कुछ लोग इतनी चिंता करते हैं कि उन्हें घबराहट (एंग्जाइटी) होने लगती है। कई लोगों के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। कुछ लोग तरह-तरह के डर का शिकार होते हैं। वहीं, कुछ लोगों को शंका बहुत होती है। लॉक लगाने के बाद भी यह भरोसा नहीं होता कि वाकई ताला बंद हो गया है। बार-बार उसे खींचकर चेक करते हैं। किसी को बार-बार हाथ धोने की जरूरत महसूस होती है। क्या ऐसे में इलाज की जरूरी होता है? सबको काउंसलिंग और थेरपी सेशन लेने चाहिए? देश के बेहतरीन एक्सपर्ट्स से बात करके इस बारे में जानकारी दे रहे हैं लोकेश के. भारती
चिंता होना आम बात है। हर शख्स किसी न किसी चीज को लेकर चिंतित होता है। अगर चिंता वाजिब वजह से हो और चंद क्षणों तक डिस्टर्ब करे, फिर धीरे-धीरे खत्म हो जाए तो इसे सामान्य ही कहेंगे। लेकिन जब यही चिंता घबराहट के रूप में हो, छोटी वजहों से या फिर बिना किसी कारण के इस कदर परेशान करे कि नींद ही उड़ जाए। काम में उसका मन न लगे तो फिर इलाज की जरूरत पड़ सकती है। यह इलाज किस तरह करना है, सिर्फ काउंसलिंग, थेरपी या फिर दवा के साथ, यह जांच के बाद ही पता चलता है।
केस 1:
रुटीन पर जब हावी हो गई घबराहट
श्याम और सुरेश एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर हैं। हर महीने दोनों को सेलिंग का टारगेट दिया जाता है। उस टारगेट तक पहुंचना दोनों के लिए जरूरी है। टारगेट पूरा न होने पर बॉस से डांट भी पड़ती है और अगले महीने के लिए प्रेशर बढ़ जाता है। लेकिन इसका असर इन दोनों पर अलग-अलग तरह का होता है। श्याम जहां यह सोचे बिना पूरी कोशिश करता है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या हो जाएगा। वहीं सुरेश इस बात से ही परेशान रहता है कि अगर टारगेट तक नहीं पहुंचे तो बॉस की डांट पड़ेगी, कहीं जॉब भी न चली जाए। ऐसा नहीं है कि श्याम को बिलकुल भी चिंता नहीं होती। उसे चिंता होती है कि काम को बेहतर तरीके से किस तरह अंजाम देना है। वह ऑफिस के टारगेट को ऑफिस तक रखता है। इस चिंता को घर तक नहीं लाता। इसलिए उसकी फैमिली खुश है। वहीं सुरेश इससे इतना परेशान रहता है कि अपनी रातों की नींद खो देता है। सुबह उठकर टहलने का रुटीन पूरा नहीं होता। हमेशा लो एनर्जी फील करता है। ऐसे में वह पूरी शिद्दत से काम पर फोकस नहीं कर पाता। चूंकि मूड खराब रहता है तो बच्चों और बीवी पर चिल्लाना आम हो गया है। सीधे कहें तो एंग्जाइटी की वजह से उसकी पर्सनल और प्रफेशनल लाइफ दोनों डिस्टर्ब हो गई है। ऐसे में पहले खुद रिलैक्स थेरपी (मेडिटेशन, योग आदि) अपनानी चाहिए। फायदा न होने पर किसी सायकायट्रिस्ट से मिलना चाहिए।
केस 2
कॉक्रोच जब डायनासोर की तरह डराने लगे
सुरुचि हाउस वाइफ हैं। अच्छी डाइट लेना उनकी आदत में शामिल है। लेकिन उसे एक चीज से बहुत डर लगता है, वह है एक कीड़ा जिसे कॉकरोच कहते हैं। वह मकड़ी और छिपकली से भी इतना नहीं डरती, जितना कॉकरोच से डरती हैं। वैसे कॉकरोच किसी को पसंद नहीं होता। उसे देखकर पुरुष, महिलाएं या बच्चे डर भी सकते हैं या बच्चे चिल्ला भी सकते हैं। लेकिन जब कोई बड़ा शख्स जिसे यह पता है कि कॉकरोच काटता नहीं या इसमें जहर नहीं होता। फिर भी डर इस कदर हावी हो कि उसकी फोटो देखकर भी चिल्लाने लगे। कोई अगर नाम भी ले तो देह में सिहरन दौड़ जाए और पसीना आने लगे। सफाई करते समय अगर कॉकरोच दिख गया तो वहां से भाग खड़े हों और रूम बंद कर ले। सांसें तेज हो जाए, दिल की धड़कन भी बढ़ जाए।
शरीर से पसीना निकलने लगे तो फिर यह सामान्य डर नहीं है। इसे फोबिया कहते हैं। यह किसी को कॉकरोच या छिपकली, कुत्ता, मकड़ी और उसके जालों को देखकर, बिल्ली आदि किसी भी चीज से हो सकता है। कई लोगों को बंद कमरे या लिफ्ट में जाने से बहुत डर लगता है। कई लोग भीड़ में नहीं जाते क्योंकि उन्हें भीड़ में घुटन महसूस होती है। उनका दम घुटने लगता है। ज्यादा भीड़ में तो समस्या हो सकती है, लेकिन कम भीड़ में भी ऐसी परेशानी हो जबकि दूसरे सामान्य हों तो सावधान होन की जरूरत है। सीधे शब्दों में कहें तो डर सभी को लगता है। डर से गला भी सूख सकता है, लेकिन किसी भी ऐसी चीज से बहुत ज्यादा डरना, जितना वह खतरनाक नहीं है तो फोबिया हो सकता है। ऐसे में डर जब धीरे-धीरे घटने की बजाए बढ़ता जाए तो काउंसलिंग या इलाज की जरूरत है, लेकिन पहले रिलैक्स थेरपी का सहारा ले सकते हैं।
केस 3
दिमाग कहे सब ठीक, पर दिल न माने
दिनेश कुछ महीनों पहले ही रिटायर हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने गारमेंट्स की दुकान खोली है। वह एक असिस्टेंट के साथ बिजनेस में जुटे हैं। सब ठीक ही चल रहा था कि एक रात करीब 2 बजे उनकी पत्नी रश्मि की आंख खुली तो देखा कि पति न कमरे में हैं और न बाथरूम में। कुछ देर इंतजार के बाद दिनेश लौटे। पूछने पर बताया कि उन्होंने दुकान पर ताला लगाया था या नहीं, यह भूल गए थे। अब दुकान पर चेक करके आए हैं कि सबकुछ ठीक है। यह बोलते-बोलते वह फिर रुक गए। पत्नी ने पूछा कि अब क्या हुआ? दिनेश कहा कि मैं 3 ताले लगाता हूं। दो तो चेक किए लेकिन एक चेक करना भूल गया। रश्मि ने समझाया कि जब दो ताले लगे हैं तो एक छूट भी गया तो कोई बात नहीं। लेकिन दिनेश नहीं माने। दिनेश ने कहा कि हो सकता है जिन दो तालों को बंद समझ रहा हूं, वे भी ठीक से बंद न हुए हों। दिनेश यह बुदबुदाते हुए फिर दुकान पर ताले चेक करने चले गए। कुछ देर में लौट कर आए पर नींद गायब हो गई थी। रश्मि भी परेशान थीं। यह सिलसिला अक्सर चलने लगा। रश्मि पति की स्थिति देखकर परेशान थीं तो दिनेश की नींद खराब हो रही थी। वह अपनी याद्दाश्त को लेकर परेशान होने लगे। दरअसल, जब कोई ऐसा काम जिसके बारे में उस शख्स को पता है कि वह काम कर चुका है, लेकिन अपनी सोच की वजह से उसे दोबारा, तिबारा या बार-बार करने के लिए मजबूर हो जाए तो मुमकिन है कि वह OCD (Obsessive-Compulsive Disorder) का शिकार है। यह भूलने की बीमारी नहीं है। किसी को बार-बार हाथ धोने की आदत होती है क्योंकि उसे लगता है कि उसके हाथ बार-बार गंदे हो गए हैं। कुछ तो हाथों पर इतना साबुन घिस देते हैं कि हथेली छिल जाती है। ऐसे में शुरुआत में रिलैक्स थेरपी के बाद सायकायट्रिस्ट की मदद ली जा सकती है।
