2016 का यह आखिरी संडे है। हर साल की तरह यह साल भी हेल्थ सेक्टर के लिए काफी कुछ लेकर आया। हाल के समय में कुछ प्रमुख बीमारियों के इलाज में हमें क्या मिला खास, एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह:
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलियरी साइंसेज
डॉ. अशोक सेठ, चेयरमैन, फोर्टिस-एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट
डॉ. पी. के. जुल्का, एक्स डीन, ऑन्कॉलजी डिपार्टमेंट, एम्स
डॉ. अनूप मिश्रा, चेयरमैन, फोर्टिस सी-डॉक
डॉ. महेश वर्मा, डायरेक्टर, मौलाना आजाद डेंटल कॉलेज
डॉ. के. के. अग्रवाल, प्रेजिडेंट, इंडियन मेडिकल असोसिएशन
डॉ. संजीव गुलाटी, डायरेक्टर, फोर्टिस इंस्टिट्यूट ऑफ रेनल ट्रांसप्लांट
डॉ. प्रवीण कुमार, हेड, डेंटिस्ट्री, मैक्स हॉस्पिटल
डॉ. जे. बी. शर्मा, सीनियर कंसल्टंट, ऑन्कॉलजी, ऐक्शन कैंसर हॉस्पिटल
डॉ. बी. एस. राजपूत, स्टेम सेल एक्सपर्ट
डॉ. नरेश बंसल, कंसल्टंट गैस्ट्रोएंट्रॉलजिस्ट, सर गंगाराम हॉस्पिटल
डॉ. संजय तेवतिया, आई स्पेशलिस्ट
लिवर
स्टूल ट्रांसप्लांट
स्टूल ट्रांसप्लांट थेरपी विदेशों में कई बीमारियों के लिए की जाती है। हमारे यहां साल 2016 में पता लगा कि शराब की वजह से बेकार हुए लिवर में भी स्टूल थेरपी कारगर है। दरअसल, हमारे स्टूल (पॉटी) में लाखों गुड और बैड बैक्टीरिया होते हैं। हेल्दी डोनर (मरीज का परिजन, जो बिल्कुल फिट हो) से स्टूल लेकर मरीज के अंदर ट्रांसप्लांट करने पर उसके गुड बैक्टीरिया को लिवर की क्षमता बढ़ाने वाला पाया गया। यह थेरपी उन मरीजों के लिए ज्यादा कारगर है जो लिवर ट्रांसप्लांट का इंतजार कर रहे होते हैं। इस थेरपी का क्लीनिकल ट्रायल कामयाब रहा है।
नई दवाएं
1. अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने नॉन-ऐल्कॉहलिक स्टिएटोहेपटाइटिस (नैश) के मरीजों के लिए ओबेटिकॉहलिक एसिट (OCA) नामक दवा को मंजूरी दी है। नैश होने पर लिवर पर ज्यादा फैट और सूजन हो जाती है। इस दवा के नए साल में इंडिया में आने की उम्मीद है।
2. हेपटाइटिस सी के मरीजों के लिए एफडीए ने एपक्लूसा (Epclusa) नामक दवा को मंजूरी दी है। यह सोफोस्बुविर (Sofosbuvir 400 एमजी) और वेलपेटास्विर (Velpatasvir 100 एमजी) को मिलाकर तैयार की गई है और हेपटाइटिस के सभी 6 तरह के जिनोटाइप के लिए खिलाफ काम करेगी। पहले अलग-अलग जिनोटाइप के लिए दवा अलग होती थी। इसके भी अगले साल तक इंडिया आने की उम्मीद है।
3. एफडीए ने एलबास्विर (Elbasvir) और ग्रैज़ोप्रविर (Grazoprevir) को मिलाकर तैयार दवा को भी अप्रूव किया है। यह हेपटाइटिस-सी के जिनोटाइप 1 और 4 वायरस का इलाज करने में पहले की दवाओं से ज्यादा असरदार है। इससे पहले सोफोब्रुविन (Sofobruvin) और रिबाविरिन (Ribavirin) को मिलाकर हेपटाइटिस सी का असरदार इलाज सामने आया, जिसकी तीन महीने की डोज की कीमत कुल 30 से 60 हजार रुपये पड़ती है। हेपटाइटिस के इलाज की पहले कीमत 3 लाख रुपये से भी ज्यादा होती थी।
