • डॉ. दीपक रहेजा, वरिष्ठ मनोचिकित्सक, डायरेक्टर, होपकेयर इंडिया

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