बात सबसे पहले एंगजाइटी की
एंग्जाइटी अच्छी कम, बुरी ज्यादा
चिंता सिर्फ नेगटिव हो, यह जरूरी नहीं। कई चिंताएं पॉजिटिव भी हो सकती हैं। एग्जाम की चिंता अक्सर अच्छी तैयारी के लिए प्रेरित करती है और अच्छी तैयारी के बाद चिंता दूर हो जाती है। ऐसी चिंताएं पॉजिटिव होती हैं, लेकिन जब यही चिंता परेशान करने लगे यानी हम घबराने लगे- रातों की नींद खराब कर दे, स्ट्रेस और डिप्रेशन की तरफ धकेल दे तो पढ़ाई से मन हट सकता है। अगर कोई ऑफिस में काम करता है या बिजनेस करता है लेकिन वहां की चिंता घबराहट के स्तर तक पहुंच जाए तो यह ठीक नहीं है। हर वक्त कुछ गलत होने का अंदेशा रहे। लगातार डर और घबराहट महसूस हो तो यह एंग्जाइटी नेगटिव है। कुछ लोगों में तो मामला इससे भी आगे निकल जाता है। उलटी और सांसें तेज होने की स्थिति बन जाती है।
अगर इस तरह एंग्जाइटी (घबराहट) कभी-कभी हो (दो से तीन महीनों में एक-दो बार, वह भी बहुत गंभीर न हो) तो हम इसे सिर्फ लक्षण कहेंगे न कि बीमारी। बीमारी का रूप यह तब ले लेती है जब यह बार-बार हो और हमारी रुटीन, पढ़ाई, काम सब कुछ डिस्टर्ब होने लगे। सीधे कहें तो हर विचार पर चिंता करने का एक स्तर होता है कि वह कितना गंभीर है। जब वह उस स्तर को पार कर जाए तो उसे एंग्जाइटी यानी घबराहट कहते हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश में 15 फीसदी लोग एंग्जाइटी डिसऑर्डर का शिकार हैं।
क्यों होती है एंग्जाइटी:
-अगर 6 से 8 घंटे की नींद न लें।
-फैमिली हिस्ट्री हो।
-न्यूरोट्रांसमीटर (सेरेटोनिन और डोपामाइन जैसे हॉर्मोन) की कमी हो।
-छोटी बातों पर भी ज्यादा सोचने लगें और यही स्थिति बनी रहे।
-शुगर, हाई बीपी, थायरॉइड, डिप्रेशन जैसी बीमारी हो।
-कोई तकलीफ या गम भुलाने को नशा करने लगे हों।
लक्षण
-दिल की धड़कनें बढ़ जाएं।
-घबराहट हो।
-थकान हो।
-नींद में कमी हो।
-खुद को परिवार-समाज से भी अलग कर लें।
-ऐसा लगे कि जान चली जाएगी। सांस लेने में परेशानी हो। (इसे एंग्जाइटी का पैनिक अटैक कह सकते हैं।)
एंग्जाइटी का इलाज कब जरूरी
जब कोई शख्स चिंताओं से हारने लगे और अपने रुटीन के काम न कर पाए। कोई अपनी क्षमताओं का उपयोग न कर पाए तो इलाज की जरूरत है। यह इलाज शुरुआत में खुद घर में ही होना चाहिए। घर में इलाज कैसे करना है इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
डर कब बन जाता है फोबिया
हर शख्स को कानून का डर तो होना ही चाहिए ताकि क्राइम करने से पहले कोई सौ बार सोचे तो क्या इसे फोबिया कहेंगे? बिलकुल नहीं कहेंगे। यह डर जरूरी है। लेकिन सांप से डरना, कुत्ते के काटने का आदि का डर भी फोबिया तभी कहा जाएगा, जब इनका नाम सुनते ही पसीना आएं और सांसें तेज हो जाएं। अगर किसी का घर 10वीं फ्लोर पर हो और वह शख्स ग्राउंड फ्लोर पर इसलिए इंतजार कर रहा हो कि कोई लिफ्ट में उसके साथ जाने वाला मिल जाए क्योंकि अकेले लिफ्ट में जाने से डर लगता है। डर ऐसा कि अकेले होने की वजह से 10 मंजिल तक सीढ़ियों से भी जाने को तैयार हो जाए लेकिन लिफ्ट में न चढ़े। इसका मतलब है कि उसे बंद जगहों खासकर लिफ्ट से फोबिया है। फोबिया को भी एंग्जाइटी का ही एक प्रकार माना गया है।
इलाज की जरूरत कब
डर जब इस कदर हावी हो जाए कि इंसान को परेशान करने लगे। यह जरूरी नहीं कि किसी बंद कमरे से ही परेशानी हो। यह खुले मंच पर बोलने से भी हो सकता है। यह किसी पार्टी में सेंटर ऑफ अट्रेक्शन बनने से भी बुरी तरह रोकता है। अपने डर की वजह से इंसान उन परिस्थितियों से अक्सर भागता रहता है जो उसे बहुत डराते हैं। इसका इलाज भी पहले घर से शुरू कर सकते हैं। फिर सायकायट्रिस्ट की मदद लें।
क्या यह खतरनाक है
बहुत कम मामलों में यह खतरनाक होता है। कई बार सीवियर फोबिया के मामले में कोई शख्स अपनी या दूसरों की जान भी ले सकता है। लेकिन ऐसे मामले काफी कम होते हैं।
फोबिया के कई प्रकार हैं
सामान्य फोबिया
इसमें अमूमन किसी शख्स को बचपन से किसी चीज से डर लगता है जो बड़े होने तक जारी रहता है। इसे ट्रॉमा भी कह सकते हैं। हालांकि हालिया रिसर्च में यह बात सामने आई है कि इस तरह के फोबिया में भी मौजूदा परिस्थितियों में दिमाग में होने वाले रासायनिक बदलावों की अहम भूमिका होती है।
क्लॉस्ट्रफोबिया
किसी बंद या छोटी जगह पर जाने से किसी को बहुत ज्यादा परेशानी होने लगे। इसे Fear of Enclosed Spaces भी कहते हैं। जैसे सुरंग, लिफ्ट, हवाई जहाज और ट्रेन आदि। जब डर की वजह से लोग इन जगहों पर जाना टालने लगते हैं तो वह क्लॉस्ट्रफोबिया का केस होता है।
इसके लक्षण
-बिना वजह, बिन मौसम बहुत ठंड या गर्मी लगे।
-बहुत ज्यादा पसीना आने लगे।
- बार-बार धड़कनें तेज होने लगें।
-बीपी कम या ज्यादा हो।
-सांसें तेज होने लगें।
-शरीर के किसी खास अंग में बहुत तेज दर्द महसूस हो।
-डर की वजह से दस्त लग जाएं।