4. हेपटाइटिस बी के लिए मरीजों के लिए उपयोगी दवा टैफ (Taf) अगले साल इंडिया आ जाएगी। यह किडनी और हड्डियों के लिए काफी सेफ है।
5. लिवर ट्रांसप्लांट के मरीजों के लिए भी अच्छी खबर है। ऐसे मरीजों के लिए बोन मैरो (स्टेम सेल थेरपी) के जरिए लिवर के सेल्स को रीजेनरेट यानी फिर से तैयार किया जा रहा है। अकेले इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ बिलियरी साइंसेस, दिल्ली में करीब 400 मरीजों का इलाज इस तकनीक से किया जा चुका है।
किडनी
नया टेस्ट eGFR:
किडनी के कुल मरीजों में 15-20 फीसदी क्रॉनिक किडनी डिजीज़ यानी लंबे समय से चल रही बीमारी से पीड़ित होते हैं। अगर इसका डाइग्नोसिस पहले हो सके तो बेहद फायदा होगा। इसी दिशा में ईजीएफआर (eGFR) टेस्ट को बड़ी कामयाबी माना जा सकता है। यह ब्लड टेस्ट होता है और इससे किडनी फंक्शन का पता लगता है। पहले यूरिया और क्रेटनिन की जांच से किडनी की बीमारी का पता लगता था, तब तक किडनी करीब 50 फीसदी खराब हो चुकी होती थी। eGFR टेस्ट में शुरुआती दौर में भी किडनी की बीमारी का पता लगाया जा सकता है। यह 100-150 रुपये का होता है। ऐसे में इसका सालाना चेकअप तो होना ही चाहिए।
नई दवा
- किडनी की बीमारियों के इलाज में भी बड़ी पहल हुई है। साबित हुआ कि सोडियम-बाइ-कार्बोनेट (खाने वाला सोडा) रोजाना करीब चुटकी भर लिया जाए तो वह किडनी के एसिडिक नेचर को अल्कलाइन करने में मदद करता है। इसके टैब्लेट-कैप्सूल भी मार्केट में मिलते हैं। लेकिन पाउडर, टैब्लेट या कैप्सूल, किसी का ही इस्तेमाल डॉक्टर से बिना पूछे न करें। वैसे, यह भी साबित हुआ है कि यूरिक एसिड को कंट्रोल में रखने से भी किडनी की उम्र बढ़ती है।
- टैक्रोलाइमस (Tacrolimus) और रिटुक्सिमैब (Rituximab) जैसे इंजेक्शन के जरिए किडनी के अंदर की सूजन को पूरी तरह खत्म करना मुमकिन हुआ है। टैक्रोलाइमस इंजेक्शन किडनी ट्रांसप्लांट होने पर किडनी को शरीर द्वारा स्वीकार करने में भी मदद करता है। जब शरीर में कोई ऑर्गन ट्रांसप्लांट किया जाता है तो हमारा इम्यून सिस्टम उसे बाहरी मानकर रिजेक्ट कर देता है। ऐसे में इम्यून सिस्टम को कमजोर करने के लिए इस इंजेक्शन का इस्तेमाल किया जाता है ताकि ट्रांसप्लांट सफल रहे। इसके रिजल्ट पहले इस्तेमाल होने वाले इंजेक्शनों के मुकाबले बेहतर हैं।
नया डिवाइस
2016 में पहने जा सकने वाले यानी वियरेबल किडनी डिवाइस (WKD) को भी अप्रूवल मिला। इनके जल्द ही मार्केट में आने की उम्मीद है। डायलिसिस के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले इस डिवाइस को आराम से पॉकेट में रखा जा सकेगा। घर पर की जाने वाली डायलिसिस के लिए अब बेहतर वॉटर सलूशन भी आ गए हैं। इनका रिजल्ट बेहतर है।