-भारी उलझन महसूस हो।
सेाशल फोबिया
जब भीड़ से डर लगने लगे तो इसे सोशल फोबिया भी कहते हैं। ऐसे लोग मॉल या किसी मेले में जाने से डरते हैं।
लक्षण
-चक्कर आना।
-बेहोश होना।
-सीने में दर्द महसूस होना।
-कई लक्षण क्लॉस्ट्रफोबिया वाले भी होना।
इनके अलावा भी कई तरह का फोबिया हो सकता है। जैसे एक्रोफोबिया (ऊंचाई से डर), अरेक्नोफोबिया (मकड़ी आदि से), सायनोफोबिया (कुत्तों से डर)।
जब बार-बार हो शंका यानी OCD
इस बात का यकीन हो कि काम कर लिया है, लेकिन अपनी सोच की वजह से फिर करने को मजबूर हो जाएं तो उसे ऑब्सेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर कहते हैं। बाथरूम में पैर धोने गए और मन में शंका हुई कि पानी के छींटे शरीर के दूसरे हिस्सों पर भी लगे होंगे। नतीजा यह कि फौरन नहाना। इस तरह दिनभर में 5 से 7 बार नहाना। ऐसे ही हाथों को यह सोचकर बार-बार साफ करना कि मैंने तो कुर्सी छू ली, बेड छू लिया और हाथ गंदे हो गए होंगे। ओसीडी को भी एंग्जाइटी का ही एक प्रकार माना जाता है।
लक्षण
-एक ही काम बार-बार करना
-घर छोड़कर कहीं घूमने जाने से बचना।
-खास नियम से चलना, उसमें बदलाव से परेशान होना।
-बार-बार हाथ धोना।
-अपने पर भरोसा न होना। किसी से आश्वासन लेना कि मैंने जो काम किया है, वह सही है।
क्या है पैनिक अटैक
जब किसी शख्स में एंग्जाइटी या फोबिया की स्थिति गंभीर होने लगे तो यह पैनिक अटैक हो सकता है। इसमें उस शख्स को ऐसा महसूस हो सकता है कि अब उसके लिए सांस लेना मुश्किल हो गया है। उसका बचना मुश्किल हो गया है। गला बंद हो गया है। ऐसे में अमूमन शख्स को हॉस्पिटल के इमरजेंसी वॉर्ड में या फिर कार्डियक डिपार्टमेंट ले जाया जाता है। वहां जांच के बाद पता चलता है कि यह पैनिक अटैक था। जब यह अटैक महीने में 4-5 बार होने लगे तो इसे पैनिक डिसऑर्डर कहते हैं। जब किसी शख्स को किसी खास स्थिति में पैनिक अटैक आता हो तो उस शख्स को अमूमन घर पर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।
बच्चों में एंग्जाइटी, फोबिया और OCD
-बच्चों में एंग्जाइटी और फोबिया ज्यादा हो सकता है जबकि ओसीडी के मामले कम होते हैं। इसकी आशंका तब ज्यादा होती है जब पेरंट्स को यह परेशानी हो।
लक्षण
बच्चा सवाल का जवाब आने पर भी न दे पाता हो। (ऐसा ही कुछ आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीन पर' में भी दिखाया गया है।)
-जवाब देने में तुतलाता हो।
-स्कूल और पढ़ाई से अक्सर भागता हो।
-बच्चा गुमसुम रहता हो।
घबराहट से ऐसे मिल सकती है राहत
ऐसा दावा करना तो मुश्किल है कि कोई उपाय करने से कोई शख्स ज़िंदगीभर के लिए इन चीजों से मुक्त हो जाएगा। फिर भी इसमें बहुत ज्यादा फायदा होता है। रिलैक्सेशन टेक्नीक एक ऐसा ही तरीका है जो न सिर्फ इन परेशानियों को होने से रोकती है बल्कि परेशानी होने पर दूर करने में भी अहम भूमिका निभाती है।
रिलैक्सेशन टेक्निक
जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि वे तरीके जिनसे मन और तन को आराम मिलता हो।
मेडिटेशन: दिन में 2 बार कम से कम 5-5 मिनट के लिए मेडिटेशन करने से काफी फायदा होता है। इसके लिए किसी समतल जमीन पर चटाई बिछाकर और शांत जगह पर करने से फायदा होता है।
डीप ब्रीदिंग: गहरी सांस लेना। सांस सही तरीके से लेना। हमारी सांस की खूबी ऐसी हो:
जब हम सांस अंदर खींचते हैं तो हमारा पेट और छाती बाहर की ओर निकलना चाहिए। इसी तरह जब हम सांस छोड़ते हैं तो पेट और छाती अंदर की ओर आनी चाहिए। आमतौर पर हम ऐसा नहीं करते, ठीक इसका उलटा होता है।
- हमें सांस लेने में जितना वक्त लगता है, उससे ज्यादा वक्त उसे छोड़ने में लगाना चाहिए।
- हर सांस में ये 4 चीजें यानी SSLD का होनी जरूरी हैं:
1. Smooth: सांस हमेशा आराम से लें।
2. Slow: धीमे से लें।
3. Long: लंबी सांस लें।
4. Deep: सांस गहरी हो।
वॉकिंग: सुबह 40 मिनट की वॉक नए विचार लाती है। मन में पॉजिटिविटी भरती है और नेगेटिविटी को दूर करती है। वॉक अकेले करें तो बेहतर है।
पूरी नींद: हर दिन 6 से 8 घंटे की गहरी नींद ज्यादातर मानसिक समस्याओं को पैदा ही नहीं होने देती।
दोस्तों के साथ बातचीत: यह भी रिलैक्स करने का एक सही तरीका है। दिल की बात कहने से भी मन हल्का होता है।
म्यूजिक सुनना या शौक पूरे करना: मन को रिलैक्स करने के लिए यह भी बहुत अच्छा तरीका है। अपनी पसंद के गाने सुनना या फिर पसंद की गानों पर डांस करना। कुकिंग करना आदि।
अगर इन सभी चीजों को ज़िंदगी में शामिल करके रखते हैं तो अमूमन ऐसी परेशानियों से दूर ही रहते हैं। लेकिन इन तरीकों को हर दिन जीवन में ढालना है न कि तब जब यह परेशानी आए।
अब बात इलाज की
अगर किसी को एंग्जाइटी, फोबिया या ओसीडी की परेशानी शुरू हो जाए और रिलैक्सेशन टेक्निक से फायदा न हो, तब थेरपिस्ट की जरूरत पड़ती है। वे स्वभाव के आधार पर मरीज का इलाज करते हैं।
बिहेवियरल थेरपी (BT)
अमूमन सभी तरह की थेरपी जो मेंटल हेल्थ के लिए इस्तेमाल होती है, बिहेवियरल थेरपी के तहत ही आती है। इसमें शख्स के स्वभाव में बदलाव लाना मकसद होता है। सबसे अहम है कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरपी।
कारगर है काग्निटिव बिहेवियरल थेरपी (CBT)
इसे टॉक थेरपी भी कहा जाता है। इसमें मरीज के बारे में जानकारी हासिल की जाती है। बातचीत के द्वारा उसकी नेगटिविटी को दूर कर पॉजिटिविटी लाने की कोशिश की जाती है। यह धीरे-धीरे होता है। वैसे तो घर पर भी लोग मरीज को समझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन चूंकि वे एक्सपर्ट नहीं होते, ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि शुरू कैसे करना है तो फिर यह फेल हो जाता है जबकि सायकायट्रिस्ट या साइकॉलजिस्ट इसे बखूबी अंजाम देते हैं।