ट्रांसप्लांट में सहूलियत
पहले मरीज के ब्लड ग्रुप वाले डोनर से ही किडनी लेकर ट्रांसप्लांट मुमकिन था। लेकिन अब कुछ खास दवाओं की बदौलत दूसरे ब्लड ग्रुप के डोनर की किडनी भी लगाना मुमकिन है। इसे ABO इनकॉम्पेटेबल ट्रांसप्लांट कहा जाता है। इसके अलावा स्टेरॉयड फ्री ट्रांसप्लांट भी अब होने लगे हैं। यही नहीं, एचआईवी पीड़ित जिन मरीजों की किडनी फेल हो जाती है, अब उनकी किडनी ट्रांसप्लांट भी स्पेशल दवाएं देकर की जा सकती है।
डायबीटीज
- 2016 में डायबीटीज के इलाज में बड़ी कामयाबी रही आर्टिफिशल पैन्क्रियाज़ को अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) की मंजूरी मिलना। यह सुपर इंटेलिजेंट पंप होगा। इस पर पिछले 40 साल से काम चल रहा था। टाइप-1 डायबीटीज के जिन मरीजों के पैंक्रियाज़ इंसुलिन नहीं बना पाते, उनके लिए यह बहुत कारगर साबित होगा। यह डिवाइस शरीर में ग्लूकोज़ लेवल को सेंस कर इंसुलिन को उसके मुताबिक एडजस्ट कर लेगी। इसके 2017 के आखिर तक इंडिया में आने की उम्मीद है।
- 2016 की बड़ी कामयाबी रहे छोटे इंसुलिन पोर्ट। इस पोर्ट को स्किन पर लगाया जाता है। जो मरीज इंसुलिन लेते हैं, उनके लिए यह काफी फायदेमंद है। इंसुलिन लेनेवाले मरीज इसकी वजह से बार-बार इंजेक्शन लेने से बच जाते हैं। यह पोर्ट 3-4 दिन काम करता है। एक बार पोर्ट लगाने पर इसी के जरिए दवा मरीज के शरीर में पहुंचती रहती है। एक पोर्ट की कीमत करीब 700 रुपये है।
- स्मार्ट इंसुलिन पंप भी हाल ही में आए हैं। दरअसल, पहले पंप को प्रोग्राम करना पड़ता था। अब स्मार्ट या इंटेलिजेंट पंप शरीर में ग्लूकोज़ को सेंस कर इंसुलिन को उसके अनुसार अडजस्ट कर लेते हैं। इसके अलावा अलार्म वाले पंप भी आने लगे हैं। शुगर बहुत ज्यादा या बहुत कम होने पर ये अलार्म बज उठते हैं। प्रेग्नेंट लेडीज और बच्चों के लिए ये पंप काफी अच्छे होते हैं। लेटेस्ट तकनीक वाले ये इंसुलिन पंप 2.5 से 5 लाख रुपये में उपलब्ध हैं।
- दवाएं भी हाल के बरसों में बेहतर हुई हैं। नई दवाओं को SGLT 2 ड्रग्स कहा जाता है। इनमें Canagliflozin, Dapagliflozin और Empagliflozin दवाएं शामिल हैं। ये दवाएं शुगर के मरीजों में हार्ट अटैक के खतरे को 30 फीसदी तक कम करती हैं। वजन भी कम करती हैं और शुगर को कंट्रोल में रखती हैं।
- अब GLP-1 Analog इंजेक्शन आ गए हैं। पहले Liraglutide इंजेक्शन आता था, जिसे रोजाना लगाना पड़ता था। Dulaglutide को हफ्ते में एक दिन लगाना होता है। यह वजन कम करने में मदद करता है और हार्ट अटैक की आशंका भी काफी कम करता है।