-यह थेरपी एंग्जाइटी, फोबिया और ओसीडी सभी पर काम करती है।
-इसमें बातचीत के द्वारा परेशानी को गहराईसे समझने की कोशिश की जाती है।
-इसमें मरीज की सोच में जो कमियां हैं, उन्हें पहचानना होता है। मसलन: कोरोना के दौरान कई लोगों की जॉब गई। जिनकी जॉब नहीं गई, वे यह सोचकर परेशान थे कि अगर उनकी जॉब चली जाएगी तो क्या करेंगे। ऐसे में यह सोच विकसित करने की कोशिश होती है कि मन का होता है तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा।
मरीज को मुश्किल वक्त में स्थिति को संभालने की क्षमता विकसित करने के लिए तैयार किया जाता है।
यह ऐसे होता है:
-सबसे पहले उस शख्स से कहा जाता है कि समस्या को पहचानें
-जो सलूशन हो सकते हैं उनकी लिस्ट बनाए।
- उन सबकी एक-एक करके खूबियां और कमियां लिखें।
-सबसे बेहतर समाधान को चुनें।
फोबिया का निदान कुछ इस तरह खोजते हैं थेरपिस्ट
एक्सपोजर थेरपी से
मान लें कि किसी को कुत्ते से फोबिया है। वह कुत्ता देखकर एकदम से घबरा जाता है। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। ऐसे में थेरपिस्ट के पास सेशन के दौरान उस शख्स को कुत्ते की सबसे ज्यादा बुरी चीज क्या लगती है: इसे बढ़ते से घटते हुए क्रम में लिखना होता है। मान लें कि शख्स ने लिखा:
-कुत्ता अगर नजदीक हो
-कुत्ते की महक
-कुत्ते के शरीर के बाल
-कुत्ते का भौंकना
-कुत्ते का खिलौना
-कुत्ते की तस्वीर
इसमें उसे सबसे कम परेशानी कुत्ते की तस्वीर से है तो थेरपिस्ट उसे सबसे पहले कुत्ते की तस्वीर के साथ 30 से 45 मिनट या फिर इससे ज्यादा वक्त के लिए बैठने के लिए कह सकते हैं। जब इससे परेशानी कम या खत्म हो जाएगी तो उसे कुत्ते के खिलौने के साथ समय गुजारना होता है। यही प्रक्रिया आगे भी चलती रहती है। इसके साथ दूसरी चीजें भी थेरपिस्ट करते हैं जो मरीज के लिए जरूरी होती है।
OCD के लिए ऐसे होता है उपाय
यह भी एक तरह की एक्सपोजर थेरपी ही है। कई लोगों को गंदगी या धूल से बहुत अधिक परेशानी होती है। इसलिए वे बार-बार हाथ धोते हैं। ऐसे में थेरपिस्ट धूल की थोड़ी मात्रा उस शख्स की हथेलियों पर रख देते हैं। फिर कुछ समय तक हाथ धोने नहीं देते। यह अंतराल शुरू में 10 मिनट का हो सकता है जो बाद में बढ़कर एक या दो घंटा का हो सकता है। साथ ही मरीज के मन में आए विचारों को जाना जाता है। फिर उसे इस पर सही तरीके से सोचना सिखाया जाता है। धीरे-धीरे उस शख्स के दिमाग से धूल का फोबिया काफी कम या दूर हो जाता है।
डायलेक्टिकल बिहेवियरल थेरपी (DBT): इस टेक्निक में कॉग्निटिव और एक्सपोजर, दोनों तरह की थेरपी का उपयोग किया जाता है। इससे इमोशंस, डिस्ट्रेस आदि को मैनेज करने की कोशिश की जाती है। मसलन: किस तरह की बातों से ज्यादा तकलीफ होती है। फिर उन बातों को धीरे-धीरे पीड़ित शख्स से रूबरू कराया जाता है।
वर्चुअल रियलिटी की मदद से
इसमें कंप्यूटर स्टिमुलेशन की मदद से किसी एमआरआई मशीन में शख्स को लिटाकर या किसी लिफ्ट जैसी चीज में शख्स को मौजूदगी का अहसास कराया जाता है, जहां उसे कम जगह का अहसास होता है, जिससे उसे फोबिया है।
पैनिक ट्रीटमेंट घर पर देने से पहले
घर में कई बार कुछ लोग फोबिया खत्म करने के लिए उस शख्स को सीधे फोबिया वाली चीज के सामने ले आते हैं। मसलन: अगर किसी को छिपकली से समस्या है तो छिपकली को पकड़कर सामने ले आते हैं। यह तरीका कभी-कभी काम करता है या परेशान भी कर सकता है। दरअसल, यह पैनिक की स्थिति पैदा करने जैसा है। अगर शख्स को हाई बीपी हो, एलर्जी, हार्ट की परेशानी हो तो यह कई बार उलटा भी पड़ जाता है। इसलिए सीधे ऐसा करना नहीं चाहिए। ऐसा करने से पहले उस शख्स के बारे में पूरी जानकारी जरूर होनी चाहिए।
हिप्नोथेरपी
यह है सम्मोहन चिकित्सा। हमारे दिमाग में दो मन होते हैं: चेतन और अवचेतन। जब हम सोते हैं चेतन निष्क्रिय होता है और अवचेतन सक्रिय। वहीं सम्मोहन चिकित्सा में अवचेतन मन को उभारकर आगे लाया जाता है और शख्स के अवचेतन मन में कुछ बातें डाली जाती हैं, जिससे उसका डर निकल जाए।
जैसे:
-अब मैं छिपकली से नहीं डरूंगा।
-मैं हर दिन अपने काम में बेहतर होता जा रहा हूं आदि।
-मैं अब मंच पर खड़े होकर भाषण दे सकता हूं क्योंकि अब मेरी क्षमता बढ़ती जा रही है।
-इससे फोबिया और एंग्जाइटी का इलाज होता है। वैसे किसे हिप्नोथेरपी देनी है और किसे नहीं, यह फैसला सायकायट्रिस्ट या साइकॉलजिस्ट ही करते हैं।
एक्सपर्ट पैनल
-डॉ. निमेष जी. देसाई, वरिष्ठ मनोचिकत्सक, पूर्व निदेशक, IHBAS
-डॉ. के के वर्मा, सीनियर सायकायट्रिस्ट, प्रिंसिपल एंड कंट्रोलर, Govt. मेडिकल कॉलेज, सीकर
-डॉ. शशि राय, डायरेक्टर, संबल ड्रग डी-एडिक्शन सेंटर, लखनऊ
-डॉ. संदीप कुमार गोयल, कंसल्टेंट सायकायट्रिस्ट, SPS हॉस्पि. लुधियाना
-संतोष बाबू, हिप्नोसिस एक्सपर्ट
उन्माद से ऐसे पाएंगे पार
मेंटल हेल्थ सीरीज में पिछली बार हमने डिप्रेशन विषय लिया था। यह तीसरा अंक है। आज का विषय एंगजाइटी, फोबिया और ओसीडी है, जिस पर हमने पाठकों से सवाल भी मंगाए थे। कई सवाल आए, उनमें से हम कुछ खास को यहां जगह दे रहे हैं। सीरीज का चौथा अंक 4 सितंबर को आएगा। इसमें हम मैनिया यानी उन्माद (बहुत छोटी-सी बात पर भी बेतहासा हंसी) आदि को विस्तार से समझेंगे। इनसे संबंधित अगर आपके सवाल हों तो हमें हिंदी या अंग्रेजी में सोमवार तक वॉट्सऐप नंबर 89298-16941 या sundaynbt@gmail.com पर भेजें। ईमेल के सब्जेक्ट में Mental Health-4 जरूर लिखें। आप हमें यह भी बता सकते हैं कि इस सीरीज़ के तहत आप मन की किस समस्या के बारे में पढ़ना चाहते हैं। आपके सवालों और आपकी राय का हमें इंतज़ार रहेगा
चिंता होना आम बात है। हर शख्स किसी न किसी चीज को लेकर चिंतित होता है। अगर चिंता वाजिब वजह से हो और चंद क्षणों तक डिस्टर्ब करे, फिर धीरे-धीरे खत्म हो जाए तो इसे सामान्य ही कहेंगे। लेकिन जब यही चिंता घबराहट के रूप में हो, छोटी वजहों से या फिर बिना किसी कारण के इस कदर परेशान करे कि नींद ही उड़ जाए। काम में उसका मन न लगे तो फिर इलाज की जरूरत पड़ सकती है। यह इलाज किस तरह करना है, सिर्फ काउंसलिंग, थेरपी या फिर दवा के साथ, यह जांच के बाद ही पता चलता है।
केस 1:
रुटीन पर जब हावी हो गई घबराहट
श्याम और सुरेश एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर हैं। हर महीने दोनों को सेलिंग का टारगेट दिया जाता है। उस टारगेट तक पहुंचना दोनों के लिए जरूरी है। टारगेट पूरा न होने पर बॉस से डांट भी पड़ती है और अगले महीने के लिए प्रेशर बढ़ जाता है। लेकिन इसका असर इन दोनों पर अलग-अलग तरह का होता है। श्याम जहां यह सोचे बिना पूरी कोशिश करता है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या हो जाएगा। वहीं सुरेश इस बात से ही परेशान रहता है कि अगर टारगेट तक नहीं पहुंचे तो बॉस की डांट पड़ेगी, कहीं जॉब भी न चली जाए। ऐसा नहीं है कि श्याम को बिलकुल भी चिंता नहीं होती। उसे चिंता होती है कि काम को बेहतर तरीके से किस तरह अंजाम देना है। वह ऑफिस के टारगेट को ऑफिस तक रखता है। इस चिंता को घर तक नहीं लाता। इसलिए उसकी फैमिली खुश है। वहीं सुरेश इससे इतना परेशान रहता है कि अपनी रातों की नींद खो देता है। सुबह उठकर टहलने का रुटीन पूरा नहीं होता। हमेशा लो एनर्जी फील करता है। ऐसे में वह पूरी शिद्दत से काम पर फोकस नहीं कर पाता। चूंकि मूड खराब रहता है तो बच्चों और बीवी पर चिल्लाना आम हो गया है। सीधे कहें तो एंग्जाइटी की वजह से उसकी पर्सनल और प्रफेशनल लाइफ दोनों डिस्टर्ब हो गई है। ऐसे में पहले खुद रिलैक्स थेरपी (मेडिटेशन, योग आदि) अपनानी चाहिए। फायदा न होने पर किसी सायकायट्रिस्ट से मिलना चाहिए।
केस 2
कॉक्रोच जब डायनासोर की तरह डराने लगे
सुरुचि हाउस वाइफ हैं। अच्छी डाइट लेना उनकी आदत में शामिल है। लेकिन उसे एक चीज से बहुत डर लगता है, वह है एक कीड़ा जिसे कॉकरोच कहते हैं। वह मकड़ी और छिपकली से भी इतना नहीं डरती, जितना कॉकरोच से डरती हैं। वैसे कॉकरोच किसी को पसंद नहीं होता। उसे देखकर पुरुष, महिलाएं या बच्चे डर भी सकते हैं या बच्चे चिल्ला भी सकते हैं। लेकिन जब कोई बड़ा शख्स जिसे यह पता है कि कॉकरोच काटता नहीं या इसमें जहर नहीं होता। फिर भी डर इस कदर हावी हो कि उसकी फोटो देखकर भी चिल्लाने लगे। कोई अगर नाम भी ले तो देह में सिहरन दौड़ जाए और पसीना आने लगे। सफाई करते समय अगर कॉकरोच दिख गया तो वहां से भाग खड़े हों और रूम बंद कर ले। सांसें तेज हो जाए, दिल की धड़कन भी बढ़ जाए।
शरीर से पसीना निकलने लगे तो फिर यह सामान्य डर नहीं है। इसे फोबिया कहते हैं। यह किसी को कॉकरोच या छिपकली, कुत्ता, मकड़ी और उसके जालों को देखकर, बिल्ली आदि किसी भी चीज से हो सकता है। कई लोगों को बंद कमरे या लिफ्ट में जाने से बहुत डर लगता है। कई लोग भीड़ में नहीं जाते क्योंकि उन्हें भीड़ में घुटन महसूस होती है। उनका दम घुटने लगता है। ज्यादा भीड़ में तो समस्या हो सकती है, लेकिन कम भीड़ में भी ऐसी परेशानी हो जबकि दूसरे सामान्य हों तो सावधान होन की जरूरत है। सीधे शब्दों में कहें तो डर सभी को लगता है। डर से गला भी सूख सकता है, लेकिन किसी भी ऐसी चीज से बहुत ज्यादा डरना, जितना वह खतरनाक नहीं है तो फोबिया हो सकता है। ऐसे में डर जब धीरे-धीरे घटने की बजाए बढ़ता जाए तो काउंसलिंग या इलाज की जरूरत है, लेकिन पहले रिलैक्स थेरपी का सहारा ले सकते हैं।
केस 3
दिमाग कहे सब ठीक, पर दिल न माने
दिनेश कुछ महीनों पहले ही रिटायर हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने गारमेंट्स की दुकान खोली है। वह एक असिस्टेंट के साथ बिजनेस में जुटे हैं। सब ठीक ही चल रहा था कि एक रात करीब 2 बजे उनकी पत्नी रश्मि की आंख खुली तो देखा कि पति न कमरे में हैं और न बाथरूम में। कुछ देर इंतजार के बाद दिनेश लौटे। पूछने पर बताया कि उन्होंने दुकान पर ताला लगाया था या नहीं, यह भूल गए थे। अब दुकान पर चेक करके आए हैं कि सबकुछ ठीक है। यह बोलते-बोलते वह फिर रुक गए। पत्नी ने पूछा कि अब क्या हुआ? दिनेश कहा कि मैं 3 ताले लगाता हूं। दो तो चेक किए लेकिन एक चेक करना भूल गया। रश्मि ने समझाया कि जब दो ताले लगे हैं तो एक छूट भी गया तो कोई बात नहीं। लेकिन दिनेश नहीं माने। दिनेश ने कहा कि हो सकता है जिन दो तालों को बंद समझ रहा हूं, वे भी ठीक से बंद न हुए हों। दिनेश यह बुदबुदाते हुए फिर दुकान पर ताले चेक करने चले गए। कुछ देर में लौट कर आए पर नींद गायब हो गई थी। रश्मि भी परेशान थीं। यह सिलसिला अक्सर चलने लगा। रश्मि पति की स्थिति देखकर परेशान थीं तो दिनेश की नींद खराब हो रही थी। वह अपनी याद्दाश्त को लेकर परेशान होने लगे। दरअसल, जब कोई ऐसा काम जिसके बारे में उस शख्स को पता है कि वह काम कर चुका है, लेकिन अपनी सोच की वजह से उसे दोबारा, तिबारा या बार-बार करने के लिए मजबूर हो जाए तो मुमकिन है कि वह OCD (Obsessive-Compulsive Disorder) का शिकार है। यह भूलने की बीमारी नहीं है। किसी को बार-बार हाथ धोने की आदत होती है क्योंकि उसे लगता है कि उसके हाथ बार-बार गंदे हो गए हैं। कुछ तो हाथों पर इतना साबुन घिस देते हैं कि हथेली छिल जाती है। ऐसे में शुरुआत में रिलैक्स थेरपी के बाद सायकायट्रिस्ट की मदद ली जा सकती है।