- CGMS पैच यानी Continuous Glucose Monitoring System में एक सेंसर लगा होता है, जो दिन-रात शुगर मॉनिटर करता है। इससे डॉक्टर बेहतर डाइट और एक्सरसाइज आदि की सलाह दे पाते हैं। इस पैच को 7 या 15 दिन में बदलना पड़ता है।
कैंसर
इलाज
1. इम्युनोथेरपी: कैंसर के इलाज में हालिया वक्त की बड़ी कामयाबियों में से एक है इम्युनोथेरपी। जब शरीर को अपने अंदर किसी नुकसानदेह चीज का अहसास होता है तो वह एंटी-बॉडीज़ बनाता है। ये इन्फेक्शन से लड़ती हैं। इस थेरपी में इंजेक्शन लगाकर एंटी-बॉडीज़ को बढ़ाया जाता है। ये बढ़ते कैंसर सेल्स को मारती हैं। शुरुआती स्टेज के कैंसर में यह थेरपी खासतौर पर फायदेमंद है क्योंकि यह कैंसर को बढ़ने से रोकती है। इम्युनोथरपी में जब कीमोथेरपी को जोड़कर इलाज करते हैं तो रिजल्ट बेहतर आता है। हालांकि यह बहुत ही महंगी थेरपी है। इसके एक साइकल की कीमत करीब 3 लाख रुपये होती है और मरीज को 25-26 साइकल इलाज कराना होता है।
2. पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट: कैंसर के इलाज में एक और बड़ी कामयाबी मिली है पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट के रूप में। पहले एक तरह के कैंसर के सभी मरीजों के लिए अमूमन एक ही इलाज होता था, लेकिन अब मरीज के जीन्स की मैपिंग की जाती है और उसके अनुसार पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट तैयार किया जाता है। इसकी कीमत 30-60 हजार रुपये महीने पड़ती है।
3. जीन्स प्रोफाइलिंग: आजकल कैंसर की कैटिगरी और नुकसान आदि का अनुमान लगाने के लिए जीन्स एक्सप्रेशन प्रोफाइल करते हैं। इसके जरिए खराब जींस को पहचान की जाती है और देखा जाता है कि किस जीन्स पर कौन-सी दवा काम करती है। उसी के मुताबिक दवा दी जाती है। इसे एक बार कराना होता है और करीब 50-60 हजार रुपये खर्च करने होते हैं।
4. कंजुकेटिड थेरपी: कैंसर में आजकल कंजुकेटिड थेरपी का सहारा लिया जा रहा है। इसमें टारगेटिड ट्रीटमेंट और कीमोथेरपी, दोनों एक साथ किए जाते हैं। इस वजह से कीमो का मॉलिक्यूल ट्यूमर सेल के पास जाकर उस पर अटैक करता है और नॉर्मल कीमो की तरह सभी सेल्स को नुकसान नहीं करता। यह ज्यादा ब्रेस्ट कैंसर में यूज होती है और एक साइकल की कीमत करीब दो-ढाई लाख रुपये पड़ती है। मोटेतौर पर 6 साइकल इलाज की जरूरत तो पड़ती ही है।
जांच
1. टोमोसिंथेसिस: कैंसर के डायग्नोसिस के लिए पहले नैनोग्राफी की जाती थी, लेकिन अब टोमोसिंथेसिस (Tomosynthesis) की जाती है। इसमें थ्री-डी पिक्चर आती है और कैंसर के बारे में बेहतर अनुमान लगाया जा सकता है। इसकी कीमत करीब 10-12 हजार रुपये होती है।
2. लिक्विड बायोप्सी: अब ब्लड टेस्ट से भी कैंसर और उसके असर आदि का पता लगाया जा सकता है। इसकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपये होती है।
हार्ट
रिसर्च