बात सबसे पहले एंगजाइटी की
एंग्जाइटी अच्छी कम, बुरी ज्यादा
चिंता सिर्फ नेगटिव हो, यह जरूरी नहीं। कई चिंताएं पॉजिटिव भी हो सकती हैं। एग्जाम की चिंता अक्सर अच्छी तैयारी के लिए प्रेरित करती है और अच्छी तैयारी के बाद चिंता दूर हो जाती है। ऐसी चिंताएं पॉजिटिव होती हैं, लेकिन जब यही चिंता परेशान करने लगे यानी हम घबराने लगे- रातों की नींद खराब कर दे, स्ट्रेस और डिप्रेशन की तरफ धकेल दे तो पढ़ाई से मन हट सकता है। अगर कोई ऑफिस में काम करता है या बिजनेस करता है लेकिन वहां की चिंता घबराहट के स्तर तक पहुंच जाए तो यह ठीक नहीं है। हर वक्त कुछ गलत होने का अंदेशा रहे। लगातार डर और घबराहट महसूस हो तो यह एंग्जाइटी नेगटिव है। कुछ लोगों में तो मामला इससे भी आगे निकल जाता है। उलटी और सांसें तेज होने की स्थिति बन जाती है।
अगर इस तरह एंग्जाइटी (घबराहट) कभी-कभी हो (दो से तीन महीनों में एक-दो बार, वह भी बहुत गंभीर न हो) तो हम इसे सिर्फ लक्षण कहेंगे न कि बीमारी। बीमारी का रूप यह तब ले लेती है जब यह बार-बार हो और हमारी रुटीन, पढ़ाई, काम सब कुछ डिस्टर्ब होने लगे। सीधे कहें तो हर विचार पर चिंता करने का एक स्तर होता है कि वह कितना गंभीर है। जब वह उस स्तर को पार कर जाए तो उसे एंग्जाइटी यानी घबराहट कहते हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश में 15 फीसदी लोग एंग्जाइटी डिसऑर्डर का शिकार हैं।
क्यों होती है एंग्जाइटी:
-अगर 6 से 8 घंटे की नींद न लें।
-फैमिली हिस्ट्री हो।
-न्यूरोट्रांसमीटर (सेरेटोनिन और डोपामाइन जैसे हॉर्मोन) की कमी हो।
-छोटी बातों पर भी ज्यादा सोचने लगें और यही स्थिति बनी रहे।
-शुगर, हाई बीपी, थायरॉइड, डिप्रेशन जैसी बीमारी हो।
-कोई तकलीफ या गम भुलाने को नशा करने लगे हों।
लक्षण
-दिल की धड़कनें बढ़ जाएं।
-घबराहट हो।
-थकान हो।
-नींद में कमी हो।
-खुद को परिवार-समाज से भी अलग कर लें।
-ऐसा लगे कि जान चली जाएगी। सांस लेने में परेशानी हो। (इसे एंग्जाइटी का पैनिक अटैक कह सकते हैं।)
एंग्जाइटी का इलाज कब जरूरी
जब कोई शख्स चिंताओं से हारने लगे और अपने रुटीन के काम न कर पाए। कोई अपनी क्षमताओं का उपयोग न कर पाए तो इलाज की जरूरत है। यह इलाज शुरुआत में खुद घर में ही होना चाहिए। घर में इलाज कैसे करना है इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
डर कब बन जाता है फोबिया
हर शख्स को कानून का डर तो होना ही चाहिए ताकि क्राइम करने से पहले कोई सौ बार सोचे तो क्या इसे फोबिया कहेंगे? बिलकुल नहीं कहेंगे। यह डर जरूरी है। लेकिन सांप से डरना, कुत्ते के काटने का आदि का डर भी फोबिया तभी कहा जाएगा, जब इनका नाम सुनते ही पसीना आएं और सांसें तेज हो जाएं। अगर किसी का घर 10वीं फ्लोर पर हो और वह शख्स ग्राउंड फ्लोर पर इसलिए इंतजार कर रहा हो कि कोई लिफ्ट में उसके साथ जाने वाला मिल जाए क्योंकि अकेले लिफ्ट में जाने से डर लगता है। डर ऐसा कि अकेले होने की वजह से 10 मंजिल तक सीढ़ियों से भी जाने को तैयार हो जाए लेकिन लिफ्ट में न चढ़े। इसका मतलब है कि उसे बंद जगहों खासकर लिफ्ट से फोबिया है। फोबिया को भी एंग्जाइटी का ही एक प्रकार माना गया है।
इलाज की जरूरत कब
डर जब इस कदर हावी हो जाए कि इंसान को परेशान करने लगे। यह जरूरी नहीं कि किसी बंद कमरे से ही परेशानी हो। यह खुले मंच पर बोलने से भी हो सकता है। यह किसी पार्टी में सेंटर ऑफ अट्रेक्शन बनने से भी बुरी तरह रोकता है। अपने डर की वजह से इंसान उन परिस्थितियों से अक्सर भागता रहता है जो उसे बहुत डराते हैं। इसका इलाज भी पहले घर से शुरू कर सकते हैं। फिर सायकायट्रिस्ट की मदद लें।
क्या यह खतरनाक है
बहुत कम मामलों में यह खतरनाक होता है। कई बार सीवियर फोबिया के मामले में कोई शख्स अपनी या दूसरों की जान भी ले सकता है। लेकिन ऐसे मामले काफी कम होते हैं।
फोबिया के कई प्रकार हैं
सामान्य फोबिया
इसमें अमूमन किसी शख्स को बचपन से किसी चीज से डर लगता है जो बड़े होने तक जारी रहता है। इसे ट्रॉमा भी कह सकते हैं। हालांकि हालिया रिसर्च में यह बात सामने आई है कि इस तरह के फोबिया में भी मौजूदा परिस्थितियों में दिमाग में होने वाले रासायनिक बदलावों की अहम भूमिका होती है।
क्लॉस्ट्रफोबिया
किसी बंद या छोटी जगह पर जाने से किसी को बहुत ज्यादा परेशानी होने लगे। इसे Fear of Enclosed Spaces भी कहते हैं। जैसे सुरंग, लिफ्ट, हवाई जहाज और ट्रेन आदि। जब डर की वजह से लोग इन जगहों पर जाना टालने लगते हैं तो वह क्लॉस्ट्रफोबिया का केस होता है।
इसके लक्षण
-बिना वजह, बिन मौसम बहुत ठंड या गर्मी लगे।
-बहुत ज्यादा पसीना आने लगे।
- बार-बार धड़कनें तेज होने लगें।
-बीपी कम या ज्यादा हो।
-सांसें तेज होने लगें।
-शरीर के किसी खास अंग में बहुत तेज दर्द महसूस हो।
-डर की वजह से दस्त लग जाएं।
-भारी उलझन महसूस हो।
सेाशल फोबिया
जब भीड़ से डर लगने लगे तो इसे सोशल फोबिया भी कहते हैं। ऐसे लोग मॉल या किसी मेले में जाने से डरते हैं।
लक्षण
-चक्कर आना।
-बेहोश होना।
-सीने में दर्द महसूस होना।
-कई लक्षण क्लॉस्ट्रफोबिया वाले भी होना।
इनके अलावा भी कई तरह का फोबिया हो सकता है। जैसे एक्रोफोबिया (ऊंचाई से डर), अरेक्नोफोबिया (मकड़ी आदि से), सायनोफोबिया (कुत्तों से डर)।
जब बार-बार हो शंका यानी OCD
इस बात का यकीन हो कि काम कर लिया है, लेकिन अपनी सोच की वजह से फिर करने को मजबूर हो जाएं तो उसे ऑब्सेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर कहते हैं। बाथरूम में पैर धोने गए और मन में शंका हुई कि पानी के छींटे शरीर के दूसरे हिस्सों पर भी लगे होंगे। नतीजा यह कि फौरन नहाना। इस तरह दिनभर में 5 से 7 बार नहाना। ऐसे ही हाथों को यह सोचकर बार-बार साफ करना कि मैंने तो कुर्सी छू ली, बेड छू लिया और हाथ गंदे हो गए होंगे। ओसीडी को भी एंग्जाइटी का ही एक प्रकार माना जाता है।
लक्षण
-एक ही काम बार-बार करना
-घर छोड़कर कहीं घूमने जाने से बचना।
-खास नियम से चलना, उसमें बदलाव से परेशान होना।
-बार-बार हाथ धोना।
-अपने पर भरोसा न होना। किसी से आश्वासन लेना कि मैंने जो काम किया है, वह सही है।
क्या है पैनिक अटैक
जब किसी शख्स में एंग्जाइटी या फोबिया की स्थिति गंभीर होने लगे तो यह पैनिक अटैक हो सकता है। इसमें उस शख्स को ऐसा महसूस हो सकता है कि अब उसके लिए सांस लेना मुश्किल हो गया है। उसका बचना मुश्किल हो गया है। गला बंद हो गया है। ऐसे में अमूमन शख्स को हॉस्पिटल के इमरजेंसी वॉर्ड में या फिर कार्डियक डिपार्टमेंट ले जाया जाता है। वहां जांच के बाद पता चलता है कि यह पैनिक अटैक था। जब यह अटैक महीने में 4-5 बार होने लगे तो इसे पैनिक डिसऑर्डर कहते हैं। जब किसी शख्स को किसी खास स्थिति में पैनिक अटैक आता हो तो उस शख्स को अमूमन घर पर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।
बच्चों में एंग्जाइटी, फोबिया और OCD
-बच्चों में एंग्जाइटी और फोबिया ज्यादा हो सकता है जबकि ओसीडी के मामले कम होते हैं। इसकी आशंका तब ज्यादा होती है जब पेरंट्स को यह परेशानी हो।
लक्षण
बच्चा सवाल का जवाब आने पर भी न दे पाता हो। (ऐसा ही कुछ आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीन पर' में भी दिखाया गया है।)
-जवाब देने में तुतलाता हो।
-स्कूल और पढ़ाई से अक्सर भागता हो।
-बच्चा गुमसुम रहता हो।
घबराहट से ऐसे मिल सकती है राहत
ऐसा दावा करना तो मुश्किल है कि कोई उपाय करने से कोई शख्स ज़िंदगीभर के लिए इन चीजों से मुक्त हो जाएगा। फिर भी इसमें बहुत ज्यादा फायदा होता है। रिलैक्सेशन टेक्नीक एक ऐसा ही तरीका है जो न सिर्फ इन परेशानियों को होने से रोकती है बल्कि परेशानी होने पर दूर करने में भी अहम भूमिका निभाती है।
रिलैक्सेशन टेक्निक
जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि वे तरीके जिनसे मन और तन को आराम मिलता हो।
मेडिटेशन: दिन में 2 बार कम से कम 5-5 मिनट के लिए मेडिटेशन करने से काफी फायदा होता है। इसके लिए किसी समतल जमीन पर चटाई बिछाकर और शांत जगह पर करने से फायदा होता है।
डीप ब्रीदिंग: गहरी सांस लेना। सांस सही तरीके से लेना। हमारी सांस की खूबी ऐसी हो:
जब हम सांस अंदर खींचते हैं तो हमारा पेट और छाती बाहर की ओर निकलना चाहिए। इसी तरह जब हम सांस छोड़ते हैं तो पेट और छाती अंदर की ओर आनी चाहिए। आमतौर पर हम ऐसा नहीं करते, ठीक इसका उलटा होता है।
- हमें सांस लेने में जितना वक्त लगता है, उससे ज्यादा वक्त उसे छोड़ने में लगाना चाहिए।
- हर सांस में ये 4 चीजें यानी SSLD का होनी जरूरी हैं:
1. Smooth: सांस हमेशा आराम से लें।
2. Slow: धीमे से लें।
3. Long: लंबी सांस लें।
4. Deep: सांस गहरी हो।
वॉकिंग: सुबह 40 मिनट की वॉक नए विचार लाती है। मन में पॉजिटिविटी भरती है और नेगेटिविटी को दूर करती है। वॉक अकेले करें तो बेहतर है।
पूरी नींद: हर दिन 6 से 8 घंटे की गहरी नींद ज्यादातर मानसिक समस्याओं को पैदा ही नहीं होने देती।
दोस्तों के साथ बातचीत: यह भी रिलैक्स करने का एक सही तरीका है। दिल की बात कहने से भी मन हल्का होता है।
म्यूजिक सुनना या शौक पूरे करना: मन को रिलैक्स करने के लिए यह भी बहुत अच्छा तरीका है। अपनी पसंद के गाने सुनना या फिर पसंद की गानों पर डांस करना। कुकिंग करना आदि।
अगर इन सभी चीजों को ज़िंदगी में शामिल करके रखते हैं तो अमूमन ऐसी परेशानियों से दूर ही रहते हैं। लेकिन इन तरीकों को हर दिन जीवन में ढालना है न कि तब जब यह परेशानी आए।
अब बात इलाज की
अगर किसी को एंग्जाइटी, फोबिया या ओसीडी की परेशानी शुरू हो जाए और रिलैक्सेशन टेक्निक से फायदा न हो, तब थेरपिस्ट की जरूरत पड़ती है। वे स्वभाव के आधार पर मरीज का इलाज करते हैं।
बिहेवियरल थेरपी (BT)
अमूमन सभी तरह की थेरपी जो मेंटल हेल्थ के लिए इस्तेमाल होती है, बिहेवियरल थेरपी के तहत ही आती है। इसमें शख्स के स्वभाव में बदलाव लाना मकसद होता है। सबसे अहम है कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरपी।
कारगर है काग्निटिव बिहेवियरल थेरपी (CBT)
इसे टॉक थेरपी भी कहा जाता है। इसमें मरीज के बारे में जानकारी हासिल की जाती है। बातचीत के द्वारा उसकी नेगटिविटी को दूर कर पॉजिटिविटी लाने की कोशिश की जाती है। यह धीरे-धीरे होता है। वैसे तो घर पर भी लोग मरीज को समझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन चूंकि वे एक्सपर्ट नहीं होते, ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि शुरू कैसे करना है तो फिर यह फेल हो जाता है जबकि सायकायट्रिस्ट या साइकॉलजिस्ट इसे बखूबी अंजाम देते हैं।
-यह थेरपी एंग्जाइटी, फोबिया और ओसीडी सभी पर काम करती है।
-इसमें बातचीत के द्वारा परेशानी को गहराईसे समझने की कोशिश की जाती है।