2016 में दिल को लेकर सबसे बड़ी बात यह साबित हुई कि दिल के लिए अच्छा तेल उतना खतरनाक नहीं है, जितनी कि सफेद चीजें जैसे कि चीनी, चावल और मैदा। नई रिसर्च में पता लगा कि बार-बार एक ही तेल को तलने के लिए इस्तेमाल करने पर पैदा होनेवाले ट्रांस फैट्स और सैचुरेटिड फैट्स जैसे कि डालडा, नारियल तेल आदि को छोड़कर बाकी तेल दिल के लिए खतरनाक नहीं हैं। लेकिन रिफाइन कॉर्बोहाइड्रेट (मैदा, चावल आदि) और चीनी दिल के दुश्मन हैं। हालांकि हार्ट के पेशंट्स को तेल लिमिट में ही खाने चाहिए क्योंकि इससे वजन बढ़ने के चांस बढ़ जाते हैं। इसके अलावा, दिल के मरीजों को यह भी ध्यान रखना होगा कि उनके लिए बेशक फूड कॉलेस्ट्रॉल ज्यादा अहम नहीं हैं लेकिन ब्लड कॉलेस्ट्रॉल को कम रखना उतना ही जरूरी है। ब्लड टेस्ट के जरिए इस पर निगाह रखनी चाहिए।
सर्जरी और डिवाइस
- लीडलेस पेसमेकर: यह दिल की बीमारियों के इलाज में हाल की सबसे बड़ी खोजों में से है। इसमें वायर की जरूरत नहीं होती और यह सीधे हार्ट के अंदर चला जाता है। इसमें किसी बड़े कट की जरूरत नहीं होती। यह पेसमेकर हालांकि जेनरेटर की तरह नहीं इनवर्टर की तरह काम करता है यानी जिनका हार्ट ठीक काम कर रहा है लेकिन कभी-कभार दिक्कत करता है, उनके लिए यह ज्यादा असरदार है। इसकी कीमत करीब 5-10 लाख रुपये के बीच पड़ती है।
- एऑरटिक वॉल्व (Aortic Valve): इसे अब बिना ऑपरेशन बदला जा सकता है। पहले इसके लिए सर्जरी करनी होती थी। 2016 में सरकार ने इसे लगाने की परमिशन भी दे दी, जबकि पहले इसके लिए ड्रग कंट्रोलर से परमिशन लेकर इसे इम्पोर्ट करना पड़ता था। इसकी कीमत करीब 17-19 लाख रुपये पड़ती थी। अब इसे इंडिया में ही तैयार करने पर काम हो रहा है। ऐसे में आनेवाले वक्त में कीमत काफी कम हो सकती है।
- मिट्राक्लिप वॉल्व थेरपी (Mitraclip Valve Therapy): इस थेरपी से लीक कर रहे वॉल्व और एनलाज्ड हार्ट के मरीजों का इलाज किया जा सकता है। इसमें बिना सर्जरी के एन्जियोप्लास्टी से एक क्लिप लगाकर लीक कर रहे वॉल्व को ठीक किया जा सकेगा। इसके अगले साल तक इंडिया में आने की संभावना है।
- स्किन सेंसर्स (Skin Sensors): ऐसे सेंसर्स तैयार किए जा रहे हैं, जो स्किन के अंदर फिट करने होंगे और फिर ये आपके स्मार्ट फोन पर हार्ट रेट, शुगर, ब्लड प्रेशर आदि की लगातार रीडिंग देते रहेंगे। इनके 1-2 साल में मार्केट में आने की उम्मीद है।
दवा
- वलसार्टन (Valsartan) और सैक्युबिट्रिल (Sacubitril) को मिलाकर देने पर हार्ट फेल्योर में बेहद असरदार असर आता है। ये दोनों जेनरिक नाम हैं। इन दोनों दवाओं को देने से मरीज के बचने के चांस कुछ बढ़ जाते हैं।
- हार्ट के लिए नैनो ड्रग्स पर भी काम हो रहा है। ये पेट में जाकर ब्लड में घुलकर असर करने के बजाय सीधे हार्ट में जाकर काम करेंगी। इसी तरह जीनोम मैपिंग के जरिए कैंसर की तरह हार्ट के लिए भी पर्सनाइज्ड दवाओं पर काम हो रहा है यानी हर मरीज के लिए अलग दवा। यहां तक कि जीनोम के आधार पर आनेवाले वक्त में किसी को क्या बीमारी हो सकती है, उसके अनुसार भी इलाज तैयार किया जा सकेगा। इन्हें आने में अभी वक्त है।
स्टेम सेल
- स्टेम सेल थेरपी के मामले में 2016 में कुछ बड़ी उपलब्धियां रहीं। इनमें खास है टी सेल रेग्युलेटरी थेरपी। ऑटो इम्युनिटी डिजीज़ जैसे कि ऑर्थराइटिस, मल्टिपल इसक्लोरोसिस (MS) में इसके असरदार नतीजे सामने आए हैं। एमएस दिमाग और रीढ़ की हड्डी पर असर करती है। इसमें कमजोरी, सुन्नपन, धुंधला दिखना, मसल्स में अकड़न, सोचने में कमी जैसी समस्याएं सामने आती हैं। स्टेम सेल थेरपी इसमें कारगर साबित हुई है।
- ऐक्टिवेटिड टी सेल थेरपी में ब्लड सैंपल लेकर उससे कैंसर एंटीजन तैयार किए जाते हैं। ये कैंसर सेल्स को पहचानकर उन पर अटैक करते हैं। जब कैंसर सेल्स पूरे शरीर में फैल गए हों या फिर कीमोथेरपी असर न कर रही हो तो यह थेरपी काम कर सकती है। इसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है। यह प्रोस्टेट और ब्रेस्ट कैंसर में खासतौर पर इस्तेमाल होती है।
- बच्चों को होने वाली जानलेवा बीमारी मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (DMD) का अब तक कोई इलाज नहीं है। इसमें उम्र बढ़ने के साथ-साथ बच्चे की मसल्स वीक होने लगती हैं और 20 साल से पहले ही उनकी जान चली जाती है। स्टेम सेल थेरपी के जरिए इस बीमारी के इलाज में पॉजिटिव नतीजे सामने आए हैं।
दांत
CAD/CAM तकनीक: दांतों के इलाज के लिए अब CAD/CAM यानी कंप्यूटर ऐडिड डिजाइन, कंप्यूटर ऐडिड ज मिलिंग की जाती है। पहले क्राउन , ब्रिज आदि का काम हाथों से किया जाता है, जो अब पूरी तरह से कंप्यूटर के जरिए स्कैन द्वारा किया जाता है।
डिजिटलाइजेशन: अब ऐसे स्कैनर आ गए हैं, जिनकी मदद से मुंह के अंदर स्कैन करके डॉक्टर आसानी से क्राउन आदि बना देते हैं। इसी तरह लेटेस्ट सीटी स्कैन के जरिए दांतों और जबड़ों की बीमारियों का पता जल्दी लग जाता है। यही नहीं, डिजिटल डेंटल इम्प्रेशन मशीन की मदद से सेंसर के जरिए ही दांत का इम्प्रेशन ले लिया जाता है। पहले मटीरियल मुंह में डालकर दांत का नाप लिया जाता था। नई तकनीक को इंट्रा ओरल स्कैनर कहा जाता है।
थ्री-डी प्रिंटिंग: रैपिड प्रोटोटाइपिंग यानी थ्री-डी प्रिंटिंग ने भी हाल के बरसों में दांतों के इलाज में बड़ी भूमिका निभाना शुरू दिया है। आजकल थ्री-डी एक्स-रे से क्राउन के मॉडल तक बना लिए जाते हैं।
मर्करी को ना: न सिर्फ देश, दुनिया भर की डेंटिस्ट्री इंडस्ट्री ने 2019 तक मर्करी के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म करने का प्रण किया है। मर्करी जहरीला होता है। इसकी जगह आजकल जर्कोनिया का इस्तेमाल किया जाता है। यह दांत के रंग का होता है और बेहद मजबूत होता है।