-इसमें मरीज की सोच में जो कमियां हैं, उन्हें पहचानना होता है। मसलन: कोरोना के दौरान कई लोगों की जॉब गई। जिनकी जॉब नहीं गई, वे यह सोचकर परेशान थे कि अगर उनकी जॉब चली जाएगी तो क्या करेंगे। ऐसे में यह सोच विकसित करने की कोशिश होती है कि मन का होता है तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा।
मरीज को मुश्किल वक्त में स्थिति को संभालने की क्षमता विकसित करने के लिए तैयार किया जाता है।
यह ऐसे होता है:
-सबसे पहले उस शख्स से कहा जाता है कि समस्या को पहचानें
-जो सलूशन हो सकते हैं उनकी लिस्ट बनाए।
- उन सबकी एक-एक करके खूबियां और कमियां लिखें।
-सबसे बेहतर समाधान को चुनें।
फोबिया का निदान कुछ इस तरह खोजते हैं थेरपिस्ट
एक्सपोजर थेरपी से
मान लें कि किसी को कुत्ते से फोबिया है। वह कुत्ता देखकर एकदम से घबरा जाता है। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। ऐसे में थेरपिस्ट के पास सेशन के दौरान उस शख्स को कुत्ते की सबसे ज्यादा बुरी चीज क्या लगती है: इसे बढ़ते से घटते हुए क्रम में लिखना होता है। मान लें कि शख्स ने लिखा:
-कुत्ता अगर नजदीक हो
-कुत्ते की महक
-कुत्ते के शरीर के बाल
-कुत्ते का भौंकना
-कुत्ते का खिलौना
-कुत्ते की तस्वीर
इसमें उसे सबसे कम परेशानी कुत्ते की तस्वीर से है तो थेरपिस्ट उसे सबसे पहले कुत्ते की तस्वीर के साथ 30 से 45 मिनट या फिर इससे ज्यादा वक्त के लिए बैठने के लिए कह सकते हैं। जब इससे परेशानी कम या खत्म हो जाएगी तो उसे कुत्ते के खिलौने के साथ समय गुजारना होता है। यही प्रक्रिया आगे भी चलती रहती है। इसके साथ दूसरी चीजें भी थेरपिस्ट करते हैं जो मरीज के लिए जरूरी होती है।
OCD के लिए ऐसे होता है उपाय
यह भी एक तरह की एक्सपोजर थेरपी ही है। कई लोगों को गंदगी या धूल से बहुत अधिक परेशानी होती है। इसलिए वे बार-बार हाथ धोते हैं। ऐसे में थेरपिस्ट धूल की थोड़ी मात्रा उस शख्स की हथेलियों पर रख देते हैं। फिर कुछ समय तक हाथ धोने नहीं देते। यह अंतराल शुरू में 10 मिनट का हो सकता है जो बाद में बढ़कर एक या दो घंटा का हो सकता है। साथ ही मरीज के मन में आए विचारों को जाना जाता है। फिर उसे इस पर सही तरीके से सोचना सिखाया जाता है। धीरे-धीरे उस शख्स के दिमाग से धूल का फोबिया काफी कम या दूर हो जाता है।
डायलेक्टिकल बिहेवियरल थेरपी (DBT): इस टेक्निक में कॉग्निटिव और एक्सपोजर, दोनों तरह की थेरपी का उपयोग किया जाता है। इससे इमोशंस, डिस्ट्रेस आदि को मैनेज करने की कोशिश की जाती है। मसलन: किस तरह की बातों से ज्यादा तकलीफ होती है। फिर उन बातों को धीरे-धीरे पीड़ित शख्स से रूबरू कराया जाता है।
वर्चुअल रियलिटी की मदद से
इसमें कंप्यूटर स्टिमुलेशन की मदद से किसी एमआरआई मशीन में शख्स को लिटाकर या किसी लिफ्ट जैसी चीज में शख्स को मौजूदगी का अहसास कराया जाता है, जहां उसे कम जगह का अहसास होता है, जिससे उसे फोबिया है।
पैनिक ट्रीटमेंट घर पर देने से पहले
घर में कई बार कुछ लोग फोबिया खत्म करने के लिए उस शख्स को सीधे फोबिया वाली चीज के सामने ले आते हैं। मसलन: अगर किसी को छिपकली से समस्या है तो छिपकली को पकड़कर सामने ले आते हैं। यह तरीका कभी-कभी काम करता है या परेशान भी कर सकता है। दरअसल, यह पैनिक की स्थिति पैदा करने जैसा है। अगर शख्स को हाई बीपी हो, एलर्जी, हार्ट की परेशानी हो तो यह कई बार उलटा भी पड़ जाता है। इसलिए सीधे ऐसा करना नहीं चाहिए। ऐसा करने से पहले उस शख्स के बारे में पूरी जानकारी जरूर होनी चाहिए।
हिप्नोथेरपी
यह है सम्मोहन चिकित्सा। हमारे दिमाग में दो मन होते हैं: चेतन और अवचेतन। जब हम सोते हैं चेतन निष्क्रिय होता है और अवचेतन सक्रिय। वहीं सम्मोहन चिकित्सा में अवचेतन मन को उभारकर आगे लाया जाता है और शख्स के अवचेतन मन में कुछ बातें डाली जाती हैं, जिससे उसका डर निकल जाए।
जैसे:
-अब मैं छिपकली से नहीं डरूंगा।
-मैं हर दिन अपने काम में बेहतर होता जा रहा हूं आदि।
-मैं अब मंच पर खड़े होकर भाषण दे सकता हूं क्योंकि अब मेरी क्षमता बढ़ती जा रही है।
-इससे फोबिया और एंग्जाइटी का इलाज होता है। वैसे किसे हिप्नोथेरपी देनी है और किसे नहीं, यह फैसला सायकायट्रिस्ट या साइकॉलजिस्ट ही करते हैं।
एक्सपर्ट पैनल
-डॉ. निमेष जी. देसाई, वरिष्ठ मनोचिकत्सक, पूर्व निदेशक, IHBAS
-डॉ. के के वर्मा, सीनियर सायकायट्रिस्ट, प्रिंसिपल एंड कंट्रोलर, Govt. मेडिकल कॉलेज, सीकर
-डॉ. शशि राय, डायरेक्टर, संबल ड्रग डी-एडिक्शन सेंटर, लखनऊ
-डॉ. संदीप कुमार गोयल, कंसल्टेंट सायकायट्रिस्ट, SPS हॉस्पि. लुधियाना
-संतोष बाबू, हिप्नोसिस एक्सपर्ट
उन्माद से ऐसे पाएंगे पार
मेंटल हेल्थ सीरीज में पिछली बार हमने डिप्रेशन विषय लिया था। यह तीसरा अंक है। आज का विषय एंगजाइटी, फोबिया और ओसीडी है, जिस पर हमने पाठकों से सवाल भी मंगाए थे। कई सवाल आए, उनमें से हम कुछ खास को यहां जगह दे रहे हैं। सीरीज का चौथा अंक 4 सितंबर को आएगा। इसमें हम मैनिया यानी उन्माद (बहुत छोटी-सी बात पर भी बेतहासा हंसी) आदि को विस्तार से समझेंगे। इनसे संबंधित अगर आपके सवाल हों तो हमें हिंदी या अंग्रेजी में सोमवार तक वॉट्सऐप नंबर 89298-16941 या sundaynbt@gmail.com पर भेजें। ईमेल के सब्जेक्ट में Mental Health-4 जरूर लिखें। आप हमें यह भी बता सकते हैं कि इस सीरीज़ के तहत आप मन की किस समस्या के बारे में पढ़ना चाहते हैं। आपके सवालों और आपकी राय का हमें इंतज़ार रहेगा
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