कुछ और तकनीक: सर्जरी में भी लेजर के साथ-साथ कई तरह की नई तकनीक आ गई हैं। अगर मसूढ़े की हड्डी बहुत पतली होती है या लंबाई कम होती है तो साइनस लिफ्ट या स्प्लिट रिज तकनीक से सर्जरी करके हड्डी की मोटाई बढ़ाकर इम्प्लांट लगाया जाता है। इन सर्जरी की कीमत करीब 25-30 हजार रुपये पड़ती है। इसी तरह अब एक ही दिन बल्कि जिस दिन दांत निकलता है, उसी दिन नया दांत लगाया जा सकता है। पहले इसके लिए कई महीने इंतजार करना पड़ता था।
आंख
- मोतियाबिंद (कैटरेक्ट) के लिए फेम्टोसेकंड लेजर ऐसेस्टिड कैटरेक्ट सर्जरी शुरू हो गई है। इसमें पूरा ऑपरेशन लेजर से कंप्यूटर की देखरेख में होता है और ब्लेड की जरूरत नहीं होती। इससे कॉर्निया की सतह और सिलेंड्रिकल पावर के दोष को ठीक किया जा सकता है। ऑपरेशन 5 मिनट में पूरा हो जाता है और अगले दिन काम पर जाया जा सकता है।
- चश्मा हटाने के लिए कस्टमाइज्ड लेसिक और एपिलेसिक से लेसिक लेजर सर्जरी की जा रही है। लेसिक लेजर सर्जरी से माइनस 10 से माइनस 12 डायऑप्टर तक का मायोपिया और 5 डायऑप्टर तक के एस्टिग्मेटिजम का भी इलाज किया जाता है।
- जिन लोगों में कॉर्निया की मोटाई 450 मिमी से कम होती है, उनका चश्मा लेसिक लेजर की मदद से नहीं उतर पाता। उनके लिए आजकल अत्याधुनिक तकनीक इन्ट्राऑक्युलर कॉन्टैक्स लेंस (आईसीएल) से नजर का चश्मा हटाया जाता है। आईसीएल तकनीक में आंख में पाए जाने वाले प्राकृतिक लेंस के ऊपर एक पतला-सा आर्टिफिशल लेंस लगा दिया जाता है। इस लेंस से आंख के लेंस की पावर कम या ज्यादा दृष्टिदोष के हिसाब से कर दी जाती है। चश्मे का नंबर एक से आठ डायऑप्टर है तो लेसिक लेजर, 10 से ज्यादा है तो आईसीएल और 20 से 30 डायऑप्टर के बीच है तो लेसिक लेजर और आईसीएल, दोनों की जरूरत होती है। आठ से 10 के बीच डायऑप्टर के लिए कौन-सी तकनीक इस्तेमाल होगी, यह जांच से पता लगाया जाता है।
- नई तकनीक के अनुसार माइनस 16 से माइनस 18 डायऑप्टर के मायोपिया में आंख के कुदरती लेंस को निकाल दिया जाता है। इससे मायोपिया ठीक हो जाता है। कई बार प्राकृतिक लेंस को निकालकर आंख के नंबर की जांच कर आर्टिफिशल लेंस (इन्ट्राऑक्युलर लेंस) डाल दिया जाता है।
- प्रेस्बायोपिया (नजदीक का देखने में दिक्कत) के लिए आजकल मोनोविजन लेसिक लेजर करते हैं जिसमें एक आंख को दूर का देखने के लिए और दूसरी आंख को थोड़ा पास का देखने के लिए लेसिक लेजर करते हैं।
नोट: यहां सभी दवाओं के नाम जेनरिक हैं। बाजार में ये दवाएं अलग-अलग ब्रैंड नेम से मिलती हैं। डॉक्टर की सलाह के बगैर कोई दवा न लें।